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राजा और प्रजा/७ इम्पीरियलिज्म

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राजा और प्रजा
रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक रामचंद्र वर्मा

बंबई: हिंदी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, पृष्ठ ११३ से – ११९ तक

 



इम्पीरियलिज्म।

(साम्राज्यवाद।)

विलायतमें आजकल लोगोंको इम्पीरियलिज्म या साम्राज्यवादका एक नशासा हो गया है । उस देशमें आजकल बहुतसे लोगोंको यही धुन सवार है कि इंग्लैण्डके समस्त अधीन देशों और उपनिवेशों आदिको मिलाकर एक कर दिया जाय और अंगरेजी साम्राज्यको एक बड़ा उपसर्ग बना डाला जाय । विश्वामित्रने एक नए जगतकी सृष्टि करने का उद्योग किया था। बाइबिलमें एक राजाका वर्णन है जिसने स्वर्गकी प्रतिस्पर्धा करके एक बहुत ऊँचा स्तम्भ खड़ा करनेकी चेष्टा की थी। स्वयं रावणके सम्बन्धमें भी इसी प्रकारकी एक जनश्रुति प्रचलित है।

इस प्रकारके बहुत बड़े बड़े काम करनेके विचार इस संसारमें समय समयपर बहुतसे लोगोंक मनमें आए हैं। ऐसे ऐसे काम कभी पूरे नहीं उतरते । पर हाँ, वे नष्ट होनेसे पहले संसारमें कुछ न कुछ अमंगल या अनर्थ अवश्य कर जाते हैं।

इस विचारने लार्ड कर्जनके मनमें भी जो उथलपुथल मचाई है उसका आभास उनकी हालकी एक वकृतासे मिलता है। हम देखते हैं कि हमारे देशके कुछ समाचारपत्र कभी कभी इस विषयमें थोड़ा बहुत उत्साह प्रकट किया करते हैं। वे कहा करते हैं कि बात है; भारतवर्षको ब्रिटिश साम्राज्यमें एकात्म होनेका अधिकार दीजिए।

केवल बातोंके भरोसे ही तो कोई अधिकार मिल नहीं जातायहाँ तक कि यदि कागजपर पक्की लिखा पढ़ी हो जाय तो भी दुर्बल मनुष्यों को अपने स्वत्वोंका उद्धार करना बहुत कठिन होता है। इसीलिये जब हम देखते हैं कि जो लोग हमारे अधिकारी या शासक हैं वे जब इम्पीरियल-वायुसे ग्रस्त हैं तब हम नहीं समझते कि इससे हमारा कल्याण होगा।

पाठक कह सकते हैं कि तुम व्यर्थ इतना भय क्यों करते हो। जिसके हाथमें शक्ति है वह चाहे इम्पीरियलिज्मका आन्दोलन करे और चाहे न करे, पर यदि वह तुम्हारा अनिष्ट करना चाहे तो सहजमें ही कर सकता है।

लेकिन हम कहते हैं कि वह सहजमें हमारा अनिष्ट नहीं कर सकता। हजार हो, पर फिर भी दया और धर्मको एकदमसे छोड़ देना बहुत कठिन है। लज्जा भी कोई चीज हैं। लेकिन जब कोई व्यक्ति किसी बड़े सिद्धान्तकी आड़ पा जाता है तब उसके लिये निष्ठुरता और अन्याय करना सहज हो जाता है।

बहुतसे लोगोंको योंही किसी जन्तुको कष्ट पहुँचाने में बहुत दुःख होता है। लेकिन जब उसी कष्ट देनेका नाम 'शिकार' रख दिया जाता है तब वे ही लोग बड़े आनन्दसे वेचारे हत और आहत पक्षियोंकी सूची बढ़ानेमें अपना गौरव समझते हैं। यदि कोई मनुष्य बिना कारण या उपलक्ष्यके किसी पक्षीके डैने तोड़ दे तो अवश्य ही वह शिकारीसे बढ़कर निष्ठुर माना जायगा; लेकिन उसके निष्ठुर माने जानेसे पक्षीको किसी प्रकारका विशेष सन्तोष नहीं हो सकता । बल्कि असहाय पक्षियोंके लिये स्वभावतः निष्ठुर व्यक्तिकी अपेक्षा शिकारियोंका दल बहुत अधिक कष्टदायक है।

जो लोग इम्पीरियलिज्मके ध्यानमें मस्त हैं इसमें सन्देह नहीं कि वे लोग किसी दुर्बल के स्वतंत्र अस्तित्व और अधिकारके सम्बन्धमें बिना कातर हुए निर्मोही हो सकते हैं। संसारमें सभी ओर इस बातके दृष्टान्त देखनेमें आते हैं।

यह बात सभी लोग जानते हैं कि फिनलैण्ड और पोलैण्डको अपने विशाल कलेवरमें बिलकुल अज्ञात रीतिसे अपने आपमें पूरी तरहसे मिलानेक लिये रूस कहाँतक जोर लगा रहा है।*[] यदि रूस अपने मनमें यह बात न समझता कि इम्पीरियलिज्म नामक एक बहुत बड़े स्वार्थके लिये अपने अधीनस्थ देशोंकी स्वाभाविक विषमताएँ बलपूर्वक दूर कर देना ही आवश्यक है तो उसके दिये इतना अधिक जोर लगाना कदापि सम्भव न होता। रूस अपने इसी स्वार्थको पोलैण्ड और फिनलैण्डका भी स्वार्थ समझता है।

लार्ड कर्जन भी इसी प्रकार कह रहे हैं कि अपनी जातीयताकी बात भुलाकर साम्राज्यके स्वार्थको ही अपना स्वार्थ बना डालो।

यदि यह बात किसी शक्तिमानसे कही जाय तो उसके लिय इससे डरने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि वह केवल बातोंसे नहीं भूलेगा। उसके लिये इस बातकी आवश्यकता है कि वास्तवमें उस बातसे उसका स्वार्थ अच्छी तरह सिद्ध हो। अर्थात् यदि ऐसे अवसरपर कोई उसे बलपूर्वक अपने दलमें मिलाना चाहेगा तो जबतक वह अपने स्वार्थको भी यथेष्ट परिमाणमें विसर्जित न करेगा तबतक उसे अपने अनुकूल न कर सकेगा। अतएव उस स्थानपर बिना बहुत कुछ शहद गिराए (लालच दिए) और तेल खर्च किए काम नहीं चलता।

इंग्लैण्डके उपनिवेश आदि इस बातके दृष्टान्त हैं। अँगरेज बराबर उनके कानमें यही मंत्र फूंकते आ रहे हैं-"यदेतत् हृदयं मम तदस्तु हृदयं तव।" लेकिन वे केवल मंत्रमें भूलनेवाले नहीं हैं-वे अपने सौदेके रुपए गिन लेने हैं।

लेकिन हमारे लिये सौदेके रुपयोंकी बात तो दूर रही, दुर्भाग्यवश मंत्री भी आवश्यकता नहीं होती।

जब हम लोगोंका समय आता है तब इसी बातका विचार होता है कि विदेशियोंके साथ भेदबुद्धि रग्वना जातीयताके लिये तो आवश्यक है परन्तु वह इम्पीरियलिन्मके लिये प्रतिकूल है, इसलिये उस भेदबुद्धिके जो कारण हैं उन सबको दूर कर देना है। कर्त्तव्य है।

लेकिन जब ये कारण दूर किए जायेंगे तब उस एकताको भी किसी प्रकार जमने या बढ़ने न देना ही ठीक होगा जो इस समय देशके भिन्न भिन्न भागोंमें होने लगी है। वे बिलकुल खण्ड खण्ड और चूर्ण अवस्थामें ही रहें, तभी उन्हें हजम करना सहज होगा।

भारतवर्ष सरीम्बे इतने बड़े देशको मिलाकर एक कर देने में बड़ा भारी गौरव है। प्रयत्न करके इसे विच्छिन्न और अलग अलग रखना अँगग्ज सरीखी अभिमानी जातिके लिये लजाकी बात है।

लेकिन इम्पीरियलिज्मके मंत्रसे यह लज्जा दूर हो जाती है। ऐसी दशामें जब कि साम्राज्यमें मिलकर एक हो जाना ही भारतवर्पके लिये परमार्थ-लाभ है तब उस महान् उद्देश्यसे इस देशको चक्कीमें पीस कर विश्लिष्ट या खण्ड खण्ड कर डालना ही 'ह्यूमैनिटी' (humanity=मनुष्यत्व) है। भारतवर्षके किसी स्थानमें उसकी स्वाधीन शक्तिको संचित न होने देना अँगरेजोंकी सभ्य नीतिके अनुसार अवश्य ही लज्जास्पद है। लेकिन यदि इम्पीरियलिज्मका मंत्र पढ़ दिया जाय तो जो बात मनुप्यत्वके लिये परम लज्जाकी है वही राजनीतिकताके लिये परम गौरबकी हो जाती है।

अपने निश्चित एकाधिपत्य के लिये एक बड़े देशके असंख्य लोगोंको निरस्त्र करके उन्हें सदाके लिये पृथ्वीके जनसमाजमें पूर्णरूपसे निःस्वत्व और निरुपाय कर देना कितना बड़ा अधर्म-कितनी अधिक निष्ठुरता है। इसकी व्याख्या करनेकी आवश्यकता नहीं है। लेकिन इस अधर्मकी ग्लानिसे अपने मनको बचानेके लिये किसी बड़े सिद्धान्तकी आड़ लेनी पड़ती है।

सेसिल रोड्स नामक एक साहब इम्पीरियल-वायुसे ग्रस्त थे। यह बात सभी लोग जानते हैं कि इसीलिये दक्षिण आफ्रिकाके बोअरोंकी स्वतंत्रता लुप्त करनेके वास्ते उनके दलके लोगोंने किस प्रकारका आग्रह किया था।

व्यक्तिगत व्यवहारमें जिन कामोंको लोग चोरी और मिध्या आचार कहते हैं, जो बातें जाल, खून और डकैती कहलाती हैं, यदि उन कार्यों और बातोंका किसी 'इज्म'-प्रत्यययुक्त शब्दसे संशोधन कर दिया जाय तो वे कहाँतक गौरवका विषय हो जाती हैं, इसके सैकड़ों प्रमाण विलायती इतिहासके मान्य व्यक्तियोंके चरित्रोंमें मिलते हैं।

इसीलिये जब हम अपने शासकोंके मुँहसे इम्पीरियलिज्मका आभास पाते हैं तब स्थिर नहीं रह सकते। यदि इतने बड़े रथके पहिएके नीचे हम लोगोंका मर्मस्थान पिस जाय और इसपर हम धर्मकी मी दुहाई देने लगे तो उसे कोई न सुनेगा। क्योंकि मनुष्य केवल इसी भयसे अपने बड़े बड़े कार्य्यों में धर्म्मका अधिकार नहीं होने देना चाहते कि जिसमें पीछेसे कार्य नष्ट न हो जाय।

प्राचीन यूनानमें जब प्रबल एथीनियन लोगोंने दुर्बल मेलियन लोगोंका द्वीप अन्याय और निष्ठुरतासे ले लेनेकी तरकीब की थी, तब दोनों देशोंमें जिस प्रकारका वादानुवाद हुआ था उसका कुछ नमूना थुकिदिदीज नामक ग्रीक इतिहासवेत्ताने दिया है। नीचे उसका कुछ अंश उद्धृत किया जाता है। इसे पढ़कर पाठक समझ सकेंगे कि इम्पीरियलिज्मका सिद्धान्त युरोपमें कितना पुराना है और जिस पालिटिक्स (Potitics-राजनीति) की भित्तिपर युरोपीय सभ्यताकी इमारत बनी है उसके अन्दर केसी दारण करना छिपी हुई है।

Athenians. But you and we should say what we really think, and aim only at what is possible, for we both alike know that into the discussion of human affairs the question of justice only enters where the pressure of necessity is equal, and that the powerful exact what they can, and the weak grant what they must x x x And we will now endeavour to show that we have come in the interests of our empire, and that in what we are about to say we are only seeking the preservation of your city. For we want to make you ours with the least trouble to ourscives and it is for the interest of us hoth that you should not be destroyed. (एथी॰-लेकिन आपको और हमें वही बातें कहनी चाहिए जो वास्तवमें हम अपने मनमें सोचते हों और ऐसी ही बातपर हम लोगोंको लक्ष्य रखना चाहिए जो सम्भव हो। क्योंकि हम दोनों ही समान रूपसे समझते हैं कि मानवी विषयोंके वादानुवादमें न्यायका प्रश्न वहीं आता है जहाँ कि आवश्यकताका ओर बराबर होता है। और हम लोग यह भी जानते हैं कि शक्तिशाली मनुष्य जो कुछ वसूल कर सकता है वह वसूल कर लेता है और दुर्बलको जो कुछ देना चाहिए वहीं वह दे देता है। x x x x x और अब हम लोग यह सिद्ध करनेका प्रयत्न करेंगे कि हम लोग अपने साम्राज्यके हितोंकी रक्षा करनेके लिये आए हैं और जो कुछ अभी कहना चाहते हैं उसमें हमारा उद्देश्य केवल यही है कि आपके नगरकी रक्षा हो। क्योंकि हम लोग अपने आपको यथासंभव बहुत ही कम कष्ट पहुँचाए हुए, आप लोगोंको अपना बनाना चाहते हैं और इसमें आपका और हमारा दोनोंका हित है कि आपका नाश न हो।)

Mel. It may be your interest to be our masters, but how can it be ours to be your slaves?

(मेल॰―यदि आप हमारे स्वामी बन जायँ तो इसमें आपका तो हित हो सकता है, परन्तु यदि हम आपके गुलाम बन जायँ तो इसमें हमारा हित कैसे हो सकता है?)

Ath. To you the gain will be that by submission you will avert the worst; and we shall be all the richer for your preservation.

(एथी॰―यदि आप हमारी बात मानकर आत्मसमर्पण कर देंगे तो इससे आपका तो यह लाभ होगा कि आप बहुत सी दुर्दशाओं में बच जायँगे और हमारा यह लाभ होगा कि आपकी रक्षा करनेके लिये हम और अधिक सम्पन्न हो जायँगे।)


  1. * गत महायुद्धके कारण यह स्थिति बिलकुल लुप्त हो गई है।-अनुवादक।