राजा और प्रजा/८ राजभक्ति

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राजभक्ति।

राजकुमार आए। बड़े बड़े राजकर्मचारियोंके जितने लड़के थे, सब उन्हें चारों तरफसे घेरकर बैठ गए। उनके बीचमें जरासा भी व्यवधान न रहा कि बाहरसे दूसरा कोई प्रवेश कर सके। इस व्यवधानको और भी अधिक संकीर्ण करनेके लिये कोतवालका लड़का पहरा देने लगा। इसके लिये उसे एक अच्छा 'सिरोपाव ' मिला। इसके बाद ढेरकी ढेर आतिशबाजी उड़ाई गई और गजपुत्र जहाज पर चढ़कर चले गए। बस, हमारी कहानी समाप्त हो गई।

यह बात क्या हुई? केवल एक कहानी। राज्य और राजपुत्रका यह सुदुर्लभ मिलन जितना सुदूर, जितना स्वल्प और जितना निरर्थक हो सकता था, उतना किया गया। सारे देशका पर्यटन करके, उसे (देशको) जितना कम जाना जा सकता था और उसके साथ जितना कम योगस्थापन हो सकता था, वह बहुत बड़ा खर्च करके बड़ी निपुणता और बड़े भारी समारोहके साथ सम्पूर्ण किया गया।

अवश्य ही हमारे राजपुरुषोंने इस विषयमें कोई पालिसी सोर्चा होगी-उनका कोई गहरा मतलब होगा नहीं तो वे इतना व्यर्थ खर्च क्यों करते? 'नानीकी कहानी' का राजपुत्र किसी सोती हुई राजकन्याको जगानेके लिए सात समुद्र और तेरह नदी पार करके गया था। हमारे [ १२१ ]राजपुत्रने भी जान पड़ता है, सुप्त राजभक्तिको जगानेके लिये ही यह यात्राका कष्ट स्वीकार किया था, परन्तु क्या उन्हें 'सोनेकी छड़ी' प्राप्त हुई?

अनेक घटनाओंसे यह बात स्पष्ट दिखलाई देती है कि हमारे राजपुरुष सोनेकी छड़ीकी अपेक्षा लोहेकी छड़ीपर ही विशेप आस्था रखते हैं! वे अपने प्रतापके आडम्बरको वज्रगर्भ विद्युतके समान क्षण-क्षणमें हमारी आंखोंके आगे चमका जाया करते हैं। उससे हमारी आँखें चकचोंधा जाती हैं, हृदय भी काँपने लगता है किन्तु राजा प्रजाके बीच हृदयका बन्धन दृढ़ नहीं होता बल्कि उल्टा पार्थक्य बढ़ जाता है।

भारतके भाग्यमें इस प्रकारकी अवस्था अवश्यंभावी है। क्योंकि, यहाँके राजसिंहासनपर जो लोग बैठते हैं उनकी अवधि तो अधिक दिनोंकी नहीं रहती; पर यहाँ उनकी राजक्षमता जितनी उत्कट रहती है, उतनी स्वयं भारत-सम्राटकी भी नहीं है। वास्तवमें देखा जाय तो इंग्लैण्डमें राज्य करनेका सुयोग किसीको भी नहीं मिलता, क्योंकि वहाँकी प्रजा स्वाधीन है। पर यहाँ ज्योंही किसी अँगरेजने पैर रक्खा कि उसे तत्काल ही मालूम हो जाता है कि भारतवर्ष अधीन राज्य है। ऐसी दशामें इस देशमें शासनके दम्भ और अमताके मदको संवरण करना क्षुद्र प्रकृतिके अफसरोंके लिये असंभव हो जाता है।

जिसके वंशमें पीढ़ियोंसे राज्य चला आया हो, ऐसे बुनियादी राजाको राजकीय नशा बेहोश नहीं कर सकता; परन्तु जो एकाएक राजा हो जाते हैं उनके लिये यह नशा एकदम विषका काम करता है। भारतवर्षमें जो लोग शासन करने आते हैं, उनमें से अधिकांशको इस मदिराका अभ्यास नहीं रहता। उन्हें स्वदेशकी अपेक्षा इस देशमें बहुत [ १२२ ] अधिक परिवर्तन दिखलाई देता है । जो लोग वहाँ किसी भी समय विशेष कुछ नहीं थे, यहाँ वे बातकी बातमें हर्ता-कर्ता बने दिखलाई देते हैं। ऐसी अवस्थामें, नशाकी झोकमें वे इस नूतनलब्ध प्रतापको सबसे अधिक प्रिय और श्रेय समझने लगते हैं।

प्रेमका पथ नम्रताका पथ है। किसी साधारणसे भी साधारण मनुष्यके हृदयमें प्रवेश करनेके लिये अपने मस्तकको उसके द्वारके मापके अनुसार झुकाना पड़ता है । पर जो व्यक्ति अपने प्रताप और प्रेष्टीजके सम्बन्धमें ताजा नवाबके समान सिरसे पैर तक सदा ही सावधान रहता है, उसके लिये यह नम्रता या सिर झुकाना दुःसाध्य कार्य है । अंगरेजोंका राज्य यदि शुरूसे ही आने-जानेका राज्य नहीं होता, यदि वे इस देशमें स्थायी होकर शासनकी उग्रताको थोड़ा बहुत सहन कर सकते, तो यह बात निश्चयपूर्वक कहीं जा सकती है कि वे हमारे साथ हृदय मिलानेकी चेष्टा करनेके लिये बाध्य होते । किन्तु वर्तमान व्यवस्था ऐसी है कि इंग्लण्डके किसी अप्रसिद्ध प्रान्तसे, थोड़े समयके लिए इस देशमें आकर ये लोग इस बातको किसी तरह भी नहीं भूल सकते कि हम कर्त्ता-हर्ता हैं—-स्वामी हैं। इस क्षुद्र दम्भको सर्वदा प्रकाशमान रखने के लिये वे हम लोगोंको सभी बातोंमें निरंतर दूर दूर रखते हैं और केवल प्रबलताके द्वारा हमें अभिभूत कर रखने- की चेष्टा करते हैं । इस बातको स्वीकार करनेमें वे कुण्ठित होते हैं कि हम लोगोंकी इच्छा अनिन्छा भी उनकी राजनीतिको स्पर्श कर सकती है। यहाँ तक कि उनके किसी कानूनसे या किसी विधानसे हम वेदना अनुभव करेंगे और उसे प्रकाश करेंगे, इसे भी वे गुस्ताखी समझते हैं।

किन्तु पति चाहे जितना कठोर क्यों न हो वह अपनी स्त्रीसे केवल बाध्यता ही नहीं चाहता, स्त्रीके हृदयके प्रति भी उसके भीतर ही [ १२३ ] भीतर चाह रहती है। परन्तु वह हृदयपर अधिकार करनेका वास्त- विक मार्ग ग्रहण नहीं कर सकता, इस कार्यमें उसका दुर्नम्य औद्धत्य वाधा डालता है। यदि उसे सन्देह हो जाय कि स्त्री मेरा आधिपत्य तो सहन करती है, परन्तु मुझपर प्यार नहीं करती, तो वह अपनी कठोरताकी मात्रा बढ़ाने लगता है। पर यह प्रीति उत्पन्न करनेका उत्तम उपाय नहीं है, इस बातको सभी जानते हैं, समझानेकी आवश्यकता नहीं।

इसी तरह भारतवर्षक अँगरेज राजा हमसे राजभक्ति अदा किये बिना नहीं रहना चाहते। किन्तु वे यह नहीं सोचते कि भक्तिका सम्बन्ध हृदयसे है और उस सम्बन्धमें दान-प्रतिदान दोनों हैं। यह कोई कल या मशीनका सम्बन्ध नहीं है । इस सम्बन्धको जोड़नके लिए निकट आना पड़ता है, यह कोरी जबर्दस्तीका काम नहीं है। किन्तु वे चाहते यह हैं कि पास भी नहीं आना पड़े, हृदय भी नहीं देना पड़े और राजभक्ति अदा हो जाय । अन्तमें इस भक्तिके बारेमें जब उन्हें सन्देह हो जाता है तब वे गोरखोंकी फौज बुलाकर, बेत झाड़- कर और जेलमें ठूँसकर भक्ति अदा करनेका प्रयत्न करते हैं।

अंँगरेज राजा शासनकी कल चलाते चलाते कभी कभी एकाएक राजभक्ति के लिये कैसे व्यग्र हो उठते हैं, इस बातका एक नमूना लार्ड कर्जनके शासनमें पाया गया था ।

यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो गई है कि स्वाभाविक आभिजात्यके अभाव के कारण लार्ड कर्जन नशेमें उन्मत्त हो गए थे। इस तख्तको वे किसी तरह भी छोड़नेके लिये राजी नहीं थे । इस राजकीय आड- म्बरसे जुदा होने पर उनका अन्तरात्मा एक दुर्दशाग्रस्त मतवालेके समान आज जिस अवस्था में है, उसे यदि हम यथार्थभावसे अनुभव [ १२४ ] करते तो शायद हमें भी उनपर दया आ जाती। हमारे खयालमें इस प्रकारकी शासन-लोलुपता भारतवर्षके और किसी भी शासन- कर्त्ताने इस तरहसे प्रकाशित नहीं की थी। इन लाट साहबने भारतके पुराने बादशाहोंके समान दरबार करना स्थिर किया और अहंकार प्रकट करनेके लिए उस दरबारका स्थान दिल्ली नियत किया।

किन्तु पूर्व देशोंके सभी राजा इस बातको जानते हैं कि दरबार अहंकार प्रकाश करनेके लिये नहीं किया जाता; यह राजाके साथ प्रजाके आनन्द-सम्मिलनका उत्सव है। इसमें केवल राजोचित ऐश्वर्यके द्वारा प्रजाको चकित स्तंभित नहीं किया जाता, किन्तु राजोचित औदार्यसे उसे निकट बुलाया जाता है। दरबार क्षमा करनेका, दान करनेका और राज-शासनको सुन्दरतासे सजानेका शुभ अवसर होता है।

किन्तु पश्चिमके इस ताजा नवाबने प्राच्य इतिहासको सम्मुख रख- कर और वदान्यता या उदारताको सौदागरी कृपणता द्वारा खर्च करके केवल प्रतापको ही अतिशय उग्र करके प्रकाशित किया। वास्तवमें देखा जाय तो इससे अँगरेजोंकी राजश्रीने हम लोगोंके निकट गौरव नहीं पाया । इससे दरबारका उद्देश्य बिलकुल व्यर्थ हो गया। इस दरबारके दुःसह दर्पसे प्राच्य हृदय पीड़ित ही हुआ, आकर्षित तो जरा भी नहीं हुआ। उसका अपरिमित अपव्यय यदि कुछ फल छोड़ गया है, तो वह अपमानकी स्मृति है। लोहेकी छड़ीसे सोनेकी छड़ीका काम निकालनेकी चेष्टा केवल निष्फल ही नहीं होती है, उसका फल उल्टा भी होता है।

अवकी वार राजपुत्रका भारतमें आगमन हुआ। राजनीतिकी दृष्टिसे यह परामर्श बहुत अच्छा हुआ था। क्योंकि, साधारणतः राजवंशीय पुरुषोंके प्रति भारतवर्षीय हृदय विशेषरूपसे अभिमुख रहता है । यह [ १२५ ] भारतका बहुत पुराना प्रकृतिगत अभ्यास है। इसीसे दिल्ली दरबारमें ड्यूक आफ कनाटके होते हुए कर्जनका तख्तपर बैठना भारतवासी मात्रके हृदयमें खटका है। प्रजाको विश्वास है कि कर्जनने अपने दंभको प्रकाशित करने के लिये ही इच्छापूर्वक दरबारमें ड्यूक आफ कनाटके उपस्थित रहनेका प्रयत्न किया था। हम लोग विलायती कायदे नहीं जानते, और फिर जब 'दरबार' चीज ही खासकर प्राच्य देशोंकी है, तब इसके उपलक्ष्यमें राजवंशका प्रकाश्य अपमान हमारी समझमें कमसे कम पालिसी-संगत तो नहीं कहा जा सकता ।

जान पड़ता है कि ऐसा परामर्श दिया गया होगा कुछ भी हो पर भारतवर्षकी राजभक्तिको गति देनेके लिये एक वार राजकुमा- रको बुलाकर समस्त देशको इनका साक्षात् करा देना चाहिए। पर भारतवर्षके अंग्रजोंने हृदयका कारबार कभी किया ही नहीं। वे इस देशको अपना हृदय देते भी नहीं और इस देशका हृदय चाहते भी नहीं; इस देशका हृदय कहाँ पर है, इसकी भी वे खबर नहीं रखते राजकुमारके भारतवर्ष में आगमनको जितना स्वल्पफलप्रद ये कर सकते थे उतना इन्होंने किया । आज राजकुमार भारतवर्षसे विदा होकर जहाजपर सवार हो रहे हैं और हमें जान पड़ रहा है कि एक स्वप्न था जो टूट गया; एक कहानी थी जिसकी इति हो गई। कुछ भी नहीं हुआ.---मनमें रखने योग्य कुछ नहीं मिला; जो जैसा था वह वैसा ही रह गया ।

यह सर्वथा सत्य हैं कि भारतवर्षकी राजभक्ति प्रकृतिगत है--- उसके स्वभाव में समाई हुई है। हिन्दू भारतवर्षकी राजभक्ति में एक विशे- षता है। हिन्दू लोग राजाको देवतुल्य और राजभक्तिको धर्मस्वरूप मानते हैं। पाश्चात्य लोग उनकी इस विशेषताका तत्त्व समझनेमें [ १२६ ] असमर्थ हैं। वे सोचते हैं कि शक्तिके सामने इस प्रकार सिर झुकाना हिन्दुओंकी स्वाभाविक दीनताका लक्षण है।

संसारके अधिकांश सम्बन्धोंको दैवसम्बन्ध न मानना हिदुओंके लिये असंभव है । हिंदुओंके विचारसे प्रायः कोई भी सम्बन्ध आकस्मिक नहीं है। क्यों कि वे जानते हैं कि प्रकाश कितने ही विचित्र और विभिन्न क्यों न हों, उनका उत्पन्न करनेवाली मूलशक्ति एक ही है । भारतवर्षमें यह एक दार्शनिक सिद्धान्त मात्र नहीं हैं; यह धर्म है ----पुस्तकमें लिखने या कालेजोंमें पढ़ानेका नहीं, बल्कि ज्ञानके साथ हृदयमें उपलब्ध या साक्षात् और जीवनके दैनिक व्यवहारोंमें प्रतिबिम्बित करनेका है हम माता-पिताको देवता कहते हैं, स्वामीको देवता कहते हैं, सती स्त्रीको लक्ष्मी कहते हैं । गुरुजनोंकी पूजा करके हम धर्मको तृप्त करते । कारण यह है कि जिस जिस सम्बन्धसे हम मंगल लाभ करते हैं उन सभी सम्बन्धोंमें हम आदि मंगल शक्तिको स्वीकार करना चाहते हैं। मंगलमयको मंगलदानके उक्त सम्पूर्ण निमित्तोंसे अलगकर और सुदूर स्वर्गमें स्थापित कर उनकी पूजा करना भारतवर्षका धर्म नहीं है। जिस समय हम माता-पिताको देवता कहते हैं उस समय हमारे मनमें यह मिथ्या भावना नहीं होती कि वे अखिल जगत्के ईश्वर और अलौ- किक शक्तिसम्पन्न हैं। वे मनुष्य हैं, इस बातको हम निश्चयपूर्वक जानते हैं, पर इस बातको भी उतने ही निश्चयके साथ जानते हैं कि माता और पिताके रूपोंसे ये हमारा जो उपकार कर रहे हैं वह उप- कार-वह मातृत्व और पितृत्व सृष्टिके मातापिताका ही प्रकाश है। इन्द्र, चन्द्र, अग्नि, वायु आदिको जो वेदोंमें देवता स्वीकार किया गया है उसका भी यही कारण है। शक्तिके प्रकाशमें शक्तिमान्की सत्ता अनुभव किए बिना भारतवर्षको कभी सन्तोष नहीं हुआ। यही कारण [ १२७ ] है कि विश्वसंसारमें भिन्न भिन्न निमित्तोंमें और भिन्न भिन्न आकारों में भक्तिविनम्र भारतवर्षकी पूजा आयोजित हुई है। हमारे विश्वासमें संसार सदा ही देवशक्ति द्वारा जीवित है ।

यह कहना सर्वथा असत्य है कि हमारी दीनता ही हमसे प्रबल- ताकी पूजा कराती है। सभी जानते हैं कि भारतवर्ष गायकी भी पूजा करता है । गायका पशु होना उसे मालूम न हो, यह बात नहीं है । मनुष्य प्रबल है, गाय दुर्बल । परन्तु भारतवर्षके मनुष्य गायसे अनेक प्रकारके लाभ उठाते हैं। एक उद्धत समाज कह सकता है कि मनुष्य अपने बाहुबलकी बदौलत पशुसे लभ उठाता है। परन्तु भारतवर्ष में ऐसी अविनीतता नहीं है। सम्पूर्ण मंगलोंके मूलमें ईश्वरानु- ग्रहको प्रणाम करके और सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करके ही वह सुखी होता है। कारीगर अपने औजारको प्रणाम करता है, योद्धा अपनी तलवारको प्रणाम करता है, गवैया अपनी बीणाको प्रणाम करता है। वे यंत्रको यंत्र न जानकर कुछ और जानते हों, यह बात नहीं है। परन्तु वे यह भी जानते हैं कि यंत्र निमित्त मात्र है -वह हमें जो आनन्द देता है, हमारा जो उप- कार करता है वह लोहे या काठका दान नहीं है; क्यों कि आत्माको किसी आत्मशून्य पदार्थमें कोई पा ही नहीं सवाता। इसलिये वे अपनी पूजा, अपनी कृतज्ञता इन यंत्रोंहीके द्वारा विश्वयंत्रके यंत्रीकी सेवामें अर्पित करते हैं।

भारतवर्ष यदि राजशासनके कार्यको पुरुष रूपसे नहीं, बल्कि निर्जीव यंत्र रूपसे अनुभव करता रहे तो उसके लिये इससे बढ़कर कष्टकी बात दूसरी नहीं हो सकती । जड़ पदार्थों के अन्दर भी जिसको आत्माके सम्पर्कका पता लगाकर ही सन्तोष होता है वह राज्यतंत्र [ १२८ ] जैसे महान् मानव-व्यापारमें हृदयके प्रत्यक्ष आविर्भावको मूर्तिमान न देखकर किस प्रकार जीवित रहेगा ? जहाँ आत्माका आत्मीयसे सम्बन्ध हो, केवल वहीं सिर झुकानेमें सुख मिलता है, जहाँ ऐसा सम्बन्ध न हो वहाँ नमस्कार करनेमें अपमान और कष्ट जान पड़ता है। अतएव राज्यव्यवस्थामें यदि हम देवताकी शक्तिको, मंगलके प्रत्यक्ष स्वरूपको राजरूपमें देख सकें तो शासनका भारी भार सहजमें वह्न कर सकते हैं । यदि इसके प्रतिकूल हो तो हृदय प्रतिक्षण भग्न होता रहता है। हम पूजा करना चाहते हैं--राज्यव्यवस्थामें प्राणप्रतिष्ठा कर उसके साथ अपने प्राणोंका मिलाप अनुभव करना चाहते हैं—हम बलको निरा बल जानकर ही सहन नहीं कर सकते ।

अतएव यह बात सत्य है कि भारतवर्षकी राजभक्ति प्रकृतिगत है। परन्तु इसी कारण राजा उसके लिये तमाशा भरका राजा नहीं है वह राजाको एक अनावश्यक आडम्बरका अंग मानकर देखना नहीं चाहता । राजाके दर्शन पानेमें उसे जितनी ही देर लगेगी, उतनी ही उसकी पीड़ा बढ़ती जायगी। क्षणस्थायी अनेक राजाओंके दुस्सह भारसे यह वृहत् देश किस प्रकार मर्मपीड़ा अनुभव कर रहा है, किस प्रकार प्रतिदिन अपने आपको उपायहीन जानकर लम्बी साँसें भर रहा है, इसे एक उस अन्तर्यामीके सिवा और कौन देखता है ? जो पथिक मात्र हैं, जिनके मनमें सदा यही बना रहता है कि कब छुट्टी मिल, जो पेटके कारण निर्वासित बनकर दिन काट रहे हैं, जो उजरत लेकर इस शासन-कारखानेकी कल घुमाते रहते हैं, जिनके साथ हमारा कोई सामाजिक सम्बन्ध नहीं है, और जो निरन्तर बदलते रहते हैं उन उपेक्षापरायण शासकोंका हृदय-सम्पर्क-शून्य शासन वहन करना कितना दुस्सह है, इसे केवल भारतवर्ष ही [ १२९ ] जानता है। राजभक्तिसे दीक्षित भारतवर्षका अन्तःकरण कातर- भावसे प्रार्थना करता है."हे भारतकी ओरसे विमुख भगवन् ! मैं अब इन क्षणिक राजाओं, क्षुद्र राजाओं और अनेक राजाओंको एक क्षण भी सहन नहीं कर सकता, मुझे एक राजा दो ! ऐसा राजा दो जिसके मुखसे मैं सुन सकूँ—'भारतवर्ष हमारा राज्य है, वणि- कोंका राज्य नहीं है, खानवालोंका राज्य नहीं है, चाकरोंका राज्य नहीं है, लंकाशायरका राज्य नहीं है, हमारा राज्य है। भारतवर्षका अंत:करण जिसको देखकर बोल उठे—'यही हमारे राजा हैं। हालिडे हमारे राजा नहीं हैं, फुलर हमारे राजा नहीं हैं, पायोनियर-सम्पादक हमारे राजा नहीं हैं' ।" राजकुमार यहाँ आवें, यहीं उनका राज्याभिषेक और यहीं उनका स्थायी दरबार हो; फिर स्वभावतः ही उनकी दृष्टि में भारत ही मुख्य और इंग्लैण्ड गौण हो जायगा । इससे भारतका मंगल और इंग्लैण्डका स्थायी लाभ होगा । क्योंकि मनुष्यसे हृदयका सम्पर्क या सामाजिक सम्बन्ध न रखकर केवल यंत्रोंकी सहायतासे उसका शासन करनेकी उच्चाकांक्षा धर्मराज्य कदापि अधिक दिनोंतक सहन नहीं कर सकता, इसका सहन करना स्वभावविरुद्ध है; विश्वविधानमें बाधा डालनेवाला है। अतएव सुशासन, शान्ति अथवा और कोई पदार्थ हृदयके इस दारुण अभावको पूर्ण नहीं कर सकता। हो सकता है कि यह बात कानूनके विरुद्ध समझ ली जाय; पुलीस-सर्प इसे सुनकर फन फैला दे और फुफकारें छोड़ने लगे; परन्तु जो क्षुधित सत्य तीस करोड़ प्रजाके मर्ममें हाहाकार कर रहा है उसको बलपूर्वक नष्ट कर देनेका उपाय मानव या दानव किसीके पास नहीं है ।

भारतवर्षीय प्रजाके इस प्रतिक्षण पीड़ा बोध करनेवाले हृदयको थोड़ा बहुत ढारस बँधानेहीके लिये राजकुमारको बुलाया गया था;

रा°९ [ १३० ] हम सबको दिखाया गया था कि हम भी राजावाले हैं हमारे भी राजा हैं। पर मरीचिकासे कहीं सच्ची प्यास जाती है ?

सच तो यह है कि हम राजशक्तिको नहीं, राजहृदयको प्रत्यक्ष अनुभव करना और प्रत्यक्ष राजाको अपना हृदय अर्पित करना चाहते हैं । प्रभुगण ! आप यह बात कभी मत सोचिए कि धन और प्राणोंका रक्षित रहना ही प्रजाकी चरम चरितार्थता है। इसीसे आप कहते हैं कि ये शान्तिमें तो शराबोर हो रहे हैं, अब इन्हें और क्या चाहिए ? आप समझें कि जब हृदयके द्वारा मनुष्यके हृदयपर अधिकार कर लिया जाता है तब वह मनुष्य खुशी खुशी अपने धन और प्राणको निछा- वर कर देता है। भारतवर्षका इतिहास इसका प्रमाण है। मनुष्य केवल शान्ति ही नहीं बल्कि तृप्ति भी चाहता है। देव हमारे कितना ही प्रतिकूल क्यों न हो, हम भी मनुष्य हैं। हम लोगोंकी भूख मिटा- नेके लिये सच्चे अन्नकी ही आवश्यकता होगी- हमारा हृदय फुलर, प्यूनिटिव पुलीस और जोर-जुल्मोंके द्वारा वश नहीं किया जा सकता।

देव हो या मानव, लाट हो या जैक, जहाँ केवल प्रतापका प्रकाश है, केवल बलका बाहुल्य है, वहाँ डरकर सिर झुकानेके समान और कोई आत्माबमान, अन्तर्यामी ईस्वरका अपमान, नहीं हो सकता । भारतवर्ष, तुम वहाँ अपने चिर दिनके अर्जित और सञ्चित ब्रह्मज्ञानकी सहायतासे इन सारी लांछनाओंके सामने अपना मस्तक अविचलित रखना, इन बड़े बड़े नामवाले असत्योंको सर्वान्तःकरणसे अस्वीकार करना; जिसमें ये विभीषिकाओंका रूप धारण करके तुम्हारी अन्तरा- त्माको तनिक भी संकुचित न कर सकें । तुम्हारी आत्माकी दिव्यता, उज्ज्वलता और परमशक्तिमत्ताके आगे ये सारे तर्जन-गर्जन, यह सारा उच्च पदका घमंड, यह सारा शासन-शोषणका आयोजन, आडम्बर, तुच्छ बाललीला मात्र हैं; ये तुम्हें पीड़ा भले ही दे लें, [ १३१ ] तुम्हें छोटा कदापि नहीं कर सकते । जहाँ प्रेमका सम्बन्ध है वहाँ ही नत होनेमें गौरव है; जहाँ यह सम्बन्ध न हो वहाँ चाहे कैसी ही घटना क्यों न हो जाय, तुम अपने अन्त:करणको मुक्त रखना, सरल रखना, दीनताको पास न फटकने देना, भिक्षुकभावको दूर भगा देना, और अपने आपमें पूर्ण आस्था रखना । क्योंकि निश्चय ही संसारको तुम्हारी अत्यन्त आवश्यकता है-तुम्हारे बिना उसका काम चल ही नहीं सकता। यही कारण है कि इतनी यातना-यंत्रणा सहकर भी तुम मरे नहीं, जीते हो। यह बात कदापि नहीं है कि दूसरोंकी बाहरी चाल ढालका अनुकरण करते हुए एक ऐतिहासिक प्रहसनका प्लाट तैयार करने मात्रके लिये तुम इतने दिनोंसे जीवित हो । तुम जो होगे, जो करोगे, दूसरे देशोंके इतिहासमें उसका दृष्टान्त नहीं है, इसलिये उनके लिये वह अनूठी बात होगी । अपने निजके स्थानपर तुम विश्वब्रह्माण्डमें सभीसे बड़े हो । हे हमारे स्वदेश : महापर्वतमालाके पादमूलमें महा समुद्रोंसे घिरा तुम्हारा आसन तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहा है। इस आसनके सामने विधाताके आह्वानसे आकृष्ट होकर हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध कितने ही दिनोंसे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं । जिस समय तुम अपने इस आसनको फिर एक बार ग्रहण करोगे, हम निश्चयपूर्वक जानते हैं कि उस समय तुम्हारे मंत्रसे, ज्ञान, कर्म और धर्मके सेकड़ों विरोध क्षण मात्रमें मिट जायेंगे और निष्ठुर. विश्वद्वेषी, आधुनिक पालिटिक्स ( राजनीति ) कालभुजंगका दर्प तुम्हारे चरणोंमें चूर्ण हो जायगा । तुम चञ्चल न होना, लुब्ध न होना, "आत्मानं विद्धि".-अपने आपको पहचानना और——" उत्तिष्ठत जाग्रत पाप्य वरान् निबोधत, क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गे पथस्तत् कवयो वदन्ति "-उठो, जागो, जो श्रेष्ठ है उसको पाकर प्रबुद्ध होओ; कवि कहते हैं कि सच्चा मार्ग शानपर चढ़ाए हुए छुरेकी धारके समान दुर्गम और दुरतिक्रम्य होता है।

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