राबिन्सन-क्रूसो/छाग-पालन

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राबिनसन-क्रूसो  (1922) 
द्वारा डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

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छाग-पालन

मैं घेरे को लाँघ कर कुञ्जभवन के भीतर गया। वहाँ देखा, जो पदार्थ जैसे थे वैसे ही हैं। मैं पेड़ के नीचे लेटते ही गाढ़ी नींद में सो गया।

दिन भर के परिश्रम से बड़ी मीठी नींद आई। मैं उसी निद्रित अवस्था में सुनने लगा जैसे कोई मेरा नाम लेकर पुकारता हो। मैं घोर निद्रा में पड़ा था, इससे मन में समझा कि स्वप्न देख रहा हूँ। किन्तु वारंवार जब मेरा नाम ले ले कर पुकारने लगा तब मेरी गाढ़ी नींद क्रम क्रम से पतली होने लगी। आख़िर मैंने स्पष्ट सुना, कोई मुझे पुकार कर कह रहा है "राबिन, राबिन, राबिन क्रूसो! तू कहाँ गया था? अरे तू कहाँ था? अरे तू कहाँ आ पड़ा?" झट मेरी आँखें [ १३० ] खुल गईं। उस समय जो मेरे मन में भय हुआ वह कह कर कैसे समझाऊँ? इस मानव-शून्य द्वीप में मेरा नाम ले कर कौन पुकारता है? आँखें मल कर चारों ओर ध्यान से देखते ही मेरा भ्रम जाता रहा। मैंने देखा, घेरे के ऊपर मेरा पाला हुआ आत्माराम नामक सुग्गा बैठ कर मेरी ही सिखाई बोली बोल रहा है।

तब मेरा भय दूर हुआ सही, परन्तु मुझे यह सोच कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि आत्माराम पीजरे से क्योंकर निकल पाया। यदि पींजरे से निकल ही आया तो ठीक उसी जगह आ कर क्यों बैठा? मैंने इस पर विशेष तर्क-वितर्क न कर के हाथ बढ़ा कर उसका नाम ले कर पुकारा। पुकारते ही वह फ़ौरन वहाँ से उड़ कर मेरे हाथ पर आ बैठा और बोलने लगा "राबिन, राबिन, राबिन क्रूसो, तू इतने दिन कहाँ था? फिर कहाँ पाया?" मैं उसको ले कर अपने घर आया।

इस समय डोंगी के लिए मेरा मन ललचाने लगा। अहा, यदि उसे इस ओर ला सकता तो कैसा अच्छा होता! किन्तु लाता कैसे? पूरब ओर घूम कर? नहीं बाप रे! इस बात की भावना करते ही मेरे हृदय का उषरण शोणित शीतल हो उठता है। अच्छा उस ओर से नहीं तो पच्छिम ओर से? कौन जाने उस ओर क्या है? इस प्रकार सोच विचार कर मैंने नाव की आशा छोड़ दी। यद्यपि उसके बनाने में बहुत परिश्रम हुआ था, और उसको पानी में उतार ले जाने में और भी अधिक कष्ट उठाना पड़ा था तथापि प्राण के आगे तो उसका कुछ मोल नहीं। प्राण से बढ़ कर तो वह प्रिय न थी। [ १३१ ]इसके बाद एक वर्ष और बीता। एक साथी का प्रभाव छोड़ कर मेरे मन में और कुछ क्लेश न था। अब मैं एक प्रवीण रफूगर और कुम्हार बन गया। मैं चाक गढ़ कर मिट्टी का एक से एक सुडौल बर्तन बना सकता था, रफूगरी का काम भी मज़े में चला लेता था। सबसे अधिक आनन्द और कार्य-कौशल का गर्व मेरे मन में तब हुश्रा जब मैं मिट्टी का एक टेढ़ा मेढ़ा तम्बाकू पीने का नल तैयार कर सका। तम्बाकू पीने का मुझे खूब अभ्यास था। जहाज़ में तम्बाकू पीने का नल था, किन्तु तम्बाकू न रहने के कारण मैं नल न लाया था। इसके बाद जब इस टापू में मैंने तम्बाकू देखी तब मेरे मन में बेहद अफ़सोस हुआ। टोकरी बुनने में भी मैंने खूब उन्नति कर ली।

मैंने देखा कि बारूद की पूँजी मेरी घटती जा रही है। इस अभाव का पूरा करना मेरे सामर्थ्य से बाहर था। जब यह बिलकुल न रह जायगी तब क्या करूँगा? बन्दूक में क्या डाल कर बकरे का शिकार करूँगा, यह शोच कर मैं बहुत ही आकुल हुआ। अपने इस द्वीप-निवास के तीसरे साल मैंने एक बकरी के बच्चे को पोसा था, यह पहले लिख पाया हूँ। उसकी एक जोड़ी मिल जाय तो उसे भी पाल लँ, मैं इसकी खोज में था, पर उसकी जोड़ी मिलने का सुयोग न हुश्रा। आखिर वह मेरा पालतू बकरा बूढ़ा हो कर मर गया। मैं मोह के मारे उसको मार कर न खा सका।

यह मेरे द्वीप-वास का ग्यारहवाँ साल है। जब बारूद घट गई तब मैं बकरों को पकड़ने के लिए फन्दा बना करके उसी से काम लेने लगा। फन्दे में बकरे फँसते थे ज़रूर [ १३२ ] परन्तु फन्दे में उन्हें फँसाने के लिए मैं जो खाने की चीज़े रख देता था उन्हें खाकर और फन्दे को तोड़ ताड़ कर वे निकल भागते थे। आखिर बार बार धोखा खाकर मैंने खब मज़बूत फन्दा बनाया। एक दिन मैंने एक साथ तीन फन्दे लगा दिये। एक में एक बूढ़ा बकरा श्रा फँसा, और दूसरे में तीन बच्चे, जिनमें दो बकरियाँ और एक बकरा था।

बूढ़े बकरे को पाकर मैं बड़ी दिक्कत में पड़ा। उसके पास जाते ही वह इस तरह बब बब करके भयानक रूप धारण कर सींग-पूँछ उठा कर मेरी ओर दौड़ता कि मैं उसके निकट जाने का साहस न कर सकता था, उसे पकड़ना तो दूर रहा। यदि मैं उसको जीता न पकड़ सका तो उसको मार कर ही क्या होगा-यह सोचकर मैंने उसे छोड़ देना ही अच्छा समझा। मैंने फन्दे का मुँह खोल दिया। खोलते ही वह प्राण लेकर खूब ज़ोर से भागा। उसको छोड़ देने पर मुझे अफ़सोस होने लगा। यदि उसे कुछ दिन भूखा रहने देता, और यत्न करता तो वह सुस्त पड़ जाता। भूख एक ऐसी चीज़ है जिससे लाचार हो कर सिंह भी वश में हो जाता है। कहावत है, "आग की ज्वाला सही जाती है पर पेट की ज्वाला नहीं सही जाती।" मैंने बकरे को छोड़ दिया और तीनों बच्चों को रस्सी से बाँध कर किसी तरह खींच खाँच कर ले गया।

कुछ दिन तक उन बच्चों ने कुछ न खाया। आखिर अन्न आदि मधुर खाद्य के लोभ में पड़कर उन्होंने कुछ कुछ खाना प्रारम्भ किया। जब मैं इन बच्चों को पालना चाहता हूँ तब इनके चरने के लिए मुझे एक घेरेदार जगह का प्रबन्ध [ १३३ ] करना होगा जिसमें बड़े होने पर ये जंगल में न भाग जायँ या मेरी बोई हुई फसल को उजाड़ न दें। एक मनुष्य के लिए एक चरागाह का घेरा लगाना कुछ सहज काम नहीं है। किन्तु मुझे जब यह काम करना ही होगा तब बहुत सोचने से क्या होगा? मैं ऐसी उपयुक्त जगह ढूँढने लगा जहाँ अच्छी हरियाली, पीने योग्य जल और विश्राम लेने के लिए वृक्षों की छाया हो।

बहुत खोजने पर एक जगह मिल गई। उपयुक्त जगह मिल जाने से मैं बहुत खुश हुआ और दो मील के विस्तार को घेरना शुरू किया। बकरी के इने गिने तीन बच्चों के लिए दो मील चरागाह की बात सुन कर सभी लोग हँसेंगे। दो मील का घेरा देना उस समय मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, क्योंकि तब मेरा ऐसा ही खुच्छन्द समय था कि मैं दस मील का घेरा भी मज़े में दे सकता था। किन्तु उस समय मेरे ध्यान में यह बात न आई कि इतनी लम्बी चौड़ी जगह में बकरों को छोड़ देने पर ज़रूरत के समय उनका पकड़ना कठिन होगा। वे जैसे वन में हैं वैसे ही यहाँ भी स्वतन्त्र हो जायँगे। अन्दाज़न पचास गज़ का घेरा दे चुकने पर मेरे ध्यान में यह बात आई। तब मैंने डेढ़ सौ गज़ लम्बा और सौ गज़ चौड़ा स्थान घेरने का विचार किया। पीछे ज़रूरत होगी तो घेरे को बढ़ा कर चरागाह का क्षेत्र-फल और भी बढ़ा दूँगा।

इस समय मैंने बड़ी बुद्धिमानी का काम किया। घेरा देने में तीन महीने लगे। जब चारों ओर से जगह घेरी जा चुकी तब मैंने बकरी के बच्चों को उसके भीतर छोड़ दिया। मेरे [ १३४ ] हाथ से दाना खा खाकर वे ऐसे पालतू हो गये थे कि चरागाह के भीतर भी वे मिमियाते हुए मेरे पीछे पीछे चलते थे।

एक साल के भीतर छोटे बड़े सब मिला कर मेरे पास बारह बकरियाँ और बकरे हुए। तीसरे साल में तैंतालीस हो गये। तब मैंने चरागाह के पास जमीन के पाँच टुकड़ों को घेरा और एक से दूसरे में जाने का दर्वाज़ा बना दिया।

अब मुझे मांस की कमी तो रही ही नहीं, प्रत्युत यथेष्ट दूध भी मिलने लगा। दूध मिलने की संभावना पहले चित्त पर न चढ़ी थी, पीछे जब इसका खयाल हुआ तब मन में जो आनन्द हुआ उसका क्या पूछना है। उन बकरियों से पाँच सात सेर दूध प्रतिदिन मिलने लगा। यद्यपि मैंने इसके पूर्व कभी दूध नहीं दुहा था और दूध से मक्खन कैसे निकाला जाता है यह भी नहीं देखा था, तथापि प्रकृति ही विशेष शिक्षा देती है और अभाव ही नवीन कल्पना का उत्पादक होता है। अनेक बार विफल प्रयत्न होने के बाद मैंने दूध से मक्खन और समुद्र-जल से नमक निकालना सीखा। एक दिन मैंने एक पहाड़ के ऊपर नमक की खान देखी। तब मुझे नमक का भी कष्ट न रहा।

ईश्वर का विधान बड़ा करुणा-पूर्ण है। उन्हें कैदी भी धन्यवाद देते हैं। असह्य दुःख को भी वे मधुमय बना देते हैं। मुझ सदृश पापिष्ठ के लिए भी उन्होंने इस निर्जन द्वीप में भाँति भाँति के खाद्य पदार्थों का संग्रह कर रक्खा है। इस समय मैं ही मानो इस द्वीप का राजाधिराज हूँ। मेरी प्रजा को जीवन-मरण मेरे ही हाथ में है। मैं अपनी प्रजा को मार भी सकता और रख भी सकता हूँ। मैं जब [ १३५ ] राजा की भाँति भोजन करने बैठता था तब मेरे भृत्य मुझे घेर कर बैठते थे। उनमें श्रात्माराम मेरा विशेष सम्मानास्पद था। मेरे साथ बाते करने की प्राक्षा एक उसी को थी। वही एक मेरा मुँह-लगा मुसाहब था। मेरा अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण कुत्ता सामने और दो बिल्लियाँ दोनों बगल में बैठ कर प्रसाद पाने की अपेक्षा करती थीं। इस समय एक प्रगल्भवक्ता साथी को छोड़ मुझे और किसी वस्तु का प्रभाव जनित कष्ट न था। ये वे बिल्लियाँ नहीं हैं जिन्हें मैं जहाज़ पर से लाया था। ये उन्हीं में के एक के बच्चे हैं। वे दोनों तो मर गई। उनके बहुत बच्चे हुए थे, जिनमें ये दोनों तो पल गये और सब बनैले हो गये। पीछे से वे बड़ा उत्पात करने लगे। छिप कर घर की चीज़ खा जाते थे और कितनी ही वस्तुओं को नष्ट-भ्रष्ट कर डालते थे। तब मैं निरुपाय होकर उन पर गोली चलाने लगा। कई एक के मरते ही अवशिष्ट श्राप ही भाग गये। मैं इस समय बेखटके शान्त भाव से निवास कर रहा हूँ।