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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)

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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)
चंद वरदाई, संपादक विपिन बिहारी त्रिवेदी

हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ १ से – १२ तक

 

  सेठ केशवदेव सेक्सरिया-स्मारक-ग्रन्थमाला—२

 

रेवातट
(पृथ्वीराज-रासो)
२७ वाँ समय

 

महाकवि चंद वरदाई कृत

 

सम्पादक
विपिन विहारी त्रिवेदी, एम° ए° (कलकत्ता),
डी° फिल° (कलकत्ता)

 
 

प्रकाशक
हिन्दी-विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय
लखनऊ
सन् १९५३ ई°

 
प्रकाशक
हिन्दी-विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय
 

मूल्य ६)

 

मुद्रकः

श्री रामचरनलाल श्रीवास्तव,

पवन प्रिंटिंग प्रेस, नजीराबाद, लखनऊ।

 

प्राक्कथन

कुछ वर्ष पूर्व लखनऊ विश्वविद्यालय की एम° ए° क कक्षाओं के लिये हमारे सम्मुख रासो-अध्यापन की समस्या उपस्थित हुई थी। उस समय मैंने अपने प्रिय शिष्य डॉ° श्री भगीरथ मिश्र को पद्मावती और रेवातट प्रस्तावों का एक संग्रह प्रस्तुत करने का परामर्श दिया था और उसके फलस्वरूप उन्होंने एक छात्रोपयोगी संग्रह प्रस्तुत करके अध्यापन कार्य को सुकर बना दिया था।

अब से लगभग पाँच वर्ष पूर्व हमारे विभाग में प्रस्तुत पुस्तक के रचयिता डॉ° श्री विपिन बिहारी त्रिवेदी की नियुक्ति से हमें रासो का एक विशेषज्ञ प्राप्त हुआ। डॉ° त्रिवेदी ने "चन्दवरदायी और उनका काव्य" नामक निबन्ध प्रस्तुत करके कलकत्ता विश्वविद्यालय से डी° फिल° की डिग्री प्राप्त की है। उनके उक्त ग्रन्थ को प्रयाग की हिन्दुस्तानी एकेडमी ने प्रकाशित भी कर दिया है। डॉ° त्रिवेदी द्वारा रासो के रेवातट समय पर स्वतंत्र रूप से किए गए विशेष अध्ययन का परिणाम आज प्रस्तुत ग्रन्थ के रूप में हम पाठकों के सम्मुख उपस्थित कर रहे हैं।

अपने सहयोगियों की प्रशंसा आत्मश्लाघा समझी जा सकती है, किन्तु मुझे यह कहते हुए अणु मात्र भी संकोच नहीं हैं कि प्रस्तुत पुस्तक के प्रणयन में डॉ° त्रिवेदी जी ने अथक परिश्रम तथा अदम्य उत्साह का परिचय दिया है। इस पुस्तक की कुछ प्रमुख विशेषताओं की ओर निर्देश कर देना यहाँ पर अप्रासंगिक न होगा।

ग्रंथ-सम्पादन का प्रथम कार्य पाठ-निर्धारण होता है। जबतक एक निश्चित पाठ ग्रहण नहीं कर लिया जाता अध्ययन का कार्य सुचारू रूप से नहीं चल सकता। इस कार्य के लिए यथासम्भव उपलब्ध ग्रन्थ सम्बन्धी सामग्री को देखना अनिवार्य हो जाता है। त्रिवेदी जी ने रासो (वृहत संस्करण) को प्रमुख उपलब्ध प्रतियों की सहायता लेकर उनके पाठान्तर प्रस्तुत करते हुए, रॉयल एशियाटिक सोसाइटी वाली डॉ° ह्योर्नले संपादित प्रति के पाठ ग्रहण किए हैं, क्योंकि उसके पाठ सर्वाधिक शुद्ध हैं।

रासो की भाषा सम्बन्धी कठिनाई से तो पाठक परिचित हैं ही। इस कठिनाई ने रासो के सर्व सुलभ वनने में तदैव व्यवधान खड़ा किया है। यह प्रसन्नता की बात है कि डॉ. त्रिवेदी ने प्रस्तुत ग्रंथ में एक एक शब्द को लेकर उसके विकास क्रम को स्पष्ट किया है और इस प्रकार अध्येता को पूरी निरवलम्ब्रता प्रदान कर दी हैं। पाठक बिना किसी की सहायता के ग्रंथ को पढ़े और समझ सकते हैं।

रासी की ऐतिहासिक नृष्ठभूमि त उसकी प्रामाणिकता को लेकर निरन्तर विवाद चलते रहते हैं। डॉ० त्रिवेदी ने सम्पूर्ण बिद्वन-भरडली के मतों का संग्रह करके एक योर तो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की पूरी दी है और दूसरी और रासो के प्रक्षिप्त अंशों को दूर करने की आवश्यकता की शोर निर्देश किया है । हसननिज़ामी, सिन्हाजुसेराज, फ़िरिश्ता, अब्दुलफूल, टॉड, बूलर, ह्योनले, ग्रियर्सन अादि प्राचीन तथा पाश्चात्य विद्वानों से लेकर आज तक के सम्पूर्ण विद्वानों द्वारा प्रस्तुत विचारों का उल्लेख उक्त विवेचन में कर दिया गया है ।

चन्दकालीन भौगोलिक स्थिति पर भी लेखक ने विस्तृत विचार किया है । रेवातट समय में आये प्राचीन नगरों आदि पर टाली, हैमिल्टन, कनिंघन आदि पाश्चात्य विद्वानों के आधार पर विचार किया गया है ।

कथा-प्रसंग में पड़ने वाले अगणित संदभ तथा अन्र्तकथाश्यों की और लेखक ने व्यापक दृष्टि डाले हैं। वाल्मीकीय रमवणु, महाभारत, श्रीमद्भागवत, वेद, उपनिषद्, कथासरित्सागर, पंचतंत्र, वैताच-विंशतिका श्रादि तथा कितने ही अपभ्रंश ग्रन्थों की सहायता से अनेक कथासूत्र स्पष्ट कर दिए गए हैं और इस प्रकार अध्ययन को सुरु१६ बनाने के साथ-साथ मनोरंजकता भी प्रदान की गई हैं ।

ज्योतिष तथा वैद्यक आदि विद्यालों से सम्बन्ध रखने वाली कितनी ही समस्याओं का बहुत ही स्पष्ट समाधान लेखक ने प्रामाणिक ग्रन्थों के‌ आधार पर किया है।

साहित्य सौष्ठव तथा पिंगल-शास्त्र पर भी विस्तृत रूप से विचार किया गया हैं । रासो-काव्य-परम्परा, अपन्नश-रचना, रास का महाकाव्यत्व तथा उसकी साहित्यिक विशेषताओं का मार्मिक दिग्दर्शन किया गया है ।

इसमें सन्देह नहीं कि रासो के वैज्ञानिक अध्ययन का प्रयल पश्चिात्य विद्वानों ने अारम्भ किया था और इस दिशा में उनके परिश्रम की जितनी प्रशंसा को जाय थोड़ी है; भले ही उनके सम्पूर्ण निष्कर्ष सर्वमान्य न हो सके
हो; सारग्राहिणी प्रवृत्ति के अनुसार तो हमें उनके परिश्रम से लाभ उठाना ही चाहिए। मुझे प्रसन्नता है कि डॉ॰ त्रिवेदी ने इस प्रवृत्ति का परिचय दिया है। संसार में कोई भी कार्य पूर्ण नहीं कहा जा सकता, प्रस्तुत ग्रन्थ में भी त्रुटियाँ, अपूर्णताएँ हो सकती हैं, किन्तु अपने ढंग का यह पहला कार्य है, ऐसा कहते हुए मुझे संकोच नहीं है।

मुझे आशा है कि साहित्य प्रेमी संसार डॉ॰ त्रिवेदी की इस कृति को सहृदयता पूर्वक अपनाएगा और उनकी इस गम्भीर गवेशपूर्ण कृति का समुचित समादर करके उन्हें प्रोत्साहित करेगा।

हम श्री शुभकरण जी सेक्सिरिया के परम आभारी हैं जिन्होंने अपने स्वर्गीय पिता और लघु भ्राता का चिरस्थायी स्मारक बनाने के हेतु लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग की ग्रन्थमालाओं के लिये आवश्यक निधि प्रदान की है। उनका यह कार्य अनुकरणीय है। प्रस्तुत पुस्तक 'सेठ केशवदेव सेक्सरिया स्मारक ग्रन्थमाला' का द्वितीय पुष्प है।

 
डॉ॰ दीनदयालु गुप्त दीनदयालु गुप्त।
एम॰ ए॰, डी॰ लिट॰
प्रोफेसर तथा अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय
 

विषय-सूची

प्रथम भाग  
  पृष्ठ
  १––२२६
भूमिका  
१. काव्य सौष्ठव २––५३
२. महाकाव्यत्व ५४––१२१
३. अपभ्रंश-रचना १२१––१३१
४. रासो-काव्य-परम्परा १३१––१३८
५, पुरातन कथा-सूत्र १३९––१९०
६. प्रामाणिकता का द्वन्द १९०––२२४
७. रेवातर २२४––२२६
द्वितीय भाग  
रेवातट समय १––१४८
परिशिष्ट  
१. रेवातट समय की कथा १५०––१५४
२. भौगोलिक प्रसंग १५५––१६६
३. पौराणिक प्रसंग १६७––१७७
४, संकेताक्षर १७८––१७९
५. विशेषचिह्न १७९
६. अनुक्रमणिका (भाग १) १८०––२००
७. अनुक्रमणिका (भाग २) २०१––२१९
८. सहायक ग्रन्थ, शिलालेख, पत्रिका आदि २२०––२२८
९. शुद्धिपत्र (भाग १) २२९––२३०
१०. शुद्धिपत्र (भाग २) २३१––२६३
 
चित्र-सूची—
१. महाराज पृथ्वीराज चौहान तृतीय
२. चौगान
३. राजपूत योद्धा
४. भारतीय अस्त्र-शस्त्र
 

प्रथम भाग

पृथ्वीराज चौहान तृतीय

(इंडियन म्यूज़ियम कलकत्ता के अधिकारियों के सौजन्य से)

भूमिका

बंगाल और लंदन की रॉयल एशियाटिक सोसाइटियों के त्रैमासिक- शोध-पत्रों के उन्नीसवीं शताब्दी के विविध अंकों में पृथ्वीराज रासो' पर प्राच्यविद्या-विशारद श्री बीम्स, ग्राउज़ और डॉ० ह्योनले के लेखों ने इस विषय पर लगन लगाये इन विदेशियों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करके हृदय में अनुराग और प्रेरणा को जन्म दिया ! कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष श्री ललितप्रसाद जी सुकुल एम ए ने न केवल प्रोत्साहित किया बरन् सारी कठिनाइयों को सदैव सुलझाते रहने का अश्वासन दिया और उक्त बिद्यालय के आधुनिक वागेश्वरी प्रोफेसर डॉ० नीहार रंजन राय ने बंबई और बंगाल की एशियाटिक सोसाइटियों के संग्रहालयों से रासो की प्रतिथ शीघ्र ही मेरे कार्य हेतु सेन्ट्रले-लयि री में संग्रहीत कर दी । तब तो प्रेरणा एक निष्ठा होकर कर्तव्य बन गई ।

जिज्ञासा उठना स्वाभाविक था कि क्या हिन्दी के लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वानों में रासो के प्रति अनुराग नही या वे संकोच अथवा किसी अंबज्ञावश उसको साधारण पाठक के लिये बोधगम्य नहीं बनाना चाहते है इतिहास की कसौटी पर बुरा न उतरने के कारण साहित्यिको की इस महाकाव्य के प्रति दुविधात्मक उपेक्षा तो कुछ समझ में आई परन्तु साहित्य की इस अनुपम पैतृक सम्पत्ति पर स्वाभाविक अनुराग होते हुए भी उनके मन में संकोच निहित देख पड़ा। आगे बढ़कर अलोचनाओं का लक्ष्य कौन बने ?

मैं नींव का एक तुच्छ पत्थर हैं जो पृथ्वी के अंतराल में उड़ा रहता हैं, तथा जिसकी और सहसा किसी का ध्यान नहीं जाया करता परन्तु उसकी भीत पर विश्व के चकाचौंध में डालने वाले भव्य प्रसाद का निर्माण होता है। उसी आगामी 'ताज' की प्रतीक्षा में रासो के रेवा-तट' का अपना प्रथम प्रयास मै वाणी के हिन्दी-उपासकों को सादर अर्पित कर रहा हूँ । सन् १९४१ ई० में प्रस्तुत सपथ’ कई कार्य समाप्त हो चुका था। तब से सन् १९५१ ई० तक इसकी पाण्डुलिपि सौभाग्य की प्रत्याशा में अपने दुर्भाग्य के दिन कई विश्व-विख्यात संस्थाओं की अलमारियों में बन्द रह कर काटती रही और मैं उनके बड़े नाम के प्रलोभन के नँवर-जाल में पड़ा रहा। हम हिन्दी लेखकों के जीवन में ऐसे दोभ और निराशा के क्षण एक आध बार नहीं श्रोते वरन् एक बवंडर सदृश चारों ओर से ग्रस्त किये रहते हैं। अपना रवून-पसीना एक करके, मर मिटकर प्रस्तुत की हुई हमारी कुतियाँ, बीस-पच्चीस रुपये पारिश्रमिक स्वरूप और वह भी एहसान की बोझ लादते हुए, कुकुरमुत्ते की तरह छाये, हिन्दी लेखकों के रक्त-मांस के आधार पर अपने ऐहिक सुखों‌ की निरन्तर अभिवृद्धि करने वाले व्यक्तिगत-प्रकाशक नामधारी कल शोषक जन्तुओं के चंगुल से बच जावे . महान सौभाग्य है । हिन्दी की बड़ी-बड़ी संस्थाओं में दलबंदी के कारण ये दिन पारस्परिक मुठभेड़ों से ही मुक्ति नहीं तब नये लेखक का पुरसाहाल कौन हो । इसी कशमकश में एक दशाब्द व्यतीत हो गया । अंततोगत्वा पंचतंत्र की ड्पोरशंख वाली कथा के वदामि ददामि नो' उपदेश साकार हो उठा । अंतरष्ट्रीय ख्याति के प्रलोभन के तिमिर-जल का तिरोभाव हुआ और आकाश-पुष्प की वास्तविकता का रहस्य उद्घाटित हो गया। लखनऊ-विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष और फेसर डॉ. दीन दयालु जी गुप्त इस कार्य को सन् १६४२ ई० में ही देख चुके थे, उन्हीं के प्रोत्साहन के फलस्वरूप इस प्रकाशन हो सका है !

रेवा-तट पर आने से पूर्व रासो सम्बन्धी कतिपय विवेचनायें विचारणीय हैं :

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।