रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)/भूमिका/१. काव्य सौष्ठव
हिंदी के अादि अथवा उत्तर कालीन अपभ्रंश' के अंतिम महाकवि चंदवरदाई ( चंद बलद्दि ) का ‘पृथ्वीराज रासो', १२ वीं शती के दिल्ली और अजमेर के पराक्रमी हिन्दू-सम्राट शाकम्री-नरेश पृथ्वीराज चौहान तृतीय तथा उनके महान प्रतिद्वंदी कान्यकुब्जेश्वर जयचन्द्र गहड़वाल, गुर्जरेश्वर भीमदेव चालुक्य और गज़नी लाहौर के अधिपति सुलतान' सुईजुद्दीन मुहम्मद बिन साम ( शाह शहाबुद्दीन री ) के राज्य, रीतिनीति, शासन-व्यवस्था,
सैनिक, सेना, सेनापति, युद्धशैली, दूत, गुप्तचर, व्यापार, मार्ग आदि का एक प्रमाण, समता विषमता की श्रृंखलालों से जुड़ा हुथा, ऐतिहासिक-अनैतिहासिक वृत्तों से आच्छादित, पौराणिक कथाओं से लेकर कल्पित कथा का अक्षय लुणीर, प्राचीन काध्य परम्पराओं तथा नवीन का प्रति-
पादक, भौगोलिक वृन्त की रहस्यमयी गुफा, सहस्त्रको अज्ञात हिन्दू-मुस्लिम योद्धाओं के पराक्रम का मात्र कोष, प्राकृत-अपभ्रंश कालीन सार्थक अभिव्यंजन करने में क्षम सफल छंदों की विराट पृष्ठभूमि, हिन्दी गुजराती और राजस्थानी भाषायों की संक्रांति कालीन रचना, गौड़ीय भाषाओं की अभिसंधि का उत्कृष्ट-निदर्शन, समकालीन युग का सांस्कृतिक प्रमाण, उत्तर भारत का अार्थिक मानचित्र, विभिन्न मतावलंबियों के दार्शनिक तत्वों का आख्याता, युगीन शकुन-अपशकुन, मंत्र-तंत्र, अंधविश्वास आदि की जी
तथा मानव की चित्त-वृत्तियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषक यह अपने ढंग का एक अप्रतिम महाकाव्य है परन्तु हिन्दी रचनाओं में संभवत: सबसे अधिक विवादग्रस्त है।
पाश्चात्य लेखकों की पढ़ाई इस पट्टी पर कि हिन्दुओं के यहाँ मुस्लिमों की अपेक्षा इतिहास लिखने की कोई पद्धति नहीं थी, योरोपी विद्वान् और उनके भारतीय अनुगामी रासो की परीक्षा करने बैठे क्योंकि उसकी परंपराओं की छाप न केवल परवर्ती साहित्य पर थी वरन् राजस्थान के उत्तर कालीन इतिहास को भी उसने प्रभावित कर रखा था। इधर दुभयवश इस महाकाव्य का प्रणेता कुर बैठा था अक्षम् अपराध ऐतिहासिक काय लिखने का। फिर तो उस बेचारे को कृति का पोस्टमार्टम परम आवश्यक हो गया और बात की खाल खींचकर रासो को अनैतिहासिक सिद्ध करनेवाले प्रमाण खुर्दबीन लगाकर दूड़े गये ।
सर्व प्रथम जोधपुर के मुरारिदान (चारण) ने (जे० आर० ए० बी०
बी० एस०, सन् १८७६ ई० में) और फिर उदयपुर के कविराजा श्यामलदास (चारण) ने (जे० आर० ए० एस० वी०, सन् १८८७ ई० में) चंद (भई) के रासो पर शंका उठाई परन्तु चारणों और भाटों के जातीय द्वेष की दुर्गन्धि का आरोप लगने के कारण इनके तक को अधिक बल न मिला । सन् १८७५. ई० में प्रो० बूलर को पृथ्वीराज के दरबार में कुछ बृत्ति तथा सम्मान पाये हुए काश्मीरी जयानक द्वारा प्रणीत पृथ्वीराज-विजय-महाकाव्य की
ताड़पत्र-लिखित एक अधूरी प्रति काश्मीर के हस्तलिखित ग्रन्थों की शोध करते समय प्राप्त हुई थी, जिसके अध्ययन का सार निकालते हुए उनके शिष्य डॉ० हर्बट मोरिसन ने (वियना अरियंटल जर्नल, सन् १८६३ ई० में) उसे वंशावली, शिलालेख, घटना आदि के आधार पर ऐतिहासिक और रास को इन्हीं आधार तथा एक बड़ी फारसी शब्द की संख्या के कारण अनैतिहासिक बोर्जित किया तथा मुरारिदान और श्यामनंदास के संत की पुष्ट्रि
की डॉ० बूलर अपने शिष्य की नवीन शोध से स्वाभाविक ही प्रभाति हो रॉयल एशियाटिक सोसाइटी आच बंगाल को ( प्रोसीडिंग्ज़, जे० आर० ए० एस० बी०, जन ७ दिसं० १८९३ ई० ) पत्र लिख बैठे——चंद के रासो का प्रकाशन बंद कर दिया जाय तो अच्छा होगा । वह ग्रंथ जाली है । इस पत्र की प्रतिक्रिया शन्न हुई और सोसाइटी में इस अनूठे काव्य के सुचहि सनद और अध्ययन में लगे हुए श्री बीम्स, ग्राउज़ और डॉ० ह्योनले जैसे मेधावी विद्वान् विरत हो गए तथा रासो की भूरि-भूरि प्रशंसा (मार्डन बनक्यूलर लिटरेचर व हिन्दुस्तान, ऋ० ३-४ में) करने वाले डॉ० सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन की भति फिर राई ( प्रोसी०, जे० आर० एस० बी०, १८९३ ई०) । पं.मोहनलाल बिष्णुलाल पांड्या, कवर कन्हैया जु , बाबू श्यामसुन्दर दास
और मिश्रबन्धु पर रासो के पक्षपात के अभियोग लगे । इस समय तक से को अनैहातिसिक सिद्ध करने वालों का पक्ष मुंशी देवीप्रसाद (ना० प्र० प०, भाग ५, सुदु १:०१ ३६, पृ० १७०} और महामहोपाध्याय पं: गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ( कोशोत्सव स्मारक संग्रह, सन् १६२८, ३०, पृ० २६-६६ ) ने ले लिया
था ! पृथ्वीराज विजय महाकाव्य' और उसके प्रणेता की बखिया उधेड़ने वाले (सरस्वती, नवंबर १९३४ ई०, जून १९३५ ई० और अप्रैल १९४२ ई०) महामहोपाध्याय पं० मथुरा प्रसाद दीक्षित ने अपने विविध लेखों द्वारा रासो को चंद की अधिकारी रचना सिद्ध करने का भरसक उद्योग किया परन्तु इन साहित्यकारों की आवाज़ इतिहासकारों के आगे नक्कारवाने में तूती की आवाज़ बन कर रह गई । रासो के ऐतिथे पर संदेह प्रकट करने वालों ने इतिहास
विरोधी बातों का रासो से संकलन करके दस-पाँच अकाट्य तर्क पेश किये परंतु साहित्यकारों को कवि चंद का साहित्यिक उत्तराधिकारी मान बैठने बालों के न्यायालय में क्या इतना सौजन्य न था कि वे यह भी बतलाते कि इस काव्य में ऐतिहासिक तथ्य कितने हैं । रासो की ऐतिहासिक विवेचनाओं की विशाल राशि के संतुलन में अनैतिहासिक तत्व नगण्य सिद्ध होंगे, जिनका
परवत प्रक्षेप होना भी असंभव नहीं है, यह एक साहित्यसेवी के नाते मेरा विनम्र प्रस्ताव हैं ।
फारसी इतिहासकारों के साक्ष्य पर रासौ और उसके रचयिता पर छींटे कसने वाले ही नहीं वरन् ‘मत क्रानिकल्स' उल्लिखित ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित पृथ्वीराज के सिक्कों के बायीं ओर (पट पर) हमीर' (<अ० अमीर) शब्द देखकर लगे हाथ भारतीय शौर्य के प्रतीक चौहान के चरित्र पर भी सुलतान शोरी की अधनता स्वीकार करने का आरोप लगाने वाले, अपनी
सुप्रसिद्ध पुस्तक 'दि फाउंडेशन व दि मुस्लिम रूल इन इंडिया' (१९.४५ ई०) के लेखक, इस समय डाका विश्वविद्यालय के इस्लामी संस्कृति विभाग के प्रोफेसर, डॉ० ए० बी० एम० हबीबुल्ला यह बताना क्यों भूल गये कि ये सिक्के मुहम्मद-बिन-साम (गोरी ) की हत्या के उपरांत रानी में ताजुद्दीन-याल्दुङ्ग
ने अपने शाज़ी स्वामी के सम्मान में डलवाये थे । क्वायन्स व राज़नावाइड्स ऐन्ड गोरियन्स}, हिस्ट्री व इडिया, इलियट ऐंड डासन, भाग २, अपेंडिक्सडी, नोट ३] । कुतुबुद्दीन ऐबक के सिक्के नहीं मिलते। अनुमान है कि वाल्दुज़ के ढलवाये सिक्के ही ऐबक के शासन काल में चलते रहे जिनमें से पृथ्वीराज और जयचन्द्र के कुछ दिल्ली-संग्रहालय में इस समय सुरक्षित हैं । यह भूलने का विषय नहीं कि कुतुबुद्दीन ऐबक के दरबारी हसन
निजामी का ताजुल- असिर और दिल्ली के सुलतान नासिरुद्दीन द्वारा सम्मानित मिनहाजुल्लिराज का नवकाते नासिरी द्वेष और असहिष्णुता से अतिरंजित हैं । सन् ११९२ ई० के तराई' वाले युद्ध के १३ वर्षों बाद अर्थात्सन् १२०५ ई० में जिस वर्ष इतिहास के अनुसार सुलतान गौरी की हत्या हुई थी ‘ताजुल-म सिर' की रचना आरंभ हुई थी और इलियट (वही, भाग २, पृ० २०५) का कथन है कि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उस पर अधिक विश्वास
नहीं किया जा सकता ! 'ताज' में लिखा है कि अजमेर का राय बंदी बना लिया गया परन्तु उसके प्राण नहीं लिये गये, फिर एक ड्यंत्र में उसका हाथ पाकर उसका सिर उड़ा दिया गया (वही, इलियट, भाग २, पृ० २१५) । मिनहाज ने तक़ाते नासिरों में लिखा है कि सुईनुद्दीन नामक व्यक्ति शोरी की सेना के
साथ ११९२ ई० के तराई वाले युद्ध में था, उसने बताया कि पिथौरा अपने हाथी से उतर कर एक घोड़े पर चढ़ कर भागा परन्तु सरस्वती के समीप पकड़ा गया और मौत के घाट उतार दिया गया (वही, इलियट, भाग २, पृ० २६.७) । पृथ्वीराज की मृत्यु के लेकर सी० बी० बैद्य (हिस्ट्री व मेडीव हिंदू इंडिया, भाग ३, पृ० ३८५) और डाँ० हेमचन्द्र (डाइनेटिक हिस्ट्री
अवि इडिया, भाग २) के निष्कर्षों पर हरताल फेरने वाले हबीबुल्ला ऐतिहासिक• भीत तो न उठा सके, अपने द्वेष की छाप अवश्य छोड़ गये । कुवर देवीसिंह ने दिल्ली-संग्रहालय के एच० नेल्सन राइट के सूचीपत्र में मुहम्मद शोरी के एक चाँदी के सिक्के के पट की ओर श्री मुहम्मद बीन साम और चित भाग पर श्री पृथ्वी राज्ञा देव' नागरी लिपि में लिखें होने की चर्चा (ना० प्र० प०, वर्ष ५७, अंक १, सं० २००६, वि०, पृ० ५६
६० में) करते हुए अपना निष्कर्ष निकाला है-“पृथ्वीराज होराई" के युद्ध में
सारा नहीं गया, केवल बंदी बना लिया गया था और इसीले उसके नाम का उपयोग हो सका ।' अनुमान है कि याल्दुज़ के ग़ज़नी वाले सिक्कों की भाँति ये सिक्के भी गौरी की मृत्यु के बाद उसके सम्मानार्थ डाले गये होंगे । परमेश्वरीलाल गुप्त ने (ना० प्र० ५०, वर्ष ५७, झक २-३, सं० २००६ वि०, पृष्ठ० २७०-७३ में) लिखा है कि इस प्रकार का सिक्का केवल एक ही ज्ञात है।
और यह टकसाल के अधिकारियों की भूल से छप गया है अस्तु देवीसिंह की यह कल्पना कि पृथ्वीराज तराई के युद्ध में बंदी बना लिये गये थे ग्राह्य नहीं जान पड़ती। ‘सिक्का एक ही है और भूल से छप गया है’——यह प्रमाण संगत नहीं प्रतीत होता है देवीसिंह का निर्णय रासो की बात की प्रतिपादन करता है कि तराई वाले युद्ध में धृथ्वीराजे बंदी बनाये गये थे। रासो के
अनुसार शोरी को चौदह बार बंदी बनाने वाले पृथ्वीराज उससे उन्नीसवें युद्ध में स्वयं वदो हुए और राजनी में चंद की सहायता से शब्दवेधी बाण द्वारा सुलतान को उसके दरबार में मार कर स्वयं आत्मघात करके मृत्यु को प्राप्त हुए। पृथ्वीराज प्रबंध' में वर्णित है कि सुलतान को एवं बार 8 बद्धव बद्धव मुक्तः, करदश्च कृत;' पृथ्वीराज अतिम युद्ध में अपने मंत्री प्रतापसिंह के षड़यंत्र के कारण बंद किये थाये और पुनः उसी के घड़यंत्र से उन्होंने
सुलतान की लौह-मूर्ति पर बाण मारा जिसके फलस्वरूप उन्हें पत्थरों से भरे गढ़ में ढकेल कर मार डाला गया पुरातन प्रबंध संग्रह, पृ० २६-७) । साहित्यिक भावनाओं से वृत्त रास के वृत्तांत में सत्य को अंश अवश्य ही गुम्फित है, ऐसा अनुमान करना अनुचित न होगा ।
सन् १९३६ ई० में बम्बई से एक सिंह गर्जन हुआ (पुरातन प्रबंध संग्रह, प्रास्ताविक वक़व्य, पृ० ८-१०)। जैन-अंथागारों में सुरक्षित पृथ्वीराज और जयचंद्र के संस्कृत प्रबंधों में आये चंद बलद्दिउ (चंद वरदाई) के अपभ्रंश छंदों के आधार पर जिनमें से तीन सभा वाले रासो में किंचित् विकृत रूप में वर्तमान हैं, विश्वविख्यात वयोवृद्ध साहित्यकार मुनिराज जिनविजय ने घोषणई की है कि पृथ्वीराज के कवि चंद वरदाई ने अपनी मूल रचना अपभ्रंश में की थी। इस गर्जन से स्तम्भित होकर चंद वरदाई नाक के अस्तित्व को अस्वीकार कर देने वाले इतिहासकार चुप हो गये, गुम-सुम, खोये हुए से, किसी नवीन तर्क की आशा में शिलालेखों और ताम्रपत्रों की जाँच में संलग्न । खैरियत ही हुई कि शिलालेख मिल गये, नहीं तो कौन जानता है पृथ्वीराज, जयचन्द्र और भीमदेव का व्यक्तित्व भी इन इतिहासकारों की प्रौढ़ लेखनियों ने ख़तरे में डाल दिया होता । ये कभी कभी भूल जाते हैं। कि इनके ऐतिहासिक सिद्ध करने वाले तत्वों द्वारा दिये गये प्रमाणों के अभाव में लिखित साहित्य से ही नहीं वरन् लौकिक साहित्य के अाधार तक से भी इतिहास का कलेवर भर जाता है । रासो अपने ऐतियों का मूल्यांकन करने के लिये फिर उनसे माँग कर रही है और यदि उन्होंने पक्षपात को न अपनाया तो कल्हण की ‘राज तरंगिणी' सदृश रास भी उन्हीं के द्वारा एक अपवाद मान लिया जायेगा।
मुनिराज जिनविजय की रासो की बात संबंधी चार अपभ्रंश छंदों की शोध ने जहाँ एक और डॉ० दशरथ शमी को ‘राजस्थान भारत में प्रकाशित अपने कई लेखों में यह दिखाने के लिये प्रेरित किया कि अपभ्रंश और प्राचीन राजस्थानी में अति अल्प अंतर है तथा मूल रूप में उत्तर-कालीन अपभ्रंश रत्रित ‘धृथ्वीराज-रासो' का विकृत रूए ना० प्र० स० वाला प्रकाशित रासो है वहाँ दूसरी योर मोतीलाल मेनारिया ने (राजस्थान का सिंगल साहित्य, सन् १९५२ ई०, पृ० ३-३८ में ) लिख...जिस प्राचीन प्रति में ये छप्पय मिले हैं वह सं० १५२८ की लिखी हुई है। इससे मालूम पड़ती है कि चंद नमक कोई कवि प्राचीन समय में, कम से कम सं० १५२८ से पहले हुआ अश्श्य है। परंतु वह चंद कब हुआ, कहाँ हुअा, वह किस जाति का था, उसने क्या लिखा इत्यादि बातों का कुछ पता नहीं है। अत: उस चंद का अधुना प्रचलित पृथ्वीराज रासो से सम्बन्ध जोड़ना अनुचित है। क्योंकि इसकी भाषा स्पष्ट बतलाती है कि वह विक्रम की १८ वीं शताब्दी से पूर्व की रचना नहीं है । परन्तु नृथ्वीराज-प्रबंध' में चंद का नाम मात्र ही नहीं है वरन उसकी भट्ट जाति का भी उल्लेख है तथा पृथ्वीराज के शोरी से अंतिम युद्ध मैं उसके एक गुफा में बंद होने का भी वर्णन है । इसके अतिरिक्त पृथ्वीराज और जयचन्द्र' का बैर, पृथ्वीराज का अपने मंत्री कईंबास (कैमास) दाहिम को ब्राणु से मारना और बंदी होने पर सुलतान के ऊपर बाण चलाना भी वर्णित है। थे सभी बातें प्रकाशित रासो में वर्तमान हैं तथा इन प्रबंधों के तीन छप्पये भी उसमें विकृत रूप में पाये जाते हैं। ‘जयचंद्र प्रबंध' में ये दो छप्पय चंद के नहीं वरन् उसके पुत्र ‘जल्हुकइ’ (जल्ह कवि) के हैं जो रासो के अनुसार चंद का सबसे श्रेष्ठ पुत्र था और जिसे (पुस्तक अल्हन हस्त दै चलि' गज्जन नृप काज ) रासो की ( पुस्तक समर्पित करके कवि पृथ्वीराज के कार्य हेतु राज़नी गया था । इतने प्रमाणों की उपेक्षः कैसे की जा सकती है ? जहाँ तक भाषा का प्रश्न है यह किसी रासो प्रेमी से नहीं छिपा कि उसका एक बड़ा अंश एक विशेष प्रकार की प्राचीन हिंदी भाषा में है। ऐतिहासिक वाद विवादों के कोलाहल से दूर, ताम्रपत्रों की नीरसे जाँच से पृथक तथा वंशावलियों, पट्टे परवानों और शिलालेखों के द्वंद से अलग पृथ्वीराज रासो' हिंदी साहित्यकारों की अमूल्य विरासत है। काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से यह एक अनूठी रचना है। विविध चीर-फाड़ अंतत: इसके लिये हितकर ही हुई और अनेक भर्मज्ञ इसका रसास्वादन करने के लिये उन्मुख हुए।
इस काव्य के अादि (सत सहस ना सित्र सरस; १-९६०) तथा अंत (सहस सत्त रूपक सरस;६७-५०) में कवि ने स्पष्ट लिख दिया है कि रासो मैं सात हजार रूपक हैं परन्तु मा प्र० स० द्वारा प्रकाशित रासो की वृहत् वाचना में ६९ समय और १६३७६ छंद पाये जाते हैं । इस प्रकार देखते हैं कि सो का आकार बुल से सवा दो गुना अधिक बढ़ गया है। पंजाब विश्वविद्यालय के दूलनर द्वारा विज्ञापन सौ की रोटो वाली प्रति या माध्यम बचना में प्राय छंद की गणना के हिसाब से छेद संख्या लगभग ७००० है, बीकानेर और शेखावटी (जयपुर) की रासो की लघु वाचना में १६ समय हैं और छेद संख्या ३५०० है तथा गुजरात के धारणोज गाँव की लघुतर वाचना वाली प्रति में छेद संख्या १३०० हैं। ये तीनों संस्करण अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं। परन्तु जहाँ तक ऐतिहासिक आक्षेपों का प्रश्न है वे इनमें भी अंशत: वर्तमान हैं । प्रकाशित रासो में प्रक्षेपों के घटाटोप की संभावना को भलीभाँति जानते हुए भी वर्तमान स्थिति में उन्हें श्रृथक करने की कठिनाई के कारण उस संपूर्ण सामग्री की काय की कसौटी पर लाने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
काव्यों में विस्तृत विवरण के दो रूप होते हैं--एक वस्तु वर्णन द्वारा शौर दूसरा पात्र द्वारा भावाभिव्यंजना से ! वस्तु वर्णन की कुशलता इतिवृतात्मक अंश को बहुत कुछ सरस बना देती है । सो में ऐसे फटकर धनों का ताँता लगा हुआ है जिन्हें कवि ने वन विस्तार हेतु चुना है । संक्षेप में उनका उल्लेख इस प्रकार है :
व्यूह-वन-भारत की हिन्दू सेनाओं का व्यूह बद्ध होकर लड़ने
को विवरण मिलता है और कभी-कभी मुस्लिम सेना को भी किसी भारतीय व्यूह को अपनाये युद्ध करता हुआ बतलाया गया है। व्यूह-वर्णन के ढङ्ग झी परम्परा कबि को महाभारत से मिली प्रतीत होती है। एक चक्रव्यूह का प्रसंग देखिये जिसके अर्जुन के अन्त में बड़े काव्यात्मक ढंग से कवि' कहत है कि अरुणोदय होते ही इण का उदय हुआ, दोनों श्रोर के सुटों ने लुले-
वारें खींच लीं, फिर युद्ध रूपी सरोवर में तलवारों रूपी हिलोरें उठीं और हंसात्म रूप कमल खिल उठे
इस निसि वीर कढिय समर, काल फेद अरि कढि ।
होत प्रति चित्रंरा पहु, चकाव्यूह रचि ठढूिढ |! ७०
समर सिंह रावर । नरिंद कुण्डल अरि धेरियं ।।
एक एक असवार । बीच विच प्राइक फेरिय ॥
मद सरक्क तिन अग्ग । बीच सिल्लार सु भीरह' ।।
गोरंधार विहार । सोर छुट्टी कर तीरह |.
रन उदै उदै बर अरुन हुआ ! दुहू लोह कढूढी विभर ।।
जल उकति लोह हिल्लोर | कमल हंस नंचै सु सर ।।७१, स० ३६
लगभग तत्कालीन फ़ारसी इतिहासकारों ने हिन्दू सेना को बिना किसी ढंग के अस्त-व्यस्त युद्ध करने वाला बयान किया है तथा अपने पक्ष की युद्ध-शैली का विवरण देते हुए कहीं यह उल्लेख नहीं किया है कि उनमें भार-तीथ-युद्ध-पद्धति कभी अपनाई जाती थीं ।।
नगर-वर्णन–अनेक नगरों, ग्रामों और दुर्गा का अल्लेख करने वाले इस महाकाव्य में अन्हलवाड़ा पट्टन, कन्नौज, दिल्ली और ग़ज़नी के वर्णन विस्तृत हैं जो संभवतः युगीन चार प्रतिनिधि शासकों की राजधानियाँ होने के कारण किये गए प्रतीत होते हैं। इन वर्णनों को अनुमान या काव्य-परंपरा के अधिार पर नहीं किया गया है वरन् इनमें एक प्रत्यक्षदर्शी का सो अनुभव सन्निहित है । पइनपुर के वर्णन का एक अंश देखिये :
तिन नगर पहुच्यौ चंद कवि । मनों कैलास समाज लहि ।।
उपकं पहले सागर अबला । सन साह चाहने चलहि ॥ ५०
सहर दिवि अंप्रियन | मनहू बहर वाहन दुति ।।
इक चलंत । इक्क ठलवंत नवन भत्ति ।। .
मन दंतन दंतियन } इली उपर इल' भार ।
विप भारथ परि दसि । किए एक व्यापार ।।
रजकैब लष्प दस बीस बहु । दोह गंजन बदह परयौ ।।.
अनेक चीर सूपरु फिरंग । मनों सेर कं भरयौ । छं० ५१,'स० ४६
पनघट-वर्णन–श्रीमद्भागवत् में यमुना तट पर की हुई कृष्ण की
लीला के वर्णन ने कालांतर में क्रमश: साहित्य में धनष्ट वर्णन की परंपरा का सृजन किया होगा । रासकार ने भी पनघट की चर्चा की है। पश्चनपुर । और वहाँ की सुन्दरियों का वर्णन करते हुए कवि का कथन है कि अप्सरा जैसी कामिनियाँ कामदेव के रथ से उतर कर अपने घड़े भर रहीं थीं :
भरे जु कुंभयं घने, इक्षा सु पानि गगन ।
असा अनेक कुंडन, .... .... ....। ५६
सरोवर समानयं, परीस रंभ जानये ।।
बतक्क सारे संमय, अनेक हंस क्रस्मयं ।। ५७
भरै सु नीर कुंभयं, ... .... ....
| अरुढ काम रथ्थर्य, सु उत्तरी समथ्र्य ।। ५८, स० ४२
कन्नौज में जर्जरित ( चौथे प्रहर की } रात्रि में बट लिये हुए, कुर्ला पर 'पट डाले, गंगा तट पर एक सुन्दरी को विचरण करते देख कवि ने उक्ति की कि यह मुक्ति-तीर्थ पर काम-तीर्थ की हथलेवा ( पाणिग्रहण } है :
ज़रित रयन घट सुदरी, पुट कुरन तट सेब !
मुरति तिथ अरु काम तिथ, मिलहि थह हथलेव ।। ३२३
तदुपरांत कवि की पैनी काव्य-दृष्टि रूप-सौंदर्य का चित्र खींच देती
है-दो सुवर्ण अंगों को जिनके कंठ प्रदेश पर भौंरे क्रीड़ा कर रहे हैं उन्हें पुष्प सदृश कामराज के प्रसन्नतार्थ पूजा करने के हेतु लिये है, उसके उदर में त्रिवली है और वहीं इसकी कटि में घंटियों का मधुर स्वर हो रहा है। इस प्रकार अनंग के रंग की वीर वाली उस सुन्दरी और मुक्ति का त्रिवेणी पर मेल हुआ है :
उभय कनक सिंको भृग कंठीव लीला ।
पुहप ग्रुनर पूजा विप्रवे कामराजं ।।
त्रिवलिय गंगधारा मद्धि बंटीव सबदा ।
मुगति सुमति भीरे नंग रंग त्रिवेनी ।। ३२४
थोड़ा और लागे बढ़कर देखा कि चंचल नेत्रों वाली चपल तरुणियाँ
तथा अपने दृष्टिपात से चित्त हरण करने वाली सुन्दरियाँ सुवर्ण कलशों को झकोर कर गंगा-तट पर जल भर रहीं थीं———
द्रिग चंचल चंचल तरुनि, चितवत चित्त हरति ।
कंचन केलेस झकौर कें, लु दर नीर भरंति ।। ३३८
इसी स्थल पर कवि ने भावी रोमांस का शिलान्यास करते हुए नारी-सौंदर्य का लुभावना चित्र खींचा है } जयचंद की सुन्दरी दासियाँ अभी जल ही भर रहीं थीं कि अचानक उनमें से एक का चूघट सरक गया और सामने सौंदर्य के सागर पृथ्वीराज दिखाई पड़ गये। फिर क्या था, हाथ को सोने
का घड़ा हाथ में ही रह गया, घूघट खुला का खुला रहा, वाणी कध गई,उरोजों के तट प्रदेश पर प्रस्वेद कए झलक उठे, होंठ करने लगे, आखों में जल भर अाया, जड़ता और आलस्य के लक्षण जभा और स्वेद प्रकट हो गये, गति शिथिल हो गई । सात्विक काम विकारों से चौंक कर वह
सुन्दरी भारा गई और भागते-भागते पृथ्वीराज को निहारती गई, खाली घड़ गंगा-तट पर पड़ा रह गया:
दरस त्रियन दिल्ली नपति सौजन घट पर हथ्थे ।
बर घूघट छुटि पट्ट गौ सटपट परि मनमथ्थ ||
सटपट परि मनमथ्थ भेद वचे कुच तद श्रेदं ।
उष्ट कूप जल द्ररान लगि जंभात भेदं ।।।
सिथिल तु गति लजि भगति गलत पुडरि तन सरसी ।
निकट निजल घट तजें मुहर मुहर पति दरसी ।। ३७०, स० ६१ पनघट-बशन भारतीय कवियों की नारी-रूप-सौंदर्य बन की प्रतिभा के निखार का एक अच्छा अवसर प्रस्तुत करता आया हैं । सूफ़ी कवि जायसी ने ‘पदमावत' में शुक मुख द्वारर सिंहलद्वीप का वर्णन कराते हुए पनघट की हंसगामिनी, कोकिल वयनी सुन्दरी पनिहारिनों की भी चर्चा कराई हैं जिनके शरीर से कमल की सुरान्धि आने के कारण भौरे साथ लगे फिरते थे। चन्द्रमुखी, भृगनयनी बालाओं ने पनघट पर ही बूढे आचार्य केशव को बाबा संबोधन करके उनकी अतृप्त-कास-तृष्णा को ठेस पहुँचाई थी और कवि इस विडंबना के प्रत्यक्ष-मूल-कारण अपने निर्जीव श्वेत केशों की भल्सना कर उठा था। रीति-कालीन कवियों ने अपनी काफ़ी प्रतिभा पनघट के दृश्यवर्णन में ख़र्च की है।
विवाह-वन-रासो में कई विवाहों का उल्लेख है परन्तु दो विवाह 'इच्छिनि व्याह’ और ‘प्रिथा व्याह’ विस्तृत रूप से दो स्वतंत्र प्रस्तावों में वृणित हैं। इनमें हमें ब्राह्मण द्वारा लग्न भेजने से लेकर तिलक, विवाह हेतु यात्रा और बारात, अगवानी, तोरण, कलश, द्वारचार, जनवासा, कन्या का शृंगार, मंडप, मंगल गीत, गाँठ बंधन, गणेश, नवग्रह, कुलदेवता, अग्नि, ब्राह्मण आदि के पूजन, शाखोच्चार, कन्यादान, भाँवरी, ब्योनार, दान, दहेज, विदाई और वधु का नख-शिख सभी विस्तार पूर्वक पढ़ने को मिलते हैं । ये विवाह साधारण व्यक्तियों के नहीं वरन् तत्कालीन युग के प्रमुख शासकों पृथ्वीराज और चित्तौड़-नरेश रावल समरसिंह (सामंतसिंह) के हैं अतएव इनमें हमें राजसी ठाट-बाट और अनुकूल दान-दहेज का वर्णन मिलता हैं । हिन्दू के जीवन के सोलह संस्कारों में विवाह प्रथा भी एक है और इस पर रूढ़िवादी जाति ने अपनी परंपरायों में साधारणतः परिवर्तब्द स्वीकार नहीं किए हैं; रस में जो दो चार कहीं-कहीं दिखाई भी पड़ जाते हैं वे मूल में प्रादेशिकता के योग मात्र हैं। कन्या के श्रृंगार-वर्णन में कवि को पुष्पों, बों और आभूषणों की एक संस्था देले का अवसर भी मिल गया है।
नल-दमयंती, कृष्ण-रुक्मिणी, ऊश-अनिरुद्ध आदि के विवाहों की परंप के दर्शन पृथ्वीराज के शशिवृत और संयोगिता के साथ विवाहों में होते हैं। शुक-मुख द्वारा पूर्वराग से प्रारम्भ होकर और अंत में विलक्षण रीतियों से हरण और युद्ध का बड़ा ही सजीव चित्र कवि ने खींचा है तथा अपनी बुद्धि और मौलिकता से इन प्रसंगों को अत्यंत सरस बन गया है ।
युद्ध-वर्णन——रासो जैसे वीर-काव्य मैं इनकी दीर्घ संख्या होना स्वाभाविक है। ये वर्णन विस्तृत तो हैं हीं परन्तु साथ ही वर्णन कुशलता और अनुभूति के कारण अपना प्रभाव डालने में पूर्ण समर्थ हैं। कवि की प्रतिभा का योग योद्धाअों के उत्साह की सुन्दर अवतारण करा सका है। कर्म-बंधन को मिटाने वाले, विधि के विधान में संधि कर देने वाले, युद्ध की भयंकर विषमता से क्रीज़ करके रण-भूमि में अपने शरीर को सुगति देने वाले, बल- बान और भीष्म शूर सामंत स्वामी के कार्य में मति रखने वाले हैं। स्वामि—कार्य में लगकर इन श्रेष्ठ अति वालों के शरीर तलवारों से खंड-खंड हो जाते हैं और शिव उनके सिर को अपनी मुडमाला में डाल लेते हैं। :—
सूर संधि विहि कहि । क्रम्म संधी अस तोरहि ॥
इक लष्ष शाहुटहिं । एक लष्त्रं रन मोरहि ।
सुवर बीर मिथ्या । विवाद भारथ्थह घंडै ।।
विच्चि वीर राजराज ! वाद अंकुस को मंड़ै ।।
कलहंत केलि काली विषम । जुद्ध देह देही सुगति ।।
सामंत सूर भीषम बलह। स्वामि काज लग्गेति मति ! ७२०
स्वामि काज लग्गे सुमति । षंड षंड धर धार।।
हार हार मंडै हियै । गुथि हार हर हार !} 9२१, स० ०२५
ज्योनार-बर्णन के मिस कवि ने विधि-विधि के भोजनों की अपनी
जानकारी प्रदर्शित करने का अवसर पाया है। परन्तु जायसी और सूदन की भाँति उसका वर्णन खटकने वाला नहीं है। राजा के भोज में पारुस का विधिवृत् वर्णन इस प्रकार किया गया है कि वह प्रधान कथानक का अंश बन गया हैं । महाराज पृथ्वीराज के राजसी ठाट-बाट के अचित्य का निर्वाह करते हुए
कवि ने युग के खाद्य पदार्थों पर यथेष्ट प्रकाश डाला है। मुझे से पास प्रारम्भ हुई तथा नाना प्रकार की मिठाइयाँ परोसी जाने लगीं....नाना प्रकार की चबाने योग्य वस्तुयें आई, इसके बाद दरकारियाँ और दूध में बनी हुई भाँति-भाँति के अनेक चीजें परोसी गई,...नाना प्रकार के शक और दालें आई....अंत में थोड़ी क्षुधा शेष रहने पर पछावर की परत प्रारम्भ हुई ।
पूप अनूप पुरूस पुनि, पुरी सुष्यपुरि भैलि ।
ललित लूई त चलै, ऊँच रती बिधि बेलि ।। ७२
भरि पीठि भीतर लोन सिलोध, कचौरिय मेलि चले ढुजराय ।।
घरे निसराज सिवा जनु फेरि, धरे ढिग बदर भाँवर हेरि ||७३
सु तेवर घेवर पैसल पारि, लचे चष फेरि गई उर आगि ।
जलेबनि जेब कहै कवि कौन, महा मधु माठ मिटावन मौन ।।७४, स० ६३
स्त्री-भेद-वर्णन—'काम सूत्र’ और ‘रति मंजरी' आदि में विवेचित काम के आधार पर चार प्रकार के स्त्री भेद-पद्मिनी, चित्रिनी, हस्तिनी, और संखिनी के वर्णन करने का अवसर रास जैसे युद्ध और श्रृंगार काव्य की रचयिता क्यों न पाता। उसके पूर्ववर्तियों ने भी इनके वर्णन किये थे और एक प्रकार से इसे श्रृंगार-काव्य में वर्णन परंपरा का अंग बना दिया था। राजे की ‘पद्मिनी’ देखिये :
कुटिल केस पदमिनी । चक्र हस्तन तन सोभा ।।
स्निग्ध दंत सोभा विसाल । गंध पद्म आलोभा ।।
सुर समूह हेली प्रमांन । निद्रा तुछ जंपै ।।
अलप वाद मित काम । रस्ते अभया भये कंपै ।।।
धीरज छिमा लच्छिन सहज । असन बसन चतुरंग गति ।।
झाबंक लोइ तन्गै सहज । काम बनि भूलंत रहि ।।१२६, स० ६३
घट्ऋतु-बारह सास-वर्णन——रास के ‘देवगिरि समय में वर्षा और शरद का चित्रण है और ये बयान पृथ्वीराज द्वारा यादव कुमारी की प्राप्ति-हेतु-विरह में संचारी रूप में आये हैं। पुरुष-विरह-हेतुक थे बर्णन ऋतु विशेष के स्पष्ट सूचक भी हो सके हैं। पट ऋतुओं और उनमें प्राकृतिक उद्दीप; होने के कारण वियोगियों की व्यथा का प्रभावोत्पादक वर्णन करने का असः कवि ने कनवज्ज खंड' से० ६१ में युक्ति से खोजा है । पृथ्वीराज कन्नौज : के लिए कटिबद्ध हैं परन्तु विपक्षी प्रवल है अस्तु वहाँ से कुशल पूवक नौट
आने में शंका है इसलिए वे अपनी पुरानी इच्छिनी से आज्ञी लेने के लिए
उसके महल में जाते हैं । यह वसंत ऋतु हैं और रानी वसंत का आगमन और उसमें अपना विरह निवेदन करके राजा को रोकती है:
यामंगं कलधूत नूत सिघरं, मधुरे मधू वेष्टिता ।
बाते सीत सुगंध मंद सरसा, अलोल संचेष्टिता ।।
कंठी कंठ कुलाहले मुकलया, कामस्य उद्दीपने ।
रते रत्त वसंत मत्त सरसा, संजोग भौगयते ।।९
इसी प्रकार के चार छै छंद और सुनने पर राजा वसंत भर उसके पास रुक गये । ग्रीष्म ऋतु के आगमन पर वे रानी पुडोरिनी से जाने की अनुमति लेने जाते हैं। पुडीरिनी उनसे ग्रीष्म में दिनों की दीर्घता, दाघ का कोण, अनंत बवंडर, रात्रि में मार्ग-जमन, जल की अदृश्यता, तपे हुए शरीर को चंदन द्वारा शीतलता, चन्द्रमा की मंद ज्योत्स्ना आदि का वर्णन करके उन्हें उक्त ऋतु भर अपने पास ठहरने के लिए कहती है :
दीहा दिध्ध सदंग कोप अनिला, अविर्त मित्ता करें ।
रेन सेन दिसान थान मिलनं, गोमग आडंबर |
नीरे नीर अपीन छीन छप्या, तपय तरुया तनं ।।
मलया चंदन चंद मंद किरन, ग्रीष्मं च षेवनं ।।१८
पूर्वानुसार कुछ छंद सुनने पर राजा अभिभूत होकर उसके पास रुके जाते हैं और वर्षा ऋतु आ जाती है । उस युग में वर्षों में यात्रायें नहीं होती थी और जाना आवश्यक होने पर पर्थिक जुन घोड़ों के स्थान पर नावों से यात्रा करते थे——
दिसि पावासुम थक्किय णियकज्जगमिहिं,
गमिथइ विहिं मश्गु पहिय । तुरंगमिहिं }} १४२;संदेश-रासक ।
फिर भी ऋतु-वर्णन की योजना तो कवि कर ही चुका था अस्तु पृथ्वीराज व अाचे पर रानी इन्द्रावती के घर जाते हैं जो प्रिय का गमन सुनकर दु:ख में भर जाती है और उमड़ते हुए अाँसुओं सहित उत्तर देती है:
पीय वदन सो प्रिय परषि । हरष न भय सुनि गोंन ।
असू मिसि असु उपटै । उत्तर देय सलोन ||२६....
• जे बिजुझझल फुट्टि तुष्टि तिमिरे, पुन अंधनं दुस्सहं ।
बंद घोर तरं सहंत असहं, वरषा रस सारं ।।
बिरहीनः दिन दुष्ट दारुल भरं, भोगी सर सोभनं ।
मा मुक्के पिय गोरियं च अबलं, प्रीतं तया तुच्छया ।। ३५
बारहवीं शती के जिन पद्म सूरि ने अपने स्थूलभद्दफाय' में वर्षा वाले में कामीजनों को अपनी रमणियों के चरणों में गिर कर उन्हें मनाने का वर्णन किया हैं :
झिरमिरि झिरमिरि झिरमिरि ए मेहा बरिसति । खलहल खलहल खेलहल ए बादला वहति ।। झबकुछ झवझव बिझने ए बीजुलिय झबक्कइ । थरहर थरहर थरहर ए विरहिणि भणु कंपइ ।। ६ ।। महुर गांभीर सरेण मैह जिसि जिमि गाजते ।। पंचबाण निय-कुसुम-बाण तिम् तिम साजते । जिम जि केतकि महमहंत परिमल विहसावइ । तिम तिम् कामिय चरण लगि निय रमणि मनावः ।। 9</poem>
अस्तु ग्रीष्म में रानी पुडीरिनी के महल में काम रूप करि गय नपति’ रसिक पृथ्वीराज वर्षा में ऋतु की प्रेरणा से इन्द्रावती के महल में क्यों न जाते हैं।
तदुपरांत 'वरिखा रितु गई उरद रितु वलती, वाखाणिसु वयणा वयशि ( बेलि ) ऐसी सुदर शरद ऋतु के आने पर राजा ने रानी हंसावतों से पूछा और उसने उक्त ऋतु का वर्णन करते हुए कहा कि हे कांत शरद बड़ी दारुण होने से असह्य है, इससे भवन त्याग कर गमन मत करो——
इप्पन सम अाकास । श्नवत जल अमृत हिमकर ।।
उज्जल जल सलिता सु । सिद्धि सुदर सरोज सर ।।
प्रफुलित ललित लतानि । करत गुजारव भमर ।।
उदित सित निसि नूर । अगि अति उमगि अंग बर।।
तलफंत प्रान निसि भवन तन । देषत दुति रिति मुष जरद ।।
नन करहु भगवन नन भवन तजि । कैते दुसह दारुन सरद ॥४२
वैसे शरद ऋतु में राजा-राण अभियान के लिये सन्नद्ध हो जाते थे परंतु हंसावती के लिये सरदाथ दरदायने’ पाकर पृथ्वीराज ठहरने के लिये विवश हो गये ।
फिर हेमंत ऋतु अई, राजा को हंसावती से छुटकारा मिला और
रानी कुरंभी के महल' की ओर विदा लेने के लिये बढ़े। उसने कहा-दिन छोटे होने लगे, रात्रि बढ़ने लगी, शतं की साम्राज्य छा गया, स्त्री पुरुष अनंग के आलिंगन पाश में बद्ध होकर शय्या की शरण लेने लगे, इस ऋतु में हिम जिस प्रकार कमलिनी को जला डालता है उसी प्रकार वह वियोगिनी
तरुणी बोला को भी कवलित कर लेता है अतएव इस हेमन्त में अपनी प्रमदा को निरावलम्ब छोड़कर मत जाय } और मानव शरीर के दो ही धर्म हैं ग या योग, चाहे वनिता का सेवन करे चाहे वन का, चाहे पंचाग्नि की साधना करे चाहे उरोजों की उष्णता से अपना शारीरिक शीत निवारण करे, चाहे गिरि कंदराओं का जलपान करे चाहे अधरों का रस पिये, चाहे योग की निद्रा के मद में अलसित स्हे चाहे सुदरब' धारण करे, चाहे अनुराग त्याग दे और चाहे राग से मन सँग ले तथा चाहे पर्वतीय झरनों के कलकल से प्रीति करे चाहे स्त्री के मधुर वचनों में अनुरक्त हो । इस ऋतु में विराट विश्व की त्राण इन्हीं विधियों के द्वारा हो सकता है तथा सुर और असुर भी ये ही मार्ग ग्रहण करते हैं :
छिन्नं सुर सीत दिब्य निया, सीतं जनेतं बने ।
सेज सज्जर बस्न बनितया, अनंग अलिंगने ।
यौं बाल तरुनी वियोग पतनं, नलिनी दहनते हिमं ।
मा मुक्के हिमवंत मन्तै गमने, प्रमुद्रा निरालम्बनं ।}४९....
देह धरे दोगति । भौग जगहे तिन सेवा ।।
कै वन कै वनिता । अगनि तप के कुच लेवा || .
गिरि केंदर जल पीन ( पियन अधरारस भारी ।।
जोगिनीद सद उमद् । के छगन वसन सवारी ॥
अनुराग बीत कै रो मन ! बचन तय गिर झरन रति ।।
संसार बिकट इन विधि तिरय ! इही विधी सुर असुर अलि।।५१
| फिर राजा को कुछ द्रवित होता देखकर रानी रोमावली रूपी वनराज और कुच रूपी पर्वत का प्रसंग चला कर उनके कंठ से लग गई——
रोनावलि ने जुथ्थ । वीच कुच कूट भार गज ।।
हिरदै जल विसाल । चित्त आराधि मडि सज ।।
विरह करन क्रीलई । सिद्ध कामिन डरप्पै ।।
तो चलन चहुअन । दीन छ। मैं रुप्पै ।।
हिमवंत कंत मुकै न त्रिय । पिया पन्न पोभिनि परषि ।।।
अg कंठ के ऊछन् अवनि । चलत तोहि लगिंवाय रू ||५२
अब टुथ्वीराज क्या करते ? राठौर नरेश ने वेलि' में लिखा है——
नीछि छुडै कास पोस निसि, प्रौढा करणे पङ्ग रण' अर्थात् पौष
की रात्रि से प्रकाश रूपी पति बड़ी कठिनाई से छूटता है जैसे रात्रि के
अवसान में प्रौढ़। नायिका द्वारा खींचा जाता हुशा नायक की बस्त्र । अस्तु राज को रुक जाने के अतिरिक्त और मार्ग न था ।
हेमन्त ऋतु व्यतीत होने पर शिशिर का आगमन हुआ और राजा छठी रानी ( १ ) के महल में उसकी अनुमति लेने गये । वही भला कब छोड़ने वाली थी ! शिशिर का रूप खड़ा करने के साथ उसने मानव-व्यापारों की शरण ली और राजा को रोक लिया——
रोमाली वन नीर निद्ध चरयो, गिरिदंग नाथने ।
पब्वय पीन कुचानि जानि मलथा, फुकार झुकाए ।।
सिसिरे सर्वरि वारून च विरह माहद्द मुव्वारए ।
भांकते भिगबद्ध मध्य गमने, किं दैव उच्चारए ।।६२
इस प्रकार पृथ्वीराज ने घट्-ऋभुये छै रानियों के साथ सवास सुख में व्यतीत की और फिर वसन्त अा गया । कवि ने जिस प्रकार यह ऋतु-वर्णन करने का प्रसंग कौशल पूर्वक हूँढ़ा उसी प्रकार बड़ी नाटकीयता से उसे समाप्त भी किया । ॐ ऋतुओं के बारह मास काम-सुख में बिताकर राजा ने चन्द से पूछा कि हे कवि, वसन्त फिर आ या, वह ऋतु मुझे क्ता जिससे स्त्री को अपना प्रियतम नहीं अच्छी लगता :
घट रिति बारह मास गय् । फिरि अायौ ६ बसंत ॥
सो रिति चंद बताउँ मुहि । तियान भावे कंत ।। ७३
चंद ने स्त्री के पति-अम की महिमा बखानते हुए ऋतु' शब्द पर श्लेष करके उत्तर दिया :
जौ नलिनी नीरह तनै । सेस तजै सुरतंत ।।
जौ सुबास मधुकर तनै । तौ तिय त सु कैत ।। ७४
रोस भरै उर कामिनी । होई मलिन्द सिर अंग ।।
उहि रिति त्रिया न भवई । सुनि चुहान चतुरंग ।। ७५
कथा के इस प्रसंग में घट-ऋतुओं का रोचक वर्णन पढ़ने को मिलता है । बृद्यपि उद्दीपन को लेकर ही इसकी रचना हुई है परन्तु यह रासोकार के ऋतु विषयक ज्ञान, प्रकृति-निरीक्षण, मानवी-व्यापारों की अनुरंजना श्रौर वर्णन-कौशल का परिचायक है। संदेश रासक' की विरह-विधुरा प्रौप्रतिपतिका क; ऋतु-विरह-वर्णन, बस्तु-वर्णन’ को प्रसंग न होकर विरह-संदेश-पूर्ण प्रधान-कथा-नक था और वहाँ कवि अहमण (अब्दुल रहमान) ने ऋतुओं का सांगोपांग वर्णन किया है। रासकार की न तो वैसी योजना थी और न वैसा कथानक
ही फिर भी उसे यथेष्ट सफलता प्राप्त हुई है । रासो को प्रस्तुत ऋतु-वर्णन सूफी कवि जायसी के पदमावत के टू-ऋतु-वर्णन और नागमती-वियोग-खंड के वर्णन के समान ईश्वर से मिलन और वियोग की प्रतीकता का मिस नहीं, भक तुलसी के मनिस के किष्किथाकाण्ड की बर्षा और शरद के वर्णन की भाँति नीति और भक्ति अदि का उपदेशक नहीं, राठौर नरेश पृथ्वीराज के खंड-काव्य ‘वेलि क्रिसन रूकमणी री' के ऋतु-वर्णन सदृश गहरा और व्यापक नहीं तथा सेनापति के स्वतंत्र ऋतु-बर्णन की तरह अलंकारों से ओझिल, उखड़ा हुआ। और रूखा नहीं फिर भी उसमें अपना ढंग और अपना आक ईश है तथा मुख्य-कथानक से उसे जोड़ने का कवि-चातुर्य परम सराहनीय है ।
नख-शिख और श्रृंगार वर्णन–इनके बारह प्रसंग हैं जिनमें से अधिकांश में पृथ्वीराज से विवाहित होने वाली राजकुमारियों का सौंदर्य वर्णित है । देवगिरि की यादव कुमारी शशिवृता का सौंदर्य-वर्णन कवि की पैठ का परिचय देते हुए उसके सरस हृदय का पता देने वाला है तथा सबसे विस्तृत शौर विशद नख-शिल कन्नौज की राजकुमारी संयोगिता का है। इस प्रकरणों में स्नान से वर्णन प्रारम्भ करके, केश धोने, उबटन लगाने, वेणी गूथने, मोती बाँधने, बिंदी देने तथा विभिन्न भूषण धारण करने के साथ-साथ नख-शिख वर्णन भी मिश्रित है। कहीं एक छप्पय छंद में ही सारा नख-शिख दे दिया गया हैं :
चंद वदन चष कमल । भौंह जनु अमर गंध रत ।।
कीर नास बिंबोछ । दसन दामिनी दमकत ।।
भुज भनाल कुच कोक । सिंह लंकी गति बान ।।।
कनक कति दुति देइ । जंव केदली दल अरुन ।।
अलसंग नयन मयनं मुदित । उदित अनंगह अंग लिहि ।।
अनी सुमंत्र अरिंभ बर | देते थूलत देव जिहि ॥२४६, स० १२
और कहीं विस्तृत रूप में है। प्रसिद्ध उपमानों के अतिरिक्त नवीन सफल और असफल उपमानों की भी योजना है। इन वर्गलों में चमत्कारिक रूपकों का समावेश भी मिलता है।
समुद्र-मंथन से निकले हुए चौदह-रत्नों का आरोप संयोगिता के अवययों पर करके कवि ने अपनी मौलिक सूझ-बूझ की छाप लगाई है। संयोगिता का रूप (अप्सरा ) रंभा के समान है, गुण लक्ष्मी के समान और वचन अमृत सदृश ( मधुर तथा जीवन दाता ) हैं, उसकी लज्जा' विष-तुल्य हैं, उसके अंगों की सुगन्धि पारिजात का बोध कराती है, उसकी ग्रीवा (पांचजन्य) शॉल
के समान है, मुख चन्द्रमा के समान, चंचलता उत्चैश्रवा की भाँति, चाल ऐरावत सदृश, योवन सुरा की तरह मदहोश करने वाला, ( पृथ्वीराज की इच्छाओं को पूरा करने वाली ) वह कामधेनु सदृश है, उसके शील को धन्वंतरि और कौस्तुभमणि की भाँति समझो तथा उसकी भौंह को सारंग के समान ज्ञानो
जिहि उदद्धि मथ्थए । रतन चौदह उद्धारे।।
सोइ रतन संजोग | अंग अंग प्रति पारे ।
रूप रंभ गुन लच्छि । वचन अमृत विष लजिय ।।
परिमल सुरतरु अंग । संत्र श्रीवा सुभ सज्जिय ।।
बदन चंद चंचल तुरंग ! गय सुगति जुब्बन सुरा ||
धेनह सु धनंतर सील मनि । भौंह अनुष सज्ज नर ।। २१६, स० ६६
वथ:संधि अवस्था बालाओं के जीवन में सौंदर्य-विकास की एक अप्रतिम घटना और अद्भुत व्यापार है । रासकार ने इसका कुशल चित्रण किया है । ये अधिकांश वर्णन कहीं भी मुक्तक रूप से युक्त किये जा सकते हैं-
ज्यों करकादिक मकर मैं । राति दिवस संक्रांति ।।
थों जुब्बुन सैसव समय । अनि सपत्तिय कति ।। ४१
यों सरिता श्ररु सिंध सँधि | भिलत दुहून हिलोर ।।
त्यों सैसव जल संधि में । जोवन प्रापत जौर ।। ४२, स० ४७
कबंध-युद्ध-बन-रामायण के कृबंध राक्षस की मृत्यु के उपरांत विश्वावसु गंधर्व का जन्म, महाभारत में संसार के प्राणियों के विनाशकारी अशुभ चिह्न स्वरूप असंख्य कबंधों का खड़ा होना अौर पुराणों की राहु के अमर कुबंध की गाथा ने क्रमशः साहित्य में बंधों के बद्ध करने की पुरम्परा डाली होगी । रासो जैसे वीर-काव्य में उनकी अनुपस्थिति किंचित् आश्चर्य जनक होती । कबंधों के युद्ध अद्भुत-रस का परिपाक करते हुए वीर और रौद्र भावों को उत्तेजना देने वाले हैं । एक स्थल देखिए :
लरत सीस तुटयौ सु सर धर उथ्यौं करि मार ॥
घरी तीन लौं सीस बिन्न । कड़े तीस हजार ।। २२ ५३
बिन सीस इसी तरवारि चहै । निघटै जनु सावन धास महै ।
धर सीस निरास हुअंत इसे । सुभ राजनु राह रूकंत जिसे ।। २२५४, स० ६१
अन्य-वर्णन- मुख्य कथानक छोड़कर रासो में हमें अनेक वर्णन
मिलते हैं जिनमें से कुछ का लगाव प्रधान कथा से बड़े ही सूक्ष्म तंतुओं से जुड़ा
हुया है ! इन वनों को हटा देने से कोई बाधा पड़ने की संभावना भी नहीं है। महाभारत, भागवत और भविष्य-पुराण आदि के आधार पर राजा परीक्षित के तक्षक-दंशन, जनमेजय के नाग-यज्ञ और शाबू पर्वत के उद्धार तथा दशाब्तार की कथा ऐसे ही प्रसंग हैं। इनके अतिरिक्त अन्य छोटे स्थलों की भी एक संख्या है ।
तथा पृथ्वीराज की जिज्ञासा पूर्ति हेतु कवि द्वारा समाधान किये गए अनेक मनोहर उपाख्यान जुड़े हुए हैं जो उसकी जानकारी, अनुभव, प्रत्युत्पन्नमति तथा विशाल अध्ययन के परिचायक हैं। इनमें विनोद की मात्रा भी यथेष्ट है ।।
वस्तुओं के विस्तृत वर्णन और व्यापार मनुष्य की रागात्मिको वृत्ति के अलम्बन हैं तथा इनसे भिन्न-भिन्न स्थायी-भावों की उत्पत्ति होने के कारण इनमें रसात्मकता का पूरा अाभास मिलता है। पाश्चात्य महाकाव्यों में रस स्थान पर वस्तु-वर्णन को ही प्रधानता दी गई है ।
रासो युद्ध-प्रधान काव्य है और पृथ्वीराज-सदृश बीर योद्धा का जीवन-वृत्त होने के कारण इसमें उस समय की आदर्श वीरता का चित्रण मिलता है। क्षात्र-धर्म और स्वामि- धैर्स निरूपण करने वाले इस काव्य में तेजस्वी क्षत्रिय वीरों के युद्धोतह तथा तुमुल और बेजोड़ युद्ध दर्शनीय हैं । असार संसार में यश की श्रेष्ठता और प्रधानता को दृष्टिगत करके उसकी प्राप्ति स्वामि-धर्न पालन में निहित की गई है। स्वामि-धर्म की अनुवर्तिता का अर्थ है प्रतिपक्षी
से युद्ध में तिल-तिल करके कट जाना परन्तु मुंह न मोड़ना । इस प्रकार स्वामि-धर्म में शरीर नष्ट होने की बात को गौण रूप देकर यश सिरमौर कर दिया गया है । और भी एक महान प्रलोभन तथा इस संसार और सांसारिक वस्तुओं से भी अधिक आकर्षक भिन्न लोक-वास तथा अनन्य सुन्दरी अप्सराय की प्राप्ति है। धर्म-भीर और त्यागी योद्धा के लिए शिव क} मुडमाला में उसका सिर पोहे जाने तथा तुरन्त मुक्ति-प्राप्ति आदि की व्यवस्था है । कर्म-बन्धन को मिटाने वाले, विधि के विधान में संधि कर देने वाले, युद्ध की भयंकर विषमता से क्रीड़ा करने वाले भीष्म सूर सामंत स्वामी (पृथ्वीराज) के कार्य में मति रखने वाले हैं, स्वाभि-कार्य में लगकर इन श्रेष्ठ मति वालों के शरीर तलवार के बारों से खंड-खंड हो जाते हैं और शिव उनके सिरों को अपनी मुडमाला में डाल लेते हैं । क्षत्रिय शरीर का केवल स्वामि-धर्म ही साथी है जो कम के भेग से छुटकारा दिल सकता हैं । शर सामन्तों का
स्वामि-धर्म धन्य है क्योंकि वे लड़ना और मरना ही जानते हैं।"——इस प्रकार के विचारों से रासौ ओतप्रोत है। उस युग की वीरता का यह आदर्श कि
स्वामि-धर्म ही प्रधान है कोरा शादर्श मात्र न था । उसका संस्थापन सेना की सामूहिक दृढ़ता और स्थायित्व तथा विशेष रूप से उसकी युद्धोचित प्रवृत्ति की जागरूकता को ध्यान में रखते हुए अति आवश्यक अनुशासन (disolpline) को लेकर हुआ था । अनुशासन ही सेना और युद्ध की प्रथम अवश्यकता है। अदि काल से लेकर आज तक सेना में अनुसाशन की दृढ़त रखने के लिए नाना प्रकार के नियमों का विधान पाया जाता है । यहाँ आज्ञा-कारिता को दासता से जोड़ना ठीक नहीं है क्योंकि उस यग में किराये के टट्ट अ (mercenaries) से भारतीय सम्राटों की सेनायें नहीं सजाई जाती थीं । युद्ध क्षत्रियों का व्यवसाय था और स्वाभि-धर्म हेतु प्राणोत्सर्ग करना उनका कर्तव्य था । यहाँ दासता और धन के लोभ का प्रश्न उठादा तत्कालीन बी युग की भावना को समझने में भूल करना है । सम्राट या सेनापति की आज्ञा-
पालन के अनुशासन को चिरस्थायी और ब्रतस्वरूप बनाने के लिए स्वामि-धर्म का इतना उत्कट प्रचार किया गया था कि वह सामान्य से निकों की नसों में कट-कूट कर भर गया था और इसी आदर्श की रक्षा में उनके कट मरने का कार्य दुहाई दे रहा है। दार्शनिक जामा पहने हुए स्वामि-धर्म योद्धा का परम आभूषण था ।
इस प्रकार के वातावरण में रहते हुए, प्रतिदिन ऐसे ही विचारों और दृढ़ विश्वासों के संबट्टन में पड़कर तत्कालीन योद्धा की अंतमुखी वृत्ति असार संसार में यश की अमरता और स्वामि-धर्म के प्रति जागरूक हो जाती होगी, तभी तो हम देखते हैं कि युद्ध-कोल इन योद्धाओं के लिए अनिर्वचनीय आनंद के छ उपस्थित करता था। लड़कर मर मिटने वाले इन असीम साहसी योद्धाश्नों के उदगार कितने प्रभावशाली हैं और साथ ही इनका वीरोचित उत्साह भी देखते ही बनता है :
(१) करतार हथ्थ तरवार दिये । इह सु तत्त रजपूत कर |
(२) रजपूत मरन संसार बर् ।।
(३) सूर मरन' मंगली ॥
(४) भरना जाना हक्क है । जुग्ग रहेगी गल्हां ।।
| सा पुरुस का जीवन । थोड़ाई है भल्लां ||
(५) जीविते लभ्यते लक्ष्मो मृते चापि सुरांगणा ।
यो विध्वंसिनी काया का चिन्ता मरगे रणे ।।
(६) जीवंतह की रति सुलभ । मरन अपच्छर हूर ।।
दी थान लड्डू मिलै । न्याय करे बर सूर ।।
(७) ता छत्री कुल लज्ज ! छत्र धरि सिर हति लज्जै ।।
(८) धार तिथ बर अादि । तिथ कासी सम भज्जै ।।।
असि बेरुना तिन मध्य } लोह तेज़ सम गज्जै ।।
सात सौ वर्षों से जनता के कंठ में प्रतिध्वनित होने वाले जगनिक के आल्हा-खंड' में भी मृत्यु से खेल करने वाले १२वीं शताब्दी के क्षत्रियों की बीरोनित वाणी सुनाई देती है: ।
(१) भरना मरना हैं दुनियाँ मा ! एक दिन मरि जैहै संसार ।।
वर्ग मलैया सब काहू हैं । कोऊ श्राज मरै कोउ काल !!
खटिया पर कै जो मरि जैहौ । कोउ न लैहै नाम अगार ।।
चढ़ी अनी मैं जो मरि जैहौ । तौ जस रहै देस में छाय ।
जो मरि जैहौ खटिया परि कै । कागा गिद्ध न खे हैं माँस ।।
जो मरि जैही रन खेतन मैं ! तुम्हरो नाम अमर होइ जाय ।।
मरद बनाये मरि जैबे कौ । अ खटिया पै भरै बलाय }}
(२) बारह बरिस नै कुकर जायें । अ तेरह ल जियें सियार ।।
बरस, अठारह क्षत्रिय जीवें । आगे जीवन के धिक्कार ।।
जैसे इस समय के योद्धा थे वैसी ही शूर भावों की पोषक उनकी पलियाँ, मातायें, बहनें और बेटियाँ भी थीं । इस शौर्य-काल में ही उन प्रेयसियों के उदाहरण मिलते हैं जो पेट की अाँसे निकलकर पैरों में लग जाने पर और कंधों से सिर कट जाने पर भी हाथ से कटार न छोड़ने वाले योद्धा की बलिहारी जाती हैं :
पाइ विलग झंत्री सिरु ल्हसिउ खन्धस्सु ।।
तो वि कटारइ हथ्थडङ बलि किज” कन्तस्सु ।। सिद्ध हेम०
अथवा जिन्हें विश्वास है कि यदि शत्रु की सेना भग्न हो गई तो उनके प्रिय द्वारा ही और यदि अपनी नष्ट हो गई तो प्रियतम मारा गया है :
जइ भागा पारकंडा तो सहि मज्छु पिएण ।
अह भगा अम्हहं तण तो तें मारिअडेण ।। सिद्धहेम०
इस युग की रमणियाँ ही गौरी से बरदान माँग सकती हैं कि इस जन्म में तथा अन्य जन्मों में भी हमें वह कांत देना जो अंकशों द्वारा व्यक्त मदाँध गजराजों से हँसता हुआ भिड़े :
यहिं जम्महिं अन्नहिं वि गौरि सु दिज्जहि कन्तु ।।
गय मुहँ चतङ्कसहं जो अभिडइ सन्तु ।। सिद्ध हेम०
युद्ध की सुरा में झूमता हुअर क्षत्रिय योद्धा उसे प्रिय देश को
जाना चाहता है जहाँ खड्ग के खरीदार हैं, रण के दुर्भिक्ष ने उसे भने कर रखा है और बिना जूके हुए वह नहीं रह सकता :
व्रग बिसाहिउ जहिं लहहुं पिय तहिं देसहिं जाहुं ।
रण दुभिक्खें उगाई विगु जुज्झै ने वला हुँ । सिद्धहेम०
कायरों में भी वीरता फक देने वाले इस युग को हमारे साहित्यिकों ने उचित ही वीरगाथा-काल' नाम दिया है और हमारा ‘पृथ्वीराज-रासो' अपने युग के वीरों की वीरोचित गाथा से परिपूर्ण है । जाति-गौरव के लिये निजी हित-अहित की अवमानना करने वाले भारतीय मान-मर्यादा के रक्षक हिंदू-शासन का आदर्श रूप से पालन करने वाले, प्राचीन संस्कृति के पोषक राजपूत योद्धाओं ने शत्रु को पीठ नहीं दिखाई, जातीय सम्मान के लिये प्रह होम दिये, वचन का निर्वाह किया, सब कुछ उत्सर्ग करके शरणारत की रक्षा की, निशस्त्र, थाहत, निरीह और पलायन कंरने वाले शत्रु पर हाथ नहीं उठाया, धौखा नहीं दिया, प्रतारणा नहीं की, झूठ नहीं बोले, विश्वासघात नहीं किया और युद्ध में स्त्री-बच्चों पर हाथ नहीं उठाया । वे मिट गये, उनके विशाल साम्राज्य ध्वस्त हो गये परन्तु राजपूती आन, बान और शान भार- तीय इतिहास में सदा के लिये स्वर्णाक्षरों में लिखे गई । “अल्हिाखंड' की माँडौ की लड़ाई में आदर्श शूरत्व, अमित युद्धोत्साह, दमित स्वार्थ, शमित मोह और जीवन की बाज़ी फेंकने वालों की ललकार देखिये :
चोट अगाऊ हम न खेलें । ना भागे के परें पिछार ।।
हा हा खाते को ना मारें । नाहीं हुक्म बँदेले क्यार ।।
चोट अपनी जा कर लेउ । मन के भेटि लेहु अरमान ।।
पृथ्वीराज-रासो' सरीखे वीरगाथात्मक काव्य में वीररस खोजने का प्रयास नहीं करना पड़ता । ये स्थल अपने-आप ही हमारे सामने आते रहते हैं और हमारा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं । अलिंबन, उद्दीपन, अनुभाव और संचारियों की अंगों और उपांगों सहित योजना युद्धवीर रस को प्रसवित करती हुई अपनी उत्साह-भंगिमा द्वारा दूसरों को भी प्रभावित करती है। एक स्थल देखिये :
हयग्गयं सजे भरं ! निसान बज्जि दूभर ।।
नफारे बीर बज्जई । मृदंग झल्लरी गई ।।३५ .
सुनंत इस रज्जई । तनीस राग सज्जई ।।..
सुभेरि भुकथं घनं ! श्रवन · कुद्धि कंझनं ।।३६....
उपाह मध्य ते चले । सगुन वंदि जे भले ।।
ससूर सूरये कृतं । दिनं सु अष्टमी चलं ।।५४, स० ७
इस प्रसंग के विशद स्थल वे हैं जहाँ सावयव एक के सहारे कवि ने युद्धोत्साह के व्यंजना की है। देखिये——'श्रेष्ठ योद्धा सुलतान गोरी रूपी समुद्र में पंग रूपी ग्रह का भय लगा हुआ था। चौहान की वहाँ देवता रूप में शोभा हुई। उन्होंने युद्ध का परवाना हाथ में ले लिया और शत्रु से भिड़ने के लिये चामंडराय, जैतसिंह तथा बड़गूजर के साथ संदर वट के कार में अपनी चतुरंगिणी सेनी सजाई। फिर तो युद्ध-भूमि में रक्ताभ तलवार रूपी कमल खिल उठे :
समुद रूप गरी सुबर | पंग ग्रेह भय कीन ।।
वाहुन तिन बिबध कैं। सो झोपम कवि लीन्न ।।
सो ओपम कृवि लीन ! समर का लिये हथ्थे ।
भिरन पुच्छि बट सुरंग । बंधि चतुरंग जथर्थ ।।
समर सु मुलि सौर | लोह फुल्यो जस मुर्द ।।
रा, चावंड जैतसी । ए बड़ गुज्जर समुदं ।।५५, स०२६
शूरवीरों के सिरताज महाराज पृथ्वीराज और उनके सामन्तरण अादर्श योद्धा थे। उन्होंने हिन्दुओं की अनुकरणीय वीरता की प्राचीन पद्धति और नियमों की अपूर्व पालन किया है। स्त्रियों पर चार न करने, गिरे हुए घायलों और पीठ दिखाने वालों को न मारने आदि के नियमों का यथेष्ट संयम-पूर्वक उनके द्वारा निर्वाह रासो में मिलता है । परन्तु इन सवसे बढ़कर जो बात पृथ्वीराज ने कर दिखाई वह भी इतिहास की एक अमर कहानी है। वह है रासो के अनुसार चौदह बार और पृथ्वीराज-प्रबंधु के अनुसार सात बार शत्रु को प्राण-दान और प्राण-दान ही नहीं वरन ऐसे प्रबल शत्रु को जो, कई बार अपमानित और दंडित होकर भी फिर.फिर आक्रमण्ड करता था, वंदी बनाने के उपरांत मुक्त कर दिया और मुक्त हो नहीं वरन आदर-सत्कार के साथ उसे, उसके घर भिजवाया । भारत के इतिहास को राजपूत-काल ही ऐसी वीरता के नमूने पेश करने में समर्थ है ?
उत्साह और रति की मैत्री अस्वाभाविक है तथा एक स्वर से काव्य-शास्त्र के आचार्यों द्वारा कराई गई है परन्तु रासो में इनके मेल के कई स्थल हैं। यह कहना बिलकुल कठिन नहीं है कि इन विरोधी रसों के सामंजस्य की परंपरा सो-काल की धरोह थी, जो जायसी आदि परवर्ती अयियों को जागीर रूप में मिली । बारहवीं शताब्दी में विशेषत: उत्तर-पश्चिम
भारत के शासकों और क्षत्रिय योद्धाओं के जीवन में अनवरत रूप से युद्ध होने के कारण उनमें युद्धोत्साह और रति के शाश्वत उभार स्वाभाविक रूप से देखे गये जिनका प्रतिबिम्ब साहित्य में साकार हुआ । शास्त्र द्वारा अविहित होते हुए परन्तु सामन्ती जीवन में प्रत्यक्ष रूप से उन्हें घटित होता देखकर कवि का मन वास्तविकता के चित्रण का लोभ संवरण न कर सका। आये दिन होने वाले युद्धों को मोर्चा सम्हालने का उत्साह अक्षुण्ण रखने के लिये यदि उसने अपने वीर आश्रयदाता और उसके पक्षवालों की हित कामना
से रति जैसी कोमल भावनाओं के अंतर्गत युद्धोल्साई सरीखी कठोर भावनाओं का सामंजस्य कर दिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । पृथ्वीराज और संयोगिता की रति-क्रीड़ा को रति-वाह की युद्ध-क्रीड़ा का रूप देने की चेष्टा ऐसे ही प्रसंगों में है ।
साज गुढ झोपंत } बहिय र सन ढक रज्जं ।।
अधर मधुर दंपत्तिय । लूटि अब ईव परज्जं ॥
अरस प्ररस भर अंक । धेत पुरजंक षदक्किय ।।
भूपन टूट कवच { रहे अध बीच लटकिय ।।
भीसान थान नूपुर बजिय } हाकु हास करत चिहुर ।।।
रति वह सफर सुनि इंछिनिय । कीर कहत बत्तिय गहरे ॥१४१, स० ६२
रासो में जो स्थिति उत्साह की हैं वही क्रोध की भी है। युद्धकाल के सभी प्रसंगों में अबधि रूप से उसकी कुशल अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। कहीं-कहीं उसके साथ जुगुप्सा भी है :
बजे बज्जन लागि दल उभै हेकि अगि वीर ।
विकसे सूर सपूर बढ़ि केपि कलत्र अधीर ||२२६
छुट्टियं हथ भारि हुआ दल गोम ब्योमह गजिये ।।
उडियं अतिस झार झारह धोम धुधर सज्जिये ।।२२७....
छुट्टियं बान कमान पानह छह अयस रज्जिथे ।
निरपंत अच्छरि सूर सुब्बुर सज्जि पारथ मञ्जिये ।।
गरि सीस हेक्कहि धर हहक्कहि अंत पाइ अलुझझरे।
उति उध्रि क्रयसि केस उकसि साइ सुथ्थल जुझझरं ।।२३१, स०५८
रौद्र रस के प्रसंग में कवि ने सांग रूपक के माध्यम से अनेक श्रेष्ठ योजनायें की हैं । एक प्रसंग इस प्रकार है———युद्ध रूपी विष यज्ञ प्रारंभ हो गया, शल-बल प्रहार रूपी वेद पाठ होने लगा, हाथी, घोड़ों और नरों का हुघन होने लगा, शीश कटने के रूप में स्वस्ति-वाचन आहुति दी जाने लगी,
उस हवन कु' का क्रोध रूपी विस्तार हुआ, कीर्ति रूपी मंडप तन्ना था, गिद्ध सिद्ध वेताल रूपी दर्शक थे, किन्नर, नाग, तु बरु और अप्सरायें गान कर रहे थे, इस युद्ध रूपी यज्ञ में करों को मुक्ति रूपी तत्व के भोग की प्राप्ति हुई ;
विषम जग्य प्रारंभ । वेद प्रारंभ सस्त्र बल ।।
है गै नर होमियै । शीश आहुत्ति स्वस्ति कल ।।
क्रोध कुडे बिस्तरिय } किलि मंडप करे मंड्रिय ]।
गिद्धि सिद्धि वेताले । पछि पल साकृत छंडिय ||
तंबर' सु नारा किन्नर सु चर ! अच्छरि अन्छ जु गावहीं ।।।
मिलि दोन अस्स अप्पन जुगति । भुगति मुगति तत पावही ।।४५३, स० २५
बीभत्स का प्रसंग पृथक नहीं वरन् युद्ध के अन्तर्गत ही आता है । योगिनियों की रुधिर पीना, गिद्धों का चिल्लाना श्रादि स्वाभाविक दृश्यों का इनमें चित्रण पाया जाता है :
पत्र भरें जुरिगनि रुधिर, गिधिय मंस डेकारि ।
नये इस उमथ सहित, रुड माल गल धारि ॥६६,९०३९
युद्ध-भूमि में भयंकर वेष वाले योगिनी, डाकिनी, भूत, प्रेत, पिशाच, भैरब आदि के नत्य और किलकारियाँ, कबंधों का दौड़ना, पलचरों का गाना अादि वहुवा भय की प्रतीति कराने लगते हैं परन्तु यह सहचारिता उचित और संभव है।
स्वतंत्र रूप से भयानक रस का परिपाक हुढा दानव के प्रसंग में मिलता है । ढूं ढ-ढूं ढ कर मनुष्यों को खाने वाले विकराल हुढी दानव ने सारा अजमेर नगर उजाड़ डाला ! उसके भय से उस नगर के समीपस्थ वन में किसी जीव का प्रवेश न था और दिशाएं भी शून्य हो गई थीं, उसकी घौर हिंसकता के आगे मानव तथा अन्य जीवों की क्या चर्चा, सिंह सदृश हिंसक जंतु भी भाग खड़े हुए थे ।' अथा :
सो दान, अजमेर बन । रह्यो दीह घन अंत ।।
सुन्न दिसानन. जीव के। थिर थावर जग मंत् ।।५२६
तहँ सिंध न ग न पग्नि बने । दिसि सून भई डर, जीव घनं ।
तिहि काम गर्ज बर बाजि नन् । तिहँ ठाम न सिद्धय साधकनं ।। ५२७
पाँच सौ हाथ ऊचा, हाथ में विकराल खड्ग लिये हुँदा मुह से ज्वालायें फेंका करता था :
अंगह मान . प्रमान । पंच मैं हाथ उने कम् ।।
इह. ॐचो उनमात ।-विनय लछिछनई विवेकह ।।
हथ्थ पड्ग विकराल | मुध्य ज्वालंबन सद्दह ।। ५८०, सं० १
एक ऋषि द्वारा पृथ्वीराज को अन्धे किये जाने के श्राप में भी भयानक रस की अवतारणा मिलती है । इसके अतिरिक्त युद्ध-भूमि में भूत-प्रेतों का नृत्य-गान आदि दृश्य भी इसी रस के प्रसंग हैं ।
हास्य के स्थल रास में अति थोड़े हैं ! एक आध स्थल पर वाणी और बेश के कारण उसकी संभावना हुई है । कान्यकुब्जेश्वर के दरबार में महाराज जयचन्द्र और चंद बरदाई के प्रश्नोत्तरों में वह उद्भूत हुआ है। कृत्रि को अपने से अधिक पृथ्वीराज का पराक्रम बयानते देखकर जयचन्द्र, ने उससे श्लेष वक्रोक्ति द्वारा यूछा कि मुंह का दरिद्री, तुच्छ जीव, जंगलराव (पृथ्वीराज; भील ) की सीमा में रहने वाला बरद ( वरदाई; बैल ) क्यों दुबल! है :
मुह दरिद्र अरु तुच्छ तन, जंगलराव सु हद्द ।
बन जार पशु तन चरन, कयौं दूब बरद्द ।।५८०
उद्भट कवि ने उन्हें उत्तर दिया कि चौहान ने अपने घोड़े पर चढकर चारों ओर अपनी दुहाई फेर दी, अपने से अधिक बलवानों के साथ उन्होंने युद्ध किया, शत्रों में किसी के पत्ते पकड़े, किसी ने जड़े और किसी ने तिनके; अनेकों भयभीत होकर भाग खड़े हुए, इस प्रकार शत्र ने सारा तृए चुन लिया और वैल दुबला हो गया :
चढि तुरंग चहुशान शान फेरीत पद्धर ।
तास जुद्धे मंडयौ जास जानय सबर बुर ।।
केइक गहि तकिय पात, केइ गहि डार मूर तर ।।
केइक दंत तुछ त्रिन्न, गए दस दिसनि भाजि डर ।।
भु लोकत दिन प्रचिज भयौं, मान सबर बर मरदिया ।
प्रथिराज पलन घद्ध जु घर, सु यो दुब्बौं बरदिया ।।५८१
जयचन्द्र ने फिर व्यंग्य किया और कवि ने फिर फब्ती कसी । अन्त में महाराज ने निरुत्तर होकर कवि को बद के स्थान पर बिरुद बर’ कहकर संबोधित किया, परन्तु कवि ने पूर्व कहे हुए ‘बरद’ की महिमा की विवेचना करते हुए कहा कि जिस बरद (बैल) पर चढ़कर गौरीशंकर ने अपने शीश पर गंगा को धारण किया और सहस्त्र मुखों वाला देखकर शेषनाग को गले का हार बनाया, उस भुजंग के फणों पर सम्पूर्ण वसुमती का भार है तथा
पृथ्वी पर पर्वत और सगिर हैं, सृष्टिकर्ता ने उस वृषभ के कंधों पर सार
ह्माण्ड' रख दिया है । हे पहुसंग नरेश १ जयचन्द्र ), अपने भट्ट पर महतो कृपा की जो उसे 'बरद” कहकर महान विरुद दिया :
जिहि बरई चढदि कै । गंग सिर धरिय गवरि हर ।।
सहस म संपेषि | हार किन्न भुजंग गए ।।
तिहिं भुजंग फन जोर । झोलि ररुपी वसुमत्तिय ।।
वसुमती उपरै । मेर गिरि सिंध संपत्तिय ।।
ब्रहमंड मंड़ मंडिय सकता | धवल कंध करता पुरस ।।
गरुअत्त विरद पहुपंग दिय । कृपा करिय भइह सरिस ।। ५८७, स०६१
यह व्यंग्यात्मक हास्य का अनूठा स्थल है
आश्चर्य पैदा करने वाले स्थत रासो में अनेक हैं । श्रापवश मनुष्य का मृत्यु के उपरांत असुर हो जाना और असुर का असुरी स्वभाव अश मनुष्यों को ढूंढ-ढूंढ कर खाना, बीरों का वशीकरण, देवी की सिद्धि और साक्षात्कार, गड़े खजाने से दैत्य और पुतली का निकलना, मंत्र-तंत्र की विलक्षण करामातें, वरुण के वीरों की उछल-कूद, वीर गति पाने वालों को अप्सराओं द्वारा वरण, आत्माशों का भिन्न तोक-वास, कब्ध का युद्ध श्रादि इसी प्रकरण के प्रसंग हैं। कवि ने इनका वर्णन इस प्रकार किया है जैसे थे अवटित घटनायें न होकर सत्य और साधारण हो । वीसलदेव की रथी से ढंढो दानव का जन्म देखिये :
राज मरन उप्पनो । सब्बै जन सोच उपन्नौ ।।
पट' रागिनि पावार । निकसि तबही सत किन्नौ ।।
तिन मुघ इम उश्चरयौ । होइ जदवनि सपुतय ।।
सो असीस इह फुरो। तुम्म भोगवटु धरतिये ।।
जिन रथी मद्धि ऊ असुर । धषे ज्वाल तिन मुध विषय ।।
नर भषय जहाँ लसकर सहर । मिलै मनिष ते ते भषये ॥५,११,स०१
वीरगाथा-काव्य होने के कारण शांत रस का रासो में प्राय: अभाव सा ही पाया जाता हैं और वीर रस का विरोधी होने के कारण भी उसमें निर्वेद की व्यंजना के लिये अबसर नहीं हैं । युद्धोपरांत' एक स्थल पर शिव और पार्वती के वलर-प्रसंग में जन्म-मरण की व्याख्या करते हुए, कर्मानुसार जीव के जन्म-बंधन में पड़ने और आत्मा का माथी आदि प्रपंचोपशर्म से निराकार अद्वैत ब्रह्म मैं समाहित होने का उल्लेख है। मम्मट और विश्वनाथ की काव्य-कसौटी पर रासो का यही प्रसंग शम् का सिद्ध होता हैं। इस रस का संकेत करने वाले दो प्रसंग और हैं--एक तो ढुंढा दान की
कठोर तपस्या और दूसरा दिल्लीश्वर अनंगपाल का वैराग्य । ढुंढा ने जीवन्मुक्ति हेतु तपस्या नहीं की थी और अनंगपाल का वैराग्य सात्विक न था, वे सर्वस्व त्याग कर विरक्त हुए परन्तु उस त्यागी हुई वस्तु की प्राप्ति हेतु फिर झुके, युद्ध किया, पराजित हुए, तब पुनः तपस्या करने चले गये--अस्तु ये दोनों स्थल शांत रस के विधायक नहीं कहे जा सकते ।
वीर और रौद्र रस प्रधान रासो में शृङ्गार की स्थिति गौण नहीं है । युद्ध-वीर स्वभावतः रति-प्रमी पाये गये हैं। किसी की रूपवती कन्या का समाचार पाकर अथवा कन्या द्वारा उसे अपने माता-पिता की इच्छा के विपरीत आकर वर करने का संदेश पाकर उक्त कन्या का अपहरण करके उसके पक्ष वालों से भयंकर युद्ध और इस युद्ध में विजयी होकर कन्या के पाणिग्रहण तथा प्रथम मिलन आदि के वर्णनों में हमें वियोग और संयौ के . चित्र मिलते हैं ! नायक और नायिका के परस्पर रूप, गुण आदि श्रवण-मात्र से अनुराग और तज्जनित वियोग कष्ट के वर्णन काम-पीड़ा के प्रतीक हैं। संयोग के अनंतर वियोग का वर्णन आचार्यों ने भी स्वीकार किया हैं परन्तु संयोग से पूर्व ही वियोग का कष्ट वांछित प्रेमी या प्रेमिका को प्राप्त करने में बाधायें और कामोत्त जना को लेकर ही पैदा होता है। वैसे नल-दमयन्ती, कृष्ण-रुक्मिणी, ऊषा-अनिरुद्ध आदि के प्रेम की परंपरा का पालन भी रासो में होना असंभव नहीं है।
विवाह के पूर्व और उपरांत सुन्दर राजकुमारियों के नख-शिख वर्णन तदुपरांत काम-क्रीड़ा और सहवास यद्यपि ङ्गार रस के ही अतर्गत हैं। परन्तु उनमें वस्तुस्थिति का निर्देश संकेत द्वारा न होने के कारण कहींकहीं अश्लीलत्व दो भी आ गया है। यह रति भाव क्या हैं, केवल उद्दाम घासनों का नग्न चित्रण ही न ! इन स्थलों को पढ़ते ही उस युग की विलासिता का चित्र सामने आ जाता है। नायिका भेद को दृष्टिगत करके काव्य का प्रणयने नहीं किया गया है, फिर भी नवोदा, स्वाधीनपतिका, अभिसारिका अादि अपने स्वाभाविक रूप में दिखाई पड़ जाती हैं । श्रृंगार बर्णन में संभौर की प्रधानता हैं। नवज्ज खंड' का बट-ऋतु-वर्णन वियोग के भिस संयोग का आह्वान कराने वाला है। विप्रलम्भ का एक विशिष्ट स्थल हैं संयोगिता से पृथ्वीराज की प्रथम वियोग और अंतिम मिलन । इस प्रसंग का आदि और अंत परंपरा-भुके हैं परन्तु इसका निम्न वर्णन अति सार्मिक है।
धर घ्यार बज्जिरी विषम । हलिग हिंदु दल हाल ।।
दुतिय चंद पूनिम जिमे । बर वियोग बढि बाल ।।
वर वियोग बढ़ि बाल । लाल प्रीतम कर छौट्टौ ।।
है कारन हा कंत । स असु जानि न फुद्दौ ।।
देपंत नैन सुझझै न दिसि । परिय भूमि संथार ।।
संजोगी जोगिन भई । जब बज्जिग घरियार ॥६४३
उपर्युक्त छंद में विषम’, ‘देत नैन सुझझै न दिसि’ और ‘संजोगी जोगिन' बड़े ही सार्थक प्रयोग हैं । निर्जीव वस्तु घड़ियाल अथवा उसके शब्द को किसी की समता-विषमता से क्या प्रयोजन हो सकता था परन्तु प्रियतम के प्रवास-हैतुक-वियोग को निर्दिटि के कारण लक्षणा का आरोप करके कवि ने संयोगिता की मानसिक अवस्था में विषमता घटित करके उसे वियोगावस्था का प्रारंभिक चरण बल्ला दिया है। वियोग के इस प्रकरण में प्रवत्यतप्रेयसी संयोगिता के वर्तमान-प्रवास-हेतुक-वियोग का संकेत करके कवि ने उस वियोगिनी के भूत-प्रवास-हेतुक-विग्नतम्भ का बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। दोनों प्रकार के विथोगों की मिलन सन्ध्या बड़े कौशल से प्रस्तुत की गई है।
इसके उपरांत युगों का अनुभूत वर्णन है कि वही वस्तु संयोग में सुखद परन्तु वियोग में दुखद हो जाती है ।
वहीं रत्ति पावस । वही मघवान धनुष्यं ।।
वही चपल चमकत है । वही वगपंत निरध्धं ।
वहीं घटा घनघोर । वही पप्पीह मर सुर ॥
वही जमी असमान । वही रवि ससि निसि वासूर ।।
वेइ अवास जुग्गिनि पुरह । बेई सहचरि मंडलिय ।।
संजोगि पर्थपति कैत बिन । मुहि न कछू लग्गत रलिय ।। ६४५, ०६६
कहीं कहीं संभोग शृङ्गार के अनुपम चित्र कवि ने खींचे हैं। '{श्वेत हस्ती) ऐरावत इन्द्र के अंकुश के प्रहार से भयभीत होकर संयोगिता के वक्षदेश में प्रविष्ट होकर बिहार करती.था, उसका कुंभस्थल उभर कर उनके उन्नत उरोजों के रूप में प्रगट हुआ, जिनके ऊपर की श्यामता उसकी सह-जले था । शुक ने कहा कि इंन्च्छिनी सुनो, विधि का विधान नहीं टाला जा सकता, रति-काल में पृथ्वीराज का कर-कोश ही कुश बन जाता है' :
ऐरापति भय मानि । ईद राज बाग प्रहारं ।।
उर सँजोगि रस महिः । रह्यो दबि कृरत विहारं ।।
कुच उच्च जनु प्रगटि । उकति कुंभस्थल आइय ।।
तिङि ऊपर स्थानता। दान सोभा दसायइय ।।
बिधिना निर्भत भिड्दै वन । कीर कहत सुनि इछनिय ।।
मन मश्थ समय प्रथिरार्ज कर । करज कोस अंकुस बनिये ।।
१५१, स० ६२ ।
यहाँ ‘ऐरावत” कहकर संयोगिता के शारीरिक वर्ण की सूचना दी। गई है और हाथी के मदजल' का कृष्ण रंग बड़े ढंग से आरोदित किया गया है तथा लक्षणा से मद जल' शब्द मुग्धा, ज्ञात-वना, विश्रब्ध-नवोढ़ी राजकुमारी के मदमाते यौवन की ओर भी ध्यान आकृष्ट करता है । उक्ति अनूठी है ।
शोक के प्रसंग सौ में इने-गिने हैं । कुमधञ नरेश के भाई वालुकाराव की मृत्यु पर अशुभ त्वम देखने के उपरांत उसकी स्त्री का विलाप, कन्नौज-युद्ध में प्रमुख सामंतों के मारे जाने पर पृथ्वीराज का शोक, ग़ज़नी के कारागार में बंदी पृथ्वीराज का नेत्र विहीन किये जाने के उपरांत पश्चाताप तथा अंतिम युद्ध का परिणाम वीरभद्र द्वारा सुनकर चंद कवि का दु:ख इसी प्रकरण के हैं परन्तु कुरुश का सबसे प्रधान स्थल सती होने वाला दृश्य । है जो इतना शांत और गंभीर है कि हृदय पर एक वीतराग त्याग का प्रभाव डाले बिना नहीं रहती । मरण-महोत्सव की परम उल्लास और आतुरता से प्रतीक्षा करने वाले उस सामन्त युग में विशेष रूप से झुत्राणियों में सती प्रथा .. समादृत थी। उनके लिये अग्नि-पथ, प्रेम-पथ का विधान था। वीर हिंदू नारी की आत्मोल्लास से जलती हुई अग्नि-चिताज्यों में प्रवेश परम प्रशान्त पर अति मर्म-भेदी है । आत्मोत्सर्ग की यह पूर्णं आहुति स्वतंत्र भारत की हिंदू ललना के चरित्र के विशेषता थी। स्वतंत्रता की महान देन रासो-काल में स्त्रियों के इस अात्म : वलिदान के रूप में सड़ढ़ थी। एक दृश्य देखिये-~तरुणियों ने नाना प्रकार के दान दिये और सामंत तथा शुर योद्धा उनके हितैषी लोक में पहुँचाने के लिये उनके घोड़ों की रासे पकड़ कर चल दिये। इन बालाझों ने प्रज्वलित हुतासन में गमन करने का अपने चित्त में विचार किया और प्रेम. को श्रेष्ठ ठहरा कर, उसका निर्वाह करने के लिये वे चल दीं। उज्वल ज्वाला आकाश में मिल गई। प्रत्येक दिशा में ह-हर शब्द हो उठा}, जहाँ-जहाँ जिस लोक को उनके स्वामी गये थे वहीं . उनकी पतिव्रता पतिपरायणायें जाकर मिल गई' :
विविह तरुने दिय दान । अवर सामंत सूर भर ।।
अप्प अस्सह्य लीय ! मिलिय रह हितधाम धर ।।
चित चितै र रवनि । गवनि पविक प्रज्जीरिय ।।
प्रेम प्रीति किय प्रेम । नेम येसह प्रति पारिय ।।
उज्जलिथ झाले आयास मिलि । हर हर सुर हर गम भौ ।।
जहं जहां सुबास निज ‘कंत किय । तहं तहां तिय पिय मिलन भौ ।।१६२४, स० ६६ ।
परिस्थिति विशेष में नव रसों के एक साथ उद्रेक कराने की सिद्धि भी रासोकार ने कई स्थलों पर विभिन्न प्रसंगों में दिखाई है। कन्नौज-दरबार छद्म वेशी पृथ्वीराज को पहिचान कर सुन्दरी दासी कर्णाटकी ने लज्जा से बँधट खींच लिया परन्तु चंद' के इशारे से तुरंत ही उसे पलट दिया । इस पूँघट खोलने और बंद करने के व्यापार मात्र ने पंग-दरबार में नवरस उत्पन्न कर दिये । “कभधज्ज ( जयचंद्र) अाश्चर्य में पड़ गये, चौहान ( पृथ्वीराज ) ( अवचनात्मक रूप से ) हँस पड़े, संभरेश के प्रति दया भाव ने ( कर्णाटकी के चित्र में ) करुण रस पैदा किया, कवि चंद रोष से भर गया, वीर कुमार वीभत्स रस में अप्लाबित हुआ, शूर गण ( युद्ध होना अनिवार्य देख } वीर रस से भर गये, राज-प्रसाद के गवाक्षों से झाँकती हुई बालाओं के नेत्रों में ( खबास वेश-धारी कमनीय पृथ्वीराज को देखकर ) शृङ्गार पैदा हुअा, लोहा लेगरी राय के चित्त में निर्वेद हुआ और उसके सुदृढ़ शरीर तथा बलाबल को देखकर विपक्षी भय से आपूरित हुए। पहुपंग ने पनि क्या मॅगाये नर्वो रस सिद्ध कर दिये :
बर अद्भुत कम धज्ज । हास चहुअन उपन्नौ ।।
करुना दिसि संभरी । चंद बर रुद्र दिपन्नौ ।।
बीभछ वीर कुमार ! बीर वर सुभट विराजै ।।
गोषबाल झषतह । द्रिगन सिंगार सु राजै ।।
संभयौं सन्त रस दिष्पि बर। लोहा लेगरि बीर कौ ।।
मंगाई पान पहुर्पग्र बर । भय भव रस नव सीर कौ ।।।
७२०, स० ६१
इसके अतिरिक्त युद्ध और रति काल में विभिन्न रस की अवतार भी कवि ने दिखाई है । उल्लेख अलंकार की सहायता से भिन्न रसों : क. स्फुरण अनायास श्रीमद्भागवत् के इस काव्य-कौशल वाले निम्न श्लोक का स्मर कर देती है :
मल्लीनभिशनिवाण नरवरः. स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान,
गौपानां स्वजनोऽसतरं क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः ।
मृत्युभोजपते विराडविदुषां तत्वं परं योगिनाम्‚
वृष्णीनां परदेवतेति विदित रंगं गतः साग्रज: ।।१७-४३-१३
तुलसी और केशव ने भी इस कौशल का परिचय दिया है।
अलंकार का प्रयोग भाव-सौन्दर्य की वृद्धि हेतु किया जाता है । शब्दालंकारों में रात में अनुप्रास और थर्मक का प्रयोग बहुलता से मिलता है । अनुप्रासों के सभी शास्त्रीय भेदों के उदाहरण इस काव्य में मिल जाते हैं। कुछ स्थल देखिये :
(१) जंग जुरन जालिम जुझार भुज सार भार भु' ।।
(२) चढ़ि कंध कर्मधन जोगिनी । सद्द मद्द उनमद्द फिरि ।।
(३) त्रैनैनं त्रिजटेब सीस त्रितयं त्रैरूप त्रैसूलयं ।।
बाच्या विचित्रता से रिक़ शब्दाडम्बर-मात्र वाला वर्णानुप्रास भी कहीं-कहीं दृष्टिगोचर हो जाता है ।
यमक का प्रयोग अनेक स्थलों पर है परन्तु संयम के साथ :——(१) सारंग रुकि सारंग हने । सारंग करनि करषि ।।
(२) धवल वृषभ चढ़ि धवल । धवल बंधे सु ब्रह्म वसि ।।
(३) रन रत्तौ चिंत रत्त । वस्त्र रत्तेत खग्र रत ।।
ह्य गय रत्तै रत्त । मोह सौ रत्त वीर रत ।।
धर रत्तै पत रत्त । रूक रत्ते विरुझानं ।।
त वीर' पलचर सु त । पिंड रत्ती हिंय साने ।।
अर्थालंकारों के अंतर्गत जहाँ कवि ने काव्य-परंपरा का ध्यान रखते हुए प्रसिद्ध उपमानों का प्रयोग किया है वहाँ अप्रचलित और अप्रसिद्ध उपमान भी उसने साहस के साथ रखे हैं। राजस्थान के कवियों में यह परम सहनीय उद्योग विशेष रूप से उल्लेखनीय है । रासोकार के अप्रचलित अप्रस्तुत कहाँ क्लिष्ट होने के कारण और कहीं लोक में उतनी प्रसिद्धि न पाने के कारण अर्थ को सरल करने के प्रयास में उसे दुर्बोध भी कर बैठे हैं। कुछ उदाहरण दिये जाते हैं;
(१) जस्थौ सांस फूल जथौ मनिबद्ध । उयौ गुरदेव किधौं निसि अद्ध ।।
[अर्थात् मणि-ज़टित शीश फुल ऐसा भासित हो रहा थF मानों अर्द्धरात्रि में वृहस्पति का उदय हुआ हो । उत्प्रेक्षा. बड़ी अनुपम है परन्
बृहस्पति ग्रंह को आकाश-मंडल में पहिचानने वालों की संख्या आमीण जन को कुछ अंशों में छोड़कर नगरों के शिक्षित जन-समुदाय में अति कम है । रासो काल में अब घड़ियाँ नहीं थीं भारत की अधिकांश जनता का ग्रहों और नक्षत्रों से परिचित रहना स्वाभाविक था श्रस्त अपने युग में उपर्युक्त उत्प्रेक्षा बड़ी ही सार्थक रही होगी । ]
(२) जगमगत कंठ सिरि कंठ केस। मनु अई' ग्रह चर्पि सीस बैसि ।।
(३) अह अइ सतारक पीत पगे । मनों से तिकै उर भांन उगे ।।
परन्तु नवीन उपमान अपनी अर्थ -सुलभता और लोक-प्रसिद्धि के कारण अर्थ-गौरव की भी निःसन्देह वृद्धि कर सके हैं :
(१) मुर्ष कढूिढन पूँघट अस्सु बली । मनों हूँघट ६ कुल बद्ध चली ।।
(२) यों मिले सब्ब परिगह नृपति । ज्यों जत झर बोहिथ्य कटि।।(३) जनु छैलनि कुलटा भिलै । बहुत दिवस रस अंक ।।
(४) दिपंत मेन लढरार्थ ! जिहाज जोग भग्यं ।।
कहीं-कहीं ग्रामीण प्रयोग भी मिलते हैं । यथा :
(१) सुर असुर मिति जल फोरयं ।।
(२) साज सज्ज चल्यौ सु फुनि जनु कलौ दरियाव ।।
उपसा के प्रयोगों द्वारा रासोकार ने अपना अभीष्ट सिद्ध करने में अपूर्वं सफलता प्राप्त की है। एक निरवथवा-लुप्तम-मालोपमा देखिये :
इसौ कन्ह' चहुन । जिसौ भारथ्थ भीम बर ॥
इसौ कन्ह चहुअन । जिसौ द्रोना-चारिज बर।।
इसौ कन्ह चहुअन । जिसौ दससीस बीस मुज़ ।।
इसौ कन्ह चहुमान है जिसौ झवतार धारि सुज ।।
बुध बेर इस्स तु जु रिन । सिंघ तुट्टि लषि सिधनिये ।।
प्रथिराज कुवर साहाय कज । दुरजोधन अवतार लिया ।।
उपमा के बाद रासो में रूपकू का स्थान है । वैसे तो उके सभी विभेद मिलते हैं परन्तु कवि को सांग-रूपक संभवत: विशेष प्रिय था क्योंकि इसके सहारे पुरातन कथा-सूत्रों, प्राकृतिक-सौन्दर्य और मौलिक उद्भावनाओं को साकारता प्रदान की जा सकती थी अतएव यह मोह छोड़ सकना इसे रुचिकर न रहा होगा। इसके प्रयोग में उसे आशातीत सफलता भी प्राप्त हुई है :
(१) बाल नाल ' सरिता उतरः । अनंग अंग सुज ॥
रूप से तळ मोहन तड़ाग । अम भए कटच्छि दुज ।।
प्रेमपूर, विस्तार । जय मनसा विध्वंसन ।।
दुति अहं नेह अथाह । चित्त करघुन पिय तुडून ।।
मन विसुद्ध बोहिथ्थ अरे । नहिं थिर चित जोगिंद तिहि ।।
उत्तरन पार पावै नहीं । मीन तलफ लगि मत्त विहिं ।।
[अर्थात्व——ह बाला उत्तंग सरिता है, रूप उसका तट है, आकर्षण रूपी तड़ाग (कंड) हैं, कटाक्ष रुपी वर हैं, प्रेम रूपी विस्तार है, योग्र रूपी मनसा (कामना) का वह विध्वंस करने वाली है, उसकी द्युति ही ग्राह (मकर) है, स्नेह रूपी अथाहता है, विशुद्ध मन रूपी बोहित पर आरूढ़ योगीन्द्र भी चंचल चित्त हो जाते हैं और उसके पार नहीं जा पाते (अर्थात् उसका अतिक्रमण नहीं कर पाते) तथा मीन सदृश तड़पते हैं ।]
(२) सह महीव कब्बी । नव-नव कित्तीय संग्रहं ग्रंथं ।।
सागर सरिस तरेगी । बोहथ्थर्य उक्लियं चलिये ॥
काव्य समुद्र कवि चंद कृत । सुगति समप्पन ग्यान ॥
राजनीति बौहिथ सुफल। पार उतारन यान ।।
[अर्थात्क——वि के महान आशा रूपी सागर में उचाल तरंगें उठ रही हैं जिसमें उक्तिं रूपी बोहित (जहाज़) चलाये गये हैं ।
कवि चंद कृत काव्य रूपी समुद्र, ज्ञान रूपी मोती समर्पित करने वाला है और राजनीति रूपी बोहित उस काव्य रूपी. सागर से सफलता पूर्वक पार उतारने वाला योन है ।]
समस्त——वस्तु-सावयचों और एकदेश-विवर्ति-साधयों की स्वाभाविक रंजना आदि के काव्य-शास्त्र-ज्ञान की परिचायिका हैं। एक निरवयव रूपक भी देखिये :
चंद वदनि मृग नवनि । भेहि असित कोदंड बनि ।।
गंबर मंग तरलत, तरंग । बैनी भुअंग बनि ।।
कीर नास गु दिति । दसन दामिक दारसकन ।।
छीन लंक श्रीफल अधीन । क बरनं तन ।।
इच्छति भतार प्रथिराऊ तुहिं । अहनिसि पूजत सिव सकति ।।
अध तेरह बरस पदमिनी । हँस मनि पिष्पहुं । नृपति ।।
उत्प्रेक्षायों की रासो में भरमार है, परन्तु वे अत्यन्त सफल बन पड़ी हैं। रूए-शृङ्गारे और युद्ध-वर में स्त्प्रे क्षा की प्रचुरता सुसझनी चाहिये । प्रचलित-अप्रचलित, प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध उधमानों का प्रयोग यहीं पर कवि ने जी खोलकर किया है । एक वाच्या-अनुक्त-विषय-वस्तूत्प्रेक्षा देखिये :
छुटि स्नगमद कै काम छुटि। छुटि सुगंध की बास ।।
तुंग मनौ दो तन दियौ । कंचन घंभ प्रकास ।।
यहाँ स्व-खंभ को प्रकाशित करने वाले दो तुङ्गों की संभावना देखकर और उपमेय स्वरूप उरोजों को कथन न होने के कारण एकातिशयोक्ति का भ्रम न करना चाहिये ।
प्रतीयमाना-फलोत्प्रेक्षा और हेतुत्प्रेक्षा दोनों ही मिलती हैं। एक श्रसिद्धविषय-हेतुत्प्रेक्षा लीजिये :
सम नहीं इसिमती जोइ । छिन गरुअ छिन लधु होइ ।।
देषेत त्रीय सुरंग । तब भयौ काम अनंग ।।
यहाँ कवि का कथन है कि संयोगिता की संदरता देखकर ही कामदेव अनंग हो गया परन्तु लोक-प्रसिद्ध है कि काम के अनंग होने की कथा शिव द्वारा भत्स किए जाने वाली है।
राति-काल में संयोगिता के स्वेद कणों को लेकर कवि ने शुक-मुख द्वारा मयंक और भन्मथ तथा ( सूर्य ) किरणों और मुकुलित कलियों की सुन्दर उत्प्रेक्षा की है :
देषि बदन रति रहस । बुंद कम स्वेद सुभ्भ भर ।।
चंद किरन मनमथ । हथ्थ कुड्डे जनु डुकर्कर ।।
सुकवि चंद वरदाय । कहिंथ उप्पम श्रुति चालह ।।
मनौ भयंक मनमथ्थ । चंद पुज्यौ मुत्ताहय ।।
कर किरनि रहसि रति रंग दुति । प्रफुति जी कलि सुंदरिये ॥
सुक कहे सुकिय इंच्छिनि सुनव। मैं पंगानिय संदरिये ।।
कन्नौज के गंगा-तट पर मछलियाँ चुनाते समय पृथ्वीराज ने संयोगवशात् समीपस्थ महाराज जयचन्द्र के राज-प्रसाद के गवाक्ष पर एक अदभुत दृश्य देखी----हाथी के ऊपर सिंह है, सिंह के ऊपर दौ पर्वत हैं, पर्बतों के ऊपर भ्रमर हैं, भ्रमर के ऊपर शशि शोभित है, शशि थर एक शुक हैं, शुक के ऊपर एक मृग दिखाई देता है। सुपा के ऊपर कोदंड संधाने हुए कैदएँ बैठा है, फिर सर्प हैं, उन पर मयूर है और उस पर सुर्वण जटित अमूल्य हीरे हैं । देव-लोक के इस रूप को देखकर राजा धोखे (भ्रम) में पड़ गये :
कुंजर उप्पर सिघं । सिंघ उपर दोथ पब्बय ।।
पुब्बव उमर भ्रङ्ग । श्रङ्ग उप्पर : सुसि सुभ्भय ।।
ससि उप्पर इक : कीर। कीर उप्पर म्रग दिौ ।।
स्नग ऊपर कोचंड । संधि केंद्रप्प बवट्ठौ ।।
अहि मयूर महि उप्परह। हेम सरिस हेमन जरयौ ।।
सुर भुअन छडि कवि चंद कहि । तिहि धौमैं राजन परयौ ।।
यह अपरूप और कोई नहीं, देव-लोक की छवि, युग की अनन्य सुंदरी, गजगामिनी, केहरि कटि वाली, मांसल और पुष्ट तथा शिरोदेश पर श्याम वर्ण के उरोजों वाली, चन्द्रवदनी, कीर-नासिका, मृगनयनी, धनुषाकार भृकुटियों और धनी बरौनियों वाली, अपने कृष्ण कुंतलों पर मणि जटित मुकुट धारण किये स्वयं राजकुमारी संयोगिता थी, जो स्वयम्वर के अवसर पर अपने पिता की इच्छा के विपरीत दिल्लीश्वर पृथ्वीराज की सुवर्गा प्रतिमा को तीन बार वरमाला पहिला चुकी थी तथा जिसके परिणाम स्वरूप इस महल में वंदिनी कर दी गई थी।
यहाँ अमालंकार के सहारे कान्यकुञ्ज की राजकुमारी के अंगों का सौन्दर्य चित्रित कर कवि चंद ने महाराज की भ्रान्ति का अपूर्व चित्रण किया है। आश्चर्य नही कि रासो के ऐसे प्रसंगों की चौदहवीं शताब्दी के मैथिल कोकित विद्यापति के स्त्री-सौंदर्य के स्थान पर पुरुष-रूप वर्णन के निम्न सदृश पदों की प्रेरणा में कुछ छाप रही हो :
ए सखि पेबल एक अपरूप ।
सुनइत मानब सपन सरूप ।।
कमल जुगल पर चाँद क माला ।
ता पर उपजल तरुन तुमाला ।।
तापर बेढ़लि बिजुरी-लता ।
कालिन्दी तट धीरे चलि जाती है।।
साखा सिखर सुधाकर पाँति ।
ताहि नब पल्लव अरुनक भाँति ॥
बिमल बिम्बफल जुगल बिकास ।
तापर कीर थीर करु बास् ।।
तापर चंचल खंजन जोर ।
तापर साँपिन झापल मोर ।।....
अतिशयोक्ति अलंकार में रूपकातिशयोक्ति के प्रयोगों का प्राधान्य हैं। कहीं बहे स्वतंत्र रूप में है और कहीं अन्य अलंकारों के साथ मिश्रित । एक स्थल देखिये :
अष्टे मंगलिक अरु सिध । नव निधि रत्न अपार ।।
पाटंबर अंमर बेसन दिवस नः सुमझहिं तर ॥
दिन में सब वस्तुयें दिखाई पड़ती हैं परन्तु ये वस्त्र इतने महीन हैं। कि दिन में भी इनके तार नहीं दिखाई देते । वस्त्र की सूक्ष्मता उद्यमान हैं जिसके प्रतिपादन हेतु दिवस न सुझहि तार का प्रयोग करके भेदेप्यभेद: द्वारा बड़ी ख़बी से रूयकातिशयोक्ति सिद्ध की गई है। अप्रस्तुत के सर्वथा अभाव वर्णन वाले असभ अलंकार का एक छन्द देखिये :
रूपं नहि कटाच्छ कूल तय, भायं तरंगं बरं ।
हावं भावति मीन सित गुनं, सिर्छ भने भेजनी ।।
सोवं जोश तरंग रूवति बरं, झीलोक्य ना तो समा ।
सौर्य साहि सहावदीन ग्रहियं, अनंग क्रीड़ा रसं ।।
‘त्रीलोक्य ना तो समा’ द्वारा असम अलंकार और इसके अतिरिक्त सांय रूपक का मिश्रण भी समझ लेना चाहिये।
ऊपमान को उपभैय कल्पना करना आदि कई प्रकार की विपरीत वाला प्रतीपालंकार रासो में अनेक स्थलों पर देखा जाता है । उस (संदरी) की वेणी ने सप को जीत लिया, मुख ते चन्द्र-ज्योत्स्ना फीकी कर दी, नेत्रों ने कमल की पंखुड़ियों को हीन क्रिया, कलशाकार कुचों ने नारंगियों को क्षीण किया, मध्य भाग ने केहरि कटि को, गति ने हंसों (की चाल) को, थौवन-मद नै गलित गजराज को, जंघाओं नेउलट कर रखे हुए कदलिखंभों को, कंठ ने कोकिल को, (शरीर के) व ने चंपक पुष्प को, दाँतों (की वृति) ने बिजली को और नासिका ने शुक (की नाक) को श्री हीन कर दिया । इस प्रकार कामराज ने (भान) भूमंडल कीविजय हेतु अपना सैन्य सुजित किया।
बैनि नाग तुझ्यौ । वदन ससि राका तुझ्यौ ॥
नैन पदम पंचुरिय। कुंभ कुच नारिंग छुट्यौ ।।
मद्धि भाग थिराज । हँस गति सारँग मत्ती ।।
जंघ रंभ विपरीत । कैट कोकिल रस मत्ती ।।
ग्रहि लियौ साज चंपक दरन । दसन बीज तुज नास बर ।।
सेना समग्र एकत कृरिंय | काम राज जीतन सुधर ।।
इनके अतिरिक्त उदाहरणे, दृष्टांत, आवृत्ति, दीपक, संदेह, सार, स्वभावौक्ति और अर्थान्तरन्यास के भी सुन्दर निरूपण मिलते हैं। वैसे रास:-
(१) अथिराज' के स्थान घर बनराजघाठ उचित होगा ।
जैसे विशाल काव्य में प्रयत्न करने पर प्रायः सभी अलंकारों के उदाहरणें मिलना असंभव नहीं है । इन विभिन्न शैलियों के माध्यम से कवि ने अपने काव्य की रस-निष्पत्ति में पूर्ण सहायता ली है। रस और अलंकार की सफल योजना को ही यह श्रेय है कि रासो के अनेक अंश मार्मिक, प्रभावशाली और मनोहर हो सके हैं।
छन्द
भारतीय छन्दों को संस्कृत (refined) और प्राकृत (popular) इन दो भागों में बाँटा जा सकता है । घहिली कोटि के छन्दों में वर्ण-गणना प्रधान होती है और दूसरों में मात्रा-गणना । वैदिक-छन्दों में बर्फ विचार प्रधान पाया जाता है और बुण मैं ह्रस्व या दीर्घ मात्रायें लगने से कोई अन्तर नहीं पड़ता जब कि इन्हीं छन्दों से विकसित होने वाले संस्कृत-छन्दों में वर्ण-विचार की प्रधानता के साथ कुछ मात्रिक-विचार भी सन्निहित रहता है। कृत-छन्द अपने प्रारम्भिक काल से ही मात्रा वृत्त रहे हैं परन्तु मात्रिक गणना प्रधान होने पर भी आवश्यकतानुसार उनमें प्रयुक्त हुए वर्गों को ह्रस्य या दी किया जा सकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वर्ण वृत्तों की अपेक्षा मात्रा वृत्तों में कवि को अधिक स्वतंत्रता रहती है और साथ ही ताले का निदान मात्रा पर आधारित होने के कारण बहुधा वे संगीत के लिये भी उपयुक्त होते हैं। प्राकृत और अपभ्रंश भाषायों के युग में शैल्यूष और मागधों तथा भट और चारों ने साधारण जनता के मनोविन्द के लिये जिन प्राकृत छन्दों की सृष्टि की थी वे जन्मजात ही संगीतमय थे । प्राकृत छन्दों की निमरण लोक-कवियों के अतिरिक्त विद्वान पंडितों द्वारा भी हुआ। यही कारण है कि मध्यकालीन प्राकृत (भाषा) की रचनायें संगीत विहीन हैं परन्तु इसके विपरीत दूसरा विरोधी सत्य यह भी है कि विद्वानों का सहयोग होते हुए भी अपभ्रश कालीन रचनायें संगीत-पूर्ण हैं । मज्झटिका, अपभ्रंश का लाड़ला छन्द है और इसमें आठ मात्राओं के बाद स्वतः ताल लगाने लगती है तथा इस युग के घत्ता और मदनगृह वे छन्द हैं जिनका प्रयोग नृत्य में भी होता है।
जैसे श्रेष्ठ खराद करने वाले के हाथों में जाकर हीरे की चमक बढ़ जाती है बहुत कुछ वही हाल छन्द का भी है । छन्द का नियम पालन करने के अतिरिक्त कवि ही प्रतिभा, विषय के अनुकूल छन्द चुनकर रस और अलंकारों का वास्तविक वांछित योग करके छन्द की महत्ता को बहुत कुछ गौरवपूर्ण पद पर पहुँचा सकती है। कवि के लिये छन्द की मुखापेक्षी होना
अनिवार्य नही तथा यति-गति के नियंत्रण उसे विवश नहीं करते परंतु यह किससे छिपा है कि वर्ण और मात्रा योजना की लय की मधुरिमा उसके भावों की व्यंजनों की सिद्धि मे अदृश्य प्रेरक शक्ति है और ऐसी शक्ति का संबल कौन छोड़ना चाहेगा । वर्णन को दृष्टिगत रखकर ही छन्द का चुनाव होना चाहिये । प्रकाशित रचनायो को देखकर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रत्येक छन्द हर प्रकार के वर्णन के लिये उपयुक्त नहीं होता । अवधी भाषा में प्रबन्ध-काव्य के लिये कुतबन, संझन और जायसी ने दोहा-चौपाई छन्द की पद्धति को अपनाया तथा तुलसी ने इस योग की शक्ति से प्रभावित होकर उसमें रामचरितमानस की रचना की । सेनापति, मतिराम, रसखान, भूषण, देव, घनानंद, पद्माकर, रत्नाकर प्रभृति कवियों की ब्रजभाषा कृतियो ने सवैया और कवित्त छन्दों को महिमान्वित किया । प्रमुखत: वीर रस के लिये तथा प्रबंध के लिए भी छप्पय् छन्द की उपयोगिता पाई गईं । दोहा छंद अपभ्रंश काल से नीति और उपदेशात्मक रचनाओं के लिए प्रसिद्धि में अ चुका था परन्तु गागर में सागर भरने वाले बिहारी के कौशल ने उसमे शृङ्गार की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावनाओं की व्यंजना कर सकने की क्षमता को भी पता दिया । रहीम ने बरवै जैसे छोटे छन्द में नायिका भेद' का प्रणयन कर उसे निखार दिया । हिदी साहित्य में जहाँ उचित छन्द के चुनाव ने अनेक रचनाओं और उनके रचयिंताओं को अमरता प्रदान की वहीं लाल और सूदन जैसे श्रेष्ठ कवियों की कृतियाँ छुत्र प्रकाश और सुजान चरित्र', वीर बु देला छत्रसाल और भरतपुर के पराक्रमी जाट नरेश सूरजमल जैसे नायकों की प्रशस्तियाँ होने पर भी प्रतिकूल छन्दों के निर्वाचन से वांछित लोकप्रसिद्धि न प्राप्त कर सकीं । भाषा तथा उसके शब्दों की संयुजन शक्ति को भली भाँति तौलकर ही छन्द की चुनाव करना किसी भी कवि के लिए अभीष्ट है । अवध में चौपाई को जो सफलता मिली बृज में वह सम्भव न हुई । यद्यपि छन्द-शास्त्रियों ने ऐसे नियमों का विधान नहीं किया फिर भी प्रकाशित रचनाअों की सफलता और विफलता ने यह विचार ध्यान में रखने के लिये वाध्य कर दिया है कि हर छन्द हर रस के अनुकूल नहीं हुआ करता।
रासो के छन्द एक समस्या उपस्थित करते हैं । इस काव्य में अनेक छन्द ऐसे है जिनके रूप का पता उपलब्ध छन्द-ग्रंथों में अवश्य मिलता है। परन्तु उनके नाम सर्वथा नवीन होने के कारण समस्या और उलझ जाती है तथा अनेक स्थल ऐसे हैं जिनमें छन्द के रूप के विपरीत उसका कोई नाम दिया गया है, इस परिस्थिति को देखकर अनुमान होता है कि छन्दों का नामकरण किसी ने बाद में किया है। इन छन्दों के वास्तविक रूप की विवेचना और उनका वर्गीकरण एक समस्या रही है। पिङ्गल छन्दः सूत्रम्', गाथालक्षणम्', वृत्तजातिसमुच्चय', 'श्री स्वयम्भूःछन्दः, कविदर्पणम्', “प्राक्कत पैङ्गलम्', छन्दकोशः, वृत्तरत्नाकर', 'छन्दार्णव पिङ्गल', 'छन्दः प्रभाकर प्रभृति संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिंदी के छन्द ग्रंथों की सहायता से हमने अपनी पुस्तके चंदवरदाई और उनका काव्य' में इनके रूप और लक्षणो का निश्चय किया है।
इस महाकाव्य में ( मात्रा-वृक्ष-शाहा, अर्या, दूहा, पद्धरी, अरिल्ल, हनुफाल, चौपाई, बाघा, विष्षरी, मुरिल्ल, काव्य, वेली मुरिल्ल, रासा, रौला, अर्द्धमालची, मालती, दुमिला, ऊध, उधौर, चन्द्राथना, गीता मालती, सोरठा, करघा, माधुर्य, निसांसी, वेली; म, दंडमाली, कमंध, दुर्गम, लीलावती, त्रिभङ्गी और फारक या पारक । संयु-वृत्तबथुआ, कवित्त, कबित्त विधान जाति, वस्तु बैध रूपक, तारक और कंडलियः । वर्ण-वृत्त---- साटक, दंडक, भुजंगप्रयात, भुजंग, वेली भुजंग, मोतीदास, बिराज, श्लोक, त्रोटक, लघुत्रोटक, विज्जुमाला, भलथा, रसावला, नाराच, नाराचा, वृद्ध नाराचे, अर्द्ध नाच, लघु नाच, चावर नाराच, युक्त, वृद्धअमरावती, कलाकल या मधुराकल, कंठशोभा, कंठाभूपन, पारस, मोदक, मालिनी, मुकंद डामर और दोधक) ये अड़सठ प्रकार के छन्द पाये जाते हैं जिनकी संख्या ग्रंथ का श्राकार देखते हुए अनुचित नहीं है ।
इस काव्य का 'कबित' नामधारी छप्पय छन्द इतना प्रसिद्ध हुआ। कि वह रासो-पद्धति की एक अमिंट अङ्ग प्रसिद्ध हो गया है हिंदी में नरहरि और नाभादास के छप्पय विख्यात हुए और वीर-प्रशस्विकारों में शार्ङ्गधर (हमीर रासो ), मान ( राज विलास ), भूषण ( शिवराज भूषण ), श्रीधर ( जंगनामा ), सुदन ( सुजान चरित्र }, जोधराज ( हम्मीर रालो ), पद्माकर ( हिम्मतबहादुर विरुदावली ) और चंद्रशेखर वाजपेयी ( हम्भीर हठ ) के अतिरिक्त मानसकार भक्त तुलसी, ‘सुकविन के सरदार’ गंग और प्रकृति वर्णनकार’ सेनापति ने भी रासो की शब्दावली वाली छप्पय पद्धति का अनुः करण किया । इस सफलता को गौरव नि:संदेह चंद की प्रतिभा को ही है।
। रासो के बहुधा बदलने वाले छन्द उसके कथानक की गति में बाधा नहीं डालते, यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। वे अपना रूप बदलते
रहते हैं परन्तु न तो रस का क्रम ही भंग होने पाता है और न वनक्रम को ही प्राधात पहुँचता है अस्तु हमें साहस के साथ कह सकते हैं कि कवि ने अपने छन्दों का चुनाव बड़ी दूरदर्शिता से किया है । कथा के मोड़ों को भली प्रकार पहिचान र वर्ण और मात्रा की अद्भुत योजना करने वाला रासो का रचयिता वास्तव में छन्दों का सम्राट था ।
चरित्र-चित्रण
चरित्र-चित्रण दो प्रकार का होता है--(१) आदर्श और (२) यथार्थ अपनी भावना के अनुसार कवि का किसी चरित्र को पूर्ण रूप देना तथा उसमें किसी प्रकार की त्रुटि न पड़ने देना ‘आदर्श चित्रण है और संसार में नित्य-प्रति देखे जाने वाले चरित्रों का यथातथ्य रूप खींचना यथार्थ चित्रण है । आदर्श-चरित्र के दो प्रकार हैं-एक तो जातीय, राष्ट्रीय, सामाजिक और धार्मिक विचारों का अधिक से अधिक पूर्ण रूप से समन्वय करने वाला ‘लोकादर्श चरित्र' जैसे रामचरितमानस के राम का और दूसरा उक्त ढंग के समन्वय या लौकिक औचित्य की भावना को गौण करके कोई एक भाव पराकाष्ठा तक पहुँचाने वाला ऐकान्त्रिक आदर्श चरित्र' जैसे पद्मावत के राजा रतनसेन का जो अपनी विवाहिता पत्नी नागमती को छोड़ कर जोगी' हो जाता है और सिंहलगढ़ में जाकर सेंध लगाता है । ऐकान्तिक श्रादर्श चरित्र' धर्म और अधर्म (पाप) दोनों के आदर्श हो सकते हैं जैसे भूर्तिमान अत्याचारी रविण पाप क आदर्श है । थे कभी स्वतन्त्र रूप में विकसित पाये जाते हैं जैसे रतनसेन और कभी लौकादर्श नायक का महत्व बढ़ाने के लिये उदभूत होदे हैं जैसे लोकनायक राम को महत्व बढ़ाने वाले सीता, भरत और हनुमान क्रमशः पातिव्रत, भातृ-भक्ति और सेवा भाव के ऐक्रान्तिक आदर्श हैं। 'यथार्थ चरित्र चित्रण' का ऐकान्तिक या प्रधान स्थान पा सकना संभव नहीं है परन्तु गौण रूप में उसकी श्रावश्यकता अनिवार्य कही जड़े सकती है।
'पृथ्वीराज रासो' के नायक पृथ्वीराज को क्षत्रिय लोकदर्श रूप मैं चित्रित किया गया है । अजमेर-नरेश महाबाहु-सौमेश्वर के अपूर्व तप और पुण्य से जगद्विजयी पृथ्वीराज को जन्म हुआ ।' जिस दिन उनका जन्म हुआ। उसी दिन पृथ्वी का भार उतर गया। उनके जन्म
१---सोमेश्वर महावाहो । तस्थापूर्वं तपो गुणैः ।।
| तेने पुण्यं जगज्जेता । भन्ते पृथुराख्यम् ।। ॐ० ६६६, स० १; ३---ॐ दिन अनम प्रथिराज भौ।त दिन भार घर उत्तरिय छः ६८८, स ०१; से क्षत्रियों के छत्तींसों वंश ऐसे प्रफुल्लित हुये मानों यदुवंश में यदुनाथ (कृष्ण) का जन्म हुआ हो । दशरथ के राम, वसुदेव के कृष्ण, कश्यप के करुणाकर, कृष्ण के प्रद्युम्न और प्रद्युम्न के अनिरुद्ध के समान बत्तीस लक्षणों, अनेक कलाओं और बाल-सुलभ क्रीड़ाओं वाले पृथ्वीराज कमनीय मूर्ति थे | गुरु राम से चौदह विद्याओं की शिक्षा पाकर अौर गुरु द्रोश से चौरासी कलाओं, अस्त्र-शस्त्रों का संचालन तथा सत्ताइस शास्त्रों का अध्ययन करके गौ, ब्राह्मण का पूजन करने वाले दानी पृथ्वीराज४ संस्कृत प्राकृत, अपभ्रश, पैशाची, मागधी, शौरसेनी इन ॐ भाषा के ज्ञाता हुए । विनयी, गुरुजनों का आदर करने वाले, सर्वज्ञ, सबका पालन करने वाले, श्रेष्ठ सौन्दर्य-मूर्ति पृथ्वीराज बत्तीस लक्षणों से युक्त थे ।६।
वीरों और वीरता को प्रश्रय देने वाले पराक्रमी पृथ्वीराज प्रारंभ से ही साहसी और पुरुषार्थी बीरों को सम्मानित करने लगे थे। अवसर और परिस्थिति विशेष में सोलह राज़ ऊँचे गवाक्ष से कूद पड़ने वाले लोहाना को उन्होने ‘श्राजानुबाहु उपाधि तथा शत्रु का अरछा-राज्य जागीर स्वरूप प्रदान किया। अपने शरणागत सात चालुक्य भइयों को दरबार में मूंछ ऐठने के साधारण अपराध पर मारने के अविचार के कारण उन्होंने सम नीति से चाचा कन्ह की आँखों पर सोने की पट्टी बँधवा दी, धैर्य और निर्भयता से बावन वीरों को वशीभूत किया तथा कन्यादान का वचन देकर पलटने और अपने कुल का निरादर करने वाले मंडोवर के शासक नारराय परिहार को युद्ध में परास्त कर उसकी कन्या का पाणिग्रहण करके अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा की। पितु-भक्त युवराज पृथ्वीराज ने अपने पिता राजा सोमेश्वर को मेवात के युद्ध में राजपूती आनबाने में सहायता दी और विजय-श्री प्राप्त की, गज़नी के शाह शहाबुद्दीन
१-बिगसंत वदन छत्तीस बंश । जदुनाथ जन्म जनु जलुन बंस।।ॐ० ७१५, सं० १;
३--छं० ७२७, स० १;
३---ॐ० ७२६, स० १;
४.---छं० ७३०-४५, स० १;
५-संस्कृतं प्राकृतं चैव । अपभ्रंश: पिशाचिका ।।
भागधी शूरसेनी च । पट भाषाश्चैव ज्ञायते ॥ छं० ७४६, स० १;
६---विमयी गुरजन शाता । सर्वश: सर्वपालकः ।। शरीरं शोभते श्रेष्ठ । इत्रिशत्तस्य लक्षणम् ।। छ० ७४७, स० १,
गैरी के भाई मीर हुसेन के शरणागत होने पर उसे 'आश्रय दिया जिसके कारण सुलतान से अजन्म बैर बँधा और कठिन युद्धों के मोर्चे रोकने पड़े, गुर्जरेश्वर भीमदेव चालुक्य के अनान्दार से पीड़ित अबूराज सलख प्रभार को शरण देकर उसकी रक्षा कर उसकी कन्या इच्छिनी से विवाह स्वीकार करके चालुक्यराज से वीर क्षत्रिय योद्धा के समान बैर का निर्वाह किया, समुद्र शिखरगढ़ की राजकुमारी की “ज्यों रुकमिनि कन्हर बरिय' याचना पर उसके पिता की स्वीकृति पर भी उसका हरण किया और युद्ध में विजय प्राप्त करके उससे परिणय किया, अपनी बहिन पृथा का विवाह चित्तौड़ के रावल समरसिंह ( सामन्त सिंह ) से करके एक सबल शासक-वंश को अपनी चिर मैत्री के प्रगाढ़ बंधन में बाँधः, नाना प्रकार के आधिदैविक उपद्रव का शांत करके खई बन की भूमि के गर्भ की अगाध धन-राशि का अधिकार पाया, देवगिरि की यादवकुमारी शशिवृता की, प्रणय-शरण-याचना पर महान युद्ध क्लेश सहन कर, देवालय से उसका हरण करके उससे विवाह किया और फिर यादवराज पर कान्यकुब्जेश्वर जयचन्द्र के युद्ध-क्रुद्धालु होने पर उसकी रक्षा की, उज्जैन-नरेश भीमदेव के अपनी. कन्या इन्द्रावती का पहिले विवाह-प्रस्ताव करके उसका उल्लंघन करने पर उससे शुद्ध करके राजकुमारी का वरण किया, रणथम्भौर के राजा मान की (आर्त) पुकार पर युद्ध में चंदेरीपति शिशुपाल वंशी पंचाइन से उसका त्राण किया, एक चन्द्र-ग्रहण के अवसर पर रात्रि में यमुना स्नान करने वाले पिता और उनके साथियों को वरुण के वीरों द्वारा मूर्छित किये जाने पर स्तुति और गन्धर्व-यंत्र को जप करके चैतन्य किया, पिता के निधन पर सिंहासन ग्रहण किया, पितृ-घाती भीमदेव चालुक्य को मारने तक पगड़ी न बाँधने और घी न खाने का व्रत लिया फिर पिता का प्रेत-संस्कार समाप्त करते ही ललकार कर चालुक्य-नरेश पर चुढाई की तथा घमासान युद्ध में उसे मौत के घाट लगाकर अपना बदला पूरा किया, जिसूर्य-यज्ञ में द्वारपाल का कार्य अस्वीकार करने पर जयचन्द्र द्वार सुवर्ण-मूर्ति के रूप में उक्त स्थान पर खड़े किये जाने के अपमान के कारण उनके भाई बालुकाराय को युद्ध में मारकर यज्ञ विध्वंस किया, अन्त:पुर में रहने वाली अपनी प्रेयसी कर्नाटकी वेश्या से रमण करने के अपराध में मंत्री कैमास को मारा, युद्ध को ही श्रपना जीवन-शिविर ' बनाये रहने पर भी पंडितों के शास्त्रार्थ और मंत्र-तंत्र की होड़ देखने का अवसर ढूढ़कर अपनी सुसंस्कृत और परिष्कृत रुचि का परिचय दिया, 'मुरया के परम व्यसनी इस थीद्धा ने वहुधा उसमें विपक्षियों के', षड़यंत्रों से युद्ध
की नौबत श्री उपस्थित होने पर अपने बाहुबले का भरोसा, असीम साहस, अमित धैर्य और अतुलित पराक्रम से चिर-विजयी-भाग्य को सहचर बनाया, कान्यकुब्जे की राजकुमारी द्वारा तीन बार अपनी मूर्ति को वरमाला पहिनाने का वृत्तांत सुनकर छद्म वेश में कन्नौज पहुँचकर उसका हरण किया और दलपं की असंख्य वाहिनी से विषम युद्ध में अपने चौंसठ श्रेष्ठ सामंतों की अपार हानि सहकर स्वयंवरा की पत्नी रूप में प्राप्त किया, उन्नीस बार राज़नाधिपति }ोरी से मोच लेने वाले इस स्वनामधन्य युद्ध-वीर ने बार-बार अधिक प्रबल वेग से क्रिमा करने वाले बैरी को चौदह बार बंदी बनाकर उसे मुक्त करके अपनी दया-वीरता का सिक्का छोड़ा और अंतिम युद्ध में री द्वारा वंदी और अंधे किये जाने पर भी विचंद की सहायता से अपना बदला लेने में समर्थ हुआ तथा राज़नी-दरबार में कवि की छुरी से आत्म-घात करके संसार में शरणागत की रक्षा में प्राणों की आहुति देने, वचन का पालन करने, योद्धाओं का उचित पोषण करते हुए उन्हें बढ़ावा देने, प्रतिष्ठा पर अाँच न आने देने, युद्ध में हितों, गिरे हुओं और भरने वालों को न मारने, स्त्री-बच्चों पर वार न करने, वैर का बदला सिंह सहश लेने और विनम्र शत्रु को प्राण-दान दे डालने का अपूर्व आदर्श स्थायी कर यया । इसीसे तो म्लेच्छों की भार भूमि से हटाने वाले इस परम वीर सम्राट की मृत्यु पर देवताओं ने पुष्पांजलि डाली थी ।' तथा वीणा-पुस्तक-धारिणी सरस्वती योद्धाओं के इस वरेण्य स्वामी के गुणों और कार्यों से अभिभूत होकर कह बैठी थीं—“पृथ्वीराज के गुणों का श्रवण करने से सबको अनिन्द की प्राप्ति होती हैं, नृथ्वीराज के गुण सुनकर शृगाल सदृश भीरु पुरुष भी र में संग्राम करते हैं, धृथ्वीराज का गुणानुवाद सुनकर कृपण जन कपटरहित हो जाते हैं, पृथ्वीराज के गुण जानकर गूग व्यक्ति भी हर्षतिरेक से सिर हिलाने लगता है, नव रसों से अभिषिक्त पृथ्वीराज का सरस रासो मूर्ख की पंडित करने तथा निरुद्यमी को अपूर्व साहसी बनाने वाला है :
प्रथराज गुन सुनत । होय आनन्द' सकल मन ।। प्रथीराज गुन सुनते । करय संग्राम स्यार रन ।। १-मरन चंद बरदाइ । राज पुनि सुनिर साहि हनि ।।
पुहपंजलि असमान । सीस छोड़ी तु देवतनि ।। भेछ अदद्धित धरनि । धरनि सब तय सोह सिग ।।...छं० ५५६, स० ६७
प्रथीराज सुन सुनत । क्रयन कपटय तें खुल्लय ।। प्रथीराज गुन सुनत । हरष्टि गंगौ सिर डुल्लय ।। रासौ रसात नवरस सरस । जानौ जानप लहै ।।
निसटौ शरिट साहस करें । सुनौ सत्ति सरसुति है ॥ २४०, स० ६८
यही कारण है कि इस क्षत्रिय लोकादर्श नायक के चरित्र का । अनुकरण करने का उपदेश कवि ने पृथ्वीपालों को दिया है.में
मधज्ज ( जयचन्द्र ) को जीतने वाले, शाह शौरी को पकड़ कर अपने चंदी-राह में डालने वाले, मेवात और सोझत के दुर्गों को तोड़ने वाले, भीमदेव को थट्टा में परास्त करके गुर्जर-देश को पददलित करने वाले, कुलधन्य नृपति ( पृथ्वीराज्ञ ) ने आश्चर्यजनक कृत्य किये हैं, वैसा न तो किसी ने किया और न झागे ही कोई करेगा, जगत को जीतकर ( या जगत में विजयी होकर ) उन्होंने युगों तक चलने वाला यश प्राप्त किया है । समस्त भूपाल यह बात समझ लें कि जैसा पिथ्थल ( पृथ्वीराज ) ने किया वैसा ही उन्हें भी करना चाहिये :
उन जित्यौ कभधज्ञ । साहि बंध्यौ हि गोरी ।। मैवाती मठ किद्ध । दौरि सो झत्तिय तोरी ।। थट्टभंज्यौ भीम । धरा गुज्जर दिसि धायौ ।। इहै करी अघियात ! कलस कुल नृपति चढायौ ।।
कीयौ न कि हू' करिहै न को ! जरा जितै जुग जस लियौ ।। संभलौ सकल भूपति बयन । कीजै ज्यौं पिथ्थल कियौ ।। ५५८, स० ६७
सुयोग्य मंत्री कैमास दाहिम का सामान्य अपराध पर वध, चंद पंडीर द्वारा युवराज रैनसी और धामंडराय के षड़यंत्र की अनर्गल ब्वच चलाकर कान भरने तथा मदांध गज ऋङ्कारहार को मारने मात्र की भूल पर उकसाने के फलस्वरूप सेनापति ( चामंडराय ) को बेड़ी पहनने का दंड और गौरी से अंतिम युद्ध से पूर्व 'रतिवंतौ जिम्’ द्वारा राज्य-कार्य में शिथिलता यथार्थ चित्रण हैं तथा इनके औचित्य-अनौचिल्थ पर मीमांसा करने के लिये यथेष्ट अंतरंग प्रमाण हैं ।
चाचा कन्ह ,चौहान, मंत्री कैमास दाहिम, जैतराव प्रभार, सेनापति चामंडराय, क्षत्रप चंद पुंडीर, संजमराय, लोहान अजानुबाहु, लंगर तंगरी राय, अल्हन कुमार, निड्डुर राय, धीर पुंडीर, पावस पंडीर, अक्षताईं चौहान अभूति एक सौ छै दुर्द्धर्ष हुतात्मा सामंत, स्वामि-धर्म में रंगे
बेजोड़ योद्धा, पृथ्वीराज-सदृश रणोन्माद में मदमाते, अपने स्वामी के सुख-दुख को अपना हर्ष-विषाद मानने वाले, छायों की भाँति उनकी रक्षा और आज्ञा में तत्पर वीर ऐकान्तिक श्रदर्श’ के जीवन्त प्रमाण हैं । देवगिरि की राजकुमारी शशिवृता, समुद्रशिखरगढ़ की पद्मावती और कान्यकुब्ज, की संयोगिता, झाबू की इच्छिनी, पुंडीरी दाहिमी और रणथम्भौर की हंसावती, मंडोवर की राजपुत्री और उज्जैन की इन्द्रावती प्रभृति पृथ्वीराज के साथ ढंग-ढंग से विवाहित होनेवाली पति-परायणा राज़ कन्यायें, अपने प्रियतम के युद्ध में वंदी होने का समाचार पाकर अग्नि-प्रवेश करने वाली क्षत्रिय-बालायें 'ऐकांतिक-धर्म-दर्श’ की सजीव मूर्तियाँ हैं ।
पृथ्वीराज का सखा, कवि, सहचर और परामर्शदाता, नेत्रविहीन और वंदी स्वामी की असहायावस्था में उनके शब्द-वेधी-बाण द्वारा सुलतान गौरी की हत्या कराके अात्म वलिदान करने वाला, स्वामिधर्म का साक्षात् प्रतीक चंद भी ‘ऐकान्तिक आदर्श' की प्रतिमूर्ति है।
अपने नाना अनंगपाल के न देने पर भी उनके दिये हुए राज्य की आधा माँगने वाले, राजसूय-यज्ञ के मिस चक्रवर्तित्व और दिग्विजय के अभिमानी, पृथ्वीराज के विपक्ष में हिन्दुओं और उनके देश-शत्रु सुलतान ग्रोरी के सहायक, बेटी विवाहने पर भी मुस्लिम-संग्राम की भीर एड़ने पर दिल्लीश्वर को सहायता न करने वाले पंग नरेश १ महाराज जयचन्द्र ); स्वयं निर्वासित किये हुए भाइयों के पृथ्वीराज के यहाँ अाश्रित होने पर बैर मानने परन्तु उनकी हत्या के समाचार से युद्ध के नगाड़े बजा देने वाले, श्राबूराज की दूसरी कन्या से बलपूर्वक विवाह करने के आकांक्षी, जैन धर्म के प्रभाव से ब्राह्मणों का अपमान करने वाले और अनेक छल-छद्मों के आयतन भोमाराय भीमदेव चालुक्यः सांसारिक सुख के उपभोग के लोभ में स्वामि-धर्म को तिलांजलि देकर अंतिम युद्ध में चंद को जालंधरी देवी के मंदिर में बंद करके सुलतान गौरी के पक्ष में जाने वाले, काँगड़ा दुर्ग के अधिपति पृथ्वीराज के सामंत होहुलीय हमीर; अनीति करने वाले महोबा के शासक दम्भी परमर्दिदेव उपनाम् परमाल तथा बार-बार युद्ध में पराजित और बंदी होकर क्षमा याचना करने, क्व रान की शपथ पर फिर अाक्रमण न करने का वचन देने और उसकी अवज्ञा करने, पृथ्वीराज की साधुता के प्रतिदान में उन्हें वंदी करके अंधा करने वाले, छल-बल को ही धर्म और कर्म मानने वाले दुष्टात्मा, विश्वासघाती, निर्लज्ज और दुर्निवार सुलतान गौरी, उसके सेनानायक तथा मंत्री श्रादि ऐकान्तिक-पाप-आदर्श की प्रतिमायें हैं। उपर्युक्त धर्म और पाथ के सारे ऐकान्तिक-आदर्श-चरित्र अपने आचरणों से इस महाकाव्य के नायक पृथ्वीराज के लोकादर्श-चरित्र की महत्ता बढ़ाने वाले हैं। इस काव्य में थही इनकी स्थिति हैं और यही इनकी विशेषता है।
पृथ्वीराज के लोकादर्श चरित्र-चित्रण का ही यह प्रभाव है कि ( उनके ) रासो को सुनकर देवराज इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु और महेशा रीझ गये, उमा ने शिव भाव से उसका ग्रहण किया तथा गुणझ देवर्षि नारद ने उसका श्रवण किया। तत्व का सार, ज्ञान, दान तथा मान सभी उसमें मन का रंजन करने वाले हैं। वह अस्त्र-शस्त्रों के संचालन की कलाओं का ज्ञान कराने वाला और शत्रु-दल का नाश कर्ता है। सब रसों के विचार, लोक की विद्यायें तथा मंत्र-तंत्र की साधनायें उसमें वर्णित हैं । कबि चंद ने युक्ति पूर्वक उसे छन्दों में बाँधा है जिसका पठन और मनन करने से सद्बुद्धि प्राप्त होती है :
सुनिरास सुरराय । रिक्रूझ ब्रह्मा हरि संकर ।। उमया धरि हरि साव । सुनिय नारद्द गुनकर ।। जें कछु तच गुर बयान ! दान माननि मुन रंजन ॥ सस्त्र कला । साधंन । मानि अरियन दल भजन ।। सब रस विचार विद्या भश्रम । मंत्र जंत्र साधन सुतन् ।।
कवि चंद छंद बंधिय जुगति । पढ्त गुनत पावै सुमति ।। ३४१,८०६८
पृथ्वीराज रासो' क्षत्रिय शासक पृथ्वीराज के जीवन-चरित्र का दिग्दर्शन कराने के कारण भारतीय हिन्दू समाज के क्षत्रिय जीवन और उसके सम्पर्क में आने वाले अन्य सामाजिक अंगों के जीवन से अधिक सम्बन्धित है। थुगीन घटना-चक्रों के प्रवाह में अपने पात्रों को ढालते हुए कवि ने परंपरा से संचित भारत के धर्म-अधर्म, सत्यासत्य, हिंसर-अहिंसा, दान-कृपणता, दया-क्ररवा, पातिव्रत-स्वैरता आदि के विश्वास को दृढ़तर करते हुए समाज को आदर्श रूप देने की सफल चेष्टा की है।
चिर-पोषित मानवीय मनोवृत्ति अतिथि-सत्कार और शरणागत को अभयदान हिन्दुश्चों में विशेष निष्ठितु भाये गये हैं। इस भावना की रक्षा मात्र ही नहीं वरन् उसकी पूरी प्रतिष्ठा कवि ने शहाबुद्दीन ग़ोरी द्वारा देशनिर्वासित उसके भाई हुसेन ख़ाँ के पृथ्वीराज से आश्रय-याचना के अवसर
पर की है। हुसेन पृथ्वीराज के पास क्या या “मनु आयौ ग्रह देद' ( ॐ० ७, स०६ } } चौहान राज संकल्प-विकल्प में पड़े कि म्लेच्छ को मुख देखना, शाह ग़ोरी का क्रोध और शरण-याचक को त्यागना सभी बड़े समस्यात्मक हैं :
मेछ भुष देषे न नृपति, विपति परी दुहु क्रम ।।
इक सरना इक रग्रहन, इक धर् रघुन भने ।। १४
चंद ने मन्छ रूपं जगदीसं' में सरन रष्षि वसुमती' और संकर गर विच कंद जिम, बडवा अगनिं समंद के उदाहरण सामने रखकर प्रेरणा की और उत्कर्ष दिया तथा पृथ्वीराज ने 'सरनागत भ्रम हैं रषिय’ हुसेन को आदर-सत्कार पूर्वक कैथल, हाँसी और हिसार प्रदेशों का शासन भार देकर अभयता का पट्टा लिख दिया । इसका परिणाम शीघ्र ही सामने अाया। सुलतान ने कढढौ हुसेन तुम देस अंत’ का संवाद भेजा जिसे सुनकर पृथ्वीराज ‘कलमलिय कोप रोमंच जिंद' हुए। मंत्री कैगास ने संदेश वाहक अरिङ्ग स्त्र को पटा जीधन म पत्रीय आन’ और चंद पंडीर ने कह डाला सरनै सुकौम कढ्दै नियान'। फिर क्या था वीर शरणदाता पर रख की घोष हो उठा। हुसेन की रक्षा और शडि का रण-मद' चुरा करने के लिये चौहान की वाहिनी बढ़ चली । विषम युद्ध में ग्रोरी तो बंदी हुआ। जिसे संधि कर लेने के पश्चात् मुक्त कर दिया गया परन्तु हुसेन की मृत्यु हो गई । इस प्रकार सयभीत को अभयदान देकर तथा प्राणप्र से उसकी रक्षा का प्रयत्न दिखाकर कवि ने चौहान का चरित्र सँवार कर अनुकरणीय बनाते हुए हिन्दू जनता की निर्दिष्ट अभिलाषा का पोषणा किया है।
गुर्जरेश्वर भोलाराय भीमदेव की अपने सात पैतृव्य ( चचेरे ) भाइयों से अनबन होने पर पृथ्वीराज द्वारा उन्हें अपने यहाँ बुलाकर ग्राम आदि से सम्मानित करने के उपरांत कन्ह चौहान द्वारा उनमें से बड़े भाई प्रतापसिंह को दरबार में अपने सामने भूछ ऐठने के अपराध परमारने और इसके फलस्वरूप युद्ध में शेष छै भाइयों को मृत्यु के घाट उतारने के वृत्तांत में पृथ्वीराज की अाकुलती, अजमेर में हड़ताल और सात दिनों तक दरबार में चाचा (कन्ह) के न आने घर संभरेश को उनके घर जाकर कहना कि अपने घर आये हुओं के साथ आपने ऐसा व्यवहार किया, यह खरा दो श्रापको लग गया और इस बुराई से संसार में अपयश होगा ।
तथा दरबार की निन्दा मिटाने के लिये चघ बँध पट्ट रतन' का प्रस्ताव कर के उनकी आखों पर पाव लाख मूल्य की पट्टी चढ़ा देला, इस प्रकार के व्यवहार के प्रायश्चित स्वरूमा कवि ने दिखाया है । वैसे, भी प्रतापसिंह गुर्जर को कन्ह का गुण विदित ही रहा होगा कि वे अपने सामने मँछ ऐंठने वाले को अपने को ललकारने वाला समझकर उस पर प्रहार कर बैठते हैं । अस्तु, प्रसंगानुकूल कन्ह का कार्य उचित-होते हुए भी पृथ्वीराज द्वारा घर आये के साथ ऐसे बर्ताव की भत्र्सना कराके कवि ने सामाजिक व्यवहार की मर्यादा की रक्षा की है।
स्वामि-धर्म का व्रत दिखाने के फलस्वरूप अर्थात् स्वामी के लिये ऐहिक प्रलोभनों में सबसे महान, जीवन के मोह से रिक्त कहीं कोई सामंत बतीस हाँथ ऊँची चित्रशाला से कूद पड़ता है, किसी का धड़ तीन लाख विपक्षी वीरों का सफाया कर डालता है, किसी का सिर समुन्न रूपी शत्रु-दले में कमल की भाँति खिल उठता है, कोई सुगति माग पुल्लिय दरिय’, किसी की प्राप्ति के लिये 'रंभ, झागरिय कुहिर बर’, कोई ‘तरनि सरन गय सिंधु', कोई सुगति मग लभ्भी घरिथ, किसी के लिये ‘बलि अलि वीर भुअंग भुश्र, कोई असि प्रहार बारह बढ्यौ, कोई रवि मंडल भेदियै, किसी को रहे सूर निरषत् नयन’, कोई करतार हथ्थे तरवार दिय’ को ही इह सु तत्त रजपूत कर' कहता है, कोई वीर गति पाकर सुरपुर में निवास करती है, कोई "बरयौ न की रवि चक्रलर' उपाधि प्राप्त करता है, कोई ‘सत्र सों भिरयौ इकल्ती, किसी का “अंड खंड तन पंडय' हो जाता है, किसी को *सिर फुट्टत घरे धरथौ, धरह तिल तिल होय तुझ्यौ', किसी को रुड अपना सिर स्वामी को समर्पित करके लड़ता है, कोई रास श्रग्र हनमंत जिम’ अग्रसर होता है, कोई करौं पंग दल दति रिन' की प्रतिज्ञा करके पूर्ण करता है, किसी के वीर गति पाने पर उसका वरण करने के लिये अप्सरायें इस प्रकार आ घेरती हैं जैसे ससि पारस रति सरद जिम’, कोई कमधज के ऊपर राहु रूप होकर जि लग्यौ अयासह', किसी के मोक्ष पाने पर 'टरिय गंग सुकर हस्यौ', कोई ‘ज्य बड़वानल लपट, मथि उठत नर नथि' और कोई सगर गौर सिर मौर, रेह रष्षिय अजमेरिय’ राम-रावण सदृश युद्ध का उपमान प्राप्त करता है । नमक का अदा करना भारतवासियों का पुरातन विश्वास हैं। और इस विश्वास के कारण ही अपने अन्नदाता स्वामी के उचित और अनुचित कार्यों में उसके नृत्य इच्छा या अनिच्छा से अपने प्राणों जैसी बहुमूल्य वस्तु की बलि देते रहे हैं। महाभारत के भीष्म सदृश धर्म-भीरु और ज्ञानी योद्धा नमक खाने के कारण ही पांडवों को धर्म-पथ पर जानते हुए भी आततायी कौरवों की श्रीर से लड़े थे । व्यासस्मृति के कृतघ्ने नास्ति निष्कृति: वचन सुप्रसिद्ध हैं। कृतघ्नता से बढ़कर कोई पाप नहीं समझा जाता था। कुछ अपवाद भले ही मिल जायें अन्यथा पुराणों से लेकर अब तक का भारतीय साहित्य इसी चारित्रिक मर्यादा के अनुष्ठान में श्रद्धा के फूल चढ़ाता आया है। कल्हण का 'राजतरंगिणी' में यह लिखना कि जिसने भूख से बिलखते प्यारे पुत्र को, दूसरे के घर सेवा करने वाली अपनी भाय को, विपत्ति में पड़े हुए मित्र को, दुही हुई किन्तु चारा न मिलने के कारण भाती हुई गाय को, पथ्य के अभाव में रोग-शय्या पर मरणासन्न माता-पिता को तथा शत्रु से पराजित अपने स्वामी को देख लिया, उसे मरने के बाद नरक में भी इससे अधिक अप्रिय दृश्य देखने को क्या मिलेगा———
हुल्लामस्तनयो वधूः परगृहप्रेष्याबसन्न: सुहृत् । दुग्धा गौरशनाद्यभावविवश हम्बारवोद्गारिए । निष्पथ्यौ पितरावदुरमरणौ स्वामी द्विषन्निर्जितो।
दृष्टो येन परं न तस्य निरये प्राप्तव्यंमस्त्यप्रियम् ।। ७-१४१४
स्पष्ट करता है कि सेवक के जीवन धारण करते हुए स्वामी का पराभव उसको नरक तो भेजता ही है परन्तु वहाँ की दारुण यंत्रणायें और हृदय विदारक दृश्य भी इस विडंबना के सम्मुख कोई मूल्य नहीं रखते । ध्वनि यह है कि रौरव नरक और उसके अप्रिय दृश्यों से त्राण पाने के लिये सेवक का धर्म स्वामी की विजय हेतु जूझ मरना है ।
रासो में जहाँ कहीं पृथ्वीराज, जयन्दन्द्र, भीमदेव और परमर्दिदेव के प्रथान योद्धाश्रों के युद्ध का उल्लेख हुया हैं कवि ने स्वामि-धर्म की वेदी पर उनके उत्सर्ग ही दिखाये हैं। सुभटों के परम झाश्रयदाता दिल्लीश्वर चौहान के प्राणों के साथ बुले-मिले उनके यशस्वी सामंत स्वामि-धर्म के अतुलनीय व्रती हैं । परन्तु जहाँ चामंडराय सदृश वाहिनी-धति अपने को निर्दोष मानते हुए भी स्वामी की आज्ञा से बेड़ियाँ धारण कर लेते हैं और उनसे मुक्ति पाने पर चंद द्वारा ‘पाइन बेरी लौन, गलै हौष नृप आन की' से सावधान कर दिये जाते हैं तथा धीर धु'डी' जैसे चौहान-दरबार में प्रबल सुलतान शौरी को बंदी बनाने का बीड़ा उठाते हैं वहाँ दरबार के मु'शी धमथन कायस्थ पृथ्वीराज के भेद ग़ज़नी भेजते रहते हैं और जालंधर के अधिपति' हाहुलीरायं.
हमीर ऐहिक सुखों की तृष्णा के लोभ में पृथ्वीराज का पक्ष अंतिम युद्ध में निर्बल पाकर ग़ोरी के साथ ही लेते हैं । रासो में धर्मायन और हमीर सदृश कृतनियों की चर्चा स्वामि-धर्म का अादर्श पालन करने वाले सहस्त्रों यौद्धाओं के साथ लोलुपों का यथार्थ चित्र है । युद्ध में विजय प्राप्त होने के उपरांत ग़ोरी द्वारा हमीर को प्राणदंड वास्तव में उसकी पृथ्वीराज के प्रति कृतघ्नता का ईश्वरीय दंड है जो हिन्दू समाज के चिर चरित व्यवहार और दृढ़ विश्वास के अनुरूप हुआ है ।
मातृ-पितृ भक्त भारत-भूमि के निवासी अपवाद रूप में ही मातृ और पितृ वाली पाये गये हैं । रामायण में माता-पिता की आज्ञा के फलस्वरूप ही राम चौदह वर्षों के लिये वनवासी होते हैं। महाभारत में यक्ष के प्रश्न का युधिष्ठिर द्वारा उत्तर कि माता पृथ्वी से भारी है और पिता आकाश से ऊँचा है, सर्व विदित है । इसीसे तो पिता और उसकी भूमि के प्रति अबाध सम्बन्ध घोषित कर अपभ्रश का कोई कवि ग उठा थी कि पुत्र के जन्म से क्या लाभ हुयी और उसकी मृत्यु से कौन सी हानि हो गई जिसके बाप की भूमि पर दूसरे का अधिकार हो गया :
पुते जाएँ कवयु गुण अवगुणु कवण मुण' ।।
जा बप्पी की भु हड़ी चम्पिज्ज्इ अवरेण ।। सिद्धहेम०
पृथ्वीराज-रासो' में पितृ-वत्सल पृथ्वीराज अपने पिता सोमेश्वर के परम आज्ञापालक दिखाये गये हैं। एक चन्द्रग्रहण के काल में वरण के वीरों द्वारा उनके मूच्छित किये जाने पर पृथ्वीराज ने यमुना की स्तुति और गंधर्व-मंत्र का जप करके उन्हें चैतन्य किया था ।
वरुन दोष भेट्यौ सुप्रथु । ग्रेह संपते आय ।।
देषि पराक्रम सोम नृप । फुल्यौ अंग म माय ।।५५, स० ४८
भीमदेव चालुक्य द्वारा युद्ध में उनके वध का समाचार पाकर पृथ्वीराज ने कहा कि उसके जीवन को धिक्कार है जिसने अपने पिता का बैर ने चुकाया :
और भीमदेव को मारने तक ‘धृत मुकि पाग वंधन तजिय' ( अर्थात् घृत सेवन छौर पगड़ी बाँधना छोड़ दिया ) । अजमेर में राज्याभिषेक का कार्य समाप्त करके भीमदेव पर चढ़ाई हुई और युद्ध में उसे मारकर ‘काढि बैर अनभंग' पृथ्वीराज दिल्ली लौड़ यायें । इस प्रकार कवि ने पितु-भक्ति
और पितृ-बैर का बदला दिखाकर समाज को तदनुसार आचरण करने का बढ़ावा दिया है।
प्रेम करने में उन्मुक्त हो नहीं वरन् उस प्रेम की उद्योए विशेष से परिणय में परिणत करने वाली साहस और विलास की प्रतिमूर्तियाँ, विरोधी परिवारों में अपने प्राचरा वश सामंजस्य की तारिकायें, मुग्धाक्षत्रिय-राजकुमारियाँ (शशिवृता, पद्मावती आदि), माता-पिता के भावों व्ही अवहेलना करके पूजा व्याजि काजि श्री परसण देवालय अथवा पूर्व निर्दिष्ट संकेत-स्थल से स्वाभाविक किंचित् खेद छौर शंकि प्रकाश कर, सम-विषम परिणाम पर दृष्टिपात न कर के ग्राडूत प्रेमी के साथ चल देती हैं। प्रेमी के बलाबल और शैय की लोक-प्रसिद्ध गाथा सुनकर ही तो उन्होंने उसको अपना प्राधन वनाय था, दमयन्ती, क्मिणी, ऊत्रा आदि पौराणिक नारियों के अनुरूप प्रवद् और उफलता ने ही तो उन्हें प्रेरणा दी थी, तब विपन्न युद्ध में अपराजित प्रिय के विजयोन्माद में उल्हसित ये बालायें उसके घर क्यों न पहुँच जातीं। समाज के शधिक प्रचलित, प्रतिष्ठित और विहित नियमों के साथ विवाहित रमणियों की तुलना में वरण-हरण द्वारा परिणीता जीवन-संगिनियाँ अतीव पतिपरायणता और पति की मृत्यु के उपरांत सती होकर स्वामी के साथ चिर-सहचारिता के दावे में किसी प्रकार घट कर नहीं हैं। इस प्रकार के चित्र से कवि ने इस क्षेत्र में प्रसिद्धि और अपवाद के समन्वय द्वारा सामाजिक मर्यादा की रक्त की है।
बार-बार बन्दी-गृह से मुक्त होकर अधिक प्रचंड वेग से आक्रमण करने वाले विश्वासघाती शत्रु द्वारा स्वयं बन्दी और अंधे किये जाने पर, उससे मृत्यु के सौदे पर अपना बदला चुकाना व्यक्तिगत, सामाजिक तथा देशीय विजय के साथ ही नैतिकता और धर्म-पक्ष की भी विजय हैं; अन्यायी को दंड मिलना उचित है इसीसे शोक में समाप्त होने वाले इस महाकाव्य की परिसमाप्ति में चंद के पुत्र कवि जल्ह ने धूरती का म्लेच्छों के उद्धार पृथ्वीराज की मृत्यु से अधिक सुखद और सन्तोषप्रद बताकर देवताओं द्वारा पुष्पांजलि दिलाई है:
मरन चंद बरदाह । राउँ मुनि सुनिश साहि हनि ।। पुडपंजलि असमान । सीस छोड़ी सु देबतनि ।। मेछ अवञ्चित धरनिं । अनि रुब तीय सौह सिंग !! तिनहि तिनह सुजोति । जोति जोतिह संपातिग ।। रास असंभ नव रस सरस । चंद छंद किय अभिव सम ।।
श्रृंगार बीर करुना निभछ । अथ अदभुत्त हसंत सम ।। ५,५६, स० ६७