रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)/परिशिष्ट/१. रेवातट समय की कथा
परिशिष्ट
१—'रेवातट समय' की कथा
२—भौगोलिक-प्रसंग
३—पौराणिक-प्रसंग
१—'रेवा तट समय' की कथा
(जब) देवगिरि को जीतकर चामँडराय दिल्ली याया (तब) कवियों ने महाराज का कीर्त्तगान किया (रू॰ १)। फिर सामन्तनाथ पृथ्वीराज से चामंडराय दाहिम ने कहा कि जिस हाथी के ललाट पर शिव जी ने तिलक कर तथा जिसका ऐरावत नामकरण कर इन्द्र को सवारी के लिये दिया था और जिसको उसा ने एक हथिनी प्रदान की थी उसी की औलाद रेवा तट पर फैल गई है। वहाँ चारों प्रकार के हाथी पाये जाते हैं अतएव आप रेवाटत पर उनका शिकार खेलने चलें (रू॰ २, ३, ४,)। नरपति ने तब चंद कवि से पूछा कि देवतात्रों के ये वाहन पृथ्वी पर किस प्रकार आगये (रू॰ ४)? (चंद ने उत्तर दिया कि) "हिमालय के समीप एक बड़ा भारी वट का वृक्ष था, (एक दिन विचरते हुए) हाथी ने उसकी शाखायें तोड़ी और फिर मदांध हो दीर्घतपा का राम उजाड़ डाला। ऋषि ने यह देखकर श्रा दे दिया और हाथी की आकाशगामी गति क्षीण हो गई तब मनुष्यों ने उसे अपनी सवारी बनाया (रू॰ ५)। अंगदेश के घने वन खंड के लोहिताक्ष सरोवर में श्रापित गजों का यूथ निशवासर क्रीड़ा किया करता था। उसी वन में पालकाव्य ऋषि रहते थे। उनसे और हाथियों से परस्पर बड़ी प्रीति हो गई थी। एक दिन उस वन में राजा रोमपाद शिकार खेलने आया और हाथियों को पकड़कर चंपापुरी ले गया (रू॰ ६)। पालकाव्य की विरह से हाथियों के शरीर क्षीण हो गये तब मुनि ने आकर उनकी सुश्रूषा की (रू॰ ७) और कोंपल, पराग, पत्र, छाल, डाल आदि खिलाकर उन्हें पुनः स्थूल बना दिया (रू॰ ८)। एक ब्रह्मर्षि को तपस्या करते देखकर इंद्र डरा और उसने मुनि को छलने के लिये रंभा को भेजा। तपस्वी ने रंभा को हथिनी होने का श्राप दिया। सोते समय एक यति का वीर्यपात हो गया और कर्मबंधन के अनुसार वह हथिनी वहाँ आकर उस वीर्य को खा गई जिससे पालकाव्य सुनि पैदा हुए। हे नृप पिथ्थ! इसीलिये मुनि को हाथियों से अत्यंत प्रीति थी" (रू॰ ९, १०)। (तब चामंडराय ने कहा कि) "हे राजन, रेवातट पर बड़े दाँतों वाले हाथियों के झुंड तो हैं ही पर मार्ग में सिंह भी मिलेंगे जिनका शिकार भी आप खेल सकते हैं। (इसके अतिरिक्त) पहाड़ों और जलाशयों पर कस्तूरी मृग, पक्षी और कबूतर रहते हैं परन्तु दक्षिण को सुरभि तो वर्णनातीत है" (रू॰ ११)। चौहान ने यह विचार कर कि एक तो पहुषंग को कष्ट होगा दूसरे स्थान भी रमणीक है, रेवातट के लिये प्रस्थान कर दिया (रू॰ १२)। मार्ग के राजा महाराजाओं ने चौहान का अभिवादन किया और नृप ने हाथियों, सिंहों और हरिणों का शिकार खेला। (इसी समय) सुलतान को कष्ट देने वाले लाहौर स्थान (के शासक चंद पुंडीर दाहिम) का पत्र मिला (रू॰ १३) जिसमें लिखा था कि तातार-मारूफ़ ख़ाँ ने चौहान को उखाड़ फेंकने के लिये सुलतान ग़ोरी के हाथ से पान का बीड़ा लिया है (रू॰ १४)। ग़ोरी ने चुपचाप एक बड़ी सेना तय्यार कर ली है और मुसहफ छूकर धावा बोल दिया गया है (रू॰ १५, १६, १७)। चंद्र-वीर-पुंडोर के पत्र को प्रमाण मानकर चौहान छै छै कोस पर मुकाम करता हुआ लाहौर की ओर चला (रू॰ १९)। (इधर) दूतों ने यह सारा समाचार कन्नौज जाकर कमधज्ज से कह सुनाया (रू॰ २०, २१, २२)। पृथ्वीराज के सारे सामंत एकत्रित होकर मंत्रणा करने लगे कि इस अवसर पर क्या नीति ग्रहण करनी चाहिये? अनेक मत-मतांतर होते होते विवाद बढ़ गया तब पृथ्वीराज ने कहा कि सुलतान सामने है अब इसी मत पर विचार करो कि लड़ने मरने का परवाना आ पहुँचा हैं। पृथ्वीराज की (यह) सिंह गर्जना सुनकर यह बात निश्चित होगई कि सुलतान से मुकाबिला होगा (रू॰ २३—३०)। सुलतान से युद्ध होना निश्चित जानकर युद्ध की तय्यारियाँ होने लगीं, घोड़े अपने बाखरों पाखरों सहित फेरे जाने लगे (रू॰ ३२)। रात में नौ बजे चौहान महल में गये और अर्धरात्रि में एक दूत ने महाराज को जगाकर कहा कि आठ हज़ार हाथी और अठारह लाख घोड़े लिये हुए ग़ोरी नौ बजे (लाहौर से) चौदह कोस की दूरी पर देखा गया है (रू॰ ३३)। (दूत द्वारा लाये हुए पत्र में लिखा था कि) "चंद पुंडीर अपने प्राणों को मुक्ति का भोग देने लिये अपने स्थान पर डटा रहेगा" (रू॰ ३४)। उधर जहाँ ग़ोरी ने चिनाब नदी पार की वहीं चंदपुंडीर बरछी गाड़े डटा हुआ था। कोलाहल करती हुई दोनों ओर की सेनायें आगे बढ़ीं और परस्पर भयंकर युद्ध करने लगीं। कुछ समय बाद पुंडीर वंशी पाँच वीरों के गिरने पर चंद पुंडीर ने मुक़ाबिला छोड़ दिया और तभी शाह ग़ोरी चिनाब से आगे बढ़ सका (रू॰ ४३)। चौहान को भी एक दूत ने यह समाचार आकर सुनाया कि मारूफ़ ख़ाँ लाहौर से पाँच कोस की दूरी पर आ गया है (रू॰ ४४)। यह सुनकर पृथ्वीराज का क्रोध सभक उठा। उन्होंने कहा कि मैं ग़ोरी को फिर बाँध लूँ तभी सोमेश्वर का बेटा हूँ (रू॰ ४५)। चंद्राकार व्यूह में खड़े हुए चौहान के सैनिकों ने प्रतिज्ञा की कि सुलतान की सेना को छिन्न-भिन्न करके शाह को बाँध लेंगे (रू॰ ४६)। पंचमी तिथि मंगलवार को प्रातःकाल क्रूर और बलवान ग्रह (मंगल) के उदय होने पर महाराज पृथ्वीराज ने (ग़ोरी से मोर्चा लेने के लिये) चढ़ाई बोल दी (रू॰ ४७)। नगाड़ों के ज़ोर-ज़ोर बजते ही हाथियों के बंटे घनघना उठे, वीर गरजने लगे। आकाश में धूल छा गई जिससे अँधेरा हो गया (रू॰ ५०)। सुलतान के दल वालों ने (चौहान की सेना के) लोहे के चमकते हुए बाणों को देखकर अनुमान किया कि क्या गरदिश ने चक्कर खाया है जो रात को आया जानकर तारे निकल आये हैं (रू॰ ५३)। दोनों ओर की सेनायें काले बादलों के समान एक दूसरे से भिड़ गईं (रू॰ ५६) चित्रांगी रावर समरसिंह अपने वायु वेगी अश्व पर चढ़ कर शत्रुओं के सिर पत्तों सदृश तोड़ता हुआ आगे बढ़ा। मेवाड़पति के आक्रमण ने सुलतान की सेना में धूल उड़ा दी (रू॰ ५७)। रावर के पीछे क्रोधित जैत पँवार था और जैत के पीछे चामंडराय और हुसेन ख़ाँ थे। चामंड और हुसेन ने हाथियों पर चढ़कर सुलतान की चतुरंगिणी सेना को व्याकुल कर दिया तथा धाराधिपति भट्टी ने ग़ोरी के सैनिकों को उखाड़ फेंका (रू॰ ५८)। सेनापति जैत की अध्यक्षता में चौहान की सेना चन्द्रव्यूह बनाकर लड़ रही थी (रू॰ ५९)। कबंध नाचते थे, कटे हुए सर चिल्लाते थे, साँगें घुस रही थीं, तलवारों से तलवारें बज रही थीं, भैरव नाच रहे थे, गण ताल दे रहे थे। भयानक युद्ध होता रहा और पराक्रमी महाराज पृथ्वीराज क्रोधपूर्वक ग़ोरी से भिड़े रहे (रू॰ ६१)। यह देखकर सुभट ग़ोरी का साहस भंग हो गया। तातार मारूफ़ ख़ाँ ने उसे यह कहकर प्रबोधा कि मेरे रहते सुलतान पर आपत्ति नहीं आ सकती (रू॰ ६२)। सोलंकी माधवराय का खिलची ख़ाँ से मुक़ाबिला पड़ा। लड़ते लड़ते सोलंकी की तलवार टूट गई और अनेक शत्रुओं ने घेरकर अधर्म युद्ध से उसे मार डाला (रू॰ ६५)। ग़ोरी की सेना समुद्र की भाँति गरजने लगी। तब गुरुअ गोइंद आगे बढ़ा जिसे यवनों ने विनष्ट कर दिया (रू॰ ६६)। गरुअ गोइंद के पश्चात् शत्रुओं को युद्धाग्नि की आहुति देकर पतंग-जयसिंह भी पंचत्व को प्राप्त हुआ (रू॰ ६७)। (भान) पुंडीर को चारों ओर से घेर कर सुलतान की सेना ने उसके शिरस्त्राण के टुकड़े टुकड़े कर डाले। वह गिरता पड़ता भिड़ा रहा और मारे जाने पर उसका कबंध पाँच पल तक खड़ा रहा जिसे देखकर सुरलोक में जय जय का घोष हो उठा (रू॰ ६८)। खुरासान ख़ाँ ने पल्हन के संबंधों कूरंभ का सामना किया और अपनी लंबी तलवार से उसका सर काट दिया, फिर कूरंभ के कटे हुए सर से जब तक मारो मारो की ध्वनि होती रही तब तक उसका कबंध नाचता रहा। यह दृश्य देखकर भैरव अट्टहास कर उठे और पार्वती चकित रह गई (रू॰ ६९)। त-तार ख़ाँ ने हाथी को सूँड़ उखाड़ने वाले आहुट्ठ को स्वर्ग भेजा (रू॰ ७१)। नरसिंह का संबंधी शत्रु को मारकर उसकी कटार से घायल हो अपनी तलवार से सहारा लेने में चूक कर आहत होकर गिर पड़ा उसको गिरते देख दाहर-तनौचामंडा (चामंडराय) भयंकर युद्ध करने लगा (रू॰ ७२)। (अब तक) रात्रि हो चुकी थी (अस्तु) दोनों सेनाओं ने युद्ध बंद कर दिया। दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही चौहान विशाल शाल वृक्ष सदृश उठा (रू॰ ७३)। युद्ध प्रारंभ हुआ और सुलख का पिता लखन मारा गया। महामाया उसको ले गई। इस वीर ने सूर्यलोक में स्थान पाया (रू॰ ७४)। अप्सरायें देव वरण छोड़कर भू लोक में युद्ध भूमि पर आईं और मरे हुए वीरों का वरण करने लगीं (रू॰ ७५)। ईश (शिव) ने राम के संबंधी का श्रेष्ठ सर बड़े चाव से उठाया (रू॰ ७६)। राम और रावण सरीखा युद्ध करने वाला योगी जंघारा भी भीषण युद्ध करके स्वर्ग लोक गया (रू॰ ७७—७८)। अब सुलतान ग़ोरी अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर स्वयं जंग करने के लिये झुका। यह समाचार सुनकर लंगा-लंगरी-राय सात सामंतों को लेकर युद्ध भूमि में धँस पड़ा और अपनी तलवार चलाने की कुशलता से शत्रुओं की तनवारों (की मूठें) ढीली करने लगा (रू॰ ७९)। कुछ समय बाद लंगरी राय के एक नेत्र में बाण घुस गया और वायाँ हाथ कट गया तब भी वह बराबर शत्रु से ताड़ता रहा (रू॰ ८१)। दूसरी ओर लोहाना ने महमूद की पीठ फोड़कर निकलता हुआ बाण मारा और कटार लेकर झपटा ही था कि एक मीर ने तलवार के वार से उसे गिरा दिया (रू॰ ८२)। एक मीर और मारूफ ख़ाँ ने मिलकर बिड्डर को मार डाला (रू॰ ८३)। अब तक ग़ोरी के चौंसठ ख़ान और पृथ्वीराज के तेरह श्रेष्ठ वीर काम आये (रू॰ ८४)। (रात्रि होने से युद्ध बन्द हो गया और) दूसरे दिन ग़ोरी ने दस हाथी आगे किये और तातार ख़ाँ की आज्ञा पाते ही कुहक बास और गोले बरसने लगे। इस पर पृथ्वीराज का हाथी भागने लगा और महाराज कुब्ध हो उठे। उनको अस्थिर देख सामंतगण मोह त्याग कर वज्र सदृश तलवारों के वार करने लगे (रू॰ ८५)। मीर भी आधे आधे योजन दौड़ कर साँग चलाने लगे और ग़ोरी चक्र फेंकने वाले सैनिकों की चार पंक्तियों के आगे पाँच सौ शेख़ों को करके सामंतों को घेरने लगा सामंत भी भिड़ गये और भयानक युद्ध करने लगे (रू॰ ८६)। खुरासानी तातार ख़ाँ ने अपनी तसबीह तोड़ डाली। ग़ोरी के हाथी चौहान की सेना में घुस गये और दो सौ तेरह प्राणी दबकर मरे, (चौहान की) पराजय के लक्षण दिखाई दिये तब श्रेष्ठ वीर भीम, सेना के एक भाग को चतुरंगिणी बनाकर हाथी पर चढ़कर मोर्चे पर आया (रू॰ ८८)।शत्रु सेना का संहार करता हुआ रघुवंशी राम मारा गया। हिन्दू और म्लेच्छ उलटे पलटे पड़े थे, रंभा और भैरव ताताथेई ताताथेई करके नाचते थे, गिद्ध मृतकों की अँतड़ियाँ खींचते थे, वीर पैर कटने पर तलवार के सहारे दौड़ते थे–बिलकुल देवासुर संग्राम सरीखा युद्ध हो रहा था (रू॰ ८९)। (चौथे दिन संग्राम होने से पूर्व) रंभाने मेनका से पूछा कि आज तुम्हारा चित्त क्यों भारी है? मेनका ने कहा कि आज पहुनाई करने का दिन याया है। शूरवीर वीरगति पाकर विमानों में बैठ स्वर्गलोक जा रहे हैं। युद्ध भूमि में मैंने बहुत खोजा परन्तु मुझे अपना वर ढूँढे नहीं मिल रहा है और यही मेरी चिन्ता का कारण है। रंभा ने उत्तर दिया कि ऐ मेनका वहाँ उस वीर को मत खोजो वह तो विमान में बैठ शिव और ब्रह्म लोक छोड़ता हुया सूर्य लोक गया है। इंद्र-वधू उसकी पूजा करने गई हैं। उसके समान आजतक न तो कोई बीर हुआ है और न होगा (रू॰ ९०–९१)। (युद्ध प्रारंभ हुआ और हुसेन ख़ाँ के पीछे घोड़सवार सेना चल पड़ी। तातार मारूफ ख़ाँ और अन्य ख़ान एक साथ दौड़ने लगे तथा ग़ोरी शत्रुओं (सामंतों) के संमुख झूमने लगा। उसने हाथ में लरवात लेकर और मुट्ठी घुमाते हुए प्रण किया कि आज पलटने तक यदि शत्रु को पराजित कर दूँगा तभी शाह कहलाऊँगा (रू॰ ९२)। (इसके बाद) ग़ोरी ने सात बाण धनुष पर चढ़ाये। पहले बाण से उसने रघुवंश गुराई को हना (मारा) दूसरे ले उसने ताककर भीम भट्टी का भंजन किया और तीसरे से चौहान को घायल कर दिया। चौहान ने भी कमान सँभाल कर तीन बाण हाँथ में लिये परन्तु जब वे यह कर रहे थे तब तक गुज्जर में ग़ोरी को पकड़ लिया (रू॰ ९३)। हुसेन ख़ाँ नष्ट कर डाला गया और ग़ोरी तथा निसुरति ख़ाँ भोली बनाकर डाल दिये गये। युद्धभूमि में चौहान की जय जयकार होने लगी। सुलतान ग़ोरी हाथी पर बाँधकर दिल्ली ले जाया गया (रू॰ ९४)। इस समय चौहान का प्रताप मध्यान्ह सूर्य सदृश था (रू॰ ९५)। एक मास और तीन दिन संकट (कारागार) में रहने के उपरांत जब शाह के अमीरों ने प्रार्थना की और दंडस्वरूप नौ हज़ार घोड़े, सात सौ ऐराकी घोड़े, आठ सफेद हाथी, बीस ढली हुई ढालें, गजमुत्का और अनेक माणिक्य दिये तब राजा (पृथ्वीराज चौहान) ने सुलह कर और शांति स्थापित कर गजनवै (गौरी शाह शहाबुद्दीन) को पहिना ओढ़ाकर उसके घर भेज दिया (रू० १६)