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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)/परिशिष्ट/३. पौराणिक प्रसंग

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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)
चंद वरदाई, संपादक विपिन बिहारी त्रिवेदी

हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ ४०५ से – ४१५ तक

 

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३- पौराणिक प्रसंग तारक [<तारकासुर]- एक असुर था । यह असुर तार का पुत्र था। जब इसने एक हज़ार वर्ष तक घोर तप किया और कुछ फल न हुआ, तब इसके मस्तक से एक बहुत प्रचंड तेज निकला जिससे देवता लोग व्याकुल होने लगे, यहाँ तक कि इन्द्र सिंहासन से खिंचने लगे । देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्मा तारक के समीप वर देने के लिये उपस्थित हुए। तारकासुर ने ब्रह्मा से दो वर माँगे । पहला तो यह कि "मेरे समान संसार में कोई बलवान न हो" दूसरा यह कि "यदि मैं मारा जाऊँ तो उसी के हाथ से जो शिव से उत्पन्न हो ।" ये वर पाकर तारकासुर घोर अन्याय करने लगा । इस पर देवता मिलकर ब्रह्मा के पास गये । त्रह्मा ने कहा - " शिव के 1 पुत्र के अतिरिक्त तारक को और कोई नहीं मार सकता। इस समय हिमालय पर पार्वती शिव के लिये तप कर रही हैं। जाकर ऐसा उपाय रचो कि शिव के साथ उनका संयोग हो जाय ।" देवताओं की प्रेरणा से कामदेव ने जाकर शिव के चित्त को चंचल किया । अन्त में शिव के साथ पार्वती का विवाह हो गया । जब बहुत दिनों तक शिव के पार्वती से कोई पुत्र नहीं हुआ तब देवताओं ने घवरा कर अग्नि को शिव के पास भेजा । कपोत के वेश में को देखकर शिव ने कहा- "तुम्ही हमारे वीर्य को धारण करो," और वीर्य को यग्नि के ऊपर डाल दिया । उसी बीर्य से कार्तिकेय उत्पन्न हुए जिन्हें देवताओं ने अपना सेनापति बनाया । घोर युद्ध के उपरांत कार्तिकेय के कारण से तारकासुर मारा गया । [वि० वि० मत्स्य पुराण, शिव पुराण और कुमार, संभव (कालिदास) में देखिये ] । नारद-- वेदों में ऋग्वेद मंडल ८ और ६ के कुछ मंत्रों के कर्ता एक नारद का नाम मिलता है जो कहीं कब और कहीं कश्यप वंशी लिखे गये हैं । ________________

( १६८८ ) इतिहास और पुराणों में नारद देवर्षि कहे गये हैं जो नाना लोकों में विचरते रहते हैं और इस लोक का संवाद उस लोक में दिया करते हैं । हरिवंश में लिखा है कि नारद ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ब्रह्मा ने प्रजा सृष्टि की अभिलाषा करके पहले मरीचि, अत्रि यादि को उत्पन्न किया, फिर सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार, स्कंद, नारद तथा रुद्रदेव उत्पन्न हुए ( हरिवंश, ०१) । विष्णु पुराण में लिखा है कि ब्रह्मा ने अपने सब पुत्रों को प्रजा सृष्टि करने में लगाया पर नारद ने कुछ बाधा डाली इस पर ब्रह्मा ने उन्हें शाप दिया कि "तुम सदा सब लोकों में घूमा करोगे; एक स्थान पर स्थिर होकर न रहोगे ।" महाभारत में इनका ब्रह्मा से संगीत की शिक्षा प्राप्त करना लिखा है । भागवत, ब्रह्मवैवर्त यादि पीछे के पुराणों में नारद के सम्बन्ध में बड़ी लम्बी चौड़ी कथायें मिलती हैं । जैसे, ब्रह्मवैवर्त में इन्हें ब्रह्मा के कंठ से उत्पन्न बताया गया है और लिखा है कि जब इन्होंने प्रजा की सृष्टि करना स्वीकार किया तब ब्रह्मा ने इन्हें शाप दिया और ये गंधमादन पर्वत पर उपवर्हण नामक गंधर्व हुए। एक दिन इन्द्र की सभा में रंभा का नाच देखते देखते ये काम मोहित हो गये इस पर ब्रह्मा ने फिर शाप दिया कि "तुम मनुष्य हो ।” द्रुमिल नामक गोप की स्त्री कलावती पति की श्राशा से ब्रह्म- वीर्य की प्राप्ति के लिये निकली और उसने काश्यप नारद से प्रार्थना की । अन्त में काश्यप नारद के वीर्य भक्षण से उसे गर्भ रहा। उसी गर्भ से गंधर्व-देह त्याग कर नारद उत्पन्न हुए। पुराणों में नारद बड़े भारी हरि भक्त प्रसिद्ध हैं। ये सदा भगवान का यश वीणा बजा कर गाया करते हैं | इनका स्वभाव कलह प्रिय भी कहा गया है इसीसे इधर की उधर लगाने वाले को लोग 'नारद' कह दिया करते हैं । पृथ्वीराज रासो मैं नारद, अप्सराओं के साथ युद्ध भूमि के दर्शक रूप में दिखाये गये हैं । विद्यापति ने मैना द्वारा अपनी पुत्री पार्वती के लिए बूढ़े शिव को जामाता बना कर लाने वाले नारद को "तेसरे बइरि भेला नारद बामन, जै बूढ़ आनल जमाई, गे माई” केवल बैरी मात्र ही नहीं कहा वरन् उनकी दुर्गति करने के लिये भी प्रस्तुत हो गई- धोती लोटा पतरा - पोथी एही सब लेबन्हि छिनाई । जौं किg बजता नारद बाभन दाढ़ी घर घिसिश्राएब, गे माई । ________________

( १६६ ) इसी शिव पार्वती विवाह प्रसंग में तुलसी ने मैना द्वारा अपना भवन Sare वाले नारद की खासी ख़बर ली है-- नारद कर मैं कह बिगारा । भवन मोर जिन्ह वसत उजारा || दीन्हा | कीन्हा ॥ अस उपदेश उमहिं जिन्ह चौरे वरहि लागि तपु साँचे उन्ह के मोह न उदासीन धन वास न पर घर घालक लाज न ate कि जान प्रसव कै माया । जाया || भीरा । पीरा || परन्तु तुलसी ने विद्यापति की अपेक्षा मैना का विवाद नारद द्वारा ही मिटवाया है; वे अपनी साक्षी हेतु सप्त ऋषियों को अवश्य ले गये थे- भयना सत्य सुनहु मम वानी | जगदंबा तव सुता भवानी ॥ कबीर ने नारद को ज्ञानी स्वीकार करते हुए ब्रह्मा के समकक्ष रखते हुए भी मन की गति समझने में तथा उन्हें शिव और समर्थ बताया है---- सिव विरंचि नारद मुनि ग्यानी, मन की गति उनहूँ नहीं जानी ॥ जायसी ने 'पदमावत' में नारद को झगड़ा कराने वाला कहा है और 'अखरावट' में कबीर की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए नारद के स्वमुख से अपनी पराजय अंगीकार कराई है---- होगा । ना - नारद तव रोह पुकारा । एक जोला है सौं मैं हारा ॥ संस्कृत में नारद के वि०वि० के लिये 'नारद पुराण' देखना उचित महमा [< महामाया] दुर्गा-आदिशक्ति (देवी)-- शुक्ल यजुर्वेद वाजसनेय संहिता में रुद्र की भगिनी अंबिका का उल्लेख इस प्रकार है- “हे रुद्र ! अपनी भगिनी अविका के सहित हमारा दिया כי "हुआ भाग ग्रहण करो ।" इससे जाना जाता है कि शत्रुत्रों के विनाश यादि के लिए जिस प्रकार प्राचीन ग्रागण रुद्र नामक कर देवता का स्मरण करते थे, उसी प्रकार उनकी भगिनी अंबिका का भी करते थे । वैदिक- . काल में अंबिका देवी वह की भगिनी ही मानी जाती थीं। तलवकार (केन) उपनिषद में यायिका है- एक बार देवताओं ने समझा कि विजय ________________

( १७० } हमारी ही शक्ति से हुई है । इस भ्रम को मिटाने के लिए ब्रह्म यक्ष के रूप में दिखाई पड़ा, पर देवता उसे न पहचान सके । हाल-चाल लेने के लिए पहले अग्नि उसके पास गये ! यक्ष ने पूछा - "तुम कौन हो ?" अग्नि ने कहा मैं ग्नि हूँ और सब कुछ भस्म कर सकता हूँ ।" इस पर उस वक्ष ने एक तिनका रख दिया और कहा - "इसे भस्म करो ।" अग्नि ने बहुत जोर मारा, पर तिनका ज्यों का त्यों रहा। इसी प्रकार वायु देवता भी गये । वे भी उस तिनके को न उड़ा सके। तब सब देवताओं ने इन्द्र से कहा कि इस यक्ष का पता लेना चाहिये कि यह कौन है। जब इन्द्र गये, तब यक्ष तन हो गया। थोड़ी देर बाद एक स्त्री प्रकट हुई जो 'उमा हैमवती' देवी थी । इन्द्र के पूछने पर 'उमा हैमवती' ने बतलाया कि यक्ष ब्रह्म था, उसकी विजय से तुम्हें महत्व मिला है। तब इन्द्र यदि देवताओं ने ब्रह्म को जाना | अध्यात्म पक्ष वाले 'उमा हैमवती' से ब्रह्मविद्या का ग्रहण करते हैं । तैत्तिरीय श्रारण्यक के एक मंत्र में "दुर्गा देवीं शरणमहं प्रपद्यै" वाक्य आया है, और एक स्थान पर गायत्री छन्द का एक मंत्र है जिसे सायण ने दुर्गा गायत्री कहा है। देवी भागवत में देवी की उत्पत्ति के सम्बन्ध की कथा इस प्रकार है- महिषासुर से परास्त होकर सब देवता ब्रह्मा के पास गये । ब्रह्मा, शिव तथा देवताओं के साथ विष्णु के पास गये । विष्णु ने कहा कि महिषासुर के मारने का उपाय यही है कि सब देवता अपनी स्त्रियों से मिलकर अपना थोड़ा-थोड़ा तेज निकालें । सबके तेज समूह से एक स्त्री उत्पन्न होगी जो उस असुर का बध करेगी । महिषासुर को वर था कि वह किसी पुरुष के हाथ से न मरेगा। विष्णु की आज्ञानुसार ब्रह्मा ने अपने मुँह से रक्त वर्ण का, शिव ने रौप्य व का, विष्णु ने नील वर्ण का, इन्द्र ने विचित्र वर्ण का, इसी प्रकार सब देवताओं ने अपना पना तेज निकाला और एक तेज: स्वरूपा देवी प्रकट हुई जिसने इस असुर का संहार किया । 'कालिका पुराण' में लिखा है कि परब्रह्म के अंशस्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और शिव हुए। ब्रह्मा और विष्णु ने तो सृष्टि स्थिति के लिए अपनी- अपनी शक्ति को ग्रहण किया, पर शिव ने शक्ति से संयोग न किया और वे योग में मग्न हो गये । ब्रह्मा आदि देवता इस बात के पीछे पड़े कि शिव भी किसी स्त्री का पाणिग्रहण करें। पर शिव के योग्य कोई स्त्री मिलती ही नहीं थी | बहुत सोच विचार के बाद ब्रह्मा ने दक्ष से कहा- "विष्णु की माया के अतिरिक्त और कोई स्त्री नहीं जो शिव को लुभा सके । श्रतः मैं उसकी स्तुति करता हूँ। तुम भी उसकी स्तुति करो कि वह तुम्हारी ________________

( १७१ ) 1 कन्या के रूप में तुम्हारे यहाँ जन्म ले और शिव की पत्नी हो ।" वहीं विष्णु की माया दक्ष प्रजापति की कन्या सती हुई जिसने अपने रूप और तप के द्वारा शिव को मोहित और प्रसन्न किया । दक्ष यज्ञ विनाश के समय जब सत्ती ने देह त्याग किया, तब शिव ने विलाप करते-करते उनके शव को अपने कंधे पर लाद लिया। फिर ब्रह्मा और विष्णु ने सती के मृत शरीर में प्रवेश किया और वे उसे खंड-खंड करके गिराने लगे । जहाँ-जहाँ सती का अंग गिरा, यहाँ वहाँ देवी का स्थान या पीठ हुआ। जब देवताओं ने महामाया की बहुत स्तुति की, तब वे शिव के शरीर से निकली जिससे शिव का मोह दूर हुआ और वे फिर योग समाधि में मग्न हुए। इधर हिमालय की भार्या मेनका संतति की कामना से बहुत दिनों से महामाया का पूजन करती थीं। महामाया ने प्रसन्न होकर मेनका की कन्या होकर जन्म लिया और शिव से विवाह किया । 'मार्कडेय पुराण' में चंडी देवी द्वारा शुभ निशुंभ के बध की कथा लिखी है जिसका पाठ चंडी पाठ या दुर्गा-पाठ के नाम से प्रसिद्ध है और भारत में सर्वत्र प्रचलित है । 'काशी खण्ड' में लिखा है कि रुरु के पुत्र दुर्ग नामक महादैत्य ने जब देवताओं को बहुत तंग किया तब वे शिव के पास गये । शिव ने असुर को मारने के लिये देवी को भेजा ! इनके अनेक नाम हैं जिनमें से ८६ हिं० श० सा०, पृ० १५६२ पर दिए हुए हैं। पृथ्वीराज रासो में महामाया युद्ध भूमि में विचरण करने वाली और वीर गति पाने वाले बह्नाओं का वरण करने वाली पाई जाती हैं। रुद्र--- यह रुद्रों और मरुतों के जनक तथा शासक और तूफ़ान के देवता का नाम है । वेद में ये इंद्र और उनसे भी अधिक सर्वभक्षक अग्नि तथा काल से संबंधित पाये जाते हैं। वैदिक साहित्य में अग्नि को ही रूद्र कह डाला गया है और यह माना गया है कि यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिये ही रुद्र यज्ञ में प्रवेश करते हैं। वहाँ रुद्र को अग्निस्वरूपी वृष्टि करने वाला और गरजने वाला देवता कहा गया है जिससे वज्र का भी अभिप्राय निकलता है; इसके अतिरिक्त रुद्र शब्द से इंद्र, मित्र, वरुण, पूषण और सोम यदि अनेक देवताओं का भी बोध होता है । परवती साहित्य में उन्हें काल से श्रभिन्न माना गया है । एक स्थान पर उन्हें मरुदगया का पिता और दूसरे स्थान पर अंबिका का भाई भी कहा गया है। इनके तीन नेत्र बतलाये गये हैं ________________

( १७२ ) और ये सब लोकों का नियंत्रण करने वाले तथा सर्पों का विध्वंस करने वाले कहे गये हैं । मानव और पशुओं को मृत्यु और रोग के दाता इन संहार देवता की उपाधि शिव अर्थात् शुभ या वरदानी भी है तथा वायु मंडल को विशुद्ध करने और नमी को दूर करने के कारण इन्हें रोग नाशक भी कहा गया है । वेद में 'शिव' व्यक्ति वाचक नहीं है परन्तु परवर्ती साहित्य में प्रथम तो रुद्र के प्रशंसात्मक विशेषण के रूप में और बाद में स्वयं रुद्र के लिये ही इस शब्द का व्यवहार होने लगा परन्तु तब तक तूफ़ान से उनका संबंध विच्छिन्न हो चुका था और वे संयुक्त तथा वियुक्त करू सिद्ध कर लिये गये थे। इस समय तक नूल रुद्रों अथवा मरुतों का स्थान एकादश ( कहीं कहीं तीस ) संख्या वाले नवीन अस्तित्वों ने ग्रहण कर लिया था जो रुद्र नाम से ही प्रख्यात भी हो चुके थे । रुद्र, शिव विष्णु पुराण में ब्रह्मा के ललाट से रुद्र की उत्पत्ति उल्लिखित है जो बाद में श्रद्धनारीश्वर रूप में परिवर्तित हो गये थे और इसी रूप का नर भाग कालांतर में एकादश रुद्रों में बँट गया इसीलिये ये परवर्ती के लघुतर रूप कहे जाते हैं । कहीं कहीं इन रुद्रों का जन्म कश्यप और सुरभि, ब्रह्मा और सुरभि या भूत और सुरूप से बताया गया है और कहीं इन्हें गण देवता मानते हुये इनकी उत्पत्ति सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा की भौहों से बताई गई है । विष्णु पुराण के अनुसार शिव के आठ रूपों में से द्र एक है । कहीं कहीं उन्हें ईशान का दिकपाल भी कहा गया ये क्रोध रूप माने जाते हैं इसी से रस- शास्त्रियों द्वारा ये रौद्र रस के देवता भी मनोनीत किये गये हैं। भूत, प्रेत, पिशाच यादि के जन्मदाता ये ही प्रसिद्ध हैं। विभिन्न पुराणों में रुद्रों के नामों में अंतर भले ही मिलता हो परन्तु यह स्मरण रहना चाहिये कि वे सब शिव के नाम ही हैं। इनके अधिक प्रचलित नाम -ग्रज, एक पाद, ब्रिन, पिनाकी, अपराजित, त्र्यंबक, महेश्वर, बुषाकपि, शंभु, हरण और ईश्वर हैं। गरुड़ पुराण में इनके नाम इस प्रकार हैं---- जैकपाद, विघ्न, त्वष्टा, विश्वरूपहर, बहुरूप, त्र्यंबक, अपराजित, वृषाकपि, शंभु, कपर्दी और रैवत । कूर्म पुराण में लिखा है कि जब श्रारंभ में बहुत कुछ तपस्या करने पर भी ब्रह्मा सृष्टि न उत्पन्न कर सके तब उन्हें बहुत क्रोध हुआ जिसके वेश में उनकी आँखों से आँसू निकलने लगे। उन्हीं यों से भूतों और प्रेतों की सुष्टि हुई

और तब उनके मुख से ग्यारह रुद्र उत्पन्न हुए | ये उत्पन्न होते ही बड़े ज़ोर से रोने लगे थे इसी से इनका नाम रुद्र पड़ा । इसी प्रकार विभिन्न पुराणों में भाँति भाँति की कथायें मिलती हैं । ________________

लंगूर - [ हनुमान् ]-- ( १७३ ) वाल्मीकि रामायण में शाप वश पुजिकस्थला नामक अप्सरा ने अंजना नाम से कुंजर के घर जन्म लिया और केसरी से उसका विवाह हुआ | बाद में वायु द्वारा अंजना के गर्भ से हनुमान् पैदा हुए। जैन राम कथाओं में उपर्युक्त कथा विकृत रूप में मिलती है। उत्तरपुराण (गुणभद्र ) में हनुमान् राजा प्रभजन तथा अजना देवी के पुत्र हैं तथा उनका एक नाम अतिवेग भी है। शैव तथा शाक्त पुराणों में हनुमान् शिव के अवतार कहे गये हैं । स्कंदपुराण में वे रुद्र के अंश बताये गये हैं और यही वार्ता महानाटक में भी मिलती है। महाभागवत पुराण में विष्णु के अवतार लेते समय शिव उनसे कहते हैं कि मैं वायु द्वारा उत्पन्न होकर वानर रूप में तुम्हारी सहायता करूँगा। शिव पुराण में विष्णु के मोहिनी रूप पर शिव का वीर्य स्खलित होने पर सप्तर्षियों द्वारा उसे अंजना के कान में रखने तथा इस प्रकार हनु- मान के जन्म होने की कथा दी है। अनेक राम कथाओं में हनुमान् के विष्णु प्रेमी होने की ध्वनि है । श्रानंदरामायण में दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ के अवसर पर एक गीध द्वारा कैकेयी का पायस छीन कर 'जनी - पर्वत पर फेंके जाने का उल्लेख है । अजनी गर्भवती होती है । इसी पायस को खाकर हिंदेशिया की राम कथाओं में हनुमान् राम और सीता के पुत्र . प्रसिद्ध हैं । ये पंपा के एक वीर वानर हैं जिन्होंने सीता हरण के उपरांत रामचंद्र की बड़ी सेवा और सहायता की थी। ये सीता की खोज करने के लिये लंका गये, रावण का उपवन उजाड़ा जिसके फलस्वरूप नागपाश में बाँधे गये और इनकी पूँछ में तेल से भीगे पलीते बाँधकर आग लगा दी गईं । इन्होंने अपना रूप बड़ा करके सम्पूर्ण हेम लंका को प्रज्वलित कर दिया और फिर समुद्र में कूदकर अपने को ठंढा किया। रावण की सेना के साथ ये बड़ी वीरता से लड़ े थे । अपने अपार वत्त और वेग के लिये ये प्रसिद्ध ही हैं । और बंदरों के समान इनकी उत्पत्ति भी विष्णु के अवतार राम की सहायता के लिये देवांश से हुई थी। ये रामभक्तों में सबसे श्रादि कहे जाते हैं और राम ही के समान इनकी पूजा भी भारत में सर्वत्र होती हैं । हिंदू योद्धा तथा पहलवान बल प्रदाता हनुमान का स्मरण विशेष रूप से करते हैं और प्राय: इनके उपासक भी होते हैं। ________________

(८) रासों में पृथ्वीराज के सामंत 'लंगा लंगरी राय चौहान' को हनुमान् का इष्ट था। संकर [<सं० शंकर = अभिवृद्धि कर्त्ता, शुभ ] - शिव का एक नाम जो कल्याण करने वाले माने जाते हैं। शिव हिन्दुओं के एक प्रसिद्ध देवता हैं जो सृष्टि का संहार करने और पौरा एक त्रिमूर्ति के अंतिम देवता कहे गये हैं । वैदिक काल में ये ही रुद्र के रूप में पूजे जाते थे, पर पौराणिक काल में शंकर, महादेव और शिव यादि नामों से प्रसिद्ध हुए । पुराणानुसार इनका रूप इस प्रकार है-सिर पर गंगा, माथे पर चंद्रमा तथा एक और तीसरा नेत्र, गले में साँप तथा नर मुंड की माला, सारे शरीर में भस्म, व्याघ्र चर्म ओढ़े हुए और बायें अंग में अपनी स्त्री पार्वती को लिए हुए । इनके पुत्र गणेश तथा कार्तिकेय, गण भूत और प्रेत, प्रधान त्रिशूल और वाहन बैल है जो नंदी कहलाता है। इनके धनुष का नाम पिनाक है जिसे धारण करने के कारण ये पिनाकी कहे जाते हैं। इनके पास पाशुपत नामक एक प्रसिद्ध ग्रस्त्र था जो इन्होंने अर्जुन को उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर दे दिया था। पुराणों में इनके संबंध में बहुत सी कथायें हैं। ये कामदेव का दहन करने वाले और दक्ष का यज्ञ नष्ट करने वाले माने जाते हैं । समुद्र मंथन के समय जो चित्र निकला था उसके पान करने वाले ये ही थे | वह व इन्होंने अपने गले में ही रक्खा और नीचे पेट में नहीं उतारा, इसीलिए इनका गला नीला हो गया और ये नीaas कहलाने लगे । परशुराम ने अस्त्र-विद्या की शिक्षा इन्हीं से पाई थी । संगीत और नृत्य के भी ये प्रधान आचार्य और परम तपस्वी तथा योगी माने जाते हैं । इनके नाम से एक पुराण भी है जो शिव पुराण कहलाता इनके उपासक शैव कहलाते हैं। इनका निवास स्थान कैलाश माना जाता है और लोक में इनके लिंग का पूजन होता है। [वि० वि० शिवपुराण में देखिए 1 पृथ्वीराज रासो में अन्य स्तुतियों के साथ चंद ने भगवान शंकर की भी कई छंदों में स्तुति की है-' नमस्कार संकर करिय सरस बुद्धि कवि चंद | 3 सति लंपट लंपट नवी, अबुधि मंत्र सिसु इंद ॥ अर्थात् — जिनकी कृपा से बुद्ध सरसित होती है उन शंकर को मैं नमस्कार करता हूँ । जिनमें ( दक्ष पुत्री ) सती आसक्त हैं परन्तु जो ________________

( १७५ ) स्वयं आसक्ति रहित और निर्विकार हैं । ग्रज्ञान का नाश करने में जो मंत्र स्वरूप हैं, बाल चन्द्र जिनके ललाट पर ( सुशोभित ) है, ( ऐसे चन्द्रशेखर को मेरा प्रणाम है.) । शैव और वैष्णवों का द्वंद मिटाने का भी कवि ने प्रयत्न किया है- करिय भक्ति कवि चद हरि हर जंपिय इह भाइ | ईश स्याम जू जू बकह नरक परंतह जाइ ॥ अर्थात - कवि चंद, हरि हर ( = विष्णु और शिव ) की भक्ति करो, इस भाव से स्तुति जप करो । ज्यों ज्यों ईश श्याम (= हर और हरि ) का नाम कहोगे (त्यों सों) नरक दूर होता जायेगा । परापरतरं यान्ति नारायणपरवाणं । न ते तत्र गमिष्यन्ति ये दुष्यन्ति महेश्वरम् ॥ अर्थात - विष्णु भगवान की आराधना करने वाले उच्च से उच्च स्थान ( अर्थात् बैकुंठ, गोलोक या मोक्ष स्थान ) को प्राप्त होते हैं, परन्तु महेश्वर से द्वेष रखने वाले विष्णु भक्त भी उस स्थान पर नहीं पहुँचेंगे । हरि और हर की समान भाव से स्तुति करने वाले और इन दोनों में अंतर न समझने वाले विद्यापति ने उन्हें 'एक सरीर लेल दुइ बास' (अर्थात् एक शरीर से बैकुंठ और कैलाश इन दो स्थानों में रहने वाला ) कहकर विपरीत स्वभाव वाले नारायण और शूलपाणि को कभी पीताम्बर और कभी वाघाम्बर धारण करने वाला, कभी चतुर्भुज और कभा पंचानन, कभी गोकुल में गाय चराने वाला और कभी डमरू बजाकर भीख माँगने वाला, कभी वामन रूप धारण करके राजा बलि से दान की याचना करने वाला और कभी काँखों और कानों में भभूत मलने वाला आदि कहकर शैव . और वैष्णव विरोध मिटाने का उद्योग किया है । 'रामचरित मानस' में तुलसी ने अपने काव्य कौशल का एक प्रमुख अंश इन विभिन्न दर्शनों के समन्वय में लगाया है तथा 'शिव द्रोही मम दास कहावै । सो नर मोहिं सपनेहु नहिं भावे'- इत्यादि न जाने कितने तर्क पूर्ण प्रतिपादन किए हैं । विद्यापति और तुलसी से शतियों पूर्व बंद कवि के शैव और वैष्णव विरोध मिटाने के कुशल प्रयत्न ऐतिहासिक मात्र ही नहीं परम इलाचनीय भी हैं । रासो में शंकर युद्ध भूमि के दर्शक तथा कभी हिंदू योद्धाओं को प्रोत्साहित करने वाले और कभी मृत वीरों के सिर वड़े चाव से अपनी मुंडमाला में डालने वाले चित्रित किये गए, } ________________

( १७६ ) 75 सुमेरु-- भागवत के अनुसार सुमेरु पर्वतों का राजा है । यह सोने का है। इस भूमंडल के सात द्वीपों में प्रथम द्वीप जंबू द्वीप के ( जिसकी लम्बाई ४० लाख कोत और चौड़ाई ४ लाल को हैं) - नौ वर्षो में से इलावृत्त नामक अभ्यंतर वर्ष में यह स्थित है। यह ऊँचाई में उक्त द्वीप के विस्तार के समान है । इस पर्वत का शिरोभाग १२८ हजार कोस, मूल देश ६४ हजार कोस और मध्य भाग ४ हजार कोस का है। इसके चारों ओर मंदर, मेरा मंदर, सुपार्श्व और कुमुद नामक चार याश्रित पर्वत हैं। इनमें से प्रत्येक की ऊँचाई और फैलाव ४० हजार कोस है । इन चारों पर्वतों पर श्रम, जासुन, कदंब और बढ़ के पेड़ हैं जिनमें से प्रत्येक की ऊँचाई चार सौ कोस है । इनके पास ही चार हृद भी हैं जिसमें पहला दूध का दूसरा मधु का, तीसरा ऊख के रस का और चौथा शुद्ध जल का है। चार उद्यान भी हैं जिनके नाम नंदन, चैत्र रथ, वैभ्राजक, और सर्वतोभद्र हैं। देवता इन उद्यानों में सुरांगनाओं के साथ बिहार करते हैं। मंदार पर्वत के देवच्युत वृक्ष और मेरु पर्वत के जंबू वृक्ष के फल बहुत स्थूल और वृहदाकार होते हैं । इनसे दो नदियाँ श्रमणोदा और जंबू ( नदी ) बन गई हैं । जंबू नदी के किनारे की जमीन की मिट्टी तो रस से सिक्त होने के कारण सोना ही हो गई है । उपार्श्व पर्वत के महाकदंब वृक्ष से जो मधु धारा प्रवाहित होती है, उसका पान करने वाले के मुँह से निकली हुई सुगंध चार सौ कोस तक जाती है। कुमुद पर्वत का वट वृक्ष तो कल्पतरु ही है । यहाँ के लोग जीवन सुख भोगते हैं । सुमेरु के पूर्व जठर और देवकूट, पश्चम में पवन और परियात्र, दक्षिण में कैलाश और करवीर गिरि तथा उत्तर में त्रिशृंग और मकर पर्वत स्थित हैं। इन सब की ऊँचाई कई हज़ार कोस है । सुमेरु पर्वत के ऊपर मध्य भाग में ब्रह्मा की पुरी है, frent fear हज़ारों कोस है । यह पुरी भी सोने की है। नहि पुराण के अनुसार सुमेरु के तीन प्रधान शृंग हैं जो सफटिक, वैदूर्य और रत्नमय हैं। न शृंगों पर २१ स्वर्य हैं जिनपर देवता निवास करते हैं । सुमेरु पर्वत का पुत्र 'त्रिकूट' नाम से विख्यात है जिस पर रावण की लंका जली हुई थी । वामन पुराण के अनुसार त्रिकूट क्षीरोद समुद्र 1 में स्थित है जिस पर देवर्षि, विद्याधर, किन्नर तथा गंधर्व क्रीड़ा करते हैं । इसकी एक चोटी सोने की है जिस पर सूर्य श्राश्रित है, दूसरी चाँदी की है जिस पर चन्द्र याश्रित और तीसरी हिम से आच्छादित है। नास्तिकों की यह पर्वत नहीं दिखाई देता । ¡ ________________

( १७ ) रासो में अनेक हिन्दू योद्धाओं को वीरगति पाने के उपरान्त सुमेरु की परिक्रमा करने वाला अर्थात् सूर्य-लोक में स्थान पाने वाला वर्णन किया गया है ! सुरग [ << सं० स्वर्ग ]- हिन्दुओं के तात लोकों में से तीसरा लोक जो ऊपर आकाश में सूर्य-लोक से लेकर अब लोक तक माना जाता । किसी-किसी पुराण के अनुसार यह सुमेरु पर्वत पर हैं। देवताओं का निवास स्थान यही स्वर्ग लोक माना गया है और कहा गया है कि जो लोग अनेक प्रकार के पुरुष और सत्कर्म करके मरते हैं, उनकी चानायें इसी लोक में जा कर निवास करती हैं। यज्ञ, दान यादि जितने पुण्य कार्य किये जाते हैं, वे सब स्वर्ग की प्राप्ति के उद्देश्य से ही किये जाते हैं। कहते हैं कि इस लोक में केवल सुख ही मुख हैं, दुःख, शोक, रोग, मृत्यु आदि का यहाँ नाम तक नहीं है । जो प्राणी जितने ही अधिक सत्कर्म करता है, वह उतने ही अधिक समय तक इस लोक में निवास करने का अधिकारी होता है । परन्तु पुण्यों का क्षय हो जाने अथवा अवधि पूरी हो जाने पर जीव को फिर कर्मानुसार शरीर धारण करना पड़ता है और यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक उसकी मृत्यु नहीं हो जाती । यहाँ अच्छे-अच्छे फलों वाले वृक्षों, मनोहर वाटिकाओं और अप्सराओं आदि का निवास माना जाता है । स्वर्ग की कल्पना नरक की कल्पना के बिलकुल विरुद्ध है । 1 प्रायः सभी धर्मों, देशों और जातियों में स्वर्ग और नरक की कल्पना की गई है। ईसाइयों के अनुसार स्वर्ग ईश्वर का निवास स्थान है और वहाँ फ़रिश्ते और धर्मात्मा लोग अनन्त सुख भोग करते हैं । मुसलमानों का स्वर्ग 'विहित' कहलाता है। मुसलमान लोग भी विश्ति को ख़ुदा और फ़रिश्तों के रहने की जगह मानते हैं और कहते हैं कि दीनदार लोग मरने पर वहीं जायेंगे। उनका विहिश्त इन्द्रिय तुल की सब प्रकार की सामग्री से परिपूर्ण कहा गया है । वहाँ दूध और शहद की नदियाँ तथा समुद्र हैं, अंगूरों के वृक्ष हैं और कभी वृद्ध न होने वाली अप्सरायें हैं । यहूदियों के यहाँ तीन स्वर्गे की कल्पना की गई है।