लेखाञ्जलि
लेखक-
हिन्दीके लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वान्
पं० महावीरप्रसादजी द्विवेदी
भूतपूर्व सम्पादक “सरस्वती
प्रकाशक-
हिन्दी पुस्तक एजेन्सी
२०३, हरिसन रोड,
कलकत्ता
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प्रकाशक
बैजनाथ केडिया
प्रोप्राइटर
हिन्दी पुस्तक एजेन्सी
२०३, हरीसन रोड
कलकत्ता
मुद्रक
गंगा प्रसाद भोतीका
एम॰ए॰, बी॰एल॰ काव्यतीर्थ
वणिक प्रेस
१ सरकार लेन, कलकत्ता
इधर कुछ समयसे हमें अपने प्रेमी ग्राहकों के सम्मुख इस माला की कोई नवीन पुस्तक रखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था; किन्तु आज हमें पाठकों के हाथों में हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ, पुराने साहित्यसेवी, ख्यातनामा “सरस्स्ती” मासिक-पत्रिकाके भूतपूर्व सम्पादक पं० महावीरप्रसादजी द्विवेदी की नवीन रचना को देते हुए बड़ी प्रसन्नता होती है। यद्यपि इसमें प्रकाशित सभी लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं तथापि उनकी नवीनता में कोई कमी नहीं आयी है। अधिकांश लेख ऐसे हैं जो जिस समय भी पढ़े जायेंगे, ज्ञान प्राप्त कराने के साथ-साथ मनोरंजन भी पर्याप्त रूपमें करेंगे।
वर्तमान पुस्तकमें विद्वान् लेखक ने भिन्न-भिन्न विषयों के लेखों का इस प्रकार समावेश किया है कि जिनके पठन-पाठन से भिन्न-भिन्न रुचि के पुरुषों का मनोरंजन हो और किसीका मन मी न उकतावे। इतिहास-प्रेमियों के लिए इसमें ऐतिहासिक खोज का पर्याप्त सामान है, शिक्षा-प्रमियों की आकांक्षा भी इससे भली प्रकार पूर्ण हो सकती है; जिनकी रुचि कृषि-सम्बन्धी विषयों में है और जो किसानों की भलाई में प्रयत्न-शील हैं उनको भी निराश होना नहीं पड़ता; इधर देश-प्रेमियों को भी अपनी राजनीतिक प्यास बुझानेके लिए कुछ-न-
कुछ मिल ही जायगा और जिन लोगोंकी रुचि अद्भुत बातोंको जानने की ओर रहती है और जिन्हें विज्ञानसे प्रेम है उनके लिए तो इस पुस्तकमें बहुत-कुछ सामान है। आशा है कि ऐसी सर्वजन प्रिय पुस्तक का आदर हिन्दी-संसार समुचित रूप में करेगा।
हमारा बहुत समय से विचार था कि जहां हिन्दीके अधिकांश प्रतिष्ठित विद्वानों की रचनाओं का गुम्फन इस माला में हो चुका है वहां द्विवेदी जी जैसे सर्वमान्य हिन्दी-लेखककी रचना का इसमें समावेश न होना खटकने की-सी बात है। आज हमें उनकी रचनाको प्रकाशित कर इस त्रुटिको दूर करनेका सुअवसर प्राप्त हुआ है। आशा है पाठकगण इसे अपनाकर हमें इसी प्रकारकी अन्य रचनाएं भी प्रकाशित करनेके लिए उत्साहित करेंगे।
विनीत--
प्रकाशक
अज्ञता और निरक्षरता ही अनेक दुःखोंकी जननी है। साक्षर होने ही से मनुष्यको ज्ञानप्राप्ति हो सकती है अथवा यह कहना चाहिये कि साक्षरता ही उसकी प्राप्ति का प्रधान साधन है। यह साक्षरता ही, आजकल की भाषामें,शिक्षा के नामसे अभिहित है; क्योंकि जितने शिक्षालय या स्कूल हैं उनमें अक्षरों ही की सहायतासे शिक्षाका दान दिया जाता है। शिक्षा की प्राप्ति अपनी मातृभाषा के द्वारा जितनी सुलभ हो सकती है उतनी पर-भाषा के द्वारा नहीं। यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है। इसमें अपवाद के लिए जगह नहीं। अतएव अपनी भाषाका ज्ञान प्राप्त करना और अपनी भाषा को उन्नत करना प्रत्येक मनुष्यका परम कर्तव्य होना चाहिये।
हमलोगों की मातृभाषा हिन्दी है। सौभाग्य से, कुछ समयसे, वह उन्नति की ओर, धीरे-धीरे, अपना पादक्षेप कर रही है। बीस-पच्चीस वर्ष पहले वह बड़ी ही विपन्नावस्था में थी। उस समय उसकी ओर बहुत ही कम हिन्दी-भाषा-भाषियों का ध्यान था-उसकी उस दयनीय दशापर इने- गिने कुछ ही सत्पुरुषों को दया आती थी। लोग उसे भूले हुए थे। इस दशामें उन्हें जागृत करने और उन्हें उनके कर्तव्य की याद दिलानेकी बड़ी आवश्यकता थी।
मलेरिया अर्थात् मौसिमी बुखार, दूर करनेके लिए कुनैन से बढ़कर और कोई दवा नहीं पर वह होती है महा कटुं। अतएव
रोगी उसे नहीं खाना चाहता। इसकी तोड़ वैद्यों और डाकरोंने यह निकाली है कि कुनैन को वे शकरके जलाव में लपेटकर दिया करते हैं। इससे गेगो को उसकी कटुता का अनुभव नहीं होता। वह उसे प्रसन्नतापूर्वक खा लेता है और उसका बुखार जाता रहता है। मातृभाषा से विराग होना भी एक प्रकारका रोग है और बहुत भयङ्कर रोग है। उस विराग के दूरीकरण के लिए भी उपाय करने पड़ते हैं। वे उपाय ऐसे होते हैं जिनका प्रयोग कड़वी कुनैन के सदृश खले भी नहीं
और कार्य-सिद्धि भी हो जाय। उसी को सिद्धि से मातृभाषा का प्रेम मनुष्योंमें जागृत हो उठता है और वे अपने भूले हुए कर्तव्य के पालनकी ओर आकृष्ट हो जाते हैं।
अपनी भाषा सीखने और उसके द्वारा शिक्षाप्राप्ति और ज्ञान सम्पादन करने के जितने साधन हैं,पुस्तकों और समाचार-पत्रों को पढ़ना उनमें प्रमुख है। परन्तु जबतक मनुष्यों को उन्हें लेने और पढ़नेका चसका नहीं लगता तबतक वे उपदेश सुनकर ही उन्हें मोल लेने और पढ़ने नहीं लगते। अतएव उन्हें वैसा करने के लिए, रिझाना, फुसलाना और उनकी खुशामद करना पड़ता है। उनके लिए ऐसे लेख और ऐसी पुस्तकें लिखनी पड़ती हैं जिनके नाममात्र सुनने से वे उन्हें चावसे पढ़नेकी इच्छा करें। प्रयाग के इंडियन प्रेससे प्रकाशित सरस्वती नामक पत्रिका में, इस संग्रह-पुस्तक के लेखक को, दस-पन्द्रह वर्ष तक, ऐसे ही लेख लिखने पड़े थे। पाठकों को इसकी सचाईका ज्ञान इस पुस्तक के आरम्भ की लेख-सूचीसे अच्छी तरह हो जायगा।
इस संग्रह में कई प्रकारके लेख हैं। वे सब समय-समयपर,आवश्यकनानुसार, लिखे गये हैं। हर लेखके नीचे उसके लिखे जानेका समय दिया हुआ है। लेखक का उद्देश्य सदा से यही रहा है कि उसके लेखोंसे
पाठकों का मनोरञ्जन भी हो और साथ ही उनके ज्ञानको सीमा भी बढ़ती रहे। इसी से उसने अद्भुत जीव-जन्तुओं का वर्णन करके कौतूहल की उद्दीपना करते हुए महाप्रलय और सौर जगत् की उत्पत्ति के सदृश लेखोंसे गहन विषयों का भी ज्ञानोत्पादन करानेकी चेष्टा की है। इसी तरह दण्डदेवके आत्म-निवेदनके सदृश मनोरञ्जक और कौतुकवर्द्धक लेख लिखकर उसने देहाती पञ्चायतों, देशी ओषधियों और किसानोंके संघटन के सदृश देशोपकारी काय्याँ की ओर भी पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है। बात यह कि उसने मनोरञ्जन के साथ-हीसाथ ज्ञानोन्नतिके उद्देश्य को भी सदा अपनी दृष्टिके सामने रक्खा है।
इस संग्रहके प्रायः सभी लेख पुराने होनेपर भी पुराने नहीं हो सकते। क्योंकि उनमें ऐसी बातों और ऐसे विषयों का वर्णन है जिनकी उपयोगिता को समय कम नहीं कर सकता। और यदि वह कम भी हो जाय या नष्ट ही क्यों न हो जाय तो भी क्या हिन्दीभाषा के प्रेमियों का इतना भी कर्तव्य नहीं कि वे पुराने लेखकों की कृतियों का अवलोकन करके, विस्मृति के गर्त में गिर जाने से उन्हें बचा लें? वे कृपा करके देखें कि हिन्दी-साहित्यकी प्रारम्भिक अवस्थामें, उसकी उन्नतिके लिए, किस-किसने कितने और कैसे प्रयत्न किये थे। इस बातका यत्किञ्चित् ज्ञान उन्हें इस पुस्तक के अवलोकन से भी हो जानेकी आशा है।
इसमें कुछ अन्य अभिन्नत्माओं के भी लेख सम्मिलित हैं। एक को छोड़कर और सभी लेख “सरस्वती से उद्धृत हैं।
दौलतपुर,(रायबरेली) १ जनवरी १९२८ |
महावीर प्रसाद द्विवेदी
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यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।
यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।