विदेशी विद्वान्/१―कोपर्निकस, गैलीलियो और न्यूटन

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विदेशी विद्वान्

 

१—कोपर्निकस, गैलीलियो और न्यूटन

कदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्तेर्न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुम् ।
अधोमुखस्यापि तनूनपातो नाधः शिखा याति कदाचिदेव ।।

भर्तृहरि *[१]


चार-पाँच सौ वर्ष पहले योरप मे ज्योतिष-विद्या के अच्छे विद्वान् एक भी न थे। इस कारण, उस समय की प्रचलित कल्पनाओ के झूठे अथवा सच्चे होने का निर्णय ही कोई न कर सकता था। जो कुछ जिसने सुन रक्खा था, अथवा जो कुछ टालमी और अरिस्टाटल इत्यादि पुराने विद्वान् लिख गये थे, उसे ही सब लोग सत्य समझते थे। लोगो का पहले यह मत था कि पृथ्वी अचल है और ग्रह-उपग्रह सब उसके चारों ओर घूमते हैं। यह कल्पना ठीक न थी।


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विदेशी विद्वान्

योरप में सबसे पहले जिसने ज्योतिष-विद्या का सच्चा ज्ञान प्राप्त किया उसका नाम कोपर्निकस था। प्रशिया देश में, विश्चुला नदी के किनारे, थार्न नामक नगर में, १४७२ ईसवी के जनवरी महीने की १६वी तारीख़ को, उसका जन्म हुआ। उसके माता-पिता धनवान् न थे; परन्तु निरे निर्धन भी न थे। उसने क्रोको की पाठशाला मे वैद्यक, गणित और ज्योतिष का अभ्यास अच्छी तरह किया। जब वह २३ वर्ष का हुआ तब पाठशाला छोड़कर इटली मे आया और रोम नगर मे गणित का अध्यापक हो गया। रोम मे बहुत वर्षों तक रहकर और विद्या के बल से अपनी कीर्ति को दूर-दूर तक फैलाकर वह अपनी जन्म-भूमि को लौट गया। वहाँ अपने मामा की सहायता से उसे, गिरजाघर से सम्बन्ध रखनेवाली एक नौकरी मिली। कोपर्निकस ने ज्योतिष-विद्या का विचार यही मन लगाकर किया। पहले के ज्योतिपियों के सिद्धान्त उसने भ्रम से भरे हुए पाये। इस लिए बड़े ध्यान से ग्रहों की परीक्षा करके उसने यह सिद्धान्त निकाला कि सूर्य बीच मे है और पृथ्वी इत्यादि दूसरे ग्रह उसकी प्रदक्षिणा करते हैं। यही सिद्धान्त ठीक है। कोपर्निकस ने जो पुस्तक इस विषय की लिखी वह १३ वर्षों तक विना छपी पड़ी रही। उसके मरने के कुछ ही घण्टे पहले उसे उस पुस्तक की छपी हुई एक प्रति देखने को मिली। उसे उसने हाथ से छुकर ही सन्तोप माना और दूसरी के लाभ के लिए उसे छोड़फर परलोक की राह ली। रोम में एक धर्मा[  ]धिकारी रहता है। उसे पोप कहते हैं। धैर्म की बातों में वह सबका गुरु माना जाता है। उस समय पोप को यहाँ तक अधिकार था कि धर्म-ग्रन्थों के प्रतिकूल जो मनुष्य एक शब्द भीं कहता था उसे कड़ा दण्ड मिलता था। धार्म्मिक लोगों की समझ में पृथ्वी अचल थी; परन्तु कोपर्निकस की पुस्तक में यह बात झूठ सिद्ध की गई थी। इसलिए उसे अपनी पुस्तक के छपाने में बहुत दिन तक सङ्कोच रहा। परन्तु मित्रो के कहने से अपना हृदय कड़ा करके उसने उसे छपा ही दिया। छपने के अनन्तर यदि वह कुछ दिन जीता रहता तो शायद उसे वही दुःख भोगने पड़ते जो गैलीलियो को भोगने पड़े। ७० वर्ष की अवस्था में कोपर्निकस की मृत्यु हुई।

कोपर्निकस के अनन्तर योरप से दूसरा प्रसिद्ध ज्योतिषी गैलीलियो हुआ। उसका जन्म, इटली के पिसा नामक नगर में, १५६४ ईसवी में, हुआ। गैलीलियो के बाप की इच्छा थी कि वह वैद्यक पढ़े; परन्तु उसको वह विषय अच्छा नहीं लगा। उसे गणित और पदार्थ-विज्ञान अधिक प्रिय थे। इसलिए उसने यही दो विषय पढ़ना आरम्भ किया। इन विषयों में वह बहुत ही प्रवीण हो गया। उसकी विद्या और बुद्धि से प्रसन्न होकर पिसा की पाठशाला के अधिकारियों ने उसे उस पाठशाला में गणित का अध्यापक नियत किया। कुछ दिनों में गणित और पदार्थ-विज्ञान में गैलीलियो इतना निपुण हो गया कि अरिस्टाटल और टालमी इत्यादि प्राचीन विद्वानों की भूले वह [  ]दिखलाने लगा और अनेक प्रकार के प्रयोगों द्वारा उनकी भूलों को सिद्ध करके बतलाने लगा। पुराने विद्वानों के पक्षपातियों को यह बात बहुत बुरी लगी। वे गैलीलियो के शत्रु हो गये और उसे तङ्ग करने लगे। इसलिए गैलीलियो पिसा की पाठ- शाला को छोडकर हादुआ को चला गया और १८ वर्ष तक वहाँ की पाठशाला में उसने गणित के अध्यापक का काम किया। इस बीच में उसकी विद्या और बुद्धि की यहाँ तक प्रशंसा हुई कि पिसा की पाठशाला के अधिकारियों ने उसे फिर बुला लिया और उसका मासिक वेतन बढ़ाकर उसे वहाँ गणित के अध्यापक के पद पर नियत किया।

गैलीलियो ने अपनी विद्या के बल से सबसे पहले दूरबीन बनाने की युक्ति निकाली। पहले उसने जो दूरबीन बनाई उससे जो पदार्थ देखे जाते थे वे तिगुने बड़े दिखलाई देते थे; परन्तु धीरे-धीरे उसने उसको यहाँ तक सुधारा कि उसके द्वारा देखने से पदार्थ तीस गुने बड़े अथवा तीस गुने निकट दिख- लाई पड़ने लगे। इस दूरबीन के द्वारा उसने सूर्य, चन्द्रमा और शनैश्चर इत्यादि ग्रहों को देखकर उनके आकार, उनकी चाल और उनकी बनावट के विषय में ज्ञान प्राप्त किया और यह कहकर कोपर्निकस के मत को पुष्ट किया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। पहले पहल जब उसने यह बात प्रकाशित की कि पृथ्वी के समान चन्द्रमा पर भी पर्वत, गड्ढे और ऊँचे-नीचे स्थान हैं तब पुराने विचार के लोग उस पर [  ]जल उठे। वे लोग उसको खुल्लमखुल्ला गालियाँ देने लगे और उसका यहाँ तक द्वेष करने लगे कि रोम के प्रधान धर्म्मा- धिकारी पोप तक से उन्होंने उसकी शिकायत की।

१६१५ ईसवी में बाइबिल के प्रतिकूल मत प्रचलित करने के इलज़ाम पर पोप ने गैलीलियो पर अभियोग चलाया। उस समय धर्म के ग्रन्थो के प्रतिकूल यदि कोई कुछ भी कहता था तो उसे कडा दण्ड मिलता था। इसी बात पर ब्रूनो नामक एक विद्वान् जीता ही जला दिया गया था और अण्टोनियो डिडामिनस ६ वर्ष तक कारागार में रहकर वहीं मर गया था। इन्हीं कारणो से डरकर शायद गैलीलियो ने न्याया- धीश के आज्ञानुमार यह स्वीकार करके अपनी रक्षा की कि पृथ्वी के फिरने के विषय में मेरा मत ठीक नहीं। उससे इस प्रकार स्वीकार कराकर न्यायाधीश ने उसे छोड़ दिया और वह अत्यन्त दु:खित होकर अपने घर लौट आया।

गैलीलियो ने यद्यपि न्यायाधीश के सामने यह कह दिया कि मेरा मत ठीक नहीं; बाइबिल में जो कुछ लिखा है वही ठीक है, तथापि वह ग्रहों के विषय में ज्ञान प्राप्त करता ही रहा। १६२३ ईसवी में, रोम में, दूसरा पोप धर्माधिकारी हुआ। वह गैलीलियो का मित्र था; इसलिए उसे फिर धीरज आया और उसने एक ऐसी पुस्तक लिखी जिससे यह सिद्ध होता था कि प्राचीन मत की स्थापना करनेवाले मूर्ख थे। इस पुस्तक के निकलते ही लोगो ने फिर गैलीलियो की शिकायत [  ]पोप से की। इस पोप ने भी जब देखा कि प्रायः देश का देश ही गैलीलियो का विरोधी है तब उसने उसे फिर रोम में बुलाया। इस समय गैलीलियो ७० वर्ष का बुड्ढा हो गया था। पोप ने पहली बार का जैसा अभियोग फिर उस पर चलाया। कई महीने गैलीलियो रोम में रहा और उसे वहाँ बहुत कष्ट मिला। अन्त में, अत्यन्त दुःखित होकर, और वचने का कोई दूसरा उपाय न देखकर, न्यायाधीश की आज्ञा के अनुसार, उसने अपने मुख से इस प्रकार कहा―“यह झूठ है कि पृथ्वी चलती है। मुझसे अपराध हुआ जो मैंने वैसा कहा। मैं क्षमा माँँगता हूँ। आज से जो आप कहेगे उसी पर मैं विश्वास करूँगा। यदि फिर मुझसे ऐसी भूल हो तो आप जो दण्ड चाहे मुझे दें। मैं उसे चुपचाप सहन करूँगा।” विवश होकर यह सब कह चुकने पर गैलीलियो को इतना क्रोध आया और मन ही मन वह इतना जल भुन गया कि पृथ्वी को लात से मारकर उसने धीरे से कहा―“यह अब भी चल रही है।”

कुछ दिनों में गैलीलियो अन्धा हो गया और ७८ वर्ष की अवस्था में, १६४२ ईसवी की ८ वीं जनवरी को, वह पर- लोक-वासी हुआ। गैलीलियो, अपने समय में, महाविद्वान् और महाज्योतिषी हो गया। उसकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी। यदि गैलीलियो न उत्पन्न होता और दूरवीन बनाकर ग्रहों का सच्चा-सच्चा ज्ञान न प्राप्त करता तो ज्योतिप-विद्या आज इस दशा को कभी न पहुँचती। [  ]जिस वर्ष गैलीलियो की मृत्यु हुई उसी वर्ष, अर्थात् १६४२ ईसवी के दिसम्बर महीने की २५ तारीख़ को, इँग- लेंड में, न्यूटन का जन्म हुआ। न्यूटन का बाप न्यूटन के लड़कपन ही में मर गया था। इसलिए उसकी माँ ने उसके लिखने-पढ़ने का प्रबन्ध किया। १२ वर्ष की अवस्था में वह ग्रन्थम की पाठशाला में भरती हुआ। ६ वर्ष तक उसने वहाँ विद्याध्ययन किया। उसके अनन्तर वह केम्ब्रिज के ट्रिनिटी कालेज में पढ़ने लगा। न्यूटन ने २२ वर्ष की अवस्था में बी॰ ए॰ की और २५ वर्ष की अवस्था में एम॰ ए॰ की परीक्षा पास की। गणित और यन्त्र बनाने की विद्या से उसे बड़ा प्रेम था। पाठशाला में छुट्टी होने पर जब और लड़के खेल- कूद में लग जाते थे तब वह छोटे-छोटे यन्त्र बनाया करता था। उसने एक छोटी सी पवन-चक्की बनाई थी जो वायु के वेग से आप ही आप चलती थी। उसे देखकर वह मन ही मन बहुत प्रसन्न होता था। उसने लकड़ो की एक घड़ी भी बनाई थी। वह समय बतलाने का पूरा-पूरा काम दे सकती थी। जब वह केम्ब्रिज के विद्यालय में था तभी उसने यह बात सिद्ध करके दिखला दी थी कि प्रकाश की प्रत्येक किरण में सात प्रकार के रङ्ग रहते हैं। १६७२ ईसवी में न्यूटन को ट्रिनिटी कालेज में गणित के अध्यापक का पद मिला। कुछ काल तक वह पार्लियामेण्ट का सभासद भी रहा। उसकी मान-मर्यादा प्रतिदिन बढ़ती ही गई। यद्यपि उसका यश देश[  ]देशान्तर में फैल गया था तथापि धन-सम्बन्धी उसकी दशा अच्छी नहीं थी। इसलिए १६९६ ईसवी में सरकार ने उसे टकसाल का अधिकारी बनाया। कुछ दिनो में वहाँ उसका वेतन १५००) मासिक हो गया। इस पद पर वह अन्त तक बना रहा और अपना काम बड़ी योग्यता से उसने किया। १७०५ ईसवी में उसे “सर” की पदवी मिली। तब से वह सर आइज़क न्यूटन कहलाया जाने लगा।

गैलालियो की बनाई हुई दूरबीन में कई दोष थे। इस- लिए न्यूटन ने एक नई दूरबीन बनाकर गैलीलियो की दूरबीन से देखने में जो बाधायें आती थीं उनको दूर कर दिया। हमारे यहाँ के प्राचीन ज्योतिषी तो यह जानते थे कि पृथ्वी में आकर्षण-शक्ति है, अर्थात् जड़ पदार्थों को वह अपनी ओर खींच लेती है; परन्तु, न्यूटन के समय तक, योरप में इस बात को कोई न जानता था। एक बार न्युटन ने अपने बाग़ में एक सेव को पेड़ से गिरकर पृथ्वी की ओर आते देखा। उसी समय से वह उसके गिरने का कारण सोचने लगा और अन्त में गुरुत्वा- कर्पण के नियम का पता उसने लगाया। इस नियम के जानने से बड़ा लाभ हुआ; क्योंकि इसी के अनुसार सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी तथा और-और ग्रह अपनी-अपनी कक्षाओं पर घूमते हैं।

१७२६ ईसवी में, ८४ वर्ष का होकर, न्यूटन परलोकवासी हुआ। उसने अपनी सारी अवस्था गणित-विद्या की किताबें लिखने और विज्ञान-सम्बन्धी नई-नई बातें जानने में बिताई। [  ]न्यूटन बहुत सबेरे उठता था और अपना सारा काम समय पर करता था। उसको क्रोध छू तक नहीं गया था। वर्षों के परिश्रम से लिखे गये उसके काग़ज़, एक बार उसके डायमंड नामक कुत्ते ने, मेज़ पर मोमबत्ती गिराकर, जला दिये। परन्तु उसने इतनी हानि होने पर भी क्रोध नहीं किया; केवल इतना ही कहा कि “डायमंड। तू नहीं जानता, तूने मेरी कितनी हानि की है।” न्यूटन यदि इँगलेड में न उत्पन्न होता तो शायद गैलीलियो की ऐसी विपत्ति उसे भी भोगनी पड़ती। वह बड़ा प्रसिद्ध ज्योतिषी, गणित-शास्त्र का ज्ञाता और तत्त्वज्ञानी हो गया। जहाँ उसका शरीर गड़ा है वहाँ पत्थर के ऊपर एक लेख खुदा हुआ है। उसका सारांश यह है―“यहाँ सर आइज़क न्यूटन का शरीर रक्खा है। इस विद्वान् ने अपनी विद्या के बल से ग्रहों की चाल और उनके आकार का पता लगाया, ज्वार-भाटा होने का कारण खोज निकाला; और प्रकाश की किरणों में रङ्गों के उत्पन्न होने का कारण जाना।” इतना विद्वान् होने पर भी, मरने के समय, उसने कहा कि “मैंने कुछ नहीं किया। मैं समुद्र के किनारे एक लड़के के समान खेलता सा रहा। समुद्र में अनेक प्रकार के रत्न भरे रहे; परन्तु दो-एक कड्कड-पत्थर अथवा सीपियों को छोड़कर और कुछ मेरे हाथ न आया।” अर्थात् ज्ञानरूपी समुद्र में से केवल दो-एक बूँद मुझे मिले, अधिक नहीं। सत्य है; विद्या की शोभा नम्रता दिखाने ही में है।

  1. धैर्यवान् पुरुषों की अवहेलना करने पर भी वे अपनी धीरता को नही छोड़ते। अग्नि को चाहे कोई जितना नीचा करे, उसकी शिखा सदैव ऊपर ही की ओर जाती है, नीचे की ओर नही।