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विदेशी विद्वान्/३―कर्नल आलकट

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विदेशी विद्वान
महावीर प्रसाद द्विवेदी

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ २८ से – ३३ तक

 
३―कर्नल आलकट

पाठकों ने थियासफ़िकल सोसायटी का नाम सुना ही होगा। उसे स्थापित हुए कोई ३० वर्ष हुए। उसका प्रधान दफ्तर मदरास (अडियार ) में है। इस समाज के सिद्धान्त कुछ-कुछ ब्रह्मवादियो के सिद्धान्तो से मिलते हैं। इसका मुख्य सिद्धान्त है―मनुष्य परमात्मा का अंश है। अतएव वह परमात्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इस समाज में सब धर्मों और सव सम्प्रदायों के अनुयायी भरती हो सकते हैं। इसके अधिष्ठाताओं और कार्यकर्ताओं का कथन है कि हमें किसी धर्म से द्वेष नहीं, ईश्वर सबका एक है। हाँ, उसकी प्राप्ति के साधन जुदे-जुदे हैं। पर इससे मुख्य उद्देश में बाधा नहीं आ सकती। सब लोगों मे भ्रातृ-भाव की स्थापना, ब्रह्मविद्या का प्रचार और पारस्परिक सहानुभूति की वृद्धि ही इस समाज के कर्तव्य हैं।

इसके संस्थापक कर्नल आलकट का शरीरपात हुए अभी थोड़े ही दिन हुए। मदरास मे, १७ फ़रवरी १९०७ को, आपकी मृत्यु हुई। आपके मृत देह के पास सब धर्मों की प्रधान-प्रधान पुस्तकें रक्खी गई थीं। यह आपकी आज्ञा से हुआ था। आप कह गये थे, ऐसा ही करना। मरने पर सब धर्मों के अनुयायियों ने आपका कीर्त्तिगान किया। आपके शव का अग्नि-संस्कार हुआ। अस्थि-सञ्चय का आधा भाग समुद्र में डाला गया। आधा काशी में, भागीरथी में, प्रवाहित किया गया। यह बात हिन्दू-धार्म्मानुकूल हुई।

तीन-चार वर्ष हुए हमने कर्नल आलकट के जीवनचरित की सामग्री इकट्ठी करने की कोशिश की थी। पर सफलता न हुई। जो लोग सामग्री दे सकते थे उन्होंने उत्तर दिया कि कर्नल साहब का जीवनचरित प्रकाशित नहीं हो सकता। साहब नहीं चाहते कि उनका चरित प्रकाशित हो। क्या करते? चुप रहना पड़ा। पर अब, उनकी मृत्यु के बाद, श्रीमती एनी बेसंट ने उनका संक्षिप्त चरित अँगरेज़ी अख़बारो में छपा दिया है। उससे कर्नल साहब का कुछ हाल लोगो को मालूम हो गया है। खै़र, तब न सही, अब सही।

कर्नल साहब के पूर्वज अँगरेज़ थे। उन्हे अमेरिका में आकर बसे कई पुश्तें हो गई। अतएव कर्नल आलकट को अमेरिकन कहना चाहिए। अमेरिका के न्यूजर्सी-प्रान्त के आरेज नगर में कर्नल साहब का जन्म, १८३२ ईसवी में, हुआ था। आपको कृषि-विद्या से बड़ा शौक़ था। ग्रीस की गवर्न- मेट ने उन्हे कृपि के महकमे में एक अच्छा पद देने की इच्छा प्रकट की थी। पर उन्होने एथन्स जाना मंजूर न किया। आपने अपने ही देश में कृषि-विद्या का एक स्कूल खोला। उसमे आपने बड़ी कार्य दक्षता दिखलाई। आपका बड़ा नाम हुआ। आपने कृषि-विषयक एक किताब भी लिखी। थोड़े ही समय में वह सात दफ़े छपी। आपकी योग्यता से प्रसन्न होकर अमेरिका के अधिकारियों ने वाशिंगटन में आपको कृषि- विभाग का डाइरेकृर बनाना चाहा। पर इस पद को लेने से भी आपने इनकार कर दिया। और भी कई अच्छे-अच्छे कास आपको मिलते थे। पर उन्हें भी आपने नहीं मँज़ूर किया।

१८५८ में आप इँगलेड गये। वहाँ आपने अपने कृषिज्ञान को और भी वृद्धि की। अमेरिका लौटकर दो किताबें और आपने कृषि पर लिखी। इससे आपका और भी नाम हुआ।

कर्नल आलकट कुछ दिन तक एक अख़बार के सम्पादक भी रहे थे। अख़बारों में आपने कुछ दिन तक लेख भी दिये थे।

जब अमेरिका के उत्तरी और दक्षिणी राज्यो में लड़ाई शुरू हुई तब आलकट साहब फ़ौज में भरती हो गये। लड़ाई में आपने बड़ी बहादुरी दिखाई और अपने काम से अफ़सरों को बहुत प्रसन्न किया। इसके बाद उन्हें एक ऐसे मामले की तहक़ीक़ात का काम दिया गया जिसमे गवर्नमेट का बहुत सा रुपया लोग खा गये थे। इस काम में उन्हें लोग रिश्वत देने, और रिश्वत न लेने पर, धमकाने से भी बाज़ न आये। पर आलकट साहब इससे ज़रा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने बड़ी ही योग्यता से काम किया। फल यह हुआ कि अपराधी दस-दस वर्ष के लिए जेल भेजे गये। इस काम से साहब ने बड़ी नेकनामी पाई। बड़े-बड़े अफ़सरों ने उनकी प्रशंसा की और बिना माँगे प्रशंसापूर्ण पत्र भेजे। कुछ दिन बाद आलकट साहब को कर्नल का पद मिला और वे युद्ध-विभाग के स्पेशल कमिश्नर बनाये गये। इसके अनन्तर जहाज़ी महकमे के सर्वश्रेष्ठ अधिकारी ने अपने मह- कमे में उन्हें ले लिया। वहाँ उन्होंने अनेक सुधार किये और उस महकमे मे जितनी ख़राबियाँ थी सब दूर कर दीं। इनकी इम योग्यता पर इनका प्रधान अफ़सर इतना प्रसन्न हुआ कि उसने एक लम्बी सरटीफ़िकेट दी और उसमें इनके गुणो का सविस्तर गान किया।

मैडम ब्लेवस्की से कर्नल आलकट की भेंट अमेरिका ही में हुई। वहीं इन दोनों ने मिलकर थियासफ़िकल समाज की नीव डाली। उस समय कर्नल साहब ने गवर्नमेट की नौकरी से इम्तेफ़ा दे दिया था और विकालत करने लगे थे। विकालत में आपको अच्छी आमदनी होती थी। पर धार्मिक और ब्रह्मविद्या-विषयक बातों को उन्होंन रुपया पैदा करने के काम से अधिक महत्त्वपूर्ण समझा। अतएव सांसारिक झगड़ों से हाथ खीचकर, १८७५ ईसवी में, पर्वोक्त मैडम साहबा की सलाह से, आपने इस समाज की स्थापना की। आप ही इसके प्रधान अध्यक्ष नियत किये गये। इसके दो वर्ष बाद आपने भारतवर्ष के लिए प्रस्थान किया और यहाँ मदरास में थियासफ़िकल सोसायटी का मुख्य दफ्तर खोला।

यही आकर बम्बई में पहले पहल आप ही ने स्वदेशी चीजो की एक प्रदर्शिनी खोलने का उपक्रम किया और लोगों को स्वदेशी-वस्तु-व्यवहार की उत्तेजना दी। एनी बेसंट कहती हैं, कांग्रेस करने का ख़याल भी पहले पहल आप ही को हुआ था।

कर्नल साहब को बौद्ध धर्म से विशेष प्रेम था। आपने लङ्का में इस धर्म की उन्नति के लिए बहुत प्रयत्न किया। यह आप ही के प्रयत्न का फल है जो वहाँ इस समय ३ कालेज और २०३ स्कूल हैं और उनमे २५,८५६ विद्यार्थी पढ़ते हैं। जापान में भी कर्नल आलकट ने बौद्ध धर्म की बड़ी उन्नति की। अनेक व्याख्यान आपने दिये। वौद्ध धर्म के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों को आपने अपने व्याख्यानों के प्रभाव से एक कर दिया।

१८७८ ईसवी में कर्नल साहव भारतवर्ष मे आये और १८८२ में आपने अपने निज के रुपये से ज़मीन वगैरह लेकर मदरास मे थियासफ़िकल सोसायटी की इमारत बनवाई। यहाँ, १८९१ में, मैडम व्लेबस्की का शरीरपात हुआ। तब से इस सोसायटी का कार्य-सूत्र सर्वतोभाव से आप ही के हाथ रहा। आपने अपने उद्योग और अध्यवसाय से, ३१ वर्षों में, इस सोसायटी की कोई एक हज़ार शाखायें दुनिया भर में खोल दीं। इस समय कोई देश ऐसा नहीं जहाँ इस सोसा- यटी की शाखा न हो। आप पर और मैडम ब्लेबस्की पर अनेक लोगों ने अनेक प्रकार की तुहमतें लगाई; अनेक प्रकार से उनकी निन्दा की; अनेक अनुचित आक्षेप और आयात किये; पर उनकी बहुत कम परवा करके आप अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ रहे और जिस काम को शुरू किया था उसे उसी उत्साह से करते रहे। फल यह हुआ कि आपके कितने ही विपक्षी इस समय आपकी बातों को मानने लगे हैं। सुनते हैं आपके सारे बड़े-बड़े काम महात्माओं की प्रेरणा से हुआ करते थे। ऐसी ही प्रेरणा के वशीभूत होकर आप एनी बेसँट को अपने पद का उत्तराधिकारी बनाने की सिफ़ारिश कर गये हैं।

कर्नल आलकट की बदौलत थियासफ़िकल सोसायटी से, एक बात जो सबसे अधिक महत्त्व की हुई है, वह यह है कि इस देश के अँगरेज़ी पढ़े विद्वानों के हृदय मे अपने देश की विद्या और शास्त्रादि पर श्रद्धा का अँकुर जम गया है। यह कुछ कम लाभ नहीं।

[अप्रेल १९०७
 


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