विदेशी विद्वान्/५―मुग्धानलाचार्य्य

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[ ३९ ]मुग्धानलाचार्य्य से मतलब डाक्टर मेकडॉनल से है। आप आक्सफ़र्ड में संस्कृत के प्रधान अध्यापक हैं। आपके विषय में एक नोट, मार्च १९०७ की "सरस्वती" में प्रकाशित हो चुका है। उसमे आपकी संस्कृत-लिपि का फ़ोटो दिया गया है। जून १९०७ की "सरस्वती" मे "कालिदास का समय" नामक जो लेख प्रकाशित हुआ है उसमे भी आपका उल्लेख है और आपकी रचित "संस्कृत-भाषा का इतिहास" नामक पुस्तक की दो एक बातों की आलोचना भी है। कुछ समय हुआ, आप संस्कृत की जन्मभूमि भारत में भ्रमण करने आये थे। आप यहाँ कई महीने घूमे। अब आप अपने देश लौट गये हैं।

आपका पूरा नाम है आर्थर ए॰, मेकडॉनल। मेकडॉनल का संस्कृत-रूप आप ही ने "मुग्धानल" बनाया है और उसके आगे "आचार्य्य" भी आप ही ने जोड़ा है। आप एम॰ ए॰ ( मास्टर आव् आर्ट्स ) हैं; इससे "आर्ट्स" के आचार्य्य हुए। और पी-एच॰ डी॰ ( डाक्टर आव् फ़िलासफ़ी ) हैं; इससे फ़िलासफ़ी ( दर्शन-शास्त्र ) के भी आचार्य्य हुए।

डाक्टर मेकडॉनल का जन्म मुजफ़्फरपुर ( तिरहुत ) में हुआ था। वहाँ ११ मई १८५४ को आपने जन्म लिया था। [ ४० ]पर शिक्षा और दीक्षा आपने यहाँ नहीं पाई। जर्मनी के गाटिजन और इँगलेड के आक्सफ़र्ड-विश्वविद्यालयो में आपने ऊँचे दर्जे की शिक्षा प्राप्त की है। पुरानी जर्मन-भाषा, संस्कृत- भाषा, और भाषा-व्युत्पत्ति-शास्त्र के अध्ययन और विचार में आपने सविशेष परिश्रम किया है। प्रधान-प्रधान आकर-ग्रन्थों में एक परीक्षा आक्सफ़र्ड में होती है। उसकी भी एक सर्वोच्च शाखा है। उसका नाम है “आनर्स-कोर्स”। जो लोग उसमे पास होते हैं वे विशेष सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। इस परीक्षा को पास करके आचार्य्य मुग्धानल ने चीनी, जर्मन और संस्कृत-भाषा सम्बन्धी विश्वविद्यालय की छात्रवृत्तियाँ प्राप्त कीं। संस्कृत के प्रगाढ़ पण्डित सर मानियर विलियम्स का नाम पाठकों ने सुना ही होगा। उन्हीं से आपने चार वर्षों तक बराबर संस्कृत पढ़ी है। जैसे आप संस्कृत के चूड़ान्त पण्डित हैं वैसे ही जर्मन के भी हैं। १८८० से १८९६ तक, कोई २० वर्ष, आप आक्मफ़र्ड में जर्मन-भाषा के अध्यापक थे। इस भाषा के अध्यापक नियत होने के ८ वर्ष बाद से संस्कृत-अध्यापना का भी काम आपको मिला। १८८८ से १८९९ तक आप संस्कृत के सहकारी अध्यापक भी रहे। इसके आगे आप संस्कृत के “बाउन-प्रोफ़ेमरर” हुए। बाडन नाम के एक साहब बहुत सा रुपया जमा करके आक्सफ़र्ड में संस्कृत पढ़ाने का प्रबन्ध कर गये हैं। इससे जो कोई उनको नियत की हुई जगह पर काम करता है वह “बाडन[ ४१ ]"प्रोफेसर" कहलाता है। आचार्य्य मुग्धानाल इसी पद पर अधिष्ठित हैं।

मुग्धानलाचार्य वेदों के बहुत बड़े ज्ञाता हैं। वैदिक साहित्य की नस-नस से आप वाकिफ़ हैं। वेनफी, रोट और मोक्षमूलर से आपने वेद पढ़े हैं। पश्चिमी दुनिया मे इस त्रिमूर्ति को वेदज्ञ-शिरोमणि कहना चाहिए। इसी से आचार्य्य मुग्धानल वेद-विद्या मे इतने निष्णात हैं। इसके सिवा काव्य, कोश, व्याकरण आदि विषयों में भी आपकी अच्छी गति है, पर विशेष करके आप वेदों ही के अध्ययन और वेदों ही के तत्त्वार्थ-प्रकाशन मे लीन रहते हैं। आपने एक संस्कृत-कोश भी प्रकाशित किया है; एक संस्कृत-व्याकरण भी लिखा है। कितने संस्कृत-ग्रन्थों का आपने सम्पादन किया है, इसकी तो गिनती ही नहीं। हम उनके नाम देने में असमर्थ हैं। हमे सबके नाम ही नहीं मालूम, दें कैसे।

डाकृर मेकडॉनल ने एक बहुत महत्त्व-पूर्ण पुस्तक लिखी है। उसमे आपने वैदिक देवताओं का वर्णन बड़ी ही योग्यता से किया है। वेदों मे जो कितनी ही कथायें और अन्योक्तियाँ हैं उन सबका डाकृर साहब ने उसमें विचार किया है। उसके लिखने मे आपने बड़ा पाण्डित्य दिखाया है; बड़ा परिश्रम किया है। पण्डित शिवशङ्कर शर्मा जी ने "त्रिदेव-निर्णय" नाम की एक पुस्तक लिखी है। उसकी समालोचना सरस्वती में निकल चुकी है। पण्डितजी को चाहिए कि आचार्य्य [ ४२ ]मुग्धानल की यह पुस्तक अवश्य पढ़ें। आचार्य्य ने एक और भी प्रगाढ-पाण्डित्य-पूर्ण ग्रन्थ लिखा है। वह छप रहा है। अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ। यह ग्रन्थ वैदिक व्याकरण है। कई वर्षों के सतत परिश्रम से आपने इसे लिख पाया है। प्रकाशित होने पर, सुनते हैं, यह ग्रन्थ अपने ढँग का एक ही होगा। आपका लौकिक व्याकरण प्रकाशित हुए बहुत दिन हुए; अब वैदिक व्याकरण भी प्रकाशित होने जाता है। दोनों व्याकरणों के आप उत्कृष्ट ज्ञाता मालूम होते हैं।

पर आचार्य्य मुग्धानल का, संसार को चकित करनेवाला, कार्य्य अभी होने को है। जिन दो ग्रन्थो का नाम ऊपर हमने दिया है उन्हे इस “महतो महीयान्” कार्य्य की भूमिका मात्र समझिए। आप ऋग्वेद का एक सर्वसुन्दर अनुवाद अँगरेज़ी भाषा में लिखकर प्रकाशित करना चाहते हैं। यह अनुवाद आपका “Complete” (पूर्ण) होगा और “Scientifie” ( शास्त्रसम्मत अथवा विज्ञानसिद्ध ) भी होगा। इसके लिए आप अभी से तैयारियाँ कर रहे हैं। शीघ्र ही आप उसका आरम्भ करनेवाले हैं। विदेशी विद्वानों की राय है कि ऐसा अनुवाद कहीं अब तक प्रकाशित नहीं हुआ। “Sacred Books of the East” ( पौर्वात्य पवित्र-पुस्तक-माला ) में जो अनुवाद निकला है वह पूरे का दशांशमात्र है।

आचार्य्य महाशय की महत्त्वाकांक्षा यहीं तक न ममझिए। आप ऋग्वेद का अनुवाद करके एक और बृहद् ग्रन्थ लिखने [ ४३ ]का इरादा रखते हैं। आप जो इस देश में विचरने आये थे उसके कई मतलब थे। एक मतलब आपका था-एक बहुत बड़े कोश के लिए सामग्री एकत्र करना। इसमें भारतवर्ष की पौराणिक और धार्मिक बातों का भाण्डार रहेगा। प्रत्येक बात का-प्रत्येक कथा का प्रत्येक धार्मिक विचार का―ऐतिहा- सिक रीति से विचार किया जायगा। इसमे जगह-जगह पर चित्र भी रहेंगे। सारा कोश सचित्र निकलेगा।

आक्टोबर १९०७ में आचार्य्य ने भारतभूमि में पदार्पण किया था। आप कोई ६ महीने इस देश में घूमे। आपने इस देश के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध प्राचीन स्थानों में भ्रमण किया। हिन्दू-धर्म्म क्या चीज़ है, इसको ध्यान से देखा। आपकी इच्छा हस्तलिखित पुरानी संस्कृत-पुस्तकें प्राप्त करने की भी थी। शायद बहुत सी पुस्तकें आप कौडी-मोल विलायत ले भी गये हों। एक अख़बार में हमने पढ़ा था कि यहाँ के "Native" (एतद्देशीय) संस्कृत-विद्वानों से मिलकर संस्कृत- विद्या की उन्नति के विषय मे कुछ सूचनाये भी करने का आप इरादा रखते थे। भारतवर्ष में जितने अच्छे-अच्छे संस्कृत- पुस्तकालय हैं, जितने अच्छे-अच्छे प्राचीन-वस्तु-संग्रहालय हैं, जितने अच्छे अच्छे कालेज हैं सब देख-भालकर तब आप स्वदेश को लौटे हैं।

डाक्टर मेकडॉनल विदेशी होकर भी संस्कृत से इतना प्रेम रखते हैं। सात समुद्र पार करके आप यहाँ आये। बहुत [ ४४ ]श्रम और बहुत ख़र्च आपने उठाया। यह सब विशेष करके इसलिए कि वैदिक संस्कृत-साहित्य-सम्बन्धी अच्छे-अच्छे ग्रन्थ आप लिख सकें। आपका यह सदुद्योग सर्वथा प्रशंसनीय और अभिनन्दनीय है। यहाँ के “नेटिव” विद्वानों के “मन- मुकुर” का मालिन्य न मालूम कब दूर होगा। न मालूम कब वे सोत्साह संस्कृताध्ययन में लगेंगे, कब वे अनुसन्धान- पूर्वक नई-नई बातें जानने का यत्न करेगे: कब अच्छी-अच्छी पुस्तकें लिखने अथवा पुरानी पुस्तकों का पुनरुद्धार करने के लिए अग्रेसर होंगे। स्वामी-नारायण-सम्प्रदाय-सम्बन्धी व्यवस्था देने, अथवा एकादशी आज है या कल, इस पर विवाद करते बैठने आदि कामो से उन बेचारों को अवकाश कहाँ!

आचार्य्यवर मुग्धानल इस देश के विद्वानों से मिलने की इच्छा से भी भारत भ्रमण करने आये थे। आपके इस सद्भाव और सदुद्देश की हम प्रशंसा करते हैं। नहीं कह सकते आपने इस देश के किन-किन विद्वानों से वार्त्तालाप किया, किम-किस विषय में वार्तालाप किया और उन्हें कैसा पाया। आप तो यहाँ के संस्कृतज्ञो को कोई चीज़ ही नहीं समझते। फिर उनसे मिलकर आप क्या फ़ायदा उठा सकते हैं?

डाक्टर मेकडॉनल संस्कृत-शिक्षा के बड़े पक्षपाती हैं। आपकी राय है कि जो लोग “सिविल सर्विस” की परीक्षा पास करके इस देश में अफसरी करने आते हैं वे यदि विलायत ही से संस्कृत पढकर आवें तो अँगरेज़ी राज्य की जड पाताल [ ४५ ]चली जाय और भारत की प्रजा की सुख-समृद्धि भी बहुत बढ़ जाय। भारतवर्ष के नालायक़ पण्डितों से संस्कृत पढ़ने से विशेष लाभ की सम्भावना नहीं। क्योकि ये लोग गुण- दोष-परीक्षापूर्वक सस्कृत पढ़ाना नहीं जानते। ये लोग सूक्ष्म- दर्शी नहीं। इससे “सिविल सर्विम” वालों को आचार्य महोदय ही से संस्कृत पढ़कर यहाँ आना चाहिए। यह सूचना आपने अपने छात्रों की संख्या बढ़ाने के लिए नहीं, किन्तु भारतवर्ष और इँगलेड दोनो के लाभ के लिए दी है। डाक्टर मेकडॉनल ने ऐसो हो अनेक निरर्गल बातों से भरा हुआ एक लम्बा लेख लन्दन की रायल एशियाटिक सोसायटी के जुलाई १९०६ ईसवी के जर्नल मे प्रकाशित कराया है। आपकी ये सब मधुर, मनोहर बातें यहाँ के कुछ लोगों को मीठी नहीं लगी। बम्बई के एल्फिन्स्टन कालेज में पण्डित श्रीधर राम- कृष्ण भाण्डारकर, एम॰ ए॰, संस्कृताध्यापक हैं। उन्होंने आचार्य्य महोदय के लेख का खण्डन लिखा। आपके प्रायः प्रत्येक आक्षेप की असारता उन्होंने दिखलाई। जवाब बहुत ही माक़ूल हुआ। उसे उन्होने बम्बई की एशियाटिक सोसा- यटी के जर्नल में छपने के लिए भेजा। परन्तु सोसायटी के मन्त्री महाशय ने उसे प्रकाशित करने से इनकार किया। आपकी राय हुई कि इस उत्तर में विवादाश अधिक है; इससे सोसायटी के जर्नल में नहीं छप सकता। अच्छा फ़ैसिला

हुआ। आचार्य्य जो कुछ कहे कह सकते हैं; जो कुछ छपावें [ ४६ ]
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विदेशी विद्वान्


छपा सकते हैं। और लोग उनकी बराबरी किस क़ानून की रू से करने का हक़ रखते हैं? खै़र, लाचार होकर, श्रीधरजी ने अपना उत्तर पुस्तकाकार छपाया और उसका विपुल वितरण किया।

आचार्य की आज्ञा है कि जो लोग विलायत से संस्कृत पढ़कर आवेगे वे हमारे धर्मशास्त्र की पुस्तकें ख़ुद ही पढ़कर न्याय ख़ूब कर सकेंगे। गुण-दोष-विवेचना-शक्ति-हीन पुराने ढर्रे के पण्डितों से पढ़ने से जो बातें उन्हे न सूझेंगी वे विलायत से पढ़कर आने पर आप ही आप सूझ जायँगी। हम कहते हैं कि जो विद्वान् एक सतर तक सही संस्कृत नहीं लिख सकते और जो इस देश में क़दम रखते हो संस्कृत बोलना भूल जात हैं उनके छात्र मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियाँ क्या समझेगे ख़ाक! पहले उनके गुरु तो अच्छी तरह समझ ले। ये योरप के संस्कृत-विद्वान् वैदिक साहित्य मे चाहे भले ही भारतवासियों से बढ़ जायँ, क्योंकि वेदाध्ययन के लिए वहाँ विशेष सुभीता है, परन्तु और बातों में यहाँ वालो से अधिक विज्ञता प्राप्त करने की आशा रखना व्यर्थ है। यहा किसी कालेज के अँगरेज़ो भाषा के प्रोफेसर को यदि एक लाइन भी अँगरेज़ी लिखना न आवे, या वह अपने मन का भाव अपने अँगरेज़-अफसर के सामने अँगरेज़ी में न प्रकट कर सके, तो वह उसी दिन निकाला जाय। पर गाटिजन और ट्याक्सफ़र्ड के संस्कृताचार्य यदि एक वाक्य भी संस्कृत में शुद्ध न लिख सकें तो भी कुछ हानि नहीं; तो भो वे [ ४७ ]
भारत के पण्डितों को नालायक़ ठहराने के लायक़ समझे जायँ; तो भी वे संस्कृत के बड़े-बड़े छः-छः रुपये क़ीमत के व्याकरण लिख डाले!

आचार्य्य मुग्धानल के गुरुवर सर मानियर विलियम्स द्वारा सम्पादित, कालिदास के शकुन्तला नाटक की एक आवृत्ति है। उसमे―“किमत्र चित्रं यदि विशाखे शशाङ्कलेखामनुवर्तेते” इस पंक्ति का अर्थ गुरुवर ने किया हैं―“यदि चन्द्रमा के साथ संयोग होने के लिए विशाखा इतनी उत्सुक है तो शकुन्तला का चन्द्रवँशी दुष्यन्त के साथ सयोग की कामना करना कोई आश्चर्य्य की बात नहीं। शायद दुष्यन्त ने अपनी तुलना चन्द्रमा से और शकुन्तला की विशाखा से की है।”

तो क्या कालिदास ऐसे अहमक़ थे कि दुष्यन्त को चन्द्रमा बनाने के लिए, पुल्लिङ्ग “शशाङ्क” शब्द को स्त्रीलिङ्ग “शशाङ्क-लेखा” करना पड़ा? और क्या अकेली एक शकुन्तला को विशाखा बनाने के लिए “विशाखा” शब्द को द्वि-वचन में रखना पड़ा? साहब ने कालिदाम का काव्य पढ़ डाला और अपने सैकड़ों छात्रो को पढ़ा भी डाला; पर आपके ध्यान में यह न आया कि उपमा और उत्प्रेक्षा आदि अलङ्कारो में कालिदास ने लिङ्ग और वचन की एकता का बड़ा ख़याल रक्खा है। हाय हाय! कालिदास ने कोई बड़ा ही गुरुतर पाप किसी जन्म मे किया था; उसी का प्रायश्चित्त गुरुवर मानियर विलियम्स द्वारा आक्सफ़र्ड में उनसे कराया [ ४८ ]
गया है। विशाखा नक्षत्र मे दो तारे हैं। इसी से इस शब्द को द्वि-वचन में रखकर शकुन्तला की दोनो सखियों को कवि ने विशाखा बनाया है। रही शशाङ्क-लेखा सो उससे मतलब शकुन्तला से है। प्रियंवदा और अनसूया नामक उसकी दोनो सखियों के द्वारा शकुन्तला ही का अनुवर्तन करने की बात कवि ने दुष्यन्त के मुँह से पूर्वोक्त वाक्य में कही है। सो उसके समझान में, देखिए, विलियम्स साहब ने कैसा अर्थ का अनर्थ कर डाला। ऐसे ही आचार्यों के पढ़ाये साहब पण्डित इस देश मे आकर धर्मशास्त्र के ग्रन्थिल विषय बिना पण्डितो की मदद के जान लेगे और न्यायाधीश के आसन पर बैठकर दूध की तरह साफ़ स्वच्छ न्याय करेगे!

सच तो यह है कि इन साहब पण्डितों ने जो किसी- किसी विषय मे विशेष पारदर्शिता दिखलाई है उसका कारण वही गुणदोष-विवेचना-ज्ञान-हीन पण्डित हैं जिन्हे मुग्धा- नलाचार्य इतनी तुच्छ दृष्टि से देखते हैं। वूलर, कीलहार्न. पीटर्सन, आदि ने जो बड़ी-बडी किताबें लिख डालीं सो इस देश के भोले-भाले स्थूलदर्शी पण्डितों ही की कृपा की बदौ- लत। यदि वे यहाँ वर्षों इन पण्डितो से सबक़ न सीखने तो वेदों के विषय मे चाहे भले ही मनमानी कल्पनायें किया करते, पर और विषयों मे कलम उठाने का साहस शायद ही उन्हें होता। फिर भी, पण्डितो से संथा लेकर भी, इन लोगों ने कोई-कोई बड़ी ही हास्यास्पद भूले की हैं। बूलर साहब ने [ ४९ ]‘विक्रमाङ्कदेवचरित’ का सम्पादन किया है। उस काव्य के १८ वे सर्ग मे कवि बिल्हण ने अपना चरित लिखा है। उसमें एक जगह बिल्हण ने कहा है―

भोजः क्ष्माभृत् स खलु न खलैस्तस्य साम्यँ नरेन्द्रै-
स्तत्प्रत्यक्ष किमिति भवता नागतँ हा हतास्मि।
यस्य द्वारोड्डमरशिखरक्रोडपारावतानाँ
नादब्याजादिति सकरुणँ व्याजहारेच धारा॥

इसका तात्पर्य यह है कि धारा नगरी मानो अफ़सोस के साथ बिल्हण से कहती है कि तू भोज के जीते जी क्यों न आया? परन्तु बूलर साहब ने―“तत्प्रत्यक्षं किमिति भवता नागतँ हा हतास्मि” का अर्थ लगाया कि―तू धारानगरी मे जाकर भोज से क्यो न मिला? बूलर साहब ख़ुद तो गढ़े में गिरे ही; पर अकेले नहीं गिरे; साथ हमे भी लेते गये। “विक्रमाङ्कदेव- चरित-चर्चा” लिखने के पहले हमने इस काव्य को अच्छी तरह पढ़ा। जहाँ यह धारा-नगरी-विषयक श्लोक मिला वहाँ हाशिये पर हमने लिख दिया―“धारा को गया”। पर जब पुस्तक लिखने बैठे तब वह बात ध्यान से उतर गई। बूलर साहब की भूमिका के आधार पर हमने लिख दिया कि भोज से मिलने के लिए बिल्हण धारा नगरी को गया ही नहीं। यह भूल हमे मालूम कब हुई जब पण्डित पद्मसिहजी ने हमारी पुस्तक के हाशिये पर हमारा नोट देखा और हमें उसकी सूचना दी। [ ५० ]आचार्य सुग्धानल भारतवर्ष के मामूली पण्डितों ही को नालायक़ नहीं ठहराते। आपकी राय है कि यहाँ के स्कूलों और कालेजो के संस्कृतज्ञ अध्यापक भी योग्यता से ख़ाली हैं। न उन्हे परीक्षा-पत्र अच्छे बनाने आते हैं और न उन्हे पाठ्य- पुस्तकें ही चुनने का शऊर है। आपका ख़याल है कि यहाँ के शिक्षा-विभाग के डाइरेक्टर संस्कृत नहीं जानते। इसी से अच्छी पुस्तकें नहीं चुनी जाती। आचार्य समझते हैं कि यदि डाइरेक्टर साहब संस्कृत जानते तो अच्छी पुस्तकें चुन देते। आपको यह ख़बर नहीं कि पाठ्यपुस्तकें चुनने का काम या तो “सीनेट” के प्रबन्ध से होता है, या विश्वविद्यालय के नियत किये हुए “वोर्डस् आव् स्टडीज़” के प्रबन्ध से या ख़ास कमेटियों की सिफ़ारिश से। इनमे संस्कृत के बड़े-बड़े विद्वान् रहते हैं। बेचारे “नेटिव” अध्यापकों पर हो इसका भार नहीं रहता। किन्तु आचार्य के समकक्ष गौराङ्ग-गुरु टीबो, वीनिस. इविड्, ऊलनर और फ़िलिप्स आदि भी रहते हैं। और जब बुलर, फूरर, कीलहान और पीटर्सन थे तब वे भी पाठ्य-पुस्तक-निर्वाचन करने की कृपा किया करते थे। यही नहीं, किन्तु कितने ही गौराङ्ग विद्वान् परीक्षक भी नियत होते हैं। अतएव पाठ्यपुस्तकों और संस्कृत के परचों से यदि भारतवासी अध्यापकों की अयोग्यता झलकती है तो विलायत- वासियों को क्यों नहीं? इसलिए नहीं, क्योंकि वे आचार्य के देश, द्वीप या भूमिखण्ड के वासी हैं। [ ५१ ]आचार्य मुग्धानल शायद चाहते हैं कि “नेटिव” संस्कृता- ध्यापक एकदम ही कालेजों से निकाल बाहर किये जायँ। उनके निकल जाने से पुस्तके भी अच्छी चुनी जाने लगेंगी और परीक्षा-पत्र भी अच्छे बनने लगेंगे। एक बात और भी होगी। यह जो बी॰ ए॰, एम॰ ए॰ वालों को काव्यप्रकाश, वेदान्त- सूत्रभाष्य और न्याय पढ़ाना पड़ता है सो भी पढ़ाना बन्द हो जायगा। योरप के दिग्गज पण्डितो को ये विषय पढ़ाना मानो लोहे के चने चाबना है। कई बार इन लोगो ने कोशिश करके इनका अध्यापन बन्द कराना चाहा; पर कामयाबी न हुई। सो यह बात उन्हे अब तक खटक रही होगी। साहब आचार्यों की राय है कि ये विषय संस्कृत के साधारण साहित्य के बाहर हैं। क्यो न हो! पर विलायत के विद्यालयों मे जो ग्रीक भाषा पढ़ाई जाती है, अरिस्टाटल और प्लेटो के दार्श- निक ग्रन्थ उसके साहित्य के ठीक भीतर हैं। क्यों? इस लिए कि उन्हे साहब लोग पढ़ा सकते हैं; पर गौतम, शङ्करा- चार्य और मम्मट के ग्रन्थों को नहीं पढ़ा सकते।

डाक्टर सेकडॉनल का सबसे बड़ा आक्षेप इस देश के संस्कृतज्ञों पर यह है कि वे वैज्ञानिक किंवा शास्त्रीय रीति (Scientific method) से व्याकरण और पुरातत्त्वादि विषय पढ़ना-पढ़ाना नहीं जानते। अतएव जिन्हे इन विषयों का अध्ययन करना हो उन्हें विलायत ही से संस्कृत पढ़कर इस देश मे आना चाहिए। बहुत दुरुस्त! “यथाज्ञापयति देवः!” [ ५२ ]
डाक्टर भाऊदाजी, डाक्टर भाण्डारकर, डाक्टर भगवानलाल इन्द्रजी, डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र, पण्डित श्याम शास्त्रो आदि इस देश के विद्वान संस्कृत पढ़ने आक्सफ़र्ड गये थे! जो कुछ थोड़ा-बहुत काम इन लोगों ने किया है सब आक्सफ़र्ड के “बाँउन प्रोफ़ेसर आव् संस्कृत” के शिक्षा-प्रसाद से!

मुग्धानलाचार्य्य ने इसी तरह के कितने ही निर्मूल आक्षेप इस देश के संस्कृतज्ञों पर करके यह सिद्ध करना चाहा है कि―“सिविल सर्विस” वाले आपसे संस्कृत पढ़वाकर यहाँ भेजे जाया करें और अँगरेज़ों को यहाँ कालेजों में अच्छी- अच्छी तनख़्वाहो ही पर प्रोफ़ेसरी दी जाया करे। सारा मतलब यह कि आपका क्लास भरा रहे और आपके देशवासियो का पेट। स्वार्थ, तेरी जय! आपकी स्वार्थपर और निन्दामूलक एक-एक बात का उत्तर श्रीयुक्त श्रीधरजी ने अँगरेज़ी मे दे दिया है। इस बात को कोई डेढ़ वर्ष हुए। अतएव आचार्य्य मुग्धानल की कालकूट-गर्भित उक्तियों का निदर्शन मात्र ही यहाँ पर बस होगा।

आचार्य्य मुग्धानल की दो पुस्तकें यहाँ के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। एक तो आपका संस्कृत-व्याकरण, दूसरा संस्कृत-भापेतिहास। आश्चर्य्य है, ऐसे भारतीय-पण्डित-द्वेपी विद्वान् की पुस्तकें भारत ही में प्रचलित की गई। इन पुस्तकों में बहुत सी बातें समालोच्य हैं। आपका संस्कृवेतिहास और लोगों के इतिहास की अपेक्षा ज़रूर अच्छा है; पर उसमें भी [ ५३ ]
भ्रमपूर्ण बातें लिखी गई हैं। उनमें से एक-आध बात की समा- लोचना हम जून १९०७ की सरस्वती में कर भी चुके हैं। धीरे-धीरे और बातों की भी समालोचना करने का विचार है। आपकी पुस्तकों में कितनी ही भूलें हैं और बड़ी-बड़ी भूले हैं। आपने “बृहदेवता” नाम की पुस्तक का जो अनुवाद अँगरेज़ी में किया है उसमे श्रीधरजी ने, नमूने के तौर पर, दो-एक ऐसी- ऐसी ग़लतियाँ बतलाई हैं जिन्हें देखकर मुग्धानलजी की संस्कृत- सम्बन्धी अज्ञता किंवा अल्पज्ञता पर दया आती है।

हमारे विश्वविद्यालय के नायकों ने मुग्धानल का संस्कृत- व्याकरण, कालेज की प्रारम्भिक पाठ्य-पुस्तकों में, रक्खा है। उसी को पढ़कर भारतीय युवक सही-सही संस्कृत लिखना और बोलना सीखते हैं। आपका रचा हुआ संस्कृत-भाषेतिहास बी॰ ए॰ में पढ़ाया जाता है। उसका तेरहवाँ अध्याय दृश्य- काव्यों के विषय में है। उसमे आचार्य्य ने संस्कृत-नाटकों के दो-चार पद्यों का अनुवाद अँँगरेज़ी में दिया है। उसके विषय मे बहुत कुछ कहने को जगह है।

दुष्यन्त शकुन्तला को देखकर और उसकी सुन्दरता पर मुग्ध होकर मन ही मन कहता है―

सरसिजमनुबिद्धँ शैवलेनापि रम्यँ
मलिनमपि हिमाँशार्लक्ष्मी लक्ष्मीं तनोति।
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी
किमिव हि मधुराणाँ मण्डनँ नाकृतीनाम्?

[ ५४ ]राजा लक्ष्मणसिह-कृत इसका अनुवाद यह है―

“सरसिज लगत सुहावनो यदपि लियो ढकि पंक।
कारी रेख कलँकहू लसति कलाधर अंक॥
पहरे वल्कल बसन यह लागत नीकी बाल।
कहा न भूषण होइ जो रूप लिख्यो विधि भाल॥”

शकुन्तला के रूप-वर्णन की यह बहुत ही सरस और सनोहारिणी उक्ति है। सहृदय मात्र इसके प्रमाण हैं। परन्तु कालिदास की यह उक्ति मुग्धानल को नहीं भाई। आपने कालिदास के उस श्लोक को अच्छा समझकर अनुवाद किया है जिसमें कवि ने शकुन्तला की उपमा लता से दी है। श्लोक यह है―

अधरः किसलयराग. कोमलविटपानुकारिणौ बाहू।
कुसुममिव लोभनीयँ यौवनमङ्गे सन्नद्धम्॥”

राजा लक्ष्मणसिंह ने इसका अनुवाद किया है―

“अधर रुचिर पल्लव नये, भुज कोमल जिमि डार।
“अङ्गन में यौवन सुभग, लसत कुसुम उनहार॥

इस श्लोक की अपेक्षा ऊपर का श्लोक कितना अच्छा है, इसका विचार पाठक ही करे। पर मुग्धानल साहब कहते हैं कि शकुन्तला की सुन्दरता पर मुग्ध होकर ( struck by her beauty ) दुष्यन्त ने “अधरः किसलयरागः” ही अपने मुँह से कहा। “मुग्ध” होने की बात मूल में तो कहीं है नहीं। पर कविता की मनोहरता और उसके लोकोत्तर भाव [ ५५ ]
को देखकर सम्भावना यही कहती है कि जिस समय दुष्यन्त ने “सरसिजमनुबिद्धँ” वाला श्लोक कहा था उसी समय शकु- न्तला की सुन्दरता का सबसे अधिक प्रभाव उसके हृदय पर हुआ होगा। अतएव यहाँ मुग्धानल साहब पर अरसिकता- दोष आये बिना नहीं रह सकता।

कण्व ने अपने एक शिष्य से कहा कि देख आ, कितनी रात है? उसने आश्रम-कुटीर के बाहर आकर देखा तो प्रात:- काल हो गया था। इस पर वह कहता है―

अन्तर्हि ते शशिनि सैव कुमुदूती में
दृष्टिं न नन्दयति संस्मरणीयशोभा।
इष्टप्रवासजनितान्यबलाजनस्य
दुःखानि नूनमतिमात्रसुदुःसहानि॥

इसका अर्थ राजा लक्ष्मणसिंह करते हैं―“चन्द्रमा के अस्त होने पर कुमुदिनी की शोभा केवल ध्यान में रह गई है। अर्थात् देखने में नहीं है, परन्तु सुध में है कि ऐसी थी। जिन नई स्त्रियों के पति परदेश हैं उनको वियोग का दुःख सहना बहुत कठिन है।” इसी भाव को उन्होंने पद्य मे इस प्रकार दिखाया है―

अस्ताचल पहुँच्यो शशि जाई। दई कुमुदिनी छबि बिसराई
दृगन देति अब आनँद नाहीं। आय रही छबि सुमरन माहीं
जिन तिरियन के प्रीतम प्यारे। देस छोड़ि परदेस सिधारे
तिनके दुख नहिं जात कहेहू। अवलन पै क्यों जात सहेहू

[ ५६ ]कालिदास के पद्य में “शशिनि” बहुत ही यथार्थ पद है।

“शश” कहते हैं कलङ्क को। चन्द्रमा कलङ्की है। इसी से उसका नाम शशिन् हुआ। और, कलङ्की का अस्त हो जाना उचित ही है। इसी से इस पद को राजा साहब ने अपने अनुवाद में रहने दिया है। इस श्लोक में और भी विशेषतायें हैं। श्लोक के प्रथमार्द्ध में शशी के अस्त होने से कुमुदिनी को शोभाहीन बतलाकर कवि ने समासोक्ति-अलङ्कार द्वारा यह सूचित किया है कि बिना नायक के नायिका अच्छी नहीं लगती। अर्थात् चन्द्रमा और कुमुदिनी का विशेष दृष्टान्त देकर नायक-नायिका-सम्बन्धी एक सर्व-साधारण नियम की सूचना दी है। पर उत्तरार्द्ध मे कवि ने इसका बिलकुल उलटा किया है। वहाँ उसने जो यह कहा है कि पति के परदेश-वासी होने से अवला (जो बलहीन हैं) मात्र को वियोग का दुःख दुःसह हो जाता है, सो एक सर्व-साधारण नियम है। इस साधारण नियम से अर्थान्तरन्यास-अलङ्कार द्वारा यह विशेष अर्थ निकलता है कि जब सभी अबलाओं को पति का वियोग दुःसह हो जाता तब चन्द्र-पति के अस्त हो जाने पर कुमुदिनी- पत्नी को उसका वियोग दुःसह होना ही चाहिए।

आचार्य्य मुग्धानल ने इसका कैसा अनुवाद किया है सो अब सुनिए―


The moon has gone; the lilies on the lake,
Whose beauty lingers in the memory, [ ५७ ]
No more delight my gaze. they droop and fade; Deep is their sorrow for their absent lord.

संस्कृत शब्द “शशिन्” कहने से जो भाव हृदय मे उदित होता है वह मुग्धानल के “Moon” ( चन्द्र ) से कभी नहीं होता। ख़ैर, इसे हम अँगरेज़ी भाषा की न्यूनता समझ लेते हैं। ( They droop and fade ) अर्थात् वे मुरझा जाती हैं—यह आपने अपनी तरफ़ से जोड़ दिया है। ख़ैर, यह भी क्षमायोग्य निरङ्कुशता है; क्योंकि मुरझाने, कुम्हलाने या झुक जाने का भाव ध्वनि से निकल सकता है। पर आचार्य्य ने चौथी लाइन में जो यह लिखा है कि―“अपने अनुपस्थित ( ग़ैर हाज़िर ) पति के कारण उन्हें बहुत बड़ा दुःख है”― सो किसी तरह क्षमायोग्य नही। पहले तो “प्रवास” का पूरा-पूरा अर्थ “absent” ( अनुपस्थित―ग़ैर हाज़िर ) से नहीं निकल सकता, क्योंकि “अनुपस्थिति” से थोड़ी देर का भी अर्थ निकल सकता है, पर “प्रवास” से नहीं। फिर यह कहना कि कुमुदिनियों का पति घर पर नहीं है, इससे उन्हे महादुःख हो रहा है, मानों कालिदास के भावार्थ का सत्या- नाश करना है। कवि तो प्रत्यक्ष तौर पर कुमुदिनियों के दुःख की बात ही नहीं कहता। वह तो कहता है कि जितनी स्त्रियाँ―नहीं अबलायें―हैं सभी को पति का वियोग खलता है। जब सभी का यह हाल है तब कुमुदिनियो को दुःख होना ही चाहिए। वे स्त्री-जाति से बाहर नहीं। यहाँ पर [ ५८ ]
अबलाजन की बात साधारण है; कुमुदिनियों की विशेष। कवि ने साधारण से विशेष की उद्भावना की है; विशेष से साधारण की नहीं। सो आचार्य्य मुग्धानल ने सभी उलट-पुलट कर डाला।

शकुन्तला में एक पद्य सर्वोत्तम समझा जाता है। वह उस समय का है जिस समय पति के घर जाने के लिए शकु- न्तला कण्व से बिदा होती है। इस श्लोक का उत्तरार्द्ध है―

वैलव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्याकसः
पीड्यन्ते गृहिण कथँ न तनयाविश्लेपदुःरवैर्नवैः।

अर्थात् ――

मोसे बनवासीन जो इतौ सतावत मोह।
तौ गेही कैसे सहे दुहिता प्रथम विछोह॥

यह पद्य पदजीवी है। इसमें “गृहिणः” पद सारे श्लोक का जीव है। इसी से राजा लक्ष्मणसिंह ने इसे अपने अनु- बाद से नहीं जाने दिया। देखिए आपके दोहे में “गेही” विद्यमान है। पर भारतवर्ष के पण्डितो पर सूक्ष्मदर्शी न होने का वृथा कलङ्क लगानेवाले मुग्धानल महोदय को यह बात नहीं सूझी। आपने “गृहिणः” पद की योग्यता को बिलकुल न जानकर उसे अनुवाद से निकाल बाहर किया है। उसकी जगह पर आपने रक्खा क्या है “फ़ादर”―पिता! आपने पूर्वोक्त पवार्द्ध का अनुवाद किया है―

But if the grief
of an old forest hermit is so great,

[ ५९ ]How keen must be the pang a father feels

When freshly parted from a cherished child.

यहाँ पर “फ़ादर” (पिता) से कभी वह अर्थ नहीं निकल सकता जो गेही या गृहस्थ से निकलता है। श्लोक मे वनवासी और गृहस्थ का मुक़ाबला है। कण्व न तो शकु- न्तला के पिता थे; न गृहस्थ। तिस पर भी शकुन्तला से बिदा होते समय वे विह्वल हो उठे। अब यदि वे उसके पिता होते और वन में भी रहते होते तो उनकी विकलता और भी बढ़ती। और यदि कहीं पिता होकर वे गृहस्थ भी होते तो उनकी विक- लता का कहीं ठिकाना न रहता। यदि किसी कन्या का पिता वन मे तपस्वी हो तो उसे अपनी कन्या से बिदा होते समय जितना दुःख होगा उससे कई गुना अधिक उस कन्या के पिता को होगा जो घर मे रहता होगा―जो गृहस्थ होगा। कारण यह है कि अरण्यवासी तपस्वी त्यागी होते हैं, मनो- विकारो के वे कम वश मे होते हैं; पर गृहस्थ आदमियों को माया-मोह वेतरह सताता है। इसी से उन्हे कन्या से हमेशा के लिए बिदा होते समय अत्यधिक दुःख और कातर्य्य होता है। पर यह इतनी मोटी बात सूक्ष्मदर्शी मुग्धानलाचार्य्य महो- दय के ध्यान में नहीं आई जान पड़ती।

दुष्यन्त अपने पुत्र को देखकर मन ही मन कहता है―


अनेन कस्यापि कुलांकुरेण स्पृष्टस्य गात्रेषु सुखं ममैवम्।
कां निवृतिं चेतसि तस्य कुर्य्याद्यस्यायमङ्कात् कृतिनः प्ररूढः॥

[ ६० ]अर्थात् किसी अपरिचित के इस बालक का मेरे शरीर में केवल एक-दो जगह स्पर्श हो जाने ही से मुझे इतना आनन्द हुआ, तो जिस भाग्यशाली की गोद में बढ़कर यह इतना बड़ा हुआ है उसके हृदय में यह न मालूम कितना आनन्दातिरेक पैदा करता होगा।

इसका अनुवाद आचार्य मुग्धानल ने किया है—

If now the touch of but a stranger's child
Thus sends a thrill of joy throughout all my limbs,
What transports must be wakened in the soul
Of that blest father from whose ]oins he sprang!

इसकी पहली दो सतरों का मतलब है कि किसी अपरिचित मनुष्य के इस लड़के के स्पर्श ने मेरे सब अङ्गो में सुख की सनसनाहट पैदा कर दी है। आचार्य्य ने "गात्रेषु" का अन्वय "सुख" के साथ किया है, "स्पृष्टस्या" के साथ नहीं; पर हमारी तुच्छ बुद्धि में यह भारी भूल है। कालिदास का भाव दुष्यन्त के कुछ अङ्गों में उस बालक के शरीर का स्पर्श हो जाने से है; सब अङ्गों में सुख होने से बिलकुल नहीं है। प्रिय वस्तु को देखने अथवा छूने से सुख सारे शरीर को होता ही है। उसके कहने की क्या ज़रूरत? उँगली में आलपीन चुभ जाने से वेदना का अनुभव यदि सारे शरीर को होता है [ ६१ ]
तो पुत्र का स्पर्श हाथ, छाती, या मुख में हो जाने पर भी सारे शरीर में सुख-सञ्चार होना चाहिए। खैर, यह तो एक बात हुई। दूसरी बात यह है कि आचार्य्य ने कालिदास के “कृतिनः” पद का अनुवाद “Father” ( पिता ) जो किया है सो भी ग़लत है। आचार्य्य को “पिता” शब्द से बड़ा प्रेम मालूम होता है। “गृहिणः” ( गृहस्थ ) का भी अर्थ आपने पिता कर दिया और “कृतिनः” का भी! “कृती” का अर्थ है पुण्यवान्, भाग्यशाली। सो लड़के का पालन-पोषण करने- वाले पिता, चचा, मामू, भाई सभी पुण्यवान् और सौभाग्य- शाली हो सकते हैं। तीसरी बात यह है कि मुग्धानलाचार्य्य ने “अड्कत्प्ररूढः” का अर्थ जो “From whose loins he sprang” किया है सो अशुद्ध होने के सिवा उद्वेगजनक भी है। कालिदास का मतलब है कि जिसके अङ्क में, गोद में, उत्सङ्ग में, खेल-कूदकर यह इतना बड़ा हुआ है उसे न मालूम इसका स्पर्श कितना सुखदायक होगा। पर आचार्य्य के अँगरेजी-वाक्य का अर्थ है “जिसकी कमर से यह निकला या निकल पड़ा है उसके अन्तःकरण मे यह न मालूम कितना सुख उत्पन्न करेगा?” अब सोचने की बात है कि भला कालि- दास ऐसी जघन्य बात कभी अपने मुँह से निकाल सकते हैं? “प्ररूढः” का अर्थ यहाँ बढ़ने या बड़े होने का है, पैदा होने या निकलने का नहीं। “Loins” का अर्थ अँगरेज़ी कोश- कार “कमर” ही लिखते हैं; पर आचार्य्य ने उसे “Lap” के [ ६२ ]
अर्थ मे प्रयोग किया है! सम्भव है, इस शब्द का अर्थ “गोद” भी होता हो। इसके प्रमाण अँगरेज़ी-विद्या-विशारद विद्वान् हैं। वही इसका निर्णय करे।

डाकूर मेकडॉनल ने अपने संस्कृत-भाषेतिहास के १२वें अध्याय में छोटे-छोटे काव्यों पर भी कुछ लिखा है। ऋतु- संहार की आपने बड़ी तारीफ़ की है। इस काव्य के तीसरे सर्ग में शरहतु का वर्णन है। उसका आदिम श्लोक है―

काशांशुका विकचपद्ममनोज्ञवक्ता
सोन्मादहँसरवनुपुरनादरम्या।
आपक्वशालिरुचिरा तनुगात्रयष्टिः
प्राप्ता शरन्नववधूरिव रूपरम्या॥

अर्थात् नव-विवाहिता वधू की तरह रमणीय रूपवाली शरद् आ गई। काश अथवा कास के फूल इसकी पोशाक है। खिला हुआ मनोमोहक कमल-समूह इसका मुख है। उन्मत्त हँसों का शब्द इसके नूपुरों की ध्वनि है। पके हुए धान के खेतों की शोभा इसके पतले गात की सुवरता है। इसका अर्थ मुग्धानल साहब करते हैं―

“Next comes the autumn, beautoous as a newly wedded bride, with face of full-blown lotuses, with robe of sugarcane and ripening rice, with the cry of flamingoes lepresenting the tinkling of her anklets” [ ६३ ]इसमें आपने “तनुगात्रयष्टिः” का अर्थ करने की ज़रूरत ही नहीं समझी, और―“काशांशुका” और “आपक्वशालि- रुचिरा” का अर्थ आपने किया है―“Withrobe of sug- arcane and ripening rice”―अर्थात् ईख और पकते हुए धान जिसकी पोशाक हैं। यह अर्थ ख़ूब रहा। आचार्य्यो के योग्य ही हुआ। ईख बेचारी का तो कही ज़िक्र ही नहीं। न मालूम साहब ने उसे कहाँ पाया। शायद आपकी पुस्तक मे “इत्वंशुका” पाठ रहा हो। पर सम्भावना कम है। क्योकि यहाँ पर कालिदास का मतलब कास के सफ़ेद फूलों ही से है। इस बात को सर्ग के अन्त में उन्होने―“विक- सितनवकाशश्वेतवासो वसाना”―कहकर स्पष्ट कर दिया है। शरद् ऋतु लगते ही कास फूलता है। यह लोक प्रसिद्ध बात है। उसी को लक्ष्य करके कालिदास ने लिखा है। सो कास को आपने ईख कह दिया। अच्छा, इसे हम पाठान्तर माने लेते हैं। पर पकते हुए धान की पोशाक से क्या मत- लब? कास या ईख की पोशाक तो शरद् को पहनाई जा चुकी, अब धान की पोशाक की और क्या ज़रूरत? क्या दो पोशाकें एक ही साथ पहनाई जायँगी? अथवा क्या एक ही पोशाक दो रङ्ग की होगी? कवि का मतलब तो कुछ और ही मालूम होता है। उसका अभिप्राय तो धानो के खेतों के रङ्ग वा रुचिरता से जान पड़ता है। जब धान के खेत पकने को होते हैं तब उनमें पीलापन आ जाता है। वह पीलापन कवियों [ ६४ ]
को है पसन्द। इसी से वे स्त्रियों के वर्ण की उपमा चम्पक, चामीकर और आपक्वशालि से देते हैं। वही बात यहाँ भी है। शरन्नववधू की पतली देह के रङ्ग की रुचिरता बतलाने के लिए कालिदास ने पके हुए ध़ान के खेतों का स्मरण किया है। सो उसका अर्थ मुग्धानल साहब ने कुछ का कुछ करके नवोढ़ा शरद् को धान के पयाल की पोशाक पहना दो! यह भी शायद आपकी पुस्तक मे पाठान्तर होने का फल हो। पर जब तक यह न मालूम हो कि आपकी पुस्तक में क्या लिखा है तब तक आप हमे इस आलोचना के लिए क्षमा करें।

आपकी पुस्तक मे इस तरह की तो अनेक भूले हैं ही। पर और तरह की भी बहुत हैं। उनका फिर कभी विचार करेगे। इस बार इतना ही सही।

सुनते हैं मुग्धानलाचार्य्य महाशय छोटे मोटे आदमियों से पत्र-व्यवहार करना नहीं पसन्द करते। यदि कोई वैसा आदमी आपको पत्र भेजे या आपसे कुछ पूँछे तो आप उसका उत्तर ही नहीं देते। और, अपना फ़ोटो तो कभी किसी ऐसे-वैसे को देते ही नहीं। शायद यही कारण है जो आज तक आपका चित्र अच्छे से अच्छे भारतवर्षीय सामयिक पत्रों में छपा हुआ नहीं देखने में आया। ऐसी बातें या तो गर्व से हो सकती हैं या शालीनता अथवा सङ्कोच से। आपके वेद-विद्या-गुरु भट्ट मोक्षमूलर में ये बातें न थी। वे हमारे सदृश छोटे आदमियों से भी पत्र-व्यवहार करते थे। उन्हें यदि [ ६५ ]
कोई संस्कृत मे पत्र लिखता था तो वे उत्तर में साफ़ कह देते थे कि भाई. हमें संस्कृत लिखने का अभ्यास नहीं। वे बड़े ही सच्चे, साधु-स्वभाव और भारतहितैषी थे। हमने पहले पहल उन्हें एक छोटी सी पुस्तक भेजी। उसके पहुँचते ही आपने अपनी एक पुस्तक हमें भेज दी और साथ ही अपना हस्ता- क्षरित फ़ोटो भी भेजा। इस बात को कोई १८ वर्ष हुए।