विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/१७ कर्म-वेदांत

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विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग  (1923) 
द्वारा स्वामी विवेकानंद, अनुवादक जगन्मोहन वर्मा

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विवेकानंद ग्रंथावली।
ज्ञान योग।
दूसरा खंड।
(१७) कर्म वेदांत।
(लंदन १० नवंबर १८९६)

मुझसे लोगों ने वेदांत दर्शन के कर्मकांड के संबंध में कुछ कहने के लिये कहा है। मैं कह चुका हूँ कि सिद्धांत तो बहुत ही अच्छा है, पर वह व्यवहार में कैसे लाया जाय? यदि व्यव- हार में नहीं लाया जा सकता, तो कोई सिद्धांत क्यों न हो, दो कौड़ी का है, वह केवल मनोविनोदार्थ है। वेदांत यदि धर्म है तो वह अवश्य व्यवहार योग्य होना चाहिए। उसका ऐसा होना आवश्यक है कि वह जीवन के प्रत्येक अंश में काम आ सके। केवल इतना ही नहीं, इससे धर्म और लोक में जो कल्पित (मिथ्या) भेद है, वह मिट जाना चाहिए। कारण यह कि वेदांत तो अद्वैत धर्म है; उसकी शिक्षा सार्वभौम एकता की है। धर्म का भाव तो यह होना चाहिए कि वह जीवन मात्र

में व्याप्त हो, वह हमारे सारे विचारों में भर जाय और अधिक
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से अधिक व्यवहार में लाया जा सके। अब हम आगे उसकी कर्मोपयोगिता का निदर्शन करते हैं। पर ये व्याख्यान आधार- रूप हैं, अतः हम पहले सिद्धांत पर विचार करते हैं। तब हमें जान पड़ेगा कि कैसे बन की गुफाओं से लेकर नगरों और गाँवों तक में उसका व्यवहार रहा है। सब से विशेषता की बात तो यह है कि इनमें बहुत से विचार जंगलों से नहीं आए हैं, किंतु ऐसे लोगों से आए हैं जिन का जीवन सब से अधिक झमेले का था, जो राजा या शासक थे।

श्वेतकेतु आरुणि का पुत्र प्रायः त्यागी ही था। वह वन में ही पाला गया था। पर वह पांचाल के नगर में गया और महा- राज जैवलि प्रवाहन की सभा में पहुँचा। राजा ने उससे पूछा― ‘क्या आप जानते हैं कि प्राणी मरने पर कैसे यहाँ से जाते हैं?’ उसने कहा―‘नहीं’। ‘आप जानते हैं कि वे यहाँ कैसे आते हैं?’ उत्तर ‘नहीं महाराज!’ ‘क्या आप पितृयान और देवयान के मार्ग को जानते हैं?’ उत्तर ‘नहीं महाराज!’ फिर राजा ने और प्रश्न किए, पर श्वेतकेतु एक का भी उत्तर न दे सका। फिर राजा ने उससे कहा―‘आप कुछ नहीं जानते’। बालक अपने पिता के पास गया और पिता ने भी यह मान लिया कि वह भी उन प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता है। यह बात न थी कि वह बालक को बताना नहीं चाहता था, पर वह सचमुच उन्हें जानता ही न था। अतः श्वेतकेतु अपने पिता के साथ राजा के

पास गया और दोनों ने उन रहस्यों को जानने के लिये प्रार्थना [  ]
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की। राजा ने कहा कि अब तक इन बातों का ज्ञान राजानों में ही था; ब्राह्मण लोग इन्हें नहीं जानते थे। अस्तु, उसने उन्हें उनके इच्छित रहस्य को बतलाना आरंभ किया। अनेक उपनिषदों में हमें यह मिलता है कि वेदांत ज्ञान केवल धारणय- को के विचार का ही परिणाम नहीं है, अपितु उसके बहुत ही उत्कृष्ट अंश ऐसे लोगों के मस्तिष्क से निकले हैं जिनका जीवन नित्य के कामों के झमेले में व्यस्त रहता था। हम नहीं समझ सकते कि कोई उस कर्तुमकर्तु मन्यथा कर्तुं समर्थ राजा से अधिक झंझट में होगा―उस राजा से जो करोड़ों प्रजा के भाग्य का विधाता था। पर राजाओं में कितने ही बड़े विचारशील हो गए हैं और थे।

प्रत्येक बात से यही प्रमाणित होता है कि यह दर्शन अवश्य व्यवहार की वस्तु है; और अंत को जब हम भगवद्गीता पर आते हैं, तो कुछ संदेह ही नहीं रह जाता। आप लोगों में कितनों ने भगवद्गीता को पढ़ा होगा। वह वेदांत का उत्तम भाष्य है। सबसे अद्भुत बात तो यह है कि कुरुक्षेत्र में दोनों ओर से लोग युद्ध के लिये उद्यत हैं, ऐसी दशा में भगवान् कृष्णचंद्र अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश करते हैं। गीता के प्रत्येक पृष्ठ में जिस सिद्धांत का उपदेश किया गया है, वह नितांत कर्म में निरत करनेवाला और उत्साह बढ़ानेवाला है। पर उस उपदेश में भी शाश्वत शांति भरी हुई है। यही कर्म का

रहस्य है। इसका प्राप्त करना वेदांत दर्शन का मुख्य लक्ष्य है। [  ]
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अकर्मण्यता, जिसका अर्थ है किसी प्रकार की चेष्टा न करना, कभी उद्देश हो नहीं सकती। यदि ऐसा ही होता तब तो दीवार सबसे अधिक बुद्धिमान् और ज्ञानी होती; क्योंकि वह भी तो अकर्मण्य है। मिट्टी के डले, पेड़ों के ठूँठ संसार में सबसे बड़े महर्षि और महात्मा माने गए होते; क्योंकि वे किसी प्रकार की चेष्टा नहीं कर सकते। वह अकर्मण्यता कभी कर्मण्यता नहीं हो सकती जिसमें मनोविकार का लेश मात्र भी रहता है। सच्ची कर्मण्यता वा कर्म, जो वेदांत का उद्देश है, वही है जिसमें शाश्वत शांति हो, जिसकी शांति कभी भंग न हो सके, चित्त की वह समवृत्ति जिसमें चाहे जो हो, कभी क्षोभ न हो। हमें तो अपने जीवन में जो अनुभव मिलता है, उससे यही जान पड़ता है कि यही कर्म करने का सर्वोत्तम ढंग हैं।

मुझसे लोगों ने बार बार पूछा कि भला यदि हममें मनो- विकार न हो तो हम कर्म कैसे कर सकते हैं? कर्म के लिये तो प्रायः मनोविकार ही से प्रवृत्ति होती है। बहुत दिन हुए, मैं भी ऐसा ही जानता था। पर ज्यों ज्यों दिन बीतते जा रहे हैं और मुझे अनुभव होता जाता है, मुझे यह ठीक नहीं जान पड़ता। जितना ही मनोविकार कम हो, उतना ही हम अच्छा काम करते हैं। जितना ही हम शांत रहें, उतना ही अच्छा है और उतना ही अधिक हम काम कर सकते हैं। जब हमारा ध्यान बँटा रहता है तब शक्ति का अपव्यय होता है, नसें फटती हैं,

मन क्षुब्ध रहता है और बहुत कम काम होता है। वह शक्ति [  ]
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जो काम करने में लगती, इधर उधर की बातों में व्यय हो जाती है जिसका फल कुछ नहीं होता। केवल उसी समय, जब कि चित्त शांत और एकाग्र रहता है, सारी शक्तियाँ अच्छे काम में व्यय होती हैं। और यदि आप उन बड़े बड़े कर्मवीरों के जीवन- चरित्र को, जो संसार में हो गए हैं, देखें तो आपको जान पड़ेगा कि वे कैसे शांत प्रकृति के लोग थे। कोई वस्तु उनकी शांति को भंग नहीं कर सकती थी। यही कारण है कि वह मनुष्य जिसे क्रोध आता है, अधिक काम नहीं कर सकता; और वह पुरुष जिसे किसी कारण से क्रोध नहीं आता, बहुत अधिक काम कर डालता है। जो पुरुष क्रोध, घृणा वा अन्य मनोविकारों के वशीभूत रहता है, वह काम नहीं कर सकता। वह अपना सत्तानाश करता है और कुछ काम की बात नहीं कर सकता है। केवल शांत, क्षमाशील, अनुद्विग्न और स्थिर- चित्त मनुष्य ही सबसे अधिक काम कर सकते हैं।

वेदांत एक आदर्श की शिक्षा देता है; और यह आदर्श जैसा कि हम जानते हैं, सदा कहीं अधिक सच्चा और हम कह सकते हैं कि कहीं अधिक काम का होता है। मनुष्य की प्रकृति में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं। एक तो यह कि वह आदर्श को अपने जीवन के अनुकूल बनाता है; और दूसरी यह कि वह अपने जीवन को आदर्श के अनुकूल करता है। इसका सम- झना बहुत बड़ी बात है। पहली प्रवृत्ति हमारे जीवन के विकार

का हेतु मात्र है। मैं समझता हूँ कि मैं केवल किसी विशेष प्रकार [  ]
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के ही काम कर सकता हूँ। उनमें कितने तो बुरे होते हैं और कितने संभवतः क्रोध, लोभ, स्वार्थादि मनोविकारों की गुप्त प्रेरणा के कारण होते हैं। अब यदि कोई आप के पास किसी आदर्श की शिक्षा देने आवे और उसकी पहली बात उसके लिये यह हो कि स्वार्थ और भोग को छोड़ो, तो मैं समझता हूँ कि यह असाध्य (हो नहीं सकता) है। पर ज्यों ही कोई ऐसा आदर्श लाता है जो मेरे स्वार्थ के अनुकूल होता है, तो मैं प्रसन्न हो जाता हूँ, उस पर उछलकर कूद पड़ता हूँ। यही मेरे लिये आदर्श है। जैसे पक्षपाती शब्द का अर्थ भिन्न रूप से परि- वर्तित किया गया है, वैसे ही कर्म शब्द के अर्थ में भी परिवर्द्धन हुआ है। मेरा पक्षपात धर्मानुकूल है, तुम्हारा धर्म विरुद्ध है। यही दशा कर्मण्यता की भी है। जिसे मैं करणीय समझता हूँ, वही संसार में मेरे विचार से कर्मण्यता है। यदि मैं दूकानदार हूँ तो मैं समझता हूँ कि संसार भर में दुकानदारी ही उत्तम कर्मण्यता का व्यापार है। यदि मैं चोर हूँ तो मैं समझता हूँ कि कर्मण्य बनने का उत्तम मार्ग चोरी करना ही है; अन्य कार्य कर्मण्य बनाने योग्य नहीं हैं। लोग कर्मण्य शब्द का व्यवहार ऐसे कामों के संबंध में करते हैं, जिन्हें वे अच्छा सम- झते हैं और कर सकते हैं। अतः मैं आपसे इसे समझने के लिये अनुरोध करूँगा कि वेदांत यद्यपि कर्मण्य वा व्यवहार की वस्तु है, पर फिर भी उसकी कर्मण्यता आदर्श की दृष्टि से

है। और में वह आदर्श यह है कि आप दैवी हैं। ‘तत्वमसि!’ [  ]
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यही वेदांत का निचोड़ है। बहुत कूद-फाँद और मानसिक व्यायाम के अंत में आपको यह ज्ञान होता है कि मनुष्य की श्रा आत्मा न शुद्ध है और न सर्वव्यापी। आप देखिए कि ऐसे पक्षपात की, जैसे आत्मा के संबंध में जन्ममरण की, बातें जब कही जाती हैं तो वे नितांत ऊटपटांग हैं। आत्मा न कभी उत्पन्न हुई है और न मरेगी। सारी बातें कि हम मर रहे हैं, हम मरने से डरते हैं, अंध विश्वास मात्र हैं। ये सारी बातें भी कि हम इसे कर सकते हैं या इसे नहीं कर सकते, अंध विश्वास की बातें हैं। हम सब कुछ कर सकते हैं। वेदांत की शिक्षा है कि मनुष्य को पहले अपने ऊपर विश्वास करना चाहिए। जैसे किसी किसी धर्म का यह कथन है कि जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है, वैसे वेदांत का कहना है कि वह मनुष्य जिसे अपने ऊपर विश्वास नहीं है, नास्तिक है। वेदांत उसे नास्तिक मानता है जिसे अपनी आत्मा के महत्व पर विश्वास नहीं है। बहुतों को तो यह विचार भयानक प्रतीत होता है। बहुतों का कथन है कि हम इस आदर्श पर कभी पहुँच नहीं सकते। पर वेदांत कहता है कि सब इस आदर्श को साक्षात् कर सकते हैं। इस आदर्श पर पहुँचने से कोई रोक नहीं सकता। स्त्री, पुरुष, आबालवृद्ध बिना जाति और लिंग के भेद के सब इस आदर्श को साक्षात् कर सकते हैं। कारण यह है कि वेदांत कहता है कि इसका तो साक्षात् हो चुका; यह तो है ही।

संसार में सारी शक्तियाँ वा बल हमारे ही हैं। हम ही ने [  ]
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तो अपनी आँखें अपने हाथों मूँँद रखी हैं और चिल्ला रहे हैं कि अँधेरा है। जानो कि कहीं अँधेरा नहीं है। हाथ हटाओ, देखो कैसा प्रकाश है। यह प्रकाश पहले से था। कहीं अंधकार नहीं था, कहीं निर्बलता नहीं थी। हम मुर्ख हैं जो यह चिल्ला रहे हैं कि हम निर्बल हैं। हम मूर्ख हैं जो यह चिल्ला रहे हैं कि हम अशुद्ध हैं। वेदांत न केवल बलपूर्वक यह कहता है कि आदर्श कर्मण्यता की वस्तु है, अपितु यह भी कहता है कि यह सदा से था और यह आदर्श―यह सत्य-हमारा स्वरूप है। इसके अतिरिक्त जो कुछ आप देखते हैं, मिथ्या है, असत्य है । ज्यों ही आपके मुँँह से यह निकलता है कि मैं मरणधर्मा हूँ, आप असत्य कहते हैं। आप अपने आपसे झूठ कह रहे हैं, अपने को नीच, निर्बल और दीन बना रहे हैं।

यह किसी को पाप नहीं मानता; यह किसी को भूल नहीं समझता। वेदांत का कथन है कि सबसे बड़ी भूल है अपने को निर्बल कहना, अपने को पापी समझना, अपने को हीन जानना, यह कहना कि हममें शक्ति नहीं है, हम यह या वह काम नहीं कर सकते हैं। जितनी बार आप ऐसा ध्यान करते हैं, आप अपनी आँख पर एक एक आवरण और चढ़ाते जाते हैं, अपनी आत्मा पर मोहोन्माद की तह पर तह और बढ़ाते जाते हैं। अतः जो यह विचारता है कि मैं निर्बल हूँ, भूल करता है। जो यह विचारता है कि मैं भूल कर रहा हूँ वह संसार

में बुरे विचारों का प्रचार कर रहा है। यह अच्छी तरह ध्यान [  ]
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रखने की बात है कि वेदांत यह नहीं चाहता कि यह जीवन, यह भ्रम का जीवन, यह मिथ्या जीवन आदर्श के अनुकूल बनाया जाय। परंतु वह यह चाहता है कि यह मिथ्या जीवन त्याग दिया जाय और तब सच्चा जीवन जो सदा से है, प्रकट होगा और चमकने लगेगा। कोई मनुष्य शुद्धातिशुद्ध नहीं होता, यह बड़ी अभिव्यक्ति की बात है। परदा हट जाता है और आत्मा की वास्तविक शुद्धता आपसे आप प्रकट होने लगती है। शाश्वत शुद्धि, मुक्ति, प्रेम और बल सब कुछ हमारे ही हैं।

वेदांत का यह कथन है कि केवल जंगल वा गुफाओं में ही रहकर कोई इसे साक्षात् नहीं कर सकता, बल्कि मनुष्य किसी दशा में रहे, इसे प्राप्त कर सकता है। हम देख चुके हैं कि जिन लोगों ने इस सत्य का आविष्कार किया, वे गुफाओं के रहनेवाले न थे और न वे सामान्य मनुष्य थे, जिन्हें अवकाश था; अपितु ऐसे लोग थे जिनका सारा जीवन काम काज में लगा रहता था। इसके अनेक हेतु हैं। वे बड़ी बड़ी सेनाएँ रखते, उनका प्रबंध करते, राजसिंहासन पर बैठते और प्रजा के सुख के लिये देखरेख करते थे; और यह सब ऐसे समय की बात है जब राजा ही सबके कर्ता धर्ता थे। आजकल की तरह वे केवल काठ की पुतली की भाँति नहीं रहा करते थे। फिर भी उन्हें इतना अवकाश मिल जाता था कि वे इन बातों को सोच सकते थे, इन्हें साक्षात् कर सकते थे और मनुष्यों को उनकी शिक्षा दे सकते थे। अब बताइए तो सही कि यह हमारे [ १० ]लिये, जिन्हें उनकी अपेक्षा कहीं अधिक अवकाश मिल सकता है, कितना अधिक कर्मण्यता वा व्यवहार का विषय हो सकता है। ऐसी अवस्था में जब हम देखते हैं कि हमें सदा अवकाश ही रहता है, बहुत कम काम करने को रहता है, यह कितनी लज्जा की बात है कि हम उन्हें साक्षात् न कर सकें। इन प्राचीन महाराजाओं की अपेक्षा हमारी आवश्यकताएँ क्या हैं? कुछ भी तो नहीं जान पड़ती। भला यह तो विचारिए कि अर्जुन के सामने जो रणक्षेत्र में बड़ी सेना लिए युद्ध करने को खड़ा था, क्या हमें अधिक अपेक्षा हो सकती है। पर उसे भी तो रणक्षेत्र के निनाद और तुमुल संक्षोभ में इस उच्च विज्ञान को सीखने और आचरण करने का अवकाश मिलता है। इसमें संदेह नहीं कि हमें चाहिए कि हम अपने इस जीवन में इसका अनुष्ठान करें। हम उससे अधिक खच्छंद सुखी हैं, हमें अधिक सुगमता है। हममें कितने लोगों को तो उससे कहीं अधिक अवकाश है जितना कि हमारी समझ में उन्हें होगा; और यदि हम चाहें तो उसे इस अच्छे काम में लगा सकते हैं। जितनी स्वतंत्रता हमें है, उससे यदि हम चाहें तो इस जीवन में दो सौ आदर्शों पर पहुँच सकते हैं, पर यह उचित है कि हम आदर्श को गिराकर वास्तविक अवस्थानुकूल न बना दें। सबसे अधिक लज्जा की बात तो यह है कि ऐसे लोग भी देख पड़ते हैं जो अपनी भूलों पर बार बार बातें गढ़ते रहते हैं। ऐसे लोगों से हमें अपनी सारी निरर्थक आवश्यकताओं और निष्प्रयोजन [ ११ ]इच्छाओं के लिये नाना प्रकार की बातें बनाने और हेतु गढ़ने की शिक्षा मिलती है। और हम तो समझते हैं कि उनका आदर्श वही है जिसकी उन्हें आवश्यकता जान पड़े। पर यह ठीक बात नहीं है। वेदांत हमें ऐसी बात की शिक्षा नहीं देता है। वास्तविक अवस्था को आदर्श के अनुसार होना चाहिए, वर्त- मान जीवन शाश्वत जीवन के अनुसार होना चाहिए।

आप यह सदा स्मरण रखें कि वेदांत का मुख्य आदर्श एकता है। यहाँ दो पदार्थ, दो जीवन हैं ही नहीं; और दो लोकों के लिये दो भिन्न प्रकार के जीवन हैं। आप देखेंगे कि वेदों में पहले स्वर्ग और उसी प्रकार की अन्य बातों का उल्लेख मिलता है। पर जब वही वेद दर्शन के उच्च आदर्शों पर पहुँचते हैं, तब उन्हीं में सब पर हरताल फिर जाता है। फिर एक ही आत्मा, एक ही लोक और एक ही सत्ता रह जाती है। सब वही एक ही है। भेद केवल मात्रा का है, प्रकार का नहीं है। हमारे जीव में प्रकार का अंतर नहीं है। वेदांत ऐसी बातों का समूल निषेध करता है कि पशु-पक्षी और हैं और मनुष्य और हैं; और ईश्वर ने पशु-पक्षियों को खाने के लिये उत्पन्न किया है।

कुछ लोगों ने ऐसी समिति स्थापित की है जिसका उद्दश यह है कि विज्ञानसंबंधी परीक्षाओं के लिये प्राणियों का घात न किया जाय। मुझे स्मरण आता है कि मैंने एक बार ऐसी ही समिति के सभ्य से पूछा कि भला आप यह तो बतलाइए कि यह कहाँ तक ठीक है कि मांस खाने के लिये तो प्राणियों की हिंसा उचित [ १२ ]है और दो एक की हिंसा वैज्ञानिक परीक्षा के लिये अनुचित है? उसने उत्तर दिया कि वैज्ञानिक परीक्षा के लिये चीरफाड़ आदि करना अत्यंत घृणित कर्म है; पर पशु-पक्षी तो खाने ही के लिये बनाए गए हैं। अद्वैत वा एकता में सभी प्राणी आ जाते हैं। जैसे मनुष्य की आत्मा अमर है, वैसे ही पशुपक्षियों की भी आत्माएँ हैं। भेद केवल मात्रा का है, प्रकार का नहीं। एकेंद्रिय जंतु और मैं एक ही हूँ। भेद केवल मात्रा का है; और उच्च दृष्टि से देखिए तो यह सब भेदभाव रह ही नहीं जाते। मनुष्य को घास और छोटे वृक्षों में बड़ा भेद दिखाई पड़ता है। यदि आप ऊँचे स्थान से जाकर देखें तो आप को घास और बड़े बड़े वृक्ष भी समान ही दिखाई पड़ेंगे। यही दशा उच्च आदर्श की दृष्टि से देखने की है। वहाँ क्षुद्र जंतु और उच्च मनुष्य भी समान ही हैं। ऐसा ईश्वर जो अपने एक पुत्र मनुष्य का पक्ष- पात करे और अन्य पुत्रों―पशुपक्षियों―के ऊपर निर्दयता दिखलावे, राक्षस से कहीं गया बीता है। मैं तो मरने को ऐसे ईश्वर के पूजने से सैकड़ों गुना अच्छा समझता हूँ। मुझे तो अपना सारा जीवन ऐसे ईश्वर के साथ लड़ने ही में खपाना पड़ेगा। पर यहाँ भी कोई अंतर नहीं है; और जो लोग अंतर मानते हैं, वे अनुत्तरदायी और हृदयहीन हैं, उन्हें कुछ ज्ञान नहीं है। यह कर्मण्यता वा व्यवहार को अनुपयुक्त अर्थ में काम में लाने का अच्छा उदाहरण है। संभव है कि मैं बिलकुल शाकाहारी न होऊँ, पर मैं इस आदर्श को समझता हूँ। जब मैं [ १३ ]मांस खाता हूँ तब मैं समझता हूँ कि मैं अन्याय करता हूँ। यहाँ तक कि यदि मुझे किसी विशेष अवस्था में पड़कर मांस खाना ही पड़े तो मैं यही समझूँगा कि यह निर्दयता का कर्म है। मैं अपना आदर्श अपनी आवश्यकता व वास्तविकता के अनुसार न बनाऊँगा और अपने निर्बलता के व्यवहार के लिये इस प्रकार की बातें कभी न बनाऊँगा। आदर्श यह नहीं है कि आप मांस खायँ वा किसी प्राणी को दुःख दें, क्योंकि सब प्राणी हमारे भाई हैं। यदि आप उन्हें अपना भाई समझ सकें, तो आप समझ जाइए कि आत्मा के भ्रातृत्व की ओर बढ़े―मनुष्य के भ्रातृत्व की तो बात ही क्या है? वह तो बच्चों के खेल की बात है। अब प्रायः यह जान पड़ेगा कि बहुतों को यह बात नहीं रुचेंगी; पर यह उन्हें यही शिक्षा देती है कि आवश्यकता वा वास्तविकता को छोड़ो और आदर्श की ओर पैर बढ़ाओ। यदि आप किसी ऐसे सिद्धांत को उनके सामने रखें जो उनके वर्तमान आचार-व्यवहार के अनुकूल पड़े, तो वे उसे बहुत ही कर्मण्य वा व्यावहारिक बतलावेंगे।

मनुष्य में एक विशेषता है कि वह प्राचीन रीति-नीति को नहीं छोड़तो, वह उससे तनिक भी आगे खिसकना नहीं चाहता। मनुष्यों की दशा ठीक वैसी ही है जैसी उस मनुष्य की होती है जो हिम में ठिठुरकर हिममय हो रहा हो। उसे नींद आती है और वह सोना चाहता है। यदि आप उसे वहाँ से खींचकर हटाना चाहें तो वह यही कहता है कि मुझे यहीं [ १४ ]रहने दो। मुझे सोने दो, हिम में पड़े सोने में बड़ा ही आनंद मिलता है। इस प्रकार पड़े पड़े हम मर ही जाते हैं। ठीक ऐसी ही दशा हमारी प्रकृति की है। ठीक ऐसा ही हम अपने जीवन में कर रहे हैं। पैर से सिर तक हिममय होते जा रहे हैं; फिर भी हम सोना ही चाहते हैं। अतः आप को चाहिए कि आप आदर्श की ओर बढ़ने का प्रयास करें। अब यदि कोई आवे और आपसे कहे कि हम आपको ऐसा आदर्श बतलावेंगे जो आपकी अवस्था के अनुकूल है और ऐसे धर्म की शिक्षा दे जिसका आदर्श सर्वोच्च न हो, तो आप कान न दीजिए। मेरी समझ में तो वह धर्म अशक्य वा असाध्य है। पर यदि कोई ऐसे धर्म की शिक्षा दे जिसका आदर्श सर्वोच्च हो, तो मैं उसे स्वीकार करने को उद्यत हूँ। ऐसे लोगों से सावधान रहो जो अपने विषय की असारता और निर्बलता के लिये बातें बनाया करते हैं। यदि कोई इस प्रकार हमें उपदेश देने आवे तो हम उस उपदेश पर चलने से कभी उन्नति नहीं कर सकते। हम तो संसार में विषय के बंधनों में पड़कर जड़ीभूत हो गए हैं। मैंने ऐसी बहुत बातें देखी हैं, मुझे संसार का कुछ अनुभव हो चुका है; और मेरा तो वह देश है जहाँ धर्म कुकुरमुत्ते की भाँति नित्य उपजते रहते हैं―प्रति वर्ष नए नए धर्म निकला करते हैं। और मुझे तो एक विलक्षण बात यह देख पड़ी है कि वही धर्म उन्नति करते हैं जिनमें सांसारिक जीवन और पारमार्थिक जीवन एक नहीं बतलाया जाता, जिनमें पंचभौतिक पुरुष और [ १५ ]सत्यपुरुष एक ही सा नहीं समझा जाता। जिस धर्म में यह अंध- विश्वास वा मिथ्या सिद्धांत है कि लौकिक निःसारता और उच्च आदर्श में सादृश्य है, जिसमें ईश्वर को मनुष्य की कोटि में बलपूर्वक खींचकर लाते हैं, उसीका नाश होता है। मनुष्य को लोक का दास नहीं होना चाहिए। उसे ईश्वर का आसन वा पद मिलना चाहिए।

साथ ही साथ हमें इस प्रश्न के दूसरे ओर भी देखना चाहिए। हमें दूसरों को घृणा की दृष्टि से न देखना चाहिए। हम सब एक ही लक्ष्य की ओर जा रहे हैं। निर्बलता और सब- लता में भेद केवल मात्रा का ही है; स्वर्ग-नरक में केवल मात्रा का ही अंतर है; जीवन और मृत्यु में केवल मात्रा का ही अंतर है; इस लोक और परलोक में केवल मात्रा का ही अंतर है; प्रकार का अंतर नहीं है। कारण यह है कि सब का रहस्य वही एक है। सब एक ही हैं जो भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त हो रहे हैं। उसी की अभिव्यक्ति बुद्धि, जीवन, आत्मा, देह आदि सब हैं। उनमें केवल मात्रा का ही अंतर है। इस प्रकार हमें कोई अधिकार नहीं है कि उन्हें घृणा की दृष्टि से देखें जो उतना अधिक अभिव्यक्त नहीं हो सके हैं जितना हम हो चुके हैं। किसी को बुरा मत कहो। यदि तुम से हो सके तो उसे सहा- यता पहुँचाओ। यदि न हो सके तो चुपचाप रहो, अपने भाई को आशीर्वाद दो और उसे अपनी राह जाने दो। किसी को घसीटना वा भला बुरा कहना काम चलाने की बात नहीं है। [ १६ ]इस प्रकार करने से कोई काम पूरा नहीं हो सकता। हम अपनी शक्ति दूसरों को कोसने में व्यय कर देते हैं। छिद्रान्वे- षण करना और भला बुरा कहना शक्ति को व्यर्थ व्यय करने के द्वार हैं; क्योंकि बहुत दूर चलकर मुझे यह बोध हुआ है कि सब एक ही लक्ष्य के ऊपर दृष्टि लगाए हुए हैं। सब उसी आदर्श पर पहुँँच रहे हैं; और जो भेद जान पड़ता है वह केवल शब्द का भेद है।

उदाहरण के लिये 'पाप' के ही विचार को ले लीजिए। मैं अभी आपको इस विषय में वेदांत के विचार बतला चुका हूँ। और दूसरा विचार यह है कि मनुष्य पापी है। पर बात दोनों की एक ही है। एक निश्चयात्मक पक्ष से और दूसरा निषेधात्मक पक्ष से है। एक यह प्रमाणित करता है कि मनुष्य में बल है; दूसरा निर्बलता प्रमाणित करता है। वेदांत कहता है कि यदि निर्बलता हो तो कोई चिंता की बात नहीं; हम बढ़ना, उन्नति करना चाहते हैं। मनुष्य की उत्पत्ति के साथ ही रोग लगा है। सब अपने रोग को जानते हैं। किसी को यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि हमें कौन सा रोग है। पर सदा यह विचारते रहने से कि हम रोगी हैं, हम अच्छे नहीं हो जायँगे। अच्छे तो औषध करने से होंगे। हम बाहर के सब पदार्थों को भूल क्यों न जायँ, हम बाह्य जगत् को वंचना करने की चेष्टा क्यों न करें, पर अपने मन में हम अपनी निर्बलता को अवश्य जानते रहते हैं। पर वेदांत कहता है कि अपनी निर्बल[ १७ ]ता का बार बार स्मरण करने से कुछ लाभ नहीं होता। उससे बल थोड़े ही आता है। सदा यह सोचते रहने से कि, हम निर्बल हैं, बल कभी आ नहीं सकता। निर्बलता का प्रतीकार निर्बलता को सेने से नहीं होता, अपितु बल के स्मरण से होता है। लोगों को वह बल बतलाओ जो उनके भीतर भरा है। लोगों से यह कहने के स्थान में कि ‘तुम पापी हो’ वेदांत विरुद्ध पक्ष को लेता है और कहता है कि ‘आप शुद्ध और पूर्ण हैं। जिसे आप पाप कहते हैं, वह आपका नहीं है’। अभिव्यक्ति का ‘पाप’ अत्यंत निकृष्ट रूप है। आप अपने को उच्च मात्रा में अभिव्यक्त कीजिए। एक बात स्मरण रखिए कि हम सब कुछ सहन कर सकते हैं। कभी न कहो, यह कभी न कहो कि यह हमसे नहीं हो सकता। आप तो अप्रमेय हैं। आपकी प्रकृति के सामने देशकाल की काई गणना नहीं है। आप सब कुछ कर सकते हैं, आप सर्वशक्तिमान् हैं।

यही आचार-शास्त्र का तत्व है। पर हम इससे नीचे उतरते हैं और एक एक करके देखते हैं। उससे जान पड़ता है कि वेदांत नित्य के व्यवहार में लाया जा सकता है। क्या नगर में हो क्या गाँव में, क्या जातीय जीवन हो क्या गृहजीवन हो, सर्वत्र सब जातियों में यह व्यवहार में लाया जा सकता है। कारण यह है कि यदि धर्म मनुष्य को सब स्थानों और सब स्थितियों में सहायता नहीं पहुँचा सकता तो वह किसी काम का धर्म नहीं है। वह केवल सिद्धांत के रूप में इनेगिने लोगों के लिये

[ १८ ]ही रह जायगा। वही धर्म मनुष्य के लिये उपकारी है जो सदा सबकी सहायता करने के लिये उद्यत रहे; चाहे वह दासत्व की दशा में हो या स्वतंत्रता में; अधोगति से उच्च गति तक सर्वत्र सभी दशा में समान रूप से उसका सहायक बना रहे। इसको वेदांत का तत्व कहो वा धर्म का आदर्श कहो, अथवा जो मन भावे सो कहो, इसकी सार्थकता तभी है जब यह इस बड़े काम को पूरा कर सके।

अपने ऊपर विश्वास रखने का आदर्श हमारे लिये बड़े काम का है। यदि अपने ऊपर विश्वास रखने की शिक्षा अधिक ध्यानपूर्वक दी जाती और उस पर बरता जाता तो मुझे विश्वास है कि हमारी बहुत सी बुराइयाँ और आपत्तियाँ दूर हो गई होतीं। मनुष्य जाति के इतिहास में यदि कोई शक्ति बड़े लोगों के जीवन में सबसे अधिक उत्तेजना देनेवाली हुई है तो वह धर्म की शक्ति है। वे इस ज्ञान को लेकर उत्पन्न हुए थे कि हम बड़े होंगे और इसी लिये वे बड़े हुए। मनुष्य कितना ही पतित क्यों न हो जाय, पर एक समय आवेगा कि वह सहसा ऊपर को उठेगा और अपने ऊपर विश्वास रखना सीखेगा। पर यह सबसे उत्तम बात है और इसीमें हमारी भलाई है कि हम उसे पहले ही से सीखें। इसकी क्या आवश्यकता है कि हम अपने ऊपर विश्वास रखना सीखने के लिये इतना अनुभव करें। हम देखते हैं कि मनुष्यों में जो अंतर है, वह अपने ऊपर विण्यास होने या न होने के कारण ही है। अपने ऊपर विश्वास [ १९ ]रखने ही से हम सब कुछ कर सकते हैं। मैंने अपने जीवन में अनुभव किया है और अनुभव करता आ रहा हूँ। और ज्यों ज्यों दिन बीतते जा रहे हैं, त्यों त्यों मेरा अपने ऊपर विश्वास अधिक अधिक दृढ़ होता जा रहा है। वह नास्तिक है जिसे अपने ऊपर विश्वास नहीं है। प्राचीन धर्मों ने यह कहा है कि जिसका विश्वास ईश्वर पर नहीं है, वह नास्तिक है। पर नया धर्म यह कहता है कि नास्तिक वह है जिसे अपने ऊपर विश्वास नहीं है। पर ध्यान रहे कि यह स्वार्थ का धर्म नहीं है। कारण यह है कि वेदांत ठहरा अद्वैतवाद। उसका अभिप्राय है सब पर विश्वास रखना; कारण यह है कि आप ही सब कुछ हैं। अपने साथ प्रेम करने का अर्थ है सबके साथ प्रेम करना; क्योंकि आप और सब एक ही तो हैं। पशु के लिये प्रेम करना, पक्षी के लिये प्रेम करना, सबके लिये प्रेम करना, यही एक बड़ा धर्म है जिससे संसार की दशा फिर सकती है। मुझे तो इसका दृड़ विश्वास है। वही सबसे बड़ा महापुरुष है जो शपथ-पूर्वक वह कह सकता है कि मुझे अपना पूर्ण ज्ञान है। क्या आप जानते हैं कि आप की ओट में-भीतर-कितनी शक्तियाँ, कितने बल छिपे पड़े हैं? क्या वैज्ञानिकों को इसका पूरा ज्ञान हो गया है कि मनुष्यों में क्या क्या गुण भरे हुए हैं? मनुष्य को उत्पन्न हुए करोड़ों वर्ष हो गए, पर अभी तक उसकी शक्तियों का एक अणुमात्र व्यक्त हो पाया है। अतः आपको यह कहना न चाहिए कि हम निर्बल हैं। आपको इसका ज्ञान कैसे है कि इस अवःपतन [ २० ]के पीछे क्या होनेवाला है? तुम्हें तो जो जो कुछ तुम्हारे भीतर है, उसके रंच मात्र का ज्ञान हुआ है। क्योंकि तुममें अनंत शक्ति की राशि और आनंद का सागर भरा पड़ा है जिसका तुम्हें ज्ञान ही नहीं है।

‘आत्मा वा अरे श्रोतव्यः’। दिन रात इसका श्रवण करो कि तुम आत्मा हो। इसे दिन रात जपते रहो, यहाँ तक कि यह तुम्हारी नस नस में प्रविष्ट हो जाय, तुम्हारे एक एक विदुं रक्त में भर जाय और तुम्हारे मांस और अस्थि में समा जाय। अपने सारे शरीर में इस आदर्श का भर जाने दो कि मैं अजन्मा, अमर, आनंदमय, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और महान आत्मा हूँ। इसे दिन रात मनन करो, इसे मनन करते रहो; यहाँ तक कि यह तुम्हारे जीवन का अंग बन जाय। इसीका निदध्यासन करो और इसी निदध्यासन से कर्म की उत्पत्ति होगी। जब मन भरा रहता है तब मुँह से बात निकलती है, जब मन भरा रहता है तब हाथ भी काम में चलता है। फिर तो काम होगा ही। अपने में आदर्श को भर लो। जो कुछ करो, उसी पर भले प्रकार चिंतन करते रहो। तुम्हारा काम महत् रूप धारण कर लेगा, उसकी दशा बदल जायगी और उसी चिंतन के प्रभाव से देवखरूप हो जायगा। यदि प्रकृति वा द्रव्य में शक्ति है तो चिंतन में अतुल शक्ति है, वह सर्वशक्तिमान है। इस विचार को अपने जीवन पर चरितार्थ करो, अपने सर्व शक्तिमत्व और महत्व के विचार से परिपूर्ण हो जाओ। ईश्वर के लिये आपके मस्तिष्क में [ २१ ]किसी पक्षपात का स्थान नहीं है। ईश्वर की कृपा है कि मनुष्य इन पक्षपातों के प्रभाव, निर्बलता और नीचता के घातक भावों से आक्रांत नहीं है। पर मनुष्य को इन सबमें होकर जाना है। उन लोगों के लिये जो आगे होनेवाले हैं, मार्ग को कठिन और कंटकपूर्ण मत बनाओ।

ये बातें बतलाने में कभी कभी भयानक जान पड़ती हैं। मैं उन्हें जानता हूँ जो इन विचारों को सुनकर घबरा जाते हैं। पर उन लोगों के लिये जो कर्मण्य बनना चाहते हैं, इसका जानना मुख्य है। कभी आप अपने से वा दूसरे से यह मत कहिए कि तुम निर्बल हो। हो सके तो भलाई कीजिए, पर संसार को हानि मत पहुँचाइए। आप इसे अपने मन में समझते हैं कि आपके यह संकुचित विचार और किसी कल्पित व्यक्ति के सामने सिर झुकाना, प्रार्थना करना और गिड़गिड़ाना पक्षपात की बातें हैं। मुझे एक भी अवस्था तो बतलाइए जहाँ इन प्रार्थनाओं का उत्तर मिला हो। जो कुछ उत्तर मिला, वह आप ही के हृदय से मिला। आप जानते हैं कि भूत कहीं नहीं है। पर ज्यों ही आप अँधेरे में जाते हैं, आप पर कँपकँपी छा जाती है। इसका कारण यही है कि बचपन ही से यह सब विचार हमारे मस्तिष्क में ठूसे गए हैं। पर कृपा करके समाज के भय से या इस भय से कि लोग ऐसा मानते हैं या इसलिये कि लोग आप से घृणा करेंगे, या आपके पक्षपात, जिनके साथ आपको राग है, जाते रहेंगे, और लोगों को तो इन बातों की शिक्षा मत [ २२ ]दीजिए। इन सब बातों को अपने ही तक रखिए, उन्हें अपने वश में कीजिए। भला सोचिए तो सही कि विश्व की एकता और आत्मा की एकता से बढ़कर धर्म में सिखलाने की और कौन सी बात है। सहस्रों वर्ष मनुष्य इसी लक्ष्य की ओर जाने के लिये सारा श्रम करते आए हैं और अब तक करते जा रहे हैं। अब आपकी बारी है। आप जानते हैं कि सत्य क्या है। क्योंकि इसी की शिक्षा चारों ओर हुई है। भला आज का वह वैज्ञानिक पुरुष कहाँ है जो इस एकता की सत्यता को स्वीकार करने से भय करता है? ऐसा कौन है जो ‘अनेक लोक हैं’ यह कहने का साहस करता है? यह सब पक्षपात है। एक ही आत्मा और एक ही लोक है। वही एक आत्मा और एक लोक हमें अनेक भासित होता है। यह अनेकत्व स्वप्नवत् है। आप जब स्वप्न देखते हैं तो एक स्वप्न जाता है और आप दूसरा देखते हैं। आप अपने स्वप्न में पड़े नहीं रहते। एक स्वप्न जाता है, दूसरा आता है। दृश्य पर दृश्य आप के सामने प्रकट होते रहते हैं। इसी प्रकार इस लोक में सैकड़ा नब्बे दुःख और दस सुख की बात है। संभव है कि थोड़ी ही देर में आपको सैकड़ा नब्बे सुख और दस दुःख देख पड़ें और हम इसे स्वर्ग कहें। पर ऋषियों के लिये एक ऐसा समय आ जाता है जब कि यह सब जाता रहता है और यह लोक उन्हें ईश्वर-स्वरूप देखाई पड़ता है― उनकी आत्मा ब्रह्मरूप हो जाती है। अतः यह बात ठीक नहीं है कि अनेक लोक हैं। यह मिथ्या है कि अनेक आत्माएँ हैं। यह [ २३ ]सब नानात्व उसी एक की अभिव्यक्ति मात्र है। वही एक नाना रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। प्रकृति हो, जीव हो, मन हो, बुद्धि हो वा और कुछ हो, सब उसी के विग्रह मात्र हैं। यह वही एक है जो अनेक रूपों में व्यक्त हो रहा है। अतः हमारे लिये सबसे पहला उपाय यह है कि हम अपने को और औरों को सत्य की शिक्षा दें।

संसार को इस आदर्श के शब्द से भर दो और पक्षपात का नाश कर दो। उन लोगों से जो निर्बल हैं, यह कहो और कहते जाओ कि आप शुद्ध हैं। जागो और उठो; हे महानुभाव यह सोना आपके लिये उपयुक्त नहीं है। जागो और उठो, ऐसे पड़े रहना आप के योग्य नहीं है। इसे ध्यान में न लावें कि आप निर्बल और दुःखी हैं। हे सर्वशक्तिमान् उठो, और अपने स्वरूप को व्यक्त करो। यह आपको उचित नहीं है कि आप अपने को पापी समझें। यह आपके योग्य नहीं है कि अपने को निर्बल जानें। यह आप संसार भर से कहिए, अपने से कहिए और देखिए तो इसका क्या उचित फल होता है। देखिए कि बिजली की भाँति सब व्यक्त हो जाते हैं, सब की दशा फिर जाती है। इसे मनुष्य मात्र से कहिए और उन्हें उनकी शक्ति दिखला दीजिए। तभी हमें इसका ज्ञान होगा कि नित्य के कामों में इसका व्यवहार कैसे हो सकता है।

विवेकवान होकर अपने जीवन के प्रत्येक क्षण, बात बात में सत्य असत्य का विवेक करने से हमें सत्य की कसौटी मिल [ २४ ]जायगी। यही सत्य पवित्रता है, यही एकता है। जिसे एकता संपादन हो वह सत्य है। प्रेम सत्य है और घृणा मिथ्या है। कारण यही है कि घृणा से भेद बढ़ता है। यह घृणा ही है जो मनुष्य मनुष्य में भेद कराती है, अतः यह मिथ्या है। यह वियोजक शक्ति है, यह भेद उत्पन्न करनेवाली और नाश करने- वाली है।

प्रेम सबको मिलाता और प्रेम उस एकता का संपादन करता है। आप उससे एकता को प्राप्त होते हैं। माता संतान से, घर नगर से मिलते मिलते सारे संसार के प्राणी मिलकर एक हो जाते हैं। क्योंकि प्रेम ही सत्ता है। वह साक्षात् ईश्वर है। जो कुछ है, सब उसी एक प्रेम की अभिव्यंजना है। भेद केवल मात्रा का है। पर यह सब कुछ उसी प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र है। अतः हमें अपने सब कर्मों में यह विचार रखना चाहिए कि वह एकता का संपादन करता है वा नानात्व का। यदि नानात्व का संपादन होता है, तो हमें उसे परित्याग कर देना चाहिए; और यदि एकत्व का संपादन होता है तो वह निश्चय है कि अच्छा है। यही दशा हमारे विचारों की है। हमें इसका निश्चय कर लेना चाहिए कि उसका परिणाम भेद वा नानात्व है अथवा एकता है; और आत्मा आत्मा से मिलकर एक हो जाते हैं। यदि उसका परिणाम एकता है तो हमें उसे रखना चाहिए, अन्यथा उसे निकालकर दूर कर देना चाहिए।

वह पाप है। [ २५ ]
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आचारशास्त्र का सारा सिद्धांत यही है कि उसका आधार अज्ञेय नहीं होता, वह अज्ञात वस्तु की शिक्षा नहीं देता। पर उपनिषद् की भाषा में जिस “अज्ञात ईश्वर की हम उपासना करते हैं, उसीकी मैं तुझे शिक्षा देता हूँ।” वह आत्मा ही है जिसके द्वारा आपको किसी पदार्थ का बोध होता है। मैं कुरसी को देखता हूँ; पर कुरसी के देखने में मैं पहले आत्मा को देखता हूँ, फिर कुरसी को देखता हूँ। यह आत्मा ही है जिसके द्वारा कुरसी दिखाई पड़ती है। यह आत्मा ही है जिसके द्वारा मैं आपको जानता हूँ और सारे संसार का मुझे बोध होता है। अतः यह कहना कि आत्मा अज्ञात है, नितांत मूर्खता की बात है। आत्मा को दूर कर दो, सारे विश्व का लोप हो जाता है। आत्मा ही के द्वारा तो सारे ज्ञान हममें आते हैं। अतः यह सबसे अधिक विज्ञाततम है। यह आप ही हैं जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं। आपको आश्चर्य्य होगा कि कैसे मेरा यह ‘मैं’ तुम्हारा ‘मैं’ हो सकता है। आपको आश्चर्य होगा कि कैसे ग्रह परिमित ‘मैं’ अपरिमित, अनंत हो सकता है; पर ऐसा होता है। ‘परिमित’ कहना केवल कल्पना है। वह अनंत मानों आवृत है और उसका अणुमात्र ‘मैं’ के रूप में व्यक्त हो रहा है। अपरिमित कभी परिमित नहीं हो सकता। यह कल्पना की बात है। अतः आत्मा हम सबको ज्ञात है; स्त्री-पुरुष, आबाल- वृद्ध, पशु-पक्षी सबको आत्मा ज्ञात है। बिना आत्मा के ज्ञान

के न हम जी सकते हैं, न गति कर सकते हैं, न अपनी सत्ता [ २६ ]
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ही को रख सकते हैं। बिना इस सर्वेश्वर के ज्ञान के न हम साँस ले सकते हैं न एक क्षण जी ही सकते हैं। वेदांत का ईश्वर सबसे विज्ञाततम है; वह कल्पना-प्रसूत नहीं है।

यदि यह शिक्षा वास्तविक ईश्वर की नहीं है, तो आप वास्त- विक ईश्वर की कैसे शिक्षा दे सकते हैं? उससे बढ़कर यथार्थ ईश्वर कहाँ मिलेगा जिसे हम अपने सामने देखते हैं, जो सर्वव्यापी सबमें है और जो हमारी इंद्रियों से भी अधिक स्पष्ट है? क्योंकि आप तो वही सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं। वही तुम्हारी आत्मा की आत्मा है। यदि मैं यह कहूँ कि आप वह नहीं हैं तो मैं असत्य कहता हूँ। मैं उसे जानता हूँ, चाहे उसे सदा साक्षात् करूँ वा न करूँ। वही एकता है, सब की एकता है, सब जीवों को सत्ताओं की सत्ता है।

वेदांत के इस आचार वा व्यवहार के भाव की विवृत्ति की आवश्यता है, अतः आपको धैर्य्य रखना चाहिए। जैसा मैं आपसे कह चुका हूँ, मेरा विचार है कि इस विषय की विशेष विवृत्ति करूँ और अच्छी तरह छानबीन करके यह दिखलाऊँ कि यह भाव कैसे अति नीच आदर्श से निकला, कैसे एकता के महदादर्श का आविष्कार हुआ और विश्वव्यापी प्रेम बन गया। हमें भय से बचने के लिये इसका अध्ययन करने की आवश्यकता है। संसार में लोगों को अवकाश नहीं मिलता कि वे इसका पता चला कि कैसे यह सामान्य भाव से विकास

को प्राप्त हुआ। पर हमें उच्च स्थान पर पहुँचने से क्या लाभ, [ २७ ]
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यदि हम उन लोगों को जो हमारे पीछे आनेवाले हैं, सत्य को बतला न सकें? अतः यह अच्छा जान पड़ता है कि इसकी अवांतर श्रेणियों की जाँच की जाय। सब से पहली आवश्यक बात तो यह है कि बुद्धि के कामों को अलग कर दिया जाय; क्योंकि हम जानते हैं कि बुद्धिमत्ता कुछ है नहीं। इसमें तो अंतःकरण ही सब से अधिक प्रधान है। आत्म का दर्शन अंतःकरण ही में होता है, बुद्धि द्वारा उसे नहीं देख सकते। बुद्धि तो झाडू देनेवाली है। वह हमारे लिये राह साफ करती है। वह गौण है और चौकीदार का काम करती है। पर चौकीदार की अनिवार्य्य आवश्यकता समाज के काम के लिये नहीं है। वह तो केवल अव्यवस्था मिटाने के लिये है, दोषों को रोकने के लिये है। यही काम है जो बुद्धि से लिया जा सकता है। जब आप किसी ज्ञान की पुस्तक को पढ़ते हैं और जब आप उसे पढ़ चुकते हैं तब आपको जान पड़ता है कि ‘धन्य है ईश्वर जिससे हम निकले हैं’। कारण यह कि बुद्धि अंधी है। उसमें आपसे आप गति कहाँ? उसके न तो हाथ हैं न पैर। वह बोध है जिसकी गति विद्युत् वा अन्य पदार्थों से द्रुततर है। अब प्रश्न यह है कि क्या आपको बोध है? यदि है तब तो आप भगवान् को देख सकते हैं। यह वही बोध है जो आज आपको है; वही बढ़ता जाता है, देवरूप धारण करता जाता है और उच्च अवस्था को प्राप्त हो जाता है, यहाँ तक कि सब में एक ही दिखाई पड़ता

है और यहाँ तक कि ब्रह्म ही ब्रह्म सब में देख पड़ने लगता है। [ २८ ]
[ २८ ]


बुद्धि से ऐसा हो ही नहीं सकता है। भिन्न भिन्न प्रकार से एक ही बात कहना, एक ही वाक्य के अनेक अर्थ करना, यह सब विद्वानों के विनोद की बातें है। आत्मा की मुक्ति से इनका कोई संबंध नहीं है।

आप लोगों में से जिन लोगों ने टामस ए केम्पिस(Thomas a Kempis) को पढ़ा है, वे जानते हैं कि वह कैसे प्रत्येक पृष्ठ पर इसी पर बल देता है; और संसार के सभी महात्मा इसी पर बल देते रहे हैं। बुद्धि की तो आवश्यकता अवश्य है; उसके बिना तो हम अज्ञान-गर्त में गिरते हैं और नाना भाँति की भूलें करते हैं। बुद्धि इन सबसे हमें बचाती है। पर इससे अधिक उससे आशा मत करो। वह अक्रिय है और दूसरे के सहारे सहायक होती है। सच्ची सहायता बोध से मिलती है जो प्रेम है। क्या आपको दूसरे के साथ सहानुभूति है? यदि है तो आप एकता की ओर बढ़ रहे हैं। यदि नहीं है तो आप संसार में कितने ही बुद्धिमान् क्यों न हो, पर आप कुछ नहीं हैं। आपमें केवल सूखी बुद्धि भरी है और आप ऐसे ही सदा कोरे रह जायँगे। और यदि आपमें दूसरों के साथ सहानुभूति है, आपके लिये काला अक्षर भैंस बराबर क्यों न हो, आपको बोलना तक न आता हो पर आप ठीक मार्ग पर हैं। भगवान् आप ही के होंगे।

क्या आपको इतिहास से इसका ज्ञान नहीं है कि धर्मा- चार्य्यौ की शक्ति का आधार क्या था? क्या उसका आधार

उनकी बुद्धि थी? क्या उन लोगों ने दर्शन की बड़ी बड़ी पुस्तकें [ २९ ]
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शिखीं और उनमें तर्क के बाल की खाल निकाली है? कभी नहीं, एक ने भी ऐसा नहीं किया। उन लोगों ने बहुत ही कम कहा है। ईसा ही के अनुसार बोध रखिए, ईसा बन जाइएगा, महात्मा बुद्धदेव के समान बोधि लाभ कीजिए, बुद्धदेव हूजि- एगा। स्मरण रखिए कि बोधि ही जीवन है। यही शक्ति है,यही प्राण है। बिना बोधि के कितनी ही बुद्धि क्यों न हो, ईश्वर को नहीं पा सकते। बुद्धि उस अंग के समान है जिसमें हिलने डोलने की शक्ति नहीं है। उसमें शक्ति तभी आती है जब उसमें बोधि प्रविष्ट होती है और गति देती है; तभी वह दूसरों के आश्रय से काम करती है। यही बात सारे संसार में है; और यह ऐसी बात है जिसे आपको सदा स्मरण रखना चाहिए। वेदांत के धर्म में यह बड़े ही काम की बात है; क्योंकि वेदांत की शिक्षा यह है कि आप सब महात्मा हैं और सबको महात्मा होना चाहिए। पुस्तक आपके आचरण का प्रमाण नहीं है, आप पुस्तक के लिये अवश्य प्रमाण हैं। इसका आपको ज्ञान कैसे हो कि अमुक पुस्तक में सत्य की शिक्षा है? इसी से न कि आप सत्य हैं और आप सत्य को समझते हैं? यही वेदांत का कथन है। संसार के ईसाओं और बुद्धों का प्रमाण क्या है? यही न कि आप में और में मुझ में उन्हीं के समान बोध होता है? यही कारण है कि आप और मैं सब जानते हैं कि वे सच्चे थे। हमारी महान् आत्मा उनकी महान् आत्मा का प्रमाण है। आपका ईश्वरपन स्वयं ईश्वर का प्रमाण है। यदि आप महात्मा न हों [ ३० ]तब तो ईश्वर के संबंध में कुछ सच्चा ही नहीं ठहर सकता है। यदि आप ईश्वर न होते, तो न ईश्वर कभी कहीं था और न होगा। वेदांत का कथन है कि यही आदर्श हैं, इसी का अनु- करण करो। हम प्रत्येक को महात्मा बनना पड़ेगा और आप स्वयं महात्मा ही तो हैं। केवल आप इसे जान जाइए। यह कभी मत समझिए कि आत्मा के लिये कुछ असाध्य है। ऐसा समझना नितांत मिथ्या है। यदि कोई पाप हो सकता है तो यही महापाप है; अर्थात् यह कहना कि हम निर्बल हैं और अन्य लोग निर्बल हैं।