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४ सितम्बर २०२१
- १४:००१४:००, ४ सितम्बर २०२१ अंतर इतिहास +१,०५५ पृष्ठ:कवितावली.pdf/४८ "जल कों गये लक्खन, हैं लरिका, परिखौ, पिय! छाँह घरीक ह्वै ठाढ़े। पाँछि पसेउ बयारि करौं, अरु पायँ पखारिहौं भूभुरि ढाढ़े॥" तुलसी रघुबीर प्रिया-स्त्रम जानिकै बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े। जानकी नाह को नेह लख्यो, पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े॥ टैग: पूर्ववत मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन