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कवितावली

बिबुध-सनेह-सानी बानी असयानी सुनी,
हँसे राघौ* जानकी लषन तन हेरि हेरि॥

अर्थ―प्रभु की निगाह पाकर स्त्री और बालकों को (केवट ने) बुला लिया। वे लोग पैरों में पड़ने और बंदना करने के बाद चारों ओर घेरकर बैठ गये। छोटे से कठौता में गङ्गाजी का पानी भर लाये और पैर धोकर उस पवित्र जल (चरणोदक) को बार बार पीने लगे। तुलसीदास कहते हैं कि देवता लोग प्रसन्न होकर उनके भाग्य को सराहने लगे और फूलों की वर्षा करने लगे और टेरटेरकर 'जय, जय' पुकारने लगे। सनेह से भरी और असयानी (चालाकी से ख़ाली, सीधी) बात सुनकर देवता हँसे; [अथवा देवताओं की सनेहमरी सीधी बात सुनकर] रामचन्द्रजी भी, लक्ष्मण और सीताजी की ओर देखकर, हँसने लगे।

शब्दार्थ―घरवि = स्त्री।

सवैया

[ ३३ ]

पुर तें निकसी रघुवीर-बधू, धरि धीर दये मग में डग द्वै।
झलकीं भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गये मधुराभर वै॥
फिरि बूझति हैं "चलना अब केतिक, पर्ण-कुटी करिहौ कित ह्वै?।
तिय की लखि धातुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चली जल च्वै॥

अर्थ―सीताजी ने गाँव से निकलकर ज्योंही दो पैर रक्खे कि माथे पर पसीना आ गया और मधुर ओठ कपड़े की भाँति सूख गये। फिर पूछने लगीं कि हे प्यारे! कितनी दूर चलना है, पर्णकुटी कहाँ पहुँचकर बनाओगे? स्त्री (श्री जानकीजी) की व्याकुलता को देखकर रामचन्द्रजी की बहुत सुंदर, आँखों से आँसू बहने लगे।

शब्दार्थ―च्वै = चूना, टपकना, बहना। डग = कदम। कनी = बूँदें। मधुराधर = मधुर ( मीठे, कोमल ) ओठ। वै = दोनों।

[ ३४ ]

"जल कों गये लक्खन, हैं लरिका, परिखौ, पिय! छाँह घरीक ह्वै ठाढ़े।
पाँछि पसेउ बयारि करौं, अरु पायँ पखारिहौं भूभुरि ढाढ़े॥"
तुलसी रघुबीर प्रिया-स्त्रम जानिकै बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।
जानकी नाह को नेह लख्यो, पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े॥


*पाठांतर―राम।