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विश्व प्रपंच/तीसरा प्रकरण

विकिस्रोत से
विश्व प्रपंच
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: श्री लक्ष्मीनारायण प्रेस, पृष्ठ २९ से – ३७ तक

 

तीसरा प्रकरण।

हमारा जीवन।

उन्नीसवी शताब्दी मे ही मनुष्यजीवनसंबंधी ज्ञान को वैज्ञानिक रूप प्राप्त हुआ है। सजीव व्यापारो का अन्वेषण करनेवाली विद्या को शैरीरव्यापारविज्ञान * कहते हैं। यह विद्या आजकल अत्यंत उन्नत अवस्था को पहुँच गई है। प्राचीन काल मे ही लोगो का ध्यान सजीव व्यापारो की ओर गया था। वे जीवो की इच्छानुसार हिलना डोलना, हृदय की धड़कना, सॉस खीचना, बोलना आदि देखकर इन व्यापारो का कारण जानना चाहते थे। अत्यत प्राचीन काल मे ना सजीव पदार्थों के हिलने डोलने मे और निर्जीव पदार्थों के हिलने डोलने मे विभेद करना सहज नही था। नदियो का बहना, हवा का चलना, लपट का भभकना आदि जंतुओ के चलने फिरने के समान ही जान पड़ते थे। अत इन निर्जीव पदार्थों मे भी उस काल के लोगो को एक स्वतंत्र जीव मानना पडता था। पर पीछे जीवन के संबध मे जिज्ञासा आरंभ हुई।


  • अगविच्छेदशास्त्र केवल भीतरी अवयवो के स्थान और उनकी बनावट बतलाता है पर शरीरव्यापारविज्ञान उनके व्यापारो और कार्यो की व्यवस्था प्रकट करता है। अगविच्छेदशास्त्र केवल यही बतलावेगा कि अमुक अवयव शरीर के अमुक स्थान पर होता है और इस आकार का होता है, वह यह न बतलावेगा कि वह अवयव क्या काम करता है।
    १७०० वर्ष हुए कि यूरप मे पहले पहल यूनानी हकीम गैलन का ध्यान शरीरव्यापार के कुछ तत्वों की ओर गया। इन तत्त्वो का पता उसने जीते हुए कुत्तो, बंदरो आदि को चीरफाड़कर लगाया था। पर जीवित जंतुओ का चीरना फाडना एक अत्यंत निर्दयता का काम समझा जाता था। परंतु बिना इस प्रकार की चीरफाड किए शरीर के व्यापारो का रहस्य नही खुल सकता है।

सच पूछिए तो १६ वी शताब्दी मे ही शरीर के व्यापारो की ठीक ठीक जाँच यूरप मे कुछ डाक्टरो के द्वारा आरभ हुई। सन् १६२८ में हार्वे ने अपने रक्तसंचारसंबधी आविष्कार का विवरण प्रकाशित कर के यह दिखलाया कि हृदय एक प्रकार का पंप या नल है जो अचेतनरूप से क्षण क्षण पर अपनी पेशियो के आकुंचन द्वारा निरंतर लाल रंग के खून की धारा धमनियो के मार्ग से छोड़ा करता है। जीवधारियो के प्रसवविधान के संबंध मे उसने जो अन्वेषण किए वे भी बड़े काम के थे। पहले पहल उसीने इस नियम का प्रतिपादन किया कि "प्रत्येक जीवधारी गर्भाड से उत्पन्न होता है।" १८ वी शताब्दी के अंत मे हालर ने शरीरव्यापारसंबंधी विद्या को चिकित्साशास्त्र से अलग कर के स्वतंत्र वैज्ञानिक आधार पर स्थिर किया, पर उसने संवेदनात्मक चेतनव्यापारो के लिये एक विशेष 'संविद् शक्ति' का प्रतिपादन किया जिससे 'अभौतिक शक्ति' माननेवालों को भी सहारा मिल गया। १९वीं शताब्दी के मध्य तक शरीरव्यापारविज्ञान मे यही सिद्धांत ग्राह्य रहा कि जीवो के कुछ व्यापार तो भौतिक और रासायनिक कारणो से
होते हैं पर कुछ ऐसे है जो एक विशेष शक्ति द्वारा होते है। यह शक्ति समस्त भूतो से परे तथा द्रव्य को भौतिक और रासायनिक क्रिया से सर्वथा स्वतंत्र मानी गई है। यह स्वयंप्रकाश शक्ति जड़ पदार्थों मे नही होती और भूतो को अपने आधार पर चलाती है। संवेदनसूत्रो की वेदनात्मक क्रिया, चेतना, उत्पत्ति, वृद्धि आदि ऐसी बाते थी जिनके लिये भौतिक और रासायनिक कारण बतलाना अत्यत कठिन था। इस अभौतिक शक्ति का व्यापार उद्देश्यात्मक * माना गया जिससे दर्शनशास्त्र मे उद्देश्यवाद का समर्थन हुआ। प्रसिद्ध दार्शनिक काट ने भी कह दिया कि यद्यपि सिद्धांतदृष्टि से सृष्टि के व्यापारो का भौतिक कारण बतलाने मे बुद्धि मे अपार सामर्थ्य है पर जीवधारियो के चेतनव्यापारो का भौतिक कारण बतलाना वास्तव मे उसकी सामर्थ्य के बाहर है, अतः हमे उनका एक ऐसा कारण मानना ही पड़ता है जो उद्देश्यात्मक अर्थात् भूतो से परे है। फिर तो उद्देश्यवाद एक प्रकार निर्विवाद सा मान लिया गया। बात स्वाभाविक ही थी, क्योकि शरीर के भीतर रक्तसचार आदि व्यापारो का भौतिक, और पाचन आदि क्रियाओ का रासायनिक हेतु तो बतलाया जा सकता था पर पेशियो और संवेदन सूत्रो की अद्भुत क्रियाओ तथा अंत करण (मन) की विलक्षण वृत्तियो का कोई सामाधानकारक हेतु निरूपित नही हो सकता था। इसी प्रकार किसी प्राणी मे भिन्न


• यह सिद्धात कि सृष्टि के व्यापार उद्देश्य रखनेवाली एक चेतन शक्ति के विधान द्वारा होते है।
भिन्न शक्तियो की जो उपयुक्त योजना देखी जाती है उसे, भी भूतो के द्वारा संपन्न नही मानते बनता था। ऐसी दशा मे शरीरव्यापारसंबधी विज्ञान मे भी पूरी द्वैतभावना स्थापित हुई। निरिंद्रिय जड़ प्रकृति और सेद्रिय सजीव सृष्टि के बीच, आधिभौतिक और आध्यात्मिक विधानो के बीच, शरीर और आत्मा के बीच, द्रव्यशक्ति और जीवशक्ति के बीच पूरा पूरा प्रभेद माना गया। १९ वी शताब्दी के आरंभ मे भूतातिरिक्तशक्तिवाद की जड़ शरीरव्यापारविज्ञान मे अच्छी तरह जम गई।

१७ वी शताब्दी के मध्य मे प्रसिद्ध फरासीसी तत्त्ववेत्ता डेकार्ट ने हार्वे के रक्त-संचार संबंधी सिद्धांत को लेकर यह प्रतिपादित किया कि और जंतुओं की भांति मनुष्य का शरीर भी एक कल है और उसका संचालन भी उन्ही भौतिक नियम के अनुसार होता है जिनके अनुसार मनुष्य की बनाई हुई मशीन का होता है। साथ ही उसने मनुष्य मे एक भूतातीत आत्मा * का होना भी बतलाया और कहा कि स्वय अपने ही व्यापारो का जो अनुभव आत्मा को होता है ( अर्थात् विचार ) केवल वही ससार मे ऐसी वस्तु है जिसका हमे निश्चयात्मक बोध होता है। उसका सूत्र है कि---"मै विचार करता हूँ इस लिए मै हूँ।" पर यह द्वैत सिद्धांत रखते हुए भी उसने शरीर व्यापार-सबंधी हमारे भौतिक ज्ञान को बहुत कुछ बढ़ाया। डेकोर्ट के बाद ही एक वैज्ञानिक के


• पशुओ मे इस प्रकार की आत्मा डेकार्ट नहीं मानता था Cogito ergo sum (I think therefore I am)
प्राणियो के अंग-संचालन को शुद्ध भौतिक नियमो का अनुसारी सिद्ध किया और दूसरे ने पाचन और श्वास * की क्रिया का रासायनिक विधान बतलाया। पर उनके युक्तिवाद पर उस समय लोगो ने ध्यान न दिया। शक्तिवाद का प्रचार बढ़ता ही गया। उसका पूर्ण रूप से खंडन तब हुआ जब भिन्न भिन्न जीवो के शरीरव्यापारो का मिलान करनेवाले विज्ञान का उदय हुआ।

तारतम्यक शरीरव्यापारविज्ञान का प्रादुर्भाव १९ वी शताब्दी मे हुआ। बर्लिन विश्वविद्यालय के जोस मूलर नामक उद्भट प्राणिवेत्ता ने ही पहले पहल इस विषय को अपने हाथ मे लिया और २५ वर्ष तक लगातार परिश्रम किया। उसने मनुष्य से लेकर कीटपतंग तक सारे जीवो के अंगो और शरीरव्यापारो को लेकर दार्शनिक रीति से मिलान किया और इस प्रकार वह अपने पूर्ववर्ती आचार्यों से प्राणतत्त्व संबंधी ज्ञान मे बहुत बढ़ गया। मूलर भी अपने सहयोगी शरीरविज्ञानियो के समान शक्तिवादी ही रहा। पर उसके हाथ मे पड़ कर शक्तिवाद का कुछ रूप ही और हो गया। उसने जीवो के समस्त व्यापारो के भौतिक हेतु-निरूपण की। प्रयत्न किया। उसने जिस शक्ति का रूपांतर से प्रतिपादन किया वह प्रकृति के भौतिक और रासायनिक नियमो से परे नही थी, उससे सर्वथा बद्ध थी। उसने इन्द्रियो और मन


• जिससे शरीर के भीतर ऑक्सिजन या प्राणवायु जाती और कारबन निकलता है।
की क्रियाओ का उसी प्रकार भौतिक हेतु बतलाने का प्रयत्न किया जिस प्रकार पेशियो की क्रियाओ का। मूलर की सफलता का कारण यह था कि वह सदा अत्यंत निम्न कोटि के जीवो के प्राणव्यापार को लेकर चलता और क्रम क्रम से उन्नत जीवो की ओर अपनी अनुसंधान-परंपरा को बढ़ाता हुआ मनुष्य तक ले जाता था। मूलर की मृत्यु के पीछे सन् १८५८ मे उसके विस्तृत विषय के कई विभाग हो गए—मानव और तारतम्यिक अंगविच्छेद-परीक्षा, चिकित्सासंबंधी अंगविच्छेद परीक्षा, शरीरव्यापार विज्ञान और विकाशक्रस का इतिहास।

मूलर के अनेक शिष्यो मे से थिउडरश्वान को सब से अधिक सफलता हुई । १८३८ मे जब प्रसिद्ध उद्भिद्विज्ञानवेत्ता थिउडर श्वान ( Theodor Schwann ) ने घटक को सारे पौधो का संयोयक अवयव बतलाया और सिद्ध किया कि पौधो का सारा तंतुजाल इन्ही घटको के योग से बना है, मूलर ने इस आविष्कार से लाभ उठाने की चेष्टा की। उसने प्राणियो के शरीरतंतुओं को भी इसी प्रकार के योग से संघटित सिद्ध करना चाहा। पर यह कठिन कार्य उसके शिष्य श्वान ने किया। इस प्रकार घटक सिद्धांत की नीवँ पड़ी जिसका महत्त्व अंगविच्छेद, शास्त्र और शरीरव्यापार विज्ञान मे दिन पर दिन स्वीकृत होता गया। इसके अतिरिक्त ब्रुक, ( Earnst Bruke ) और कालिकर ( Albert kolliker ) नामक मूलर के दो दूसरे शिष्यो ने यह दिखलाया कि विश्लेषण करने पर जीवो की समस्त क्रियाएँ शरीरतंतु को संघटित करनेवाले
इन्ही सूक्ष्म घटको की क्रियाएँ ठहरती हैं। ब्रुक ने इन घटकों को 'मूलजीव' कहा और बतलाया कि समवाय रूप से ये ही जीवविधान के कारण है। कालिकर ने सिद्ध किया कि जीवधारियो का गर्भाड एक शुद्ध घटक मात्र है।

'घटकात्मक शरीरव्यापार विज्ञान' की पूर्णरूप से प्रतिष्ठा सन् १८८९ मे जरमनी के वरवर्न ( Max Verwarn ) द्वारा हुई। उसने अनेक परीक्षाओ के उपरांत दिखलाया कि मेरा उपस्थित क्रिया हुआ घटकात्मा * संवंधी सिद्धांत एकघटकात्मक अणुजीवो के पर्यालोचन से पूर्ण रूप से प्रतिपादित हो जाता है और इन अणुजीवो के चेतन व्यापारो का मेल जड़सृष्टि की रासायनिक क्रियाओ से मिल जाता है? उसने बतलाया कि मूलर की मिलानवाली प्रणाली तथा घटक की सूक्ष्म आलोचना द्वारा ही हम तत्त्व को यथार्थ रूप मे समझ सकते है।

इस घटकवाद से चिकित्साशास्त्र को भी बहुत लाभ पहुँचा। मूलर के एक दूसरे शिष्य विरशो ( Vnchow ) ने रुग्ण घटको का स्वस्थ घटको से मिलान करके रुग्ण होने पर उनकी दशा के उन सूक्ष्म परिवर्तनो को दिखलाया जो उन विस्तृत परिवर्तनो के मूल स्वरूप होते है जिनसे रोग या मृत्यु होती है। उसने यह सिद्ध कर दिया कि रोग किसी अलौकिक कारण से नही होते बल्कि भौतिक और रासायनिक परिवर्तनो के ही कारण होते हैं।


  • सन् १८६६ में हेकल ने यह सिद्धात उपस्थित किया था। आधुनिक जंतुविभागविद्या के अंतर्गत जितने जीव है सब मे स्तनपायी जीव प्रधान है। मनुष्य इसी स्तन्यवर्ग के अंतर्गत है अतः उसमे वे सब लक्षण होने चाहिए जो और स्तन्य जीवो मे होते है। मनुष्यो मे भी रक्तसंचालन तथा श्वास क्रिया उसी प्रकार और ठीक उन्ही नियमो के अनुसार होती है जिस प्रकार और जिन नियमो के अनुसार और स्तन्य जीवो मे। ये दोनो क्रियाएँ हृत्कोश और फुप्फुस ( फेफड़े ) की विशेष बनावट के अनुसार होती है। केवल स्तन्य जीवो में रक्त हृदय के बाएँ कोठे से धमनी की वाम कंडरा ( शाखा ) में प्रवाहित होता है। पाक्षियो मे यह रक्त धमनी की दक्षिण कंडरा से होकर और सरीसृपो मे दोनों कंडराओ से होकर जाता है। दूध पिलानेवाले जीवो के रक्त मे और दूसरे रीढ़वाले जीवो के रक्त से यह विशेषता पाई जाती है कि उसके सूक्ष्म घटको के मध्य मे गुठली (Nucleus ) नही होती। इसी वर्ग के जीवो की श्वासक्रिया अंतरपट ( diapliragm ) के योग से होती है क्योकि इन्ही जीवो मे उदराशय और वक्षआशय के बीच यह परदा होता है। बड़ी भारी विशेषता तो माता के स्तनो मे दूध उत्पन्न होने और बच्चो को पालने के ढंग की है। दूध की बड़ी भारी ममता होती है इसीसे स्तन्य जीवो मे शिशु पर माता का बहुत अधिक स्नेह देखा गया है।

स्तन्य जीवो मे बनमानुस ही मनुष्य से सब से अधिक समानता रखता है, अतः उसमे वे सब लक्षण मिलते हैं जो मनुष्य मे पाए जाते हैं। सब लोग देखते हैं कि किस प्रकार
वनमानुसो की रहनसहन, स्वभाव, समझ, बच्चो के पालने पोसने का ढंग आदि मनुष्य के से होते है। शरीर व्यापार विज्ञान ने और बातो मे भी साद्श्य दिखलाया है जो साधारण दृष्टि से देखने मे नही आता-हृपिड की क्रिया मे, स्तनो के विभाग में, दांपत्य विधान मे। दोनो के स्त्री-पुरुष-धर्म मिलते जुलते है। वनमानुसो की बहुत सी ऐसी जातियाँ होती है जिनकी मादा के गर्भाशय से उसी प्रकार सामायिक रक्तश्राव होता है जिस प्रकार स्त्रियो को मासिकधर्म होता है। बनमानुस की मादा मे दूध उसी प्रकार उतरता है जिस प्रकार स्त्रियो मे। दूध पिलाने का ढंग भी एक ही सा है।

सब से बढ़ कर ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि मिलान करने पर वनमानुसो की बोली मनुष्य की वर्णात्मक वाणी के विकाश की आदिम अवस्था प्रतीत होती है। एक प्रकार का वनमानुस होता है जो कुछ कुछ मनुष्यो की तरह गाता और सुर निकालता है। कोई निष्पक्ष भाषातत्वविद् इस बात को मानने मे आगापीछा न करेगा कि मनुष्य की विचारव्यंजक विशद वाणी पूर्वज वनमानुसो की अपूर्ण बोली से क्रमशः धीरे धीरे निकली है।

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