विश्व प्रपंच/दसवाँ प्रकरण
दसवाँ प्रकरण।
चेतना।
आत्मा या मन के व्यापारो मे से चेतना से बढ़कर विलक्षण और कोई व्यापार नही। इसके संबंध मे जिस प्रकार भिन्न भिन्न मत दो हजार वर्ष पहले प्रचलित थे उसी प्रकार अब भी। इसी को देखकर आत्मा के अमर और भूतो से परे होने की कल्पना लोगो को सूझी है। यही एक ऐसा रहस्य है जिसके बल पर आत्मा और शरीर को पृथक् माननेवाले द्वैतवादी अनेक प्रकार के अंधविश्वास ग्रहण किए हुए है। अत: तात्त्विक दृष्टि से चेतना का विचार परम आवश्यक है। इस दृष्टि से यदि हम विचार करेगे तो देखेगे कि और दूसरे मनोव्यापारो के समान चेतना भी एक प्राकृतिक गुण है तथा शरीर और अंतःकरण की अन्य वृत्तियो के समान एक प्राकृतिक व्यापार है अर्थात् प्रकृति के नियमो के सर्वथा अधीन है।
चेतना के स्वरूप और लक्षण तक के विषय मे दार्शनिको का एकमत नही। कोई कुछ कहता है, कोई कुछ। पर सब से उपयुक्त परिभाषा उन दार्शनिकों की प्रतीत होती है जो चेतना को एक प्रकार की अंतर्दृष्टि कहते हैं और उसकी उपमा दर्पण की क्रिया से देते हैं। चेतना दो प्रकार की होती है—एक अंतर्मुख, दूसरी बहिर्मुख। अंतर्मुख चेतना को अहंकार भी कहते हैं। अहंकार वृत्ति के द्वारा अंतःकरण अपनी
ही क्रिया का निरीक्षण, अपनी ही अवस्था का बोध करता है। वहिर्मुख चेतना के द्वारा अंत:करण को वाह्य जगत् का बोध
होता है। हमारी अधिकांश चेतना वाह्यजगत्संबंधी होती है। अंतर्मुख चेतना का क्षेत्र संकुचित होता है। उसमें हमारे इंद्रियानुभव, संस्कार, और संकल्प प्रतिबिबित होते हैं।
बहुत से तत्त्वज्ञो की धारणा है कि 'चेतना' और 'मनोव्यापार' परस्पर पर्याय शब्द है अर्थात् जितने मनोव्यापार होते हैं सब चेतन होते है। पर यह धारणा ठीक नही। जैसा मैं पहले दिखा चुका हूँ अधिकतर अंत:क्रियाएँ या मनोव्यापार ऐसे होते हैं जिनकी हमे कुछ भी खबर नही रहती। हमारी इंद्रियों के साथ विषय का संपर्क होता है, अंतःसंस्कार अकित होकर पेशियो मे गति उत्पन्न करते हैं पर हम कुछ भी नही जानते। चेतन अंतःसंस्कार जिनके द्वारा ज्ञानकृत व्यापार होते है और अचेतन अंतःसंस्कार जिनके द्वारा अज्ञानकृत व्यापार होते है, दोनों अंतःकरण या मन ही के व्यापार है।
चेतना का परिज्ञान हमे चेतना ही के द्वारा हो सकता है। उसकी वैज्ञानिक परीक्षा मे यही बड़ी भारी अडचन है। परीक्षक भी वही, परीक्ष्य भी वही। द्रष्टा अपना ही प्रतिबिंब अपनी अंत:प्रकृति मे डाल कर निरीक्षण मे प्रवृत्त होता है। अतः हमे दूसरो की चेतना का परीक्षात्मक बोध पूरा पूरा कभी नही हो सकता। हमे उनकी चेतना का अपनी चेतना से मिलान करते हुए चलना पड़ता है। यदि यह मिलान सामान्य मस्तिष्क के मनुष्यो ही तक रक्खा जाय तब तो हम कुछ थोड़े बहुत सिद्धांत उनकी चेतना के संबंध मे निश्चय
के साथ स्थिर कर सकते हैं। पर यदि हमें असामान्य मस्तिष्क के मनुष्यो ( जैसे प्रतिभाशाली, सनकी, जड़ या विक्षिप्त लोगो ) को लेकर विचार करने जाते है तो हमारे सिद्धांत या तो अपूर्ण या सर्वथा भ्रांत निकलते है। यही बात मनुष्यो की चेतना को जंतुओ ( विशेषतः क्षुद्र जंतुओ ) की चेतना के साथ मिलाने से होती है। ऐसा करने मे इतनी भारी कठिनाइयाँ सामने आती है कि चेतना के संबंध मे भिन्न भिन्न शरीरविज्ञानियो और दार्शनिको के मतो मे आकाश पाताल का अंतर पड जाता है। मुख्य मुख्य मतो का नीचे उल्लेख किया जाता है--
(१) चेतना केवल मनुष्य ही में होती है।
इस सिद्धांत का प्रवर्तक फरासीसी तत्ववेत्ता डेकार्ट है जिसके अनुसार विचार और चेतना मनुष्य ही के गुण है और अमर आत्मा केवल मनुष्य ही मे होती है। इस तत्ववेत्ता ने मनुष्य के व्यापार और पशु के मनोव्यापार मे भेद किया है। इसके मत मे मनुष्य की आत्मा एक विचार करने वाली अभौतिक सत्ता है जो भौतिक शरीर से सर्वथा पृथक है। पर पृथक् होते हुए भी वह मस्तिष्क के एक विशिष्ट अंश के साथ लगी रहती है जिसमे वह वाह्यजगत् के विषयो को संस्कार के रूप मे ग्रहण करे और कर्मेन्द्रियों को प्रवृत्त करे। पशुओं मे विचार करने की शक्ति नही होती, आत्मा नहीं होती। वे कौशल के साथ बैठाए हुए पुरजो की मशीन की तरह है। उनके इंद्रियसंवेदन, अंत:संस्कार और प्रवृत्ति जड़ व्यापार मात्र है जो भौतिक नियमो के अनुसार होते है।
अस्तु, डेकार्ट मनुष्य के संबध मे तो द्वैतवादी था, पर पशुओ के संबध मे अद्वैतवादी। मनुष्यो के संबंध मे तो वह शरीर और आत्मा को दो पृथक वस्तुएँ मानता था पर पशुओ के संबंध मे दोनो को एक ही मानता था। डेकोर्ट के इंस दोरंगे सिद्धांत
का फल यह हुआ कि सत्तरहवी और अठारहवीं शताब्दी के भूतवादी तो मनोव्यापारो को भौतिक क्रिया मात्र सिद्ध करने के लिए उसकी पशुसंबंधी विवेचना का सहारा लेने लगे और अध्या- त्मवादी लोग उसके मनुष्यसंबंधी विवेचन को आगे कर के आत्मा का अमरत्व और शरीर से उसका पृथक्त्व सिद्ध बतलाने लगे। पर मनुष्य की आत्मा के संबंध मे डेकार्ट का यह विवेचन १९ वी शताब्दी के गंभीर और सूक्ष्म अनुसंधानो से सर्वथा भ्रांत सिद्ध हुआ।
(२) चेतना संवेदनसूत्रवाले जीवों ही में होती है--
मनुष्य तथा और उन्नत जीवो ही मे चेतना होती है जिन्हे केंद्रीभूत सवेदनमूत्रविधान अर्थात् विज्ञानमय कोश होता है। यही सिद्धांत आजकल जतुविज्ञान, शरीरविज्ञान, और अद्वैत मनोविज्ञान मे माना जाता है। प्राणिविज्ञान की भिन्न भिन्न शाखाओ मे जो अपूर्व उन्नति हुई है उससे इसी सिद्धांत को समर्थन होता है। हजारो वर्ष से लोग देखते आते है कि बंदर, कुत्ते आदि जो उन्नत कोटि के पशु हैं उनकी बुद्धि बहुत सी बातो मे मनुष्य की बुद्धि से मिलती जुलती होती है। उनके इंद्रियसंवेदन, अंतःसंस्कार, सुखदुःख आदि का अनुभव, इच्छा, द्वेष आदि मनोव्यापार बहुत कुछ मनुष्यो के से होते हैं। यहॉतक
कि इतना सब होने पर भी यह ठीक ठीक नही कहा जा सकता कि उन्नतिक्रम के अनुसार जीवों की वर्गपरंपरा मे किस विशेष वर्ग से चेतना का प्रादुर्भाव होता है। मुझे तो इसी सिद्धांत के सत्य होने की संभावना अधिक प्रतीत होती है जिसके अनुसार चेतना संवेदनसूत्रो के केंद्रीभूत होने पर उत्पन्न होती है। छोटे जीवों मे संवेदनसूत्र एक स्थान पर केन्द्रीभूत नहीं होते, उनमे पूर्ण विज्ञानमय कोश नहीं होता। जिन जीवो मे संवेदन सूत्रो का केन्द्ररूप अवयव या अंत:करण होता है, उन्नत ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं अर्थात् जिनमे विज्ञानमय कोश होता है उन्ही मे चेतना होती है।
(३) चेतना सब प्राणियों में होती है।
छोटे बड़े जितने जीव हैं सब चेतन होते है। यह सिद्धांत उद्भिदो और जंतुओ के आंतरिक व्यापारो मे भेद करता है। प्राचीनो का भी यही विश्वास था कि जंतुओमे इन्द्रियानुभव और चेतना होती है, पर पौधो में नहीं। पर १९ वी शताब्दी के मध्यभाग मे जब स्पज आदि क्षुद्र जंतुओं की आतरिक क्रियाओ की परीक्षा की गई तब इस विश्वास की असारता प्रकट होगई। स्पंज आदिको के स्थावर जंतु होने मे तो कोई संदेह नही, पर उनमें चेतना का कोई आभास उसी प्रकार नही पाया जाता जिस प्रकार पौधो मे। एकघटक अणुजीवो का जब सूक्ष्म परीक्षा की गई तब उनकी और एकघटक अणूद्भिदों की आंतरिक क्रियाओं मे कोई विशेष अंतर नही पाया गया।
(४) चेतना सब शरीरियों में होती हैं, क्या
उद्भिद क्या जंतु। इस मत के अनुसार जीव जंतु, पेड़ पौधे सब चेतन है, पर मिट्टी के ढेले आदि निर्जीव पदार्थों मे चेतना नहीं होती। इस सिद्धांत का यह भाव भी निकलता है कि देहवान् (उद्भिद और जंतु) पदार्थों मे आत्मा होती है। इस मन को माननेवाले प्राण, चेतना और आत्मा को परस्पर सहगामी समझते है। उनकी समझ मे जहाँ एक रहेगा वहाँ दूसरा भी अवश्य रहेगा। फेक्नर नामक तत्त्ववेत्ता ने यह सिद्ध करने तक का प्रयत्न किया है कि पौधो मे भी उसी प्रकार आत्मा होता है जिस प्रकार जंतु में, और पौधे की आत्मा में भी उसी प्रकार चेतना होती है जिस प्रकार मनुष्य आत्मा में। बात यह है कि जब क्षुद्र जंतुओ की अंतःक्रियाओ को चेतना कह सकते हैं तब पौधो की अंतःक्रियाओं का चेतना कहना ही पड़ेगा। लजालु, मक्खी पकड़नेवाले पौधे आदि की गतिविधि अत्यंत क्षुद्र जंतुओ की गतिविधि के सनान ही होती है।
( ५ ) चेतना प्रत्येक घटक में होती है।
जिस प्रकार हम सजीव घटक को अनेकघटक जंतुओं और पौधों के शरीर के मूल अणु मानते हैं, जिनके संयोग से उनके शरीर सघटित हैं, उसी प्रकार हम घटेकात्मा ( घटक की अंतःक्रिया ) को भी शरीर की आत्मा ( अर्थात् उसके उन्नत मनोव्यापारों की समष्टि ) की व्यष्टि मान सकते हैं। हम कह सकते हैं कि चेतना, धारणा आदि उन्नत कोटि के मनोव्यापार सूक्ष्म घटको की क्षुद्र अतःक्रियाओ के योगफल हैं। मैंने समुद्री अणुजीवो की परीक्षा कर के दिखलाया था कि इन मे भी उन्नत
जंतुओं से मिलती जुलती इंद्रियसंवेदना, प्रवृत्ति और गति
आदि होती है। अतः यदि हम समस्त शरीरियो मे चेतना माननेवालों की बात मानें तो शरीर को सघटित करनेवाले अणुरूप घटकों में भी चेतना का कुछ अश हमें मानना पड़ेगा। पहले मैं भी ऐसा ही मानता था, पर अब विवश होकर मुझे स्वीकार करना पड़ता है कि अणुजीवों मे आत्मबोध नहीं होता, उनके इंद्रिय संवेदन और अंगसंचालन आदि अचेतन अर्थात् अज्ञानकृत होते है।
( ६ ) चेतना द्रव्य के परमाणु मात्र में होती है।
इस सिद्धांत ने चेतना को सब से आगे बढ़ाया है, इसकी दौड़ सब से लंबी है। इसे माननेवाले यह समस्या हल करने से बच जाते है कि चेतना की उत्पत्ति कब और कहाँ से होती है। अंत.करण की यह वृत्ति ऐसी विलक्षण है कि इसे किसी और वृत्ति से उत्पन्न बतलाना अत्यंत कठिन ह। अतः इस कठिनता से बचने का सीधा रास्ता यही दिखाई पड़ा कि चेतना द्रव्य मात्र का एक वैसा ही अंतव्र्याप्त गुण मान ली जाय जैसे कि आकर्षण, रासायनिक प्रवृत्ति आदि हैं। ऐसा मानने पर हमे मूलचेतना उतने प्रकार की माननी पड़ती है जितने रासायनिक मूल द्रव्य * ( आक्सिजन, कारबन आदि ) होते हैं।
- मूलद्रव्य वे है जिनमें विशलषण करने पर और किसी द्रव्य का योग नही पाया जाता। अब तक ऐसे ७७ या ७८ तत्वों का पता लगा है। इनके सब से सूक्ष्म टुकड़ों को परमाणु कहते हैं क्योंकि पहले यह सब गड़बड़ चेतना का लक्षण निर्दिष्ट न करने के कारण होता है। मेरे मत मे तो चेतना मनुष्य आदि उन्नत प्राणियों
मनोव्यापारों या अंतःक्रियाओं का एक अंश मात्र है, अधिकतर अंतःक्रियाएँ ( मनोव्यापार ) अचेतन होती हैं अर्थात् वे होती हैं पर हमे उनकी खबर नही होती।
चेतना की उत्पत्ति और लक्षण के संबंध मे चाहे जितने भतभेद हों पर उसके विषय मे दो सिद्धांत मुख्य हैं---एक पनीतवाद दूसरा शरीरधर्मवाद। अतीतवाद चेतना को शरीर या भूतो से अतीत वस्तु (आत्मा) का धर्म मानता है और शरीरधर्मवाद शरीर ही का धर्म मानता है। मै इसी दूसरे सिद्धांत को सत्य मानता हूँ। मै चेतना को शरीर ही का एक धर्म मानता हूँ जो भौतिक और रासायनिक नियमों के अधीन है, उन से परे नहीं। मै उसे संवदनसूत्र ही की एक विशेषता मानता हूँ जो उनके केद्रीभूत होने पर उत्पन्न होती है। संवेदनसूत्रो का केद्ररूप अवयव ( अंत करण ) और उन्नतिक्रम द्वारा पूर्णताप्राप्त ज्ञानेन्द्रिय-विधान विशेष करके जरायुज जंतुओ ही मे होता है। बनमानुस, कुत्ते,
लोग समझते थे कि उनका और विभाग नहीं हो सकता। पर कुछ नए मूल द्रव्य मिले जिनके परमाणु और भी सूक्ष्म अणुओं के योग से बने पाए गए जिन्हें विद्युदणु (Election) कहते है। पहले लोग जल, वायु आदि को मूल भूत समझते थे, पर वे कई मूल भूतो के योग से सघटित द्रव्य है। उनके सयोजक मूलद्रव्य रासायनिक विश्लेषण द्वारा अलग अलग किए जा सकते है।
हाथी आदि की चेतना मे और मनुष्य की चेतना में केवल न्यूनाधिक का भेद है, कोई वस्तुभेद नही। इन पशुओ की चेतना और मनुष्य की चेतना मे उससे अधिक अंतर नही होता जितना अत्यंत असभ्य जंगली मनुष्य की चेतना और सभ्य जाति के दार्शनिको और तत्त्ववितकों की चेतना मे। अस्तु, चेतना मन की समुन्नत क्रिया ही का एक अग हैं और मस्तिष्क की बनावट पर निर्भर है।
सूक्ष्मदर्शक यंत्र आदि की सहायता से मस्तिष्क का जो वैज्ञानिक अन्वीक्षण किया गया उससे पता लगा कि चेतना का अधिष्ठान मस्तिष्क के भूरे मज्जापटल का एक विशेष भाग है। इस क्षेत्र मे बड़ा भारी काम फ्लेशजिक नामक एक जरमन वैज्ञानिक ने किया जिसने मस्तिष्क के भीतर चिंतन करने के अवयवो का पता लगाया। उसने सिद्ध किया कि मस्तिष्क के भूरे मञ्जाक्षेत्र में इंद्रियानुभव के केद्ररूप चार अधिष्ठान या भीतरी गोलक है जो इंद्रियसवेदनो को ग्रहण करते है-स्पर्शज्ञान का गोलक मस्तिष्क
के खड़े लोथड़े मे घ्राण का सामने के लोथड़े में, दृष्टि का पिछले लोथड़े मे और श्रवण का कनपटी के लोथड़े मे रहता है। इन चारो भीतरी इद्रियगोलको के बीच में चार विचारगोलक है जिनके द्वारा भावो की योजना और विचार आदि जटिल मानसिक व्वापार होते हैं। ये ही गोलक चेतना और विचार के करण अर्थात् प्रधान अंतःकरण है। फ्लेशज़िग ने दिखलाया है कि मनुष्य के मस्तिष्क के इन गोलकों के कुछ अंशों मे विशेष प्रकार की रचनाएँ होती हैं
जो और दूसरे दूधपिलानेवाले जीवो मे नही होती। इन्ही विशेषताओ के कारण मनुष्य मानसिक शक्तियो मे सब प्राणियो से बढ़ा चढ़ा है।
आधुनिक शरीरविज्ञान की इन बातो का समर्थन चिकित्साशास्त्र के अनुसंधानों द्वारा भी होता है। जब रोग के कारण मस्तिष्क का कोई भाग नष्ट हो जाता है तब उस भाग के द्वारा होनेवाला मानसिक व्यापार भी शिथिल या नष्ट होजाता है। इस बात से हम मन या अंत करण की भिन्न भिन्न वृत्तियो के स्थान बहुत कुछ निर्दिष्ट कर सकते है। अंत करण की किसी विशेष वृत्ति का स्थान यदि रुग्ण हो जाता है तो साथही वह वृत्ति भी नष्ट हो जाती, जैसे मस्तिष्क के भीतर वाणी का जो केद्र है यदि वह नष्ट होजाय तो आदमी गूगा हो जायगा। इस बात का प्रमाण तो हम नित्य ही पाते हैं कि मस्तिष्क के द्रव्य मे किसी प्रकार का रासायनिक परिवर्तन उपस्थित होने पर चेतना पर पूरा पूरा प्रभाव पड़ता है। कुछ पीने की चीजे ( जैसे चाय और कहवा ) ऐसी है जिनसे हमारी विचारशक्ति कुछ उत्तेजित होती है, कुछ ऐसी हैं (जैसे मद्य, भांग ) जिनसे हमारे मनोवेग उत्तेजित होते हैं। कपूर और कस्तूरी से मूर्छा या वेहोशी दूर होती है, ईथर और क्लोरोफार्म बेहोशी लाता है। यदि चेतना मस्तिष्क के अवयवो से सर्वथा स्वतंत्र कोई अभौतिक सत्ता होती तो ऐसा कैसे होता? जब मस्तिष्क के अवयव काम के नही रहते तब "अमर आत्मा" की चेतना क्या होती है?
इन सब बातो से सिद्ध होता है कि मनुष्य तथा और
स्तन्य जीवों की चेतना परिणामी है---उसमे भीतरी ( जैसे रक्त का चढ़ाव उतार ) और बाहरी कारणो (जैसे आघात, उत्तेजन ) से फेरफार हो सकता है। बहुत सी बीमारियाँ ऐसी होता है जिनमें अंतःसंस्कारो ( अंतःकरण मे उपस्थित प्रतिबिबो ) के उलटफेर से मनुष्य की चेतना दो चार दिन एक प्रकार की रहती है, दो चार दिन दूसरे प्रकार की—दो चार दिन वह अपने को कुछ और समझता है, दो चार दिन कुछ और।
प्रायः सब लोग देखते है कि तुरंत के उत्पन्न बच्चे मे चेतना नही होती * । प्रेयर नामक शरीरविज्ञानी ने दिखलाया है कि चेतना बच्चे मे उस समय स्फुरित होती है जब वह बोलना आरंभ करता है। बहुत दिनों तक वह अपने लिए किसी सर्वनाम आदि शब्द का प्रयोग नही करता। जिस घड़ी वह "मै" शब्द का उच्चारण करता है और उसमे अहंकार वृत्ति स्पष्ट होती है उसी घड़ी से उसमे आत्मचेतना का आरंभ समझना चाहिए। दस वर्ष की अवस्था तक उसके ज्ञान की वृद्धि बहुत जल्दी जल्दी होती है; उसके पीछे वृद्धि की गति कुछ मद होती है। ज्ञान-वृद्धि की यह गति चेतना और उसके करण मस्तिष्क की वृद्धि के अनुसार होती है। पूर्णवयस्क होते ही मनुष्य की चेतना पूर्णता को नही पहुँत जाती; वह ससार के अनेक रूप के व्यवहारो द्वारा, समाज के संसर्ग
- छादोग्योपनिषद् में बच्चों में मन का अभाव माना गया है। "यथा बाला अमनस: प्राणन्तः प्राणेन, वदन्तो वाचा, पश्यन्श्चक्षुषा, श्रृण्वन्तः श्रोत्रेणैवामिति"।
प्रपाठक ५ खड १
द्वारा, परिपक्व होती है। बीस वर्ष की अवस्था के उपरांत तीस वर्ष की अवस्था के भीतर ही भीतर उसके विचार परिपक्व हो जाते हैं और साठ वर्ष की अवस्था तक पूरा काम देते हैं। साठ वर्ष की अवस्था के उपरांत जरावस्था के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं, धीरे धीरे मानसिक शक्तियों का हास होने लगता है, स्मरणशक्ति, ग्रहणशक्ति, विशेष विशेष वस्तुओ की। और प्रवृत्ति क्षीण होने लगती है—हां, उद्भावना की शक्ति, चेतना की परिपक्वता और दार्शनिक सिद्धांत-तत्त्वो की ओर, अभिरुचि कुछ दिनो तक और बनी रहती है।
मनुष्य ने चेतना की जो उच्च अवस्था प्राप्त की है वह भी क्रम क्रम करके। ज्यों ज्यों सभ्यता बढ़ती गई त्यो त्यों उसकी चेतना भी उन्नत होती गई। यह बात जंगली जातियो की ओर ध्यान देने से, उनकी भाषाओ का मिलान करने से, स्पष्ट हो जाती है। भावग्रहण की शक्ति ज्यो ज्यो मनुष्यो मे बढ़ती जाती है त्यो त्यो वे सामने आनेवाले अनेकानेक विशेष पदार्थों के बीच सामान्य लक्षणो को ढ़ूँढ़ निकालने और उन्हे सामान्य प्रत्ययो (भावनाओं) के रूप मे ग्रहण करने मे समर्थ होते जाते है। इस प्रकार उनकी चेतना गूढ़ होती जाती है * ।
- जैस गाय, भैस, बकरी, हिरन, इत्यादि बहुत से विशेष जानवरों को देख मनुष्य सींग को सामान्य लक्षण प कर 'सीगवाले जतु' की एक सामान्य भावना धारण करता है।
Printed by G K Gurjar at Sri Lakshmi
Narayan Press, Benares City.