विश्व प्रपंच/पांचवाँ प्रकरण
पाँचवाँ प्रकरण।
मनुष्य की उत्पत्ति का इतिहास।
जीवविज्ञान की सब शाखाओ मे जीववर्गोत्पत्ति विद्या सब से पीछे निकली है। इसका प्रादुर्भाव भी गर्भविकाश विद्या के पीछे हुआ है और इसके मार्ग मे कठिनाइयाँ भी बहुत अधिक पड़ी है। गर्भविकाश विद्या का उद्देश्य उन विधानो का परिज्ञान प्राप्त करना है जिनके अनुसार उद्भिद् या जन्तु का शरीर मूलाड से क्रमश उत्पन्न होता है, पर जीववर्गोंत्पत्ति विद्या इस बात का निर्णय करती है कि जीवो के भिन्न भिन्न वर्ग किस प्रकार उत्पन्न हुए।
गर्भविकाश विद्या मे तो बहुत सी बातो को प्रत्यक्ष देखने का सुवीता है, क्योंकि वे बाते हमारे सामने बराबर होती रहती है। गर्भाड से स्फुरित होने पर भ्रूण मे एक एक दिन और एक एक घड़ी मे उत्तरोत्तर क्या क्या परिवर्तन होते हैं यह देखा जा सकता है। पर जीववर्गोत्पत्ति विद्या का विषय परोक्ष होने के कारण अधिक कठिन है। उन क्रियाविधान के धीरे धीरे होने मे जिनके द्वारा उद्भिदो और प्राणियो के नए नए वर्गो की क्रमश सृष्टि होती है लाखो वर्ष लगते है। उनके बहुत ही थोड़े अंश का प्रत्यक्ष हो सकता है। उन क्रियाविधानो का परिज्ञान हमे अनुमान और चिंतन द्वारा तथा गर्भविधान और निःशेष जीवो के भूगर्भस्थित अस्थिपंजरो की परीक्षा द्वारा ही विशेषतः होता है। प्राणियो के
विकाश के इस वैज्ञानिक निरूपण का पहले बहुत विरोध किया गया क्योकि वह देवकथाओ और धर्मसंबंधी प्रवादो के प्रतिकूल था। प्राचीन समय मे सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध मे बहुत सी कथाएँ भिन्न भिन्न मतो मे प्रचालित थी। योरप मे ईसाई धर्म का डंका बजता था। ईसाई धर्माचार्य ही ऐसे विषयो के निर्णय के अनन्य अधिकारी माने जाते थे। अतः उनका निर्णय इंजील मे जो सृष्टि की उत्पत्ति की कथा लिखी है उसीके अनुसार होता था। यहाँ तक कि सन् १७३५ मे जब लिने नामक स्वेडन के एक वैज्ञानिक ने ससार के जीवो का वर्गविभाग किया तब वह भी बाइबिल का सिद्धात मानते हुए चली। बड़ा भारी काम उसने यह किया कि प्राणिविज्ञान मे वर्ग-विवरण के लिए दोहरे नामो की प्रथा चलाई। प्रत्येक जंतु के लिए एक तो उसने भेदसूचक या योनिसूचक नास रक्खा, फिर उसके आदि मे उसका वर्गसूचक नाम रख दिया। जैसे श्वन् शब्द के अंतर्गत उसने कुत्ता, भेडिया, गीदड़, लोमड़ी आदि जंतु लिए, फिर इन जंतुओ को इस प्रकार अलग अलग वैज्ञानिक नाम दिएश्वकुक्कुर ( पालतू कुत्ता ), श्ववृक ( भेडिया ), श्वजंबुक (गादड़), श्वलोमशा (लोमड़ी)। श्चन् एक वर्ग का नाम हुआ कुत्ता, लोमड़ी, गीदड़ आदि अलग अलग विशिष्ट योनियो के नाम हुए। दोहरे नामकरण की यह प्रथा इतनी-उपयोगी सिद्ध हुई कि इसका प्रचार वैज्ञानिक मंडली मे हो गया।
लिने ने जीवो का वर्ग-विभाग तो किया पर वह भिन्न भिन्न वर्गों के अवांतर भेदो या विशिष्ट उत्पत्तिकम आदि का
कुछ विवेचन न कर सका। बाइबिल की बात को मानते हुए
उसने यही कहा कि संसार मे उतनी ही योनियाँ दिखाई पड़ती है जितनी के ढॉचे सृष्टि के आरंभ मे ईश्वर ने गढ़े थे। * इस भ्रांत विचार के कारण जीववर्गोत्पत्ति के परिज्ञान के लिए कोई वैज्ञानिक प्रयत्न बहुत दिनो तक नहीं हो सका। लिने को केवल उन्हीं जीवो और उद्भिदो का परिज्ञान था जो इस समय पृथ्वी पर मिलते है।
उसे उन जीवो की कुछ भी खबर न थी जो किसी समय इस पृथ्वी पर रहते थे पर अब जिनके केवल अस्थिपंजर भूगर्भ के नीचे दबे मिलते है।
इन पंजरावशिष्ट जीवो की खबर पहले पहल सन १८१२ के लगभग क्यूवियर ने दी। उसने इन अप्राप्य जीवो के संबंध मे एक पुस्तक लिखी जिसमे इनका सविस्तर विवरण दिया। उसने दिखलाया कि इस पृथ्वी पर भिन्न भिन्न कल्पो मे भिन्न भिन्न जीव परंपरानुसार (एक दूसरे के पीछे) रहे है। पर क्यूवियर ने भी लिने के अनुसार भिन्न भिन्न योनियो को अचल और स्थायी माना इससे उसे पृथ्वी के इतिहास मे संहार और नवीन सृष्टि अनेक बार होने की कल्पना करनी पड़ी। उसने बतलाया कि प्रत्येक प्रलय के
समय सब जीवो का नाश हो जाता है और फिर से सब नए
जीवो की सृष्टि होती है। क्यूवियर का यह 'प्रलयवाद'
- पुराणो मे तो इन योनियों की गिनती चौरासी लाख बतला दी गई है। उनके अनुसार इतनी ही योनियाँ सृष्टि के आरभ मे उत्पन्न की गई थीं, इतनी ही बराबर रही हैं और इतनी ही रहेगी।
नितांत भ्रांतिमूलक होने पर भी तब तक सर्वमान्य रहा जब तक डारविन का समय आ कर नहीं उपस्थित हुआ।
पर विविध योनियो को स्थिर और अपरिणामशील तथा उनकी सृष्टि को दैवी विधान मानने से विचारशील पुरुषो को संतोष नहीं हुआ। कुछ लोग सृष्टि-विधान के प्राकृतिक हेतुओ के निरूपण की चेष्टा मे लगे रहे। इनमे मुख्य था जर्मनी का प्रसिद्ध कवि और तत्ववेत्ता गेटे जिसने भिन्न भिन्न जीव के शरीरो की परीक्षा करके समस्त जीवधारियों के परस्पर घनिष्ठ सबंध और एक मृल से उत्पत्ति का निश्चय किया। सन् १७९० मे उसने सब प्रकार के पौधो को एक आदिम पत्ते से निकला हुआ बतलाया। मेरुदंड अर कपाल की परीक्षा द्वारा उसने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मनुष्य से लेकर समस्त मेरुदंड जीवो के कपाल एक विशेष क्रम से बैठाई हुई हड्डियो के समूह से बने है और ये हड्डियाँ मेरुदंड या रीढ़ के विकार या रूपांतर मात्र है। इस सूक्ष्म पंजरपरीक्षा के आधार पर उसे यह दृढ़ निश्चय हो गया कि सारे जीवो की उत्पत्ति एक ही मूल से है। उसने दिखलाया कि मनुष्य का पंजर भी उसी ढॉचे पर बना है जिस ढॉचे पर और रीढ़वाले जीव का। उस मूल ढॉचे में पीछे से परिवर्तन या विशेषताएँ उत्पन्न करनेवाली दो प्रधान विधायिनी शक्तियाँ हैं----एक तो शरीर के भीतर की अतर्मुख शक्ति जो केंद्र की ओर ले जाती है और नियति या विशिष्टता की ओर प्रवृत्त करती है और दूसरी बहिर्मुख शक्ति जो केंद्र के बाहर ले जाती है और रूपांतर अर्थात्
वाह्यावस्थानुरूप परिवर्तन की ओर प्रवृत्त करती है। पहली शक्ति वही है जिसे आजकल पैतृक प्रवृत्ति * कहते है और दूसरी वह है जो अब स्थिति--सामंजस्य X कहलाती है। गेटे के विचार यद्यपि अनेक प्रकार के प्रमाणो से पुष्ट नहीं हो पाए थे पर उनसे डारविन और लामार्क के सिद्धांतो का आभास पहले से मिल गया।
जीवो के क्रमश रूपांतरित होने का सिद्धांत पूर्णरूप से फरासीसी वैज्ञानिक लामार्क द्वारा ही स्थापित हुआ। १८०२ मे उसने जीवो का परिवर्तनशीलता और रूपांतरविधान के संबंध मे अपने नवीन विचार प्रकट किए जिन्हे आगे चल कर उसने पूर्णरूप से स्थिर किया। पहले पहल उसीने जीव भेदो के स्थायित्वसंबधी प्रवाद के विरुद्ध यह मत प्रकट किया कि योनि-भेद भी जाति, वर्ग, कुल आदि के समान बुद्धिकृत प्रत्याहार, या सापेक्ष भावना मात्र है। उसने निधारित किया कि सब योनियाँ ( जीवभेद ) परिवर्तनशील है और काल पाकर अपने से प्राचीन योनियो से उत्पन्न हुई है। जिन आदिम मूल जीवो से ये सब योनियॉ उत्पन्न
- पैतृक-प्रवृत्ति द्वारा जीवो का एक विशिष्ट ढॉचा वश परपरागत बराबर चला चलता है।
×स्थिति सामजस्य के द्वारा वाह्य अवस्था के अनुसार प्राणियो के अगों मे कुछ विभेद होता जाता है। जैसे मछली और मेढक के शरीर का भेद जो जल की स्थिति से जल और स्थल की उभयात्मक स्थिति मे आने के कारण हुआ है।
हुई हैं वे अत्यंत क्षुद्र और सादे जीव थे। सब से आदिम मूल जीव जड़ द्रव्य से उत्पन्न हुए थे। पैतृक प्रवृत्ति द्वारा ढाँचे का मूलरूप तो बराबर वंशपरंपरानुगत चला चलता है पर स्वभावपरिवर्तन और अवयवो के न्यूनाधिक प्रयोगभेद द्वारा स्थिति-सामंजस्य जीवो मे बराबर फेरफार करता रहता है। हमारा यह मनुष्यशरीर भी इसी प्राकृतिक क्रिया के अनुसार वनमानुसो के शरीर से क्रमशः परिवर्तित होते होते बना है। सृष्टि के समस्त व्यापारो का-क्या बाह्य क्या मानसिक-प्रकृत-कारण लामार्क ने भौतिक और रासायानक क्रियाओ को ही माना।
आदि ही से एक एक जीव की स्वतंत्र सृष्टि माननेवालो का भ्रम तो लामार्क ने अच्छी तरह दिखला दिया पर उसके सिद्धांतो का अच्छा प्रचार न हो सका। अधिकांश वैज्ञानिक उसका विरोध ही करते रहे। इस विषय मे पूर्ण सफलता आगे चल कर डारविन को हुई। उसने अपने समय के सब वैज्ञानिको से बढ़ कर काम किया। उसने अपने 'योनियों की उत्पत्ति' नामक ग्रंथ के द्वारा विज्ञानक्षेत्र मे एक नवीन युग उपस्थित कर दिया। उसके सिद्धांत से सृष्टिसंबंधी बहुत सी समस्याओ का समाधान हो गया। प्राणिविज्ञान के भिन्न भिन्न विभागो मे जिन जिन बातो को पता लगा था सब का सामंजस्य डारविन ने अपने उत्पत्ति सिद्धात मे किया। यही नही, उसने एक रूप के जीव से वंशपरंपराक्रम द्वारा दूसरे रूप के जीव मे परिणत होने का जो कारण "ग्रहण क्रिया" है उसका भी पता लगाया। उसने दिखाया कि जिस प्रकार मनुष्य कुछ
विशेषता रखनेवाले जंतुओ को चुन कर उनसे एक नए प्रकार की नसले पैदा करता है उसी प्रकार प्रकृति भी रक्षा के लिए ऐसे जीवो को चुन लेती है जिनमे स्थिति के अनुकूल अंग आदि मे विशेषता आ जाती है। इस प्रकार उसने प्राकृतिक "ग्रहण सिद्धांत" की स्थापना की। *
- इस सिद्धात का अभिप्राय यह है कि जिस स्थिति मे जो जीव पड़ जाते है उस स्थिति के अनुरूप यदि वे अपने को बना सकते हैं तो रह सकते है अन्यथा नही, अतः जितने जीवो के अग आदि स्थिति के अनुकूल बन जाते है उतने रह जाते है, जिनके नही बनते वे नष्ट हो जाते है। अर्थात् प्रकृति इस प्रकार चुने हुए जीवो को रक्षा के लिए ग्रहण करती है। स्थिति के अनुकूल बनने की क्रिया के कारण ही जीवो के अगो मे भिन्नता आती है और भिन्न भिन्न रूप के जीव उत्पन्न होते हैं। यह प्राकृतिक नियम है कि स्थिति परिवर्तन के अनुरूप किसी वर्ग के कुछ जीवो मे यदि औरो से कोई विशेषता उत्पन्न हो जाती है तो वह विशेषता पुश्त दर पुश्त चली चलती है। इस रीति से उस वर्ग मे एक नए ढॉचे के जतु का विकाश हो जाता है। जंतुव्यवसायी प्राय: ऐसा करते है कि किसी वर्ग के कुछ जतुओ मे कोई विलक्षणता देख कर उनको चुन लेते है, और उन्ही के जोडे लगाते है। फिर उन जोडो से जो जतु उत्पन्न होते है उनमे से भी उन्हे चुनते है जिनसे वह विलक्षणता अधिक होती है। इस रीति से वे कुछ पुश्तो के पीछे एक नए ढाँचे का जतु ही उत्पन्न कर लेते है, जैसे जगली नीले ( गोले ) कबूतर से अनेक रंग और ढग के पालतू कबूतर बनाए गए है। यह तो हुआ मनुष्य जीवविज्ञान में डारविन ने इस बात पर बहुत जोर दिया कि जंतुओं और उद्भिदों की उत्पत्ति-परंपरा स्थिर कर दी जाय।
किस प्रकार एक प्रकार के जीवों से उत्तरोत्तर अनेक प्रकार के जीव की सृष्टि होती गई इसका क्रम निर्धारित कर दिया जाय। तदनुसार सन् १८६६ मे मैंने इस विषय पर एक पुस्तक लिख कर इस बात का प्रयत्न किया। पहले एक विशिष्ट रूप के जीव को लेकर मैंने यह दिखलाया कि किस प्रकार गर्भावस्था मे क्रमशः उसके विविध अंगों का स्फुरण होता है फिर यह निर्धारित किया कि किस क्रम से सजीवसृष्टि मे उत्तरोत्तर भिन्न भिन्न रूपों ( योनियों ) का विधान हुआ है। विकाश से पहले गर्भ का उत्तरोत्तर स्फुरण ही ससुझा जाता था। पर
का चुनाव का "कृत्रिम ग्रहण"। इसी प्रकार का चुनाव या ग्रहण प्रकृति भी करती है जिसे "प्राकृतिक ग्रहण" कहते हैं। दोनो मे अंतर यह है कि मनुष्य अपने लाभ के विचार से जंतुओ को चुनता है पर प्रकृति यह चुनाव जीवों के लाम के लिए होता है। प्रति उन्हीं जीवों को रखने के लिए चुनती या रहने देती है जिनमें स्थितिपरिवर्तन के अनुकूल अंग आदि हो जाते हैं। हेल को लीजिए। उसके गर्म की अवस्थाओ का अन्वीक्षण करने से पता चलता है कि वह स्थलजारी जंतुओं में उत्पन्न हुआ है, उनके पूर्वज पानी के किनारे दलदलो के पास रहते थे फिर क्रमशः ऐसी अवस्था आती गई जिससे उनका जमीन पर रहना कठिन होता गया और स्थितिपरिवर्तन के अनुसार उनके अवयवों मे फेरफार होता गया, यहाँ तक कि कुछ काल पीछे उनकी संतति में जल में रहने के उपयुक्त अवयवों का विधान हो
मैंने यह स्थिर किया कि गर्भ के उत्तरोत्तर क्रमविधान के अनुसार ही जीववर्गों का भी उत्तरोत्तर क्रमविधान हुआ है। जिस क्रम से भ्रूण गर्भ के भीतर एक अणुजीव से एक रूप के उपरांत दूसरे रूप को प्राप्त होता हुआ पूरा सावयव जंतु हो जाना है उसी काम से एकघटक अणुजीव से भिन्न भिन्न रूपो के छोटे बड़े जीवो की उत्पत्ति होती गई है। अस्तु, दोनो प्रकार के विकाश समान नियमो के अनुसार होते हैं। गर्भविधान या व्यक्तिविकाश-विधान वर्गविकाश विधान की संक्षिप्त
गया, जैसे उनके अगले पैर मछली के परो के रूप के हो गए, यद्यपि उनमे हड्डियाँ वेही बनी रही जो घोडे, गदहे आदि के अगले पैर मे होती है। कई प्रकार के ह्वेलो मे पिछली टॉगों का चिन्ह अब तक मिलता है।
जीवो के ढॉचो मे बहुत कुछ परिवर्तन तो अवयवो के न्यूनाधिक व्यवहार के कारण होता है। अवस्था बदलने पर कुछ अवयवो का व्यवहार अधिक करना पड़ता है और कुछ का कम। जिनका व्यवहार अधिक होने लगता है वे वृद्धि को प्राप्त होने लगते है और जिनका कम होने लगता है वे दब जाते है। मनुष्य ही को लीजिए, जिसकी उत्पत्ति बनमानुसो से धीरे धीरे हुई है। ज्यो ज्यों दो पैरो के बल खड़े होने और चलने की वृत्ति अधिक होती गई त्यो उसके पैर चिपटे, चौड़े और कुछ दृढ होते गए और ऍडी पोछे की ओर कुछ बढ़ गई। बनमानुस से मनुष्य मे ढॉचे आदि का बहुत अधिक विभेद नहीं हुआ। एक ही ओर बहुत अधिक विशेषता हुई, उसके अतःकरण या मस्तिष्क की वृद्धि अधिक हुई।
प्रकार गर्भविज्ञान और शरीरविज्ञान के आधार पर जो जीवोत्पत्ति-परंपरा ( अर्थात् किस प्रकार के जीव से किस प्रकार के दूसरे जीव उत्पन्न हुए ) निर्धारित हुई थी उसका सामंजस्य भूगर्भ मे मिली हुई अप्राप्य जीवो की ठठरियो से पूरा पूरा हो गया। संक्षेप मे यह परंपरा इस प्रकार है---
सब से पहले आदिम मत्स्य, फिर फेफड़ेवाल मत्स्य*, फिर जलस्थलचारी जंतु (मेढक आदि), सरीसृप, और स्तन्य जतु। स्तन्य जीवो मे अंडजस्तन्य सब से पहले हुए, फिर उन्ही से क्रमशः अजरायुज पिडज ( थैलीवाले ) और जरायुज जंतु उत्पन्न हुए। इन जरायुजो से ही किपुरुष निकले जिनमे पहले बंदर फिर वनमानुस उत्पन्न हुए। पतली नाकवाले वनमानुसो मे पहले पूँछवाले कुक्कुराकार बनमानुस हुए, फिर उनसे बिना पूँछवाले नराकार वनसनुस हुए। इन्ही नराकार वनमानुसो की किसी शाखा से वनमानुसो के से गूंगे मनुष्य उत्पन्न हुए और उनसे फिर बोलनेवाले मनुष्यो की उत्पत्ति हुई।
रीढ़वाले जंतुओं के उत्पत्तिक्रम की श्रृंखला तो इस प्रकार मिल जाती है पर उनसे पहले के बिना रीढ़वाले जंतुओ की श्रृंखला मिलाना कठिन है। भूगर्भ के भीतर उनका कोई चिह्न नही मिल सकता, इससे प्राग्जंतुविज्ञान कुछ सहायता नही
- इस प्रकार की मछलियाँ अब बहुत कम मिलती है; आस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी अमेरिका में दो तीन जातियाँ पाई जाती है। ये मछलियो और मेढक आदि जलस्थलचारी जतुओं के बीच में हैं।
भूगर्भ के भीतर प्राचीन जतुओं के चिह्रो की खोज करनेवाली विद्या।
दे सकता। पर तारतम्यिक शरीर-विज्ञान और गर्भ-विज्ञान आदि के प्रमाणो पर हम इस शृंखला को मूल तक ले जा सकते हैं। हम यह दिखला सकते हैं कि मनुष्य का भ्रूण भी दूसरे रीढ़वाले जंतुओ के भ्रूण के समान कुछ दिनो तक सूत्रदड अवस्था मे (जब कि रीढ़ के स्थान मे सूत की तरह लचीली शलाका होती है) रहता है। अंत जीव सृष्टि के नियमानुसार * हम निश्चित कर सकते हैं कि पूर्वकाल के जीव सूत्रदंड और द्विकलघट रूप के रहे है। सब से अधिक ध्यान देने की बात तो यह है कि मनुष्य का भ्रूण भी और प्राणियो के भ्रूण के समान आदि मे एक घटक के रूप का ही होता है। यह एक घटक पिड इस बात का पता देता है कि जीवसृष्टि के आदिम काल मे एक घटक जीव ही रहे होगे।
हमारे तत्त्वाद्वैतवाद की स्थापना के लिए बस इतना ही देखना काफी है कि मनुष्ययोनि वनमानुसयोनि से निकली है जो क्षुद्र मेरुदंड जीवो की परंपरा से विकसित हुई है। हाल
- यह नियम कि गर्भ के बढ़ने का क्रम और एक जीव से दूसरे जीव के उत्पन्न या विकासित होने का क्रम एक ही है। गर्भ मे भ्रूण जिस एक मूलरूप से क्रमशः जिन दूसरे रूप मे होता हुआ कुछ महीनों मे एक विशेष रूप का होकर तैयार हो जाता है सृष्टि मे भी उसी एक मूल रूप से उन्हीं दूसरे रूपों में होती हुई अनेक योनियाँ क्रमशः उत्पन्न हुई है। अतर इतना ही है कि मछली से मनुष्य होने में तो करोड़ों वर्ष लगे होंगे पर मत्स्याकार गर्भपिंड से नराकार शिशु होने मे कुछ महीने ही लगते हैं।
मे जो भूगर्भस्थपंजर मिले है उनसे इसे वनमानुसी सिद्धांत की पुष्टि अच्छी तरह हो गई है। जरायुज जंतुओ के जो मांसभक्षी खुरपाद और किपुरुष आदि भिन्न भिन्न वर्ग है उनकी परंपरा की श्रृंखला आज कल पाए जानेवाले जंतुओ को देखने से ठीक ठीक नही मिलती थी। बीच मे बहुत से स्थान खाली पड़ते थे। भूगर्भ की छानबीन से अब इन स्थानो की पूर्ति हो गई है, बहुत से ऐसे जतुओ के पंजर मिले है जो उपर्युक्त भिन्न भिन्न वर्गो के मध्यवर्ती जंतु थे। इन जंतुओ को किसी एक वर्ग मे रखना कठिन जान पड़ता है क्योकि इनमें भिन्न भिन्न वर्गों के लक्षण मिले जुले है। पूर्ण जरायुज अवस्था मे आने के पहले की अवस्था के जो क्षुद्र जीव ( पजर ) मिले है उनमे खुरपाद, मांसभक्षी आदि वर्गों के लक्षण मिले जुले हैं। सब के पंजरो का ढॉचा एक सा है, सब ४४ दॉतवाले है, सब का आकार छोटा तथा मस्तिष्क की बनावट अपूर्ण है। तीस लाख वर्ष पहले ये जीव इस पृथ्वी पर थे। जीवसृष्टि क्रम के विचार से कहा जा सकता है कि ये पूर्व-जरायुज जतु भी थैलीवाले मासभक्षी क्षुद्र जंतुओ से जरायु की विशेपता उत्पन्न हो जाने के कारण निकले है।
जिस जीव का वह पंजर है वह बनमानुस और मनुष्य के बीच का जीव था। ऐसे जीव की खोज बहुत दिनो से थी। जावा के इस वानराकार नरपंजर के मिलने से मनुष्य का वनसानुस से क्रमशः निकलना प्राग्जंतुविज्ञान द्वारा भी उसी निश्चयात्मकता के साथ सिद्ध होगया जिस निश्चयात्मकता के साथ शरीरविज्ञान और गर्भविज्ञान द्वारा सिद्ध था। अस्तु, मनुष्यजाति की उत्पत्ति के संबंध में तीन प्रकार के प्रमाणो की एकरूपता हो गई।