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विश्व प्रपंच/सातवाँ प्रकरण

विकिस्रोत से
विश्व प्रपंच
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: श्री लक्ष्मीनारायण प्रेस, पृष्ठ ८६ से – १११ तक

 

सातवाँ प्रकरण।

मनोविधान की श्रेणियाँ।

विकाशसिद्धांत की सहायता से मनोविज्ञान ने इधर जो उन्नति की है उसके द्वारा समस्त जीवसृष्टि के मनस्तत्व की एकता पूर्णतया प्रतिपादित हुई है। तारतम्यिक मनोविज्ञान ने भी यह निश्चय दिला दिया है कि एकघटक अणुजीव से लेकर मनुष्य पर्यत सब प्राणियो के जीवनव्यापार प्रकृति की उन्ही मूल शक्तियो अर्थात् सवेदन और गति से उत्पन्न हुए है। अतः अब मनोविज्ञान के तत्त्वो का निरूपण दार्शनिको के उन्नत अंत:करण की स्वानुभूति या आत्मनिरीक्षण के आधार पर ही नही होगा बल्कि जिन अनेक क्षुद्र या पाशव अवस्थाओ से क्रमश काल पाकर मनुष्य के उन्नत अंत करण की व्यवस्था हुई है उनकी संबंधपरपरा का भी पूर्ण विचार किया जायगा।

संपूर्ण मनोव्यापार शरीर के जीवनतत्त्वरूपी कललरस मे होनेवाले परिवर्तनो के अनुसार होते है। हमने कललरस के उस अंश का नाम जो मनोव्यापारो का आधार-स्वरूप प्रतीत होता है मनोरस रक्खा है। हम उसकी कोई विशेष स्वतत्र सत्ता नही मानते। हम आत्मा या मन को कललरस के अंतव्यापारो की समष्टि मात्र समझते है। इस निश्चय के अनुसार 'आत्मा' शब्द शरीर का एक विशेष धर्म सूचित करने के लिये एक भाववाचक संज्ञा मात्र है। मनुष्य तथा और दूसरे उन्नत
जीवो से अवयवों और तंतुओ के कार्यविभाग के अनुसार मनोरस अलग विभक्त हो कर संवेदनग्राहिणी सवेदनसूत्रग्रंथियों की थातु का रूप धारण करता है। क्षुद्रकोटि के जीवो और पौधो मे जिन्हे संवेदना के लिए पृथक और विशिष्ट सूत्र या अवयव नही होते मनोरस इस प्रकार एक स्वतंत्र रूप में विभक्त नही होता।

एकघटक अणुजीवो मे मनोरस या तो घटक के समस्त कललरस ही को कह सकते है या उसके एक अंश को। उनमें संवेदनग्राही सूत्र आदि अलग नही होते। क्षुद्र से क्षुद्र और उन्नत से उन्नत मनोविधान में मनोधातु की कुछ रासायनिक योजना और भौतिक क्रिया के बिना 'आत्मा' का व्यापार नहीं उत्पन्न हो सकता। अणुजीवो की कललरसगत क्षुद्र संवेदना और गति से लेकर मनुष्य आदि उन्नत प्राणियो के जटिल इद्रिय व्यापार और मस्तिष्क-व्यापार तक सब के विषय मे यही नियम हैं। मनोरस की वह क्रिया जिसे हम 'आत्मा' कहते है शरीर के द्रव्यवैकृत्य धर्म * से संबद्ध है।

समस्त जीव संवेदनग्राही है। वे अपने चारो ओर स्थित पदार्थों का प्रभाव ग्रहण करते हैं और अपने शरीर की स्थिति


  • metabolism घटकों या तंतुओं की बह किया जिसके अनुसार वे रक्त द्वारा प्राप्त पोषक द्रव्यो को अपने अनुरूप रस या धातु में परिवर्तित कर लेते है या घटकस्थ कललरस को विश्लिष्ट कर के ऐसे सादे द्रव्यो में परिणत कर देते है जो पाचनरस बनाने और मल निकालने मे काम आते हैं।
    के कुछ परिवर्तनो द्वारा उन पदार्थों पर भी प्रभाव डालते हैं। प्रकाश और ताप, आकर्षण और विद्युदाकर्षण, रासायनिक क्रियाएँ और भौतिक व्यापार सब के सब संवेदनात्मक मनोरस में उत्तेजना या क्षोभ उत्पन्न करके उसके अण्वात्मक विधान मे परिवर्तन उपास्थत करते हैं। मनोरस की इस संवेदना की क्रमशः पॉच अवस्थाएँ है---

(१) जीवविधान की प्रारंभिक अवस्था मे समस्त मनोरस ही सर्वत्र समानरूप से संवेदनग्राही होता है और क्षोभकारक पदार्थ पर बाहर से प्रभाव डालता हैं। सब से क्षुद्र कोटि के अणुजीव और बहुत से पौधे इसी अवस्था मे रहते है।

(२) दूसरी अवस्थावह है जिसमे शरीर के ऊपर विषयविवेकरहित इंद्रियाभास कललरस के सुतड़ो या बिंदियो के रूप मे प्रकट होते हैं। ये स्पर्शेंद्रिय और चक्षु के पूर्व रूप है जो कुछ उन्नत अणुजीवो तथा दूसरे क्षुद्र जंतुओ और पौधो मे देखे जाते है।

(३)तीसरी अवस्था में इन्ही मूलविधानो से विभक्त होकर अलग अलग कार्यो के उपयुक्त विशिष्ट इंद्रियाँ उत्पन्न होती है। इनमे रसनेद्रिय और घ्राणेद्रिय रासायनिक करण है अर्थात् रासायनिक क्रियाओ को ग्रहण करती है; स्पर्शेद्रिय, श्रवण, और चक्षु, भौतिक करण हैं अर्थात् इनसे कोमलता, कठोरता, शीत, उष्ण, शब्द ( वायुतरंग ), तथा वर्ण और आकृति इत्यादि भौतिक गुणो और व्यापारो का ग्रहण होता है। इन "इन्द्रियों की शक्ति" कोई निहित मलगण
नहीं है बल्कि कार्योपयुक्त परिवर्तन और वंशपरंपरागत उन्नति क्रम के द्वारा प्राप्त होती है।

( ४ )चौथी अवस्था मे समस्त संवेदनविधानो अर्थात इद्रियव्यापारो का एक स्थान पर समाहार होता है। विकीर्ण या भिन्न भिन्न स्थानो पर स्थित इंद्रियव्यापारो का एक स्थान पर समाहार होने से अंत संस्कार उत्पन्न होता है, अर्थात् इंद्रियसंवेदनो के स्वरूप अंकित होते हैं। पर चेतन अंतः करण का विकाश न होने के कारण उन स्वरुपो का कुछ वोध नही होता। यह अवस्था बहुत से क्षुद्र जंतुओ की होती है।

( ५ )पॉचवी अवस्था मे अंकित इंद्रियसवेदनो का प्रतिबिब संवेदन-सूत्रजाल या विज्ञानमयकोश के केद्रस्थल मे पड़ता है जिससे अतःसाक्ष्य या स्वांतवृत्तिबोध उत्पन्न होता है। * इस प्रकार चैतन्य की उत्पत्ति हो जाने पर जीव को अपने ही अंत.करणके व्यापारो को बोध होने लगता है। मनुष्य तथा दूसरे रीढ़वाले जंतु इसी चेतन अवस्था के अंतर्गत हैं।

समस्त जीवधारियो मे "स्वत.प्रवृत्त गति" की भी शक्ति होती है। सजीव मनोरस का कुछ ऐसा रासायानिक संयोग होता है कि कारण पाकर उसके अणु अपना स्थान बदलते है। इस प्रकार की सजीव गति कुछ तो हम ऑखो से देख सकते हैं। यह गति पाँच अवस्थाओ मे पाई जाती है---


  • अतःकरण से आत्मा को पृथक् माननेवाले यहीं से आत्मा का प्रादुर्भाव मान सकते हैं। आत्मा का नाम चैतन्य हैं। ( १ ) जीवविधान की अत्यंत क्षुद्र प्रारंभिक अवस्था मे, जैसे समुद्र के क्षुद्र उद्भिदाकार कृमियो आदि अत्यंत निम्न श्रेणी के जीवों मे, केवल "अंगवृद्धि की गति" देखी जाती है। हम उनके आकार की क्रमशः होनेवाली वृद्धि और परिवर्तन को देख कर ही इस गति का अनुमान कर सकते हैं।

( २ ) बहुत से उद्भिदाकार सूक्ष्म जंतु आगे की ओर एक लसीला पदार्थ निकाल कर शरीर ढालते हुए रेगतें या तैरते हैं।

( ३ ) बहुत से क्षुद्र समुद्री अणुजीव कभी घटस्थ वायु को निकाल कर और कभी तरलाकर्पण * शक्ति के द्वारा अपने गुरुत्व मे अंतर डाल कर पानी मे नीचे जाते या ऊपर उठते है।

( ४ ) बहुत से पौधे, जैसे लजालू ( लज्जालु ) अपने शरीर के तनाव मे फेरफार करके अपनी पत्तियो तथा और अवयवो को हिलाते है अर्थात् वे अपने घटस्थ कललरस के तनाव को घटा बढ़ाकर अपने अवयवो को सुकोड़ते या फैलाते है।

( ५ ) सजीव पदार्थों की सब से अधिक ध्यान देने योग्य गति आकुंचन है। इसमें जीव के बाहरी अवयवों की स्थिति मे जो अतर पड़ता है वह शरीरस्थ द्रव्यो के आकुंचन


  • द्रव पदार्थों में परस्पर मिलने की प्रवृत्ति जो अणुओं के परस्पर आकर्षण से संबंध रखती है।
    और प्रसारण द्वारा। यह आकुंचनात्मक गति चार प्रकार की देखी जाती है--

( क ) जल मे रहनेवाले अस्थिराकृति अणुजीवो की सी गति। *


  • इस प्रकार के अस्थिराकृति सूक्ष्म अणुजीव ताल या गड्ढो के बँधे जल मे तथा समुद्र मे होते हैं। इनका शरीर एक ही घटक को बना हुआ सूक्ष्म मधुविद्वत् होता है। ये बहुत ही अच्छे खुर्दबीन से दिखाई पड़ सकते है। इनका आकार क्षण क्षण पर बदलता रहता है। इस आकार बदलने का कारण यह है कि ये चारो ओर कभी कहीं कभी कहीं अपने शरीर से पैरो की तरह की अनेक शाखाएँ या पादाकुर निकाला करते है। इनके चलने की क्रिया इस प्रकार होती है कि ये एक ओर बडी सी शाखा या पादाकुर निकालते है फिर उसी ओर अपना सारा शरीर ढाल देते है‌। इस प्रकार शाखा निकालते और शरीर ढालते हुए ये आगे बढ़ते जाते है। इन जीवो को विशिष्ट इद्रियाँ नही होती।

इनका शरीर झिल्ली के भीतर बद कललरस-कणिका के अतिरिक्त और कुछ नही होता। कललरस के भीतर बिंदु का तरह एक खाली स्थान होता है जो सुकड़ता और फैलता रहता है। इसी आकुचन और प्रसारण क्रिया से शरीर मे प्राणवायु और आहार को सचार होता है। यह पाचन और रक्तसचार का आदिम रूप है। बतलाने को आवश्यकता नही कि ऐसेही अनेक क्षुद्र अणुजीवो के योग स बड़े जतुओं के शरीर बने है। मनुष्य के रक्त मे भी इसी प्रकार के अणुजीव होते हैं। इनका शरीर सर्वत्र एकरस होता है। जो कुछ व्यापार वे कर सकते हैं अपने रसबिदुरूपी शरीर के प्रत्येक भाग से कर सकते हैं। ( ख ) घट के भीतर कललरस की वैसीही गति या प्रवाह।

( ग ) रोई या सुतड़ेवाले अणुजीवो, शुक्रकीटाणुओ इत्यादि की कुटिल गति। ( ये जीव अपने रोइयो या सुतड़ो के सहारे जल या द्रव पदार्थ मे रेगते हैं। )

( घ ) मांसपेशियो * के संचालन की गति जो अधिकतर जंतुओ मे देखी जाती है।

संवेदन और गति के संयोग से जो मूल या आदिम मनोव्यापार उत्पन्न होता है उसे प्रतिक्रिया कहते है। इसमे गति चाहे किसी प्रकार की हो संवेदन उत्पन्न करनेवाली विषयोत्तेजना के कारण होती है। इसीसे इसे उत्तेजित गति कहते है। कललरस मे उत्तेजित होने का गुण होता है। जीव के चारो ओर स्थित पदार्थों मे जो भौतिक या रासायनिक परिवर्तन उपस्थित होता है कुछ अवस्थाओ मे वह मनोरस को उत्तेजित करता है जिससे शरीर मे गति का वेग छूट पड़ता है। जड़सृष्टि मे भी इस प्रकार उत्तेजना पाकर बेग के छूटने का भौतिक व्यापार देखा जाता है, जैसे चिनगारी पड़ने से वारूद का भड़कना, ठोकर या आघात लगने से


  • ककाल से लगा हुआ मास बहुत से सूक्ष्म टुकड़ो या ग्राथियो से बना होता है। इन अलग अलग ग्रथियों को पेशी कहते है। पेशियाँ कई आकार की होती है--कोई लबी, कोई पतली, कोई मोटी, कोई चौकोर और कोई तिकोनी। ये महीन सूतो से जुड़ी रहती है, यदि सूत हटा दिए जायँ तो ये अलग अलग हो जाती हैं। जितनी गतियाँ शरीर मे होती हैं सब इन्हीं मास पेशियों ही के द्वारा।
    डेनामाइट का भड़कना इत्यादि। जीवधारियो मे जो प्रतिक्रिया होती है उन्नतिक्रम मे उसकी सात अवस्थाएँ देखी जाती है--

( १ ) जीवविधान की प्रारंभिक अवस्था के सब से क्षुद्र अणुजीवो मे वाह्य जगत् की उत्तेजना ( ताप, प्रकाश, विद्युत् आदि ) से कललरस मे केवल वही गति उत्पन्न होती है जिसे अंगवृद्धि और पोषण कहते है और जो समस्त जीवधारियो मे समान रूप से पाई जाती है। अधिकांश पौधों मे भी ऐसा ही होता है।

( २ ) डोलने फिरनेवाले अणुजीवो ( जैसे अस्थिराकृति अणुजीवो ) मे बाहर की उत्तेजना शरीरतल के प्रत्येक स्थान पर गति उत्पन्न करती है जिससे आकृति बदलती रहती है और स्थान भी बदलता है। यह आकृतिपरिवर्तन और हिलना डोलना शरीर मे से क्षण क्षण पर कभी इधर कभी उधर चारो और पादांकुर या शाखाएँ निकलते और सिमटते रहने से होता है। ये जीव यथार्थ मे कललरस के छीटे के रूप के ही होते है अतः इनमे जो पादांकुर निकलते और मिटते रहते है वे स्थिर अवयव नही कहे जा सकते। इसी प्रकार की उत्तेजन-ग्राहकता से लजालू आदि पौध तथा कई अनेकघटक ( अनेक घटको के योग से वने ) जीवो मे भी प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। अनेकघटक जीवो मे उत्तेजना एक घटक से हो कर फिर दूसरे घटक मे जाती है क्योकि ये घटक एक प्रकार के तंतु से संबद्ध रहते हैं।

( ३ ) बहुत से उन्नत कोटि के अणुजीवों मे दो अत्यंत सादे अवयव या इंद्रियाँ देखी जाती हैं। एक स्पर्श की इंद्रिय,
दूसरी गति की इंद्रिय। ये दोनो करण (इंद्रियां) भी कललरस के बाहर निकले हुए अंकुर मात्र हैं। स्पर्श की इंद्रिय पर जो उत्तेजना पड़ती है वह घटकस्थ मनोरस द्वारा गति की इंद्रिय तक पहुंचती है और उसे आकुंचित करती है। समुद्र मे पाए जाने वाले रोईदार अणुजीवो को लेकर यह व्यापार देखा जा सकता है। ये जीव अस्थिराकृति जीवो से कुछ बडे ( अर्थात ४०० इंच के लगभग ) और अनेक आकार के होते है---कोई प्याले के आकार के, कोई घंटी के आकार के, कोई जौ के आकार के। इनमे कुछ चर ( चलने फिरनेवाले ) होते है और कुछ अचर। इनके शरीर मे एक प्रकार के रोएँ होते है जिनके सहारे ये चलते फिरते और आहार संग्रह करते है। चट्टान आदि मे जमे हुए ( अचर ) इन अणुजीवो के खुले ऊपरी छोर ( वह छोर जो चट्टान आदि मे जमा नहीं रहता है, ऊपर की ओर होता है ) पर के रोयो को जरा सा भी छूएँ तो जमे हुए छोर पर जो सूत की सी डंठी होती है वह चट सुकड जाती है। इसे जीवो की सादी 'प्रतिक्रिया' कहते है।

( ४ )रोईवाले अणुजीवो के इस व्यापार के आगे फिर हमे मूँगे * आदि अनेकघटक जीवो का संवेदनसूत्रमय विधान मिलता है। इनका प्रत्येक संवेदनसूत्रात्मक और पेशीतंतुयुक्त घटक प्रतिक्रिया का एक एक करण है।


  • मूंगा बहुत से छोटे छोटे कृमियों का समूह है जो समुद्र के भीतर थूहर के पेड़ के आकार मे जमा हुआ मिलता है। देखने में यह पेड़ की तरह जान पडता है पर वास्तव मे क्षुद्र कृमियो की बस्ती है।
    इसके ऊपर की ओर एक मर्मस्थल होता है और भीतर की

ओर एक गत्यात्मक पेशीतंतु होता है। मर्मस्थल छूते ही यह पेशीतंतु सुकड़ जाता है।

( ५ ) समुद्र मे तैरनेवाले छत्रककीटो मे संवदनसूत्र और पेशी युक्त एक घटक के स्थान पर दो घटक मिलते है जो एक सूत्र से सवद्ध रहते है। इनमे से एक तो बाहर संवेदनग्राही घटक होता है, दूसरा चमड़े के भीतर पेशीघटक होता है। प्रतिक्रिया के इस द्विघटकात्मक करण मे बाहरी घटक तो संवेदनग्रहण करने की इद्रिय है और भीतरी घटक गत्यात्मक कर्मेंद्रिय है। दोनो घटको को मिलानेवाला बीच मे जो मनोरसनिर्मित सूत्र होता है उसी के द्वारा उत्तेजना एक घटक से दूसरे घटक तक पहुँचती है।

( ६ ) प्रतिक्रिया का जो विधान आगे चल कर मिलता है उसमे दो दो के स्थान पर तीन तीन घटक मिलते हैं। सबंधकारक सूत्र के स्थान पर एक स्वतंत्र घटक ग्रंथि के रूप में प्रकट होता है जिसे हम मुनघटक या संवेदनग्रंथि-घटक कह सकते है। इसी घटक के द्वारा अचेतन अंतःसंस्कार उत्पन्न होता है अर्थात् संवेदनो के स्वरूप अकित होने लगते है। ऊपर कहा जा चुका है कि इस अवस्था मे चेतन अंत:करण न रहने के कारण उन स्वरूपो का बोध नही हाता। उत्तेजना पहले संवेदग्राही घटक से ईस मध्यस्थ मनोघटक मे पहुँचती है और फिर यहाँ से क्रियोत्पादक पेशी-घटक में पहुँच कर गति की प्रेरणा करती है। प्रतिक्रिया का यह त्रिघटकात्मक करण बिना रीढ़वाले जंतुओ में मिलता है। ( ७ ) रीढ़वाले जंतुओ मे त्रिघटकात्मक के स्थान पर चतुर्घटकात्मक करण पाया जाता है अर्थात् संवेदनग्राही संवेदनघटक और क्रियोत्पादक पेशीघटक के बीच में दो मिन्न भिन्न मनोघटक मिलते है। बाहरी उत्तेजना पहले संवेदनग्राही मनोघटेक मे जाती है, फिर संकल्पात्मकघटक मे पहुँचती है और अंत मे आकुंचनशील पेशीघटक मे जाकर गति उत्पन्न करती है। ऐसे अनेक चतुर्घटकात्मक करणों और नए नए मनोघटको के संयोग से मनुष्य तथा और उन्नत जीवो के जटिल मनोविज्ञानमयकोश या चेतन अंतःकरण की सृष्टि होती है।

ऊपर के विवरणो से स्पष्ट होगया होगा कि 'प्रतिक्रिया' ही मूल या आदिम मनोव्यापार है। एकघटक अणुजीवो मे 'प्रतिक्रिया' नामक सारा भौतिक व्यापार एक ही घटक के कललरस मे होता है। कललरस के विकार समग्र मनोरस मे जो एक सा व्यापार होता है उसी को हम ऐसे जीवो की घटकस्थ आत्मा कह सकते है। आगे चलकर उन्नत अवस्था मे इसी मनोरस के अनेक विभाग होकर इंद्रिय, अतःकरण आदि उत्पन्न होते हैं।

मनोव्यापार की दूसरी अवस्था यौगिक 'प्रतिक्रिया' है जो कर्कोटक * आदि समूहपिड में रहनेवाले समुद्री अणुजीवो


  • ये सूक्ष्म एकघटक समुद्री जतुं ककोड़े या अडी के फल के आकार का छत्ता या गोलपिंड बनाकर समूह में रहते है। पिंडबद्ध होने पर भी प्रत्येक घटक या अणुजीव स्वतत्र होता है। पिड छत्ता मात्र होता है एक शरीर नहीं होती। छत्ते मे प्रत्येक अणुजीव जड़ा 
    मे देखी जाती है। ये असंख्य एकघटक जीव मिलकर समूह पिंड बनाते है और कललरस के तंतुओ द्वारा एक प्रकार से संबद्ध रहते है। यदि किसी एक घटक पर कोई उत्तेजना पड़ी तो वह तुरंत इन तंतुओ द्वारा शेष सब घटको तक पहुँच जाती है और सारा समूह संकुचित हो जाता है। इस प्रकार का व्यापार बहुघटक (अनेक घटको या जीवाणुओ द्वारा निर्मित। जतुओ और पौधो के घटकों के बीच भी होता है। लज्जालु नामक पौधे को ही लीजिए। जहाँ उसकी जड़ के पास भी किसी का पैर छू गया कि उत्तेजना तुरत सारे घटको में फैल जाती है और उसकी पत्तियाँ सुकड़ जाता तथा टहनियाँ झुक पडती है।

'प्रतिक्रिया' नामक आदिम मनोव्यापार का सामान्य लक्षण यह है कि उसमे चेतना का अभाव होता है। उत्तेजना पहुँची कि गति उत्पन्न हुई, जैसा कि बारूद आदि निर्जीव पदार्थों में देखा जाता है। चेतना केवल मनुष्य तथा और उन्नत जीवों मे ही मानी जा सकती है, उद्भिदो और क्षुद्र जंतुओ मे नही। उद्भिजो और क्षुद्र जतुओ मे उत्तेजना पाकर जो गति उत्पन्न होती है वह 'प्रतिक्रिया' मात्र है-अर्थात् ऐसी क्रिया है जो संकल्पकृत नहीं, किसी अंतःकरण वृत्ति द्वारा प्रेरित नही। जिनमे संवेदनवाहक सूत्रजाल केद्रीभूत होता है और जिन्हें विशिष्ट


सा होता है । अणुजीवों के सुत या रोइयाँ बाहर की ओर निकली होती हैं। इनके सहारे पिंड जल में तैरता है। पिंड का परिमाण *पयः इच के पचासवें भाग के बराबर होता है।
पूर्ण इंद्रियां होती हैं उन उन्नत जीवो के मनोव्यापार और ढंग के होते हैं। उनम 'प्राताक्रया' रूपी आदिम मनोव्यापार से धीरे धीरे चेतना का स्फुरण होता है और संकल्पकृत चेतन व्यापार प्रकट होते हैं। निम्न श्रेणी के क्षुद्र जीवो मे केवल प्रतिक्रिया ही रहती है। यह प्रतिक्रिया भी दो प्रकार की होती है-मूल और उत्तर। मूल प्रतिक्रिया वह है जो जीवसृष्टिपरंपरा मे चेतन अवस्था को कभी प्राप्त न हुई हो, अपने मूल रूप मे ही बराबर वंशपरंपरानुसार चली आती हो। उत्तर प्रतिक्रिया वह है जो पूर्वज जंतुओ मे तो संकल्पकृत चेतन व्यापार के रूप मे थी पर पीछे ( उन पूर्वज जंतुओ से विकाशपरंपरानुसार उत्पन्न होनेवाले परवर्ती जंतुओ मे ) अभ्यास आदि के कारण अज्ञानकृत अचेतन व्यापार के रूप मे हो गई। ऐसी अवस्था मे चेतन और अचेतन अंतवर्यापारो पारो के बीच कोई भेद-सीमा निर्धारित करना असंभव है। कौन व्यापार ज्ञानकृत ( चैतन ) है और कौन अज्ञानकृत यह सदा ठीक ठीक बतलाया नही जा सकता।

अब अंत.संस्कार को लीजिए। इंद्रियो की क्रिया से प्राप्त वाह्य विषय का जो प्रतिरूप भीतर अंकित होता है उसे अंत संस्कार या भावना कहते है। जीवो की ऊँची नीची श्रेणियो के अनुसार अंतःसंस्कार चार रूपो मे देखा जाता है--

( १ ) घटकगत अंतःसंस्कार-क्षुद्र एकघटक अणुजीवो मे अंतःसंस्कार समस्त मनोरस का सामान्य गुण होता है। ऐसे जीवो में भी संवेदन का चिह्न मनोरस में रह जाता है और धारणा या स्मृते के द्वारा फिर स्फुरित हो सकता
है। एक प्रकार के अत्यंत सूक्ष्म गोल सामुद्र अणुजीव होते हैं जिनके ऊपर आवरण के रूप मे एक पतली चित्रावित्रिच खोपड़ी होती है। इस खोपड़ी की चित्रकारी सब मे एक सी नही होती, भिन्न मिन्न होती है। खोपड़ी की रचना और चित्रकारी के विचार से इस जीव के हजारो उपभेद दिखाई पड़ते हैं। किसी एक विशेष चित्रकारी वाले जीव से विभाग द्वारा जो दूसरे जीव उत्पन्न होते हैं उनमें भी वही चित्रकारी बनी मिलती है। इसका केवल यही कारण बतलाया जा सकता है कि निर्माण करनेवाले कललरस में अंत.संस्कार की वृत्ति होती है उसमे परत्व-अपरत्व-संस्कार और उसके पुनरुद्भावन की शक्ति होती है।

(३) तंतुजाल-गत अंतःसंस्कार--समूहपिंड बना कर रहने वाले एकघटक अणुजीवो * और स्पंज आदि संवेदनसूत्ररहित क्षुद्र अनेकघटक (सामुद्र) जीवो, तथा पौधो के तंतुजाल मे हमें अंतःसंस्कार की दूसरी श्रेणी मिलती है। इसमे बहुत से परस्पर संबद्ध घटको का एक सामान्य मनोव्यापार देखा जाता है। इन जीवों में किसी एक इंद्रिय के उत्तेजन से प्रतिक्रिया मात्र उत्पन्न हो कर नहीं रह जाती बल्कि तंतुघटको के मनोरस मे संस्कार भी अंकित होते हैं जिनका फिर स्फुरण होता हैं।


  • ये सूक्ष्म अणुजीव एक समूहपिंड तो बना लेते हैं पर इनमें परस्पर उतना घनिष्ट संबध नहीं होता जितना समवाय रूप से एक शरीर की योजना करनेवाले घटकों में होता है।

(३) [] संवेदनसूत्रग्रंथिगत अचेतन अंतःसंस्कार––इस उन्नत कोटि का अन्तःसंस्कार अनेक छोटे जंतुओं में देखा जाता है। इसका व्यापार समस्त घटकों में नहीं होता बल्कि विशिष्ट स्थानों में अर्थात् मनोघटकों में ही होता है। यह अपने सादे रूप में उन्हीं जीवो में प्रकट होता है जिनमें 'प्रतिक्रिया' के लिए त्रिघटकात्मक करण का विकास होता है। ऐसे जीवों में अन्त:संस्कार का स्थान संवेदनघटक और पेशीघटक के बीच का मध्यस्थ घटक होता है। विज्ञानमय कोश के विभाग विधान के अनुसार यह अचेतन अन्त:संस्कार भी उन्नति की कई अवस्थाओं को पहुँचता है।

(४) मस्तिष्कघटकों में चेतन अन्तःसंस्कार––जीवों की उन्नत श्रेणियों की ओर बढ़ने पर हमें अन्तर्बोध या चेतना मिलने लगती है जो कि विज्ञानमय कोश के मध्यभाग के एक विशिष्ट करण की वृत्ति है। उन्नत जीवों में जो अन्तःसंस्कार होते हैं वे चेतन होते हैं, अर्थात् उनका बोध भीतर होता है। इस अन्तर्बोधा के साथ ही साथ जब चेतन अन्तःसंस्कारों की योजना के लिए मस्तिष्क के विशेष विशेष अवयव स्फुरित हो जाते हैं तब अन्तःकरण उन वृत्तियों या व्यापारों के योग्य हो जाता है जिन्हें हमें विचार, चिन्तन, बुद्धि आदि कहते हैं।
अचेतन और चेतन अंतःसंस्कारों के बीच कोई सीमा निर्धारित करना अत्यंत कठिन है। यह नही बतलाया जा सकता है कि जीवसृष्टिक्रम मे किन जीवो तक अंत.संस्कार अचेतन रहते है और किन जीवो से चेतन होने लगते हैं। हॉ, इतना अलबत कहा जा सकता है कि अचेतन संस्कार से चेतन संस्कार के विकाश की परंपरा कई शाखाओ मे चलती है। यह नही है कि चेतना और बुद्धि के व्यापार मनुष्य, बंदर, कुत्ते, पक्षी आदि रीढ़वाले उन्नत जतुओ मे ही देखे जाते है बल्कि चीटी, मकड़ी, केकड़े आदि क्षुद्र कीटो मे भी पाए जाते है।

अंत सस्कार से ही संबद्ध धारणा या स्मृति है। यह वास्तव मे अंत.संस्का की पुनरुद्भावना है जिस पर सारे उन्नत मनोव्यापार अवलवित है। बाह्यविषय के इंद्रियो पर जो प्रभाव पड़ते है वे मनोरस मे अंत.संस्कार के रूप मे जाकर ठहर जाते है और स्मृति द्वारा पुनरुद्भूत होते है अर्थात् अव्यक्तावस्था से व्यक्तावस्था को प्राप्त होते है। मनोरस की निष्क्रिय अव्यक्त शक्ति सक्रिय व्यक्त शक्ति के रूप मे परिवर्तित हो जाती है। * अंत संस्कार की चार श्रेणियो के अनुसार स्मृति की भी चार श्रेणियाँ है--

(१) घटकगत स्मृति---स्मृति सजीव द्रव्य का एक सामान्य गुण है। इस महत्त्वपूर्ण बात को कुछ दिन हुए एक


• भौतिक-विज्ञान में वेग या शक्ति के दो रूप माने गए हैं--निहित और व्यक्त, जैसे पहाड की ढाल पर पड़े हुए पत्थर, चाभी दी हुई पर न चलती हुई घड़ी, बोरे मे कसी हुई बारूद मे क्रमशः
वैज्ञानिक ने अपने एक ग्रंथ मे कहा। मैने इस बात को विकाशसिद्धांत के अनुसार सिद्ध करने का प्रयत्न किया। पहले कहा जा चुका है कि कललरस एक दानेदार चिपचिपा पदार्थ है अर्थात् वह बहुत सी सूक्ष्म कणिकाओं के योग से संघटित है। ये कणिकाएँ कई आकार और प्रकार की होती है। इनमें जो विधान करनेवाली क्रियमाण मूल कणिकाएँ होती है उन्हें हम कललाणु कह सकते है। मैने अपनी एक पुस्तक मे निरूपित किया है कि 'अचेतन स्मृति' कललाणु की एक सामान्य और व्यापक वृत्ति है। क्रियावान् कललरस के इन मूलकललाणुओ मे ही पुनरुद्भूति होती है अर्थात् इन्ही मे स्मृतिशक्ति आदिरूप मे रहती है, निर्जीव द्रव्य के अणुओ मे नही। यही सजीव और निर्जीव सृष्टि मे अंतर है। वशपरंपरा ही को कललाणु की धारणा या स्मृति समझना चाहिए। एकघटक अणुजीवो की आदिम स्मृति उन कललाणुओ की अण्वात्मक स्मृति के योग से बनी है जिनके मेल से उनका एकटकात्मक शरीर बना है। एक अणुजीव की जो विशेपताएँ होती है वे उससे उत्पन्न दूसरे अणुजीवो मे रक्षित रहती हैं यही ऐसे जीवो की धारणा या स्मृति है। ऊपर कहा


गिरने, चलने और भड़कने की जो शक्ति है उसे निहित या अव्यक्त शक्ति कहते है। जब पत्थर गिरता है, घड़ी चलती है और बारूद भड़कती है तब वही शक्ति व्यक्त हो जाती है। ये दोनों प्रकार की शक्तियाँ एक दूसरे के रूप मे परिवर्तित होती रहती है, अर्थात् अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त होती रहती हैं। 
जा चुका है कि बहुत से अणुजीव ऐसे होते हैं जिनके आवरणों पर एक दूसरे से भिन्न प्रकार की रचनाएँ होती हैं। परीक्षा द्वारा देखा गया है कि किसी एक विशेष रचना के आवरणवाले जीव से विभाग आदि द्वारा जो दूसरे जीव उत्पन्न होते हैं उनके आवरण पर भी ठीक ठीक उसी प्रकार की रचना होती है। रचना का यह क्रम बराबर पीढ़ी दर पीढ़ी चला जाता है।

(२) तंतुगत स्मृति--घटको के समान घटकजाल में भी अचेतन स्मृति पाई जाती है। स्पंज आदि समूहपिंड बना कर रहनेवाले जीवा में भी एक समूहपिंड के संस्कार उसने उत्पन्न दूसरे पिंडों में भी बराबर चल चलते हैं।

(३) उन्नति की तीसरी अवस्था में इन जीवों की चेतना रहित स्मृति हैं जिनमें विज्ञानमय कोश रहता है। यह अचेतन स्मृति उस अचेतन अत संस्कारों की पुनरुद्भावना है जो संवेदनसूत्र ग्रंथियो में संचित होने जाते हैं। क्षुद्र कोटि के अधिकांश जंतुओं में स्मृति अचेतन रहती है अर्थात् अंतः-संस्कारों की धारणा के अनुसार जो शारीरिक व्यापार होते हैं उनका कुछ भी ज्ञान ऐसे जंतुओ को नहीं होता। वे व्यापार केवल शरीरधर्म समझे जाते हैं। मनुष्य आदि पूण अंतकरणवाले जीवों मे भी यदि देखा जाय तो चेतन की अपेक्षा अचेतन स्मृति के ही व्यापार अधिक पाए जायँगे। हाथ पैर हिलाने, चलने फिरने, बोलने, खाने पीने इत्यादि क्रियाओं को यदि लीजिए तो इनमें न जाने कितनी ऐसी निकलेगी जिनकी ओर हमारा बिलकुल ध्यान नहीं रहता, जो अज्ञानकृत होती हैं।

(४) चेतन स्मृति का व्यापार मनुष्य आदि उन्नत प्राणियों
के कुछ मस्तिष्कघटको मे होता है। यह व्यापार वास्तव में अंत संस्कारो का प्रतिबिंब पड़ने से होता है। पहले क्षुद्र पूर्वज जीवो मे स्मृति के जो व्यापार अचेतन रहते है वे उन्नत अंत. करण वाले जीवो मे चेतन हो जाते है। मनुष्य आदि के अंतकरण में जिन संस्कारो की धारणाएँ रहती है वे फिर ज्ञानपूर्वक उपस्थित की जाती है।

यहाँ तक तो धारणा या स्मृति की बात हुई। अब अंतः संस्कारो की श्रृंखला या भावयोजना को लीजिए। इसकी भी ऊँची नीची अनेक श्रेणियाँ है। यह भी अपने आदि रूप मे अचेतन ही रहती है और 'प्रवृत्ति' कहलाती है। यही क्रमशः बढ़ते बढते उन्नत जीवो मे चेतनवृत्ति हो जाती है और बुद्धि कहलाती है। इस भावयोजना की परंपरा अनेक रूपो मे चलती है। पर ध्यान दे कर यदि देखा जाय तो क्षुद्र से क्षुद्र अणुजीव की अचेतन अंत.संस्कार-योजना से ले कर सभ्य से सभ्य मनुष्य की विशद भावश्रृंखला तक संबंध-परंपरा का सूत्र मिलेगा। मनुष्य मे चेतन संस्कारो की योजना होती है यही उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। जिस हिसाब से आधिकाधिक अंत संस्कारो की योजना होती जाती है और जिस हिसाब से शुद्ध बुद्धि के विवेचन से यह योजना व्यवस्थित होती जाती है उसी हिसाब से अंतःकरणवृत्ति पूर्णता को पहुँचती जाती है। स्वप्न मे इस व्यवस्था करनेवाली विवेचनशक्ति के न रहने से पुनरुद्भूत संस्कारो की जो विलक्षण योजना होती है उससे अलौकिक दृश्य दिखाई पड़ते है। कविकल्पित रचनाओ मे, जिनमे अंतः संस्कारो की प्रकृत योजना मे उलटफेर कर के अनोखे स्वरूप खड़े
किए जाते हैं ये अंत.संस्कार एक अत्यंत अस्वाभाविक क्रम से सयोजित होते है और साधारण देखनेवाले को अत्यंत अयुक्त प्रतीत होते हैं। मस्तिष्क के बिगड़ जाने पर जो अनेक प्रकार के रूप दिखाई पड़ते हैं वे अंत:सत्कारों की इसी अव्यवस्था के कारण। मृत पुरषों की आत्मओं का साक्षात्कार, देवदूतों का दर्शन, आकाशवाणी, इलहाम तथा इसी प्रकार की और भी अंघपरंपरा की बातें इसी अव्यवस्था से उत्पन्न हुई हैं। पर 'आभास' 'इलहान' आदि को बहुत दिनों से लोग ज्ञान का अमित भांडार समझते आ रहे हैं।

योरप में बहुत प्राचीन काल से लोग मनुष्य और पशु जी अंतःकरावृत्तियो को भिन्न भिन्न समझते आ रहे थे। * ऐसा साधारण विश्वास था, और अब मी थोड़ा बहुत है, कि मनुष्य 'बुद्धि' के अनुसार कार्य करता हैं और पशु 'प्रवृत्ति' के अनुसार। पर डारविन आदि विकाशवादियों ने इस विश्वास को भ्रांत सिद्ध कर दिया है। अपने 'ग्रहण-सिद्धांत' के आधार पर डारविन से नीचे लिखी महत्वपूर्ण बातें निर्धारित की हैं---

(१) एक ही योनि के जीवों की अंतःप्रवृत्तियों में भी कुछ न कुछ व्यक्तिगत विभिन्नता होती है तथा स्थितिसामंजस्य के नियमानुसार उनमें भी ठीक उसी झार फेरफार हो जातख है जिस प्रकार अवयवों में होता है।


  • नारद में उसे आवागमन या जन्मांतरवाद के कारण है ऐसी धारणा कभी नहीं उत्पन्न होने पाई जिसके अनुसार एक ही आत्मा मनुष्य से लेकर कीट, पतंग आदि चौरासी लाख योनियों में सरस सकती है। 
    उपयोग द्वारा, विचार और संकल्प द्वारा, ज्ञानकृत उद्दिष्ट कर्म द्वारा उत्पन्न हुई, पर पीछे धीरे धीरे वे इतनी मॅज गई कि

अज्ञान की दशा मे भी प्रकट होने लगी। यहाँ तक कि वंशपरंपरा के विधान से ये आगे की पीढ़ियो से स्वभावसिद्ध सी हो गई। उन्नत जीवो की वे अज्ञानकृत क्रियाएँ जो शरीरधर्म कहलाती है (जैसे, पलको का गिराना, चलने मे पैरो का हिलाना, आदि) पूर्वज जीवो मे ज्ञानकृत थी पर पीछे स्वभावसिद्ध प्रवृत्तियो मे दाखिल हो गई। इसी प्रकार मनुष्य के वे सारे निरूपण जो स्वत सिद्ध कहलाते है (जैसे, एक ही वस्तु के समान वस्तुएँ परस्पर समान होती है) उसके पूर्वजो ने अनुभव और साक्षात्कार द्वारा स्थिर किए थे।

बहुत से लोग कहते है कि पशुओं मे बुद्धि नही होती, बुद्धि केवल मनुष्य मे होती है। पर यह भ्रम है। रीढ़वाले विशेषत दूध पिलानेवाले जीवो मे बुद्धि वरावर पाई जाती है चाहे वह मनुष्यबुद्धि से कम हो। पशुओ मे बुद्धिविकाश का तारतम्य उसी प्रकार पाया जाता है जिस प्रकार मनुष्यो में। किसी सभ्यदेश के उद्भट दार्शनिक की बुद्धि और नरभक्षी असभ्य बर्बर की बुद्धि मे भी तो अंतर होता है। बस, उतना ही अंतर असभ्य बर्बर की बुद्धि मे और उन्नत पशुओ (वनमानुस आदि) की बुद्धि मे समझिए। मनुष्य के उन्नत मनोव्यापार (विवेचन आदि) भी ठीक उसी प्रकार वंशपरंपरा और स्थितिसामंजस्य के नियमाधीन है जिस प्रकार उन व्यापारों की इंद्रियाँ या मस्तिष्क।

बुद्धि, विवेचना आदि उन्नत कोटि के मनोव्यापारो का
घनिष्ठ संबंध वाणी की उन्नति से है। वाणी की योजना भी न्यूनाधिक क्रम से जीवों मे पाई जाती है। यह नही है कि एकमात्र मनुष्य ही को वह प्राप्त है। किसी न किसी रूप में वह समूह मे रहनेवाले समस्त मेरुदंडजीवो में थोड़ी बहुत पाई जाती है। एक दूसरे का अभिप्राय समझने के लिये उसकी आवश्यकता होती है। कहीं स्पर्श द्वारा, कही संकेत द्वारा और कही मुँह से निकले हुए शब्द द्वारा अभिप्राय प्रकट किया जाता है। पक्षियो और वनमानुसो की बोली, कुत्तो का भूँकना घोड़ो का हिनहिनाना इत्यादि पशुवाणी के नमूने है। इनसे कुछ न कुछ भाव अवश्य प्रकट होता है। पर मनुष्य ही मे उस वर्णविकाशयुक्त वाणी का प्रादुर्भाव हुआ है जिसके सहारे उसकी बुद्धि इस उन्नति को पहुँची है। भाषाविज्ञान ने यह पूर्ण रूप से सिद्ध कर दिया है कि भिन्न भिन्न मनुष्यजातियो की जितनी समृद्ध भाषाएँ है सब की सब किसी न किसी सीधी सादी आदिम भाषा से धीरे धीरे उन्नति करती हुई बनी है। भाषा का विकाश भी ठीक उसी क्रम से धीरे धीरे हुआ है जिस क्रम से जीवो की जातियो का विकाश, उनकी इंद्रियो और शक्तियो का विकाश। पशुवाणी और मनुष्यवाणी मे केवल न्यूनाधिक का भेद है, वस्तुभेद नही।

अंत करण के उन व्यापारो का विचार भी जो उद्वेग कहलाते हैं मनोविज्ञान मे अत्यंत आवश्यक है। उनके द्वारा वह सबंध अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है जो मस्तिष्क-व्यापारो और शरीर के दूसरे व्यापारो ( जैसे, हृदय की धड़कन, इंद्रियो के क्षोभ, और पेशियों की गति ) के बीच है। मनुष्य में
अंत करण के उद्वेगसंबंधी जो व्यापार दिखाई देते हैं वे कुत्ते, वनमानुस आदि उन्नत पशुओ में भी देखे जाते हैं। समस्त उद्वेग इंद्रियसंवेदन और गति इन्हीं दो मूल व्यापारो के योग से प्रतिक्रिया और अंत.संस्कार द्वारा बने हैं। राग और द्वेष का अनुभव इद्रियसंवेदन क्रिया के अंतर्गत है। इच्छा और विरक्ति, अर्थात् रुचिकर वस्तु की प्राप्ति और अरूचिकर के परिहार का प्रयत्न, ( पेशियों की ) गति के अंतर्भूत है। 'आकर्षण' और 'विसर्जन’ इन्ही दोन क्रियाओ के द्वारा 'संकल्प' की सृष्टि होती हैं जो व्यक्ति का प्रधान लक्षण है। मनोवेग मनुष्य और पशु दोनों में होते है। क्षुद्र से क्षुद्र कोटि के अणुजीवो में भी रुचि और अनाच का मूल संस्कार होता है जिसका पता उनकी प्रवृत्तियो से लगा है। उनमे कुछ प्रकाश की ओर प्रवृत्त होते हैं, कुछ अधकार की ओर, कुछ शीत की ओर और कुछ ताप की ओर। इन्ही मूल वासनाओं से आगे चल कर उन्नत अंत.करणवाले सभ्य मनुष्यो के उल्लास और खेद, ग्रीति और घृणा आदि मनोवेग निकले हैं जिनसे सभ्यता का विकाश हुआ है और कवियो को अक्षय सामग्री प्राप्त हुई है। इस प्रकार क्षुद्र से क्षुद्र अणुजीवस्थ मनोरस की मूलवासना से लेकर मानव अंत.करण के विविध मनोवेगो तक संबंधसूत्र की परंपरा चली गई है। मनुष्य के मनोवेग भी भौतिक नियमों के अधीन हैं यह बात कई दार्शनिक सिद्ध कर चुके हैं।

अब संकल्प को लीजिए जिसे लोग जीवधारियों की एक ऐसी विशेषता समझते हैं जिसका भौतिक नियमों से कोई
संबंध नहीं। इच्छानुसार गति देख कर ही सामान्यतः कर्म- संकल्प की स्वतंत्रता का भान लोगो को होता है। पर विकाश सिद्धांत और शरीरशास्त्र की दृष्टि से यदि संकल्प की परीक्षा की जाय तो मालूम होगा कि वह मनोरस का एक व्यापक गुण है। एक घटक अणुजावो मे प्रतिक्रिया के जो जड़ व्यापार हम देखते है वे उन मूल प्रवृत्तियो से उत्पन्न है जिसका जीवन तत्त्व से नित्य संबंध है। पौधो तक मे ये प्रवृत्तियाँ पाई जाती है। कुछ पौधे अपनी पत्तियो को जिस ओर प्रकाश होता है उसी और प्रवृत्त करते हैं। जिन जीवो मे प्रतिक्रिया का त्रिघटकात्मक करण होता है अर्थात् संवेदनग्राहक घटक और क्रियोत्पादक घटक के बीच मे एक तीसरे मनोघटक की स्थापना होती है, उन्हीमे संकल्प नामक व्यापार देखा जाता है। क्षुद्र जीवो मे यह संकल्प अचेतन रूप मे रहता है। जिन जीवो मे चेतना होती है अर्थात् अंतकरण की क्रिया का प्रतिबिब अंतःकरण मे पड़ता है उन्हीमे संकल्प उस कोटि का देखा जाता है जिसमे स्वतंत्रता का आभास जान पड़ता है। मस्तिष्क के विकाश और अंतःकरण की उन्नति के कारण संवेदन, गति आदि की आंतरिक क्रियाएँ जितनी ही क्षिप्र होती जाती है उनका परस्पर संबंध उतना ही अव्यक्त होता जाता है। संबंध के अव्यक्त होने के कारण ही स्वातंत्र्य की भ्रांति होती है। पर अब यह अच्छी तरह सिद्ध हो गया है कि संकल्प किया हुआ प्रत्येक कर्म व्यक्ति के अंगविन्यास और प्राप्त परिस्थिति के अनुसार ही होता है। प्रवृत्ति का सामान्य रूप तो वंशपरंपरानुसार पूर्वजो द्वारा प्राप्त होकर पहले से निर्धारित रहता है। कर्म विशेष
का जो संक्ल्प होता है वह जिस क्षण जैसी परिस्थिति होती है उसके अनुकूल परिवर्तन का आयोजन मात्र है। उस क्षण जो मनोवेग सब से प्रबल होता है उसीके अनुसार प्राणी कर्म करता है। *

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  • कर्मन्वातव्य के विषय में धार्मिक में भी मतभेद है। कुछ लोग मानते हैं कि ईश्वर की प्रेरणा ही से मनुष्य सब कार्य करता है। कुछ लोग कर्मो की वासना पूर्वकृत कर्मों के अनुसार मानते हैं। पर अधिकाश लोग वही मानते है कि मनुष्य की कर्मसुकल्पवृत्ति सवथा स्वतत्र है। यह बतला देना भी आवश्यक है कि कर्मसकल्पवृत्ति को 'इच्छा' का पर्याय न समझना चाहिए।

कर्मस्वातत्र्य को लेकर पाश्चात्य दार्शनिकों में बहुत विवाद हुआ है। काट ने कर्म सकल्पवृत्ति को सर्वथा स्वतंत्र बतलाया है और कहा है कि मनोविज्ञान के नियमों के अनुसार उसका विचार नहीं हो सकता। अंत:करण की कोई ऐसी वृत्ति नहीं जिससे उसका कार्यकारण सबध हो, जो उसे अवश्य उत्पन्न ही करती हो। रहे बाह्य जगत् के नियम उनसे भी वह बद्ध नहीं। वह उन त्वप्रवर्तित नियमों को ही मानती है जिन्हें 'धर्मनियम' कहते है ( दे० प्रकरण १९) । स्पिनोजा और हयूम कर्मसंकल्पवृत्ति को कार्यकारण सबध के अतर्गत मानते हैं। स्पिनोजा ने कहा है कि लोगो का यह समझना भ्रम है कि कर्म करने में हम स्वतंत्र है। बात यह है कि उन्हें अपने कर्मो का बोध तो होता है पर उन कारणो का बोध नहीं होता जिनके द्वारा वे निर्धारित होते हैं। हैकल ने स्पिनोजा

  1. संवेदनावाहक सूत्रों को ज्ञानतन्तु भी कहते हैं। ये शरीर के सब स्थानों में फैले होते हैं। रक्तवाहिनी नीली और लाल नलियों (शिराओं और धमनियों) से ये इस प्रकार पहचाने जाते हैं कि ये श्वेत होते हैं और बीच में खोखले नहीं होते। खींचने से ये उतनी जल्दी नहीं टूटते।