वैदेही वनवास/१३ जीवन-यात्रा

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त्रयोदश सर्ग
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जतिवृत्तः = सूराचा
तिलोकी

तपस्विनी - आश्रम के लिये विदेहज़ा।
पुण्यमयी - पावन - प्रवृत्ति की पूर्ति थी।
तपस्विनी - गण की आदरमय - दृष्टि में ।
मानवता - ममता की महती - मूर्ति थी ॥१॥

ब्रह्मचर्य - रत वाल्मीकाश्रम - क्षात्र - गण।
तपोभूमि - तापस, विद्यालय - विवुध - जन ।।
मूर्तिमती - देवी थे उनको मानते ।
भक्तिभाव - सुमनाञ्जलि द्वारा कर यजन ॥२॥

अधिक - शिथिलता गर्भभार - जनिता रही।
फिर भी परहित - रता सर्वदा वे मिली ॥
कर सेवा आश्रम - तपस्विनी - वृन्द की।
वे कब नही प्रभात - कमलिनी सी खिलीं ॥३॥

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वैदेही-वनवास

उन्हें रोकती रहती आश्रम - स्वामिनी ।
कह वे बातें जिन्हें उचित थी जानती ॥
किन्तु किसी दुख में पतिता को देखकर ।
कभी नहीं उनकी ममता थी मानती ॥४॥

देख चींटियों का दल ऑटा छींटती।
दाना दे दे खग - कुल को थी पालती ।।
मृग - समूह के सम्मुख, उनको प्यार कर।
कोमल - हरित तृणावलि वे थी डालती ॥५॥

शान्ति - निकेतन के समीप के सकला- तरु ।
रहते थे खग - कुल के कूजन से स्वरित ॥
सदा वायु - मण्डल उसके सब ओर का।
रहता था कलकण्ठ कलित - रव से भरित ॥६॥

किसी पेड़ पर शुक बैठे थे वोलते।
किसी पर सुनाता मैना का गान था।
किसी पर पपीहा कहता था पी कहाँ।
किसी पर लगाता पिक अपनी तान था॥७॥

उसके सम्मुख के सुन्दर - मैदान में।
कही विलसती थी पारावत - मण्डली ॥
बोल बोल कर बड़ी - अनूठी - बोलियाँ।
कही केलिरत रहती बहु - विहगावली ॥८॥

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त्रयोदश सर्ग

इधर उधर थे मृग के शावक घूमते ।
कभी छलॉगे भर मानस को मोहते ॥
धीरे धीरे कभी किसी के पास जा।
भोले - दृग से उसका बदन विलोकते ॥९॥

एक द्विरद का बच्चा कतिपय - मास का।
जनक - नन्दिनी के कर से जो था पला ।।
प्रायः फिरता मिलता इस मैदान में।
मातृ - हीन कर जिसे प्रकृति ने था छला ॥१०॥

पशु, पक्षी, क्या कीटों का भी प्रति दिवस ।
जनक - नन्दिनी कर से होता था भला ।।
शान्ति - निकेतन के सब ओर इसीलिये।
दिखलाती थी सर्व - भूत - हित की कला ॥११॥

दो पुत्रो के प्रतिपालन का भार भी।
उन्हें बनाता था न लोक - हित से विमुख ॥
यह ही उनकी हृत्तंत्री का राग था।
यह ही उनके जीवन का था सहज - सुख ।।१२।।

पॉवोंवाले दोनों सुत थे हो गये।
अपनी ही धुन में वे रहते मस्त थे।
फिर भी वे उनको सँभाल उनसे निबट ।
उनकी भी सुनती जो आपद्ग्रस्त थे॥१३॥

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त्रयोदश सर्ग,

आत्रेयी की सत्यवती थी प्रिय - सखी।
अतः उन्होंने उसके मुख से थी सुनी।
विदेहजा के विरह - व्यथाओं की कथा।
जो थी वैसी पूता जैसी सुरधुनी ॥१९॥

आत्रेयी थी बुद्धिमती - विदुषी बड़ी।
विरह - वेदना बातें सुन होकर द्रवित ।।
शान्ति - निकेतन मे आई वे एक दिन ।
तपस्विनी - आश्रम - अधीश्वरी के सहित ॥२०॥

जनक - नन्दिनी ने सादर - कर - वन्दना।
बड़े प्रेम से उनको उचितासन दिया ।
फिर यह सविनय परम - मधुर - स्वर से कहा।
बहुत दिनों पर आपने पदार्पण किया ॥२१॥

आत्रेयी बोली हूँ क्षमाधिकारिणी।
आई हूँ मैं आज कुछ कथन के लिये ।।
आपके चरित है अति - पावन दिव्यतम ।
आपको नियति ने है अनुपम - गुण दिये ॥२२॥

अपनी परहित - रता पुनीत - प्रवृत्ति से।
सहज - सदाशयता से सुन्दर - प्रकृति से ॥
लोकरंजिनी - नीति पूत - पति - प्रीति से।
सच्ची - सहृदयता से सहजा - सुकृति से ॥२३॥

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वैदेही-वनवास
 

'कहा, मानवी हैं देवी सी अर्चिता ।
व्यथिता होते, हैं कर्त्तव्य - परायणा ॥
अश्रु - विन्दुओं में भी है धृति झलकती।
अहित हुए भी रहती है हित - धारणा ॥२४॥

साम्राज्ञी होकर भी सहजा - वृत्ति है।
राजनन्दिनी होकर हैं भव - सेविका ॥
यद्यपि हैं सर्वाधिकारिणी धरा की ।
क्षमामयी हैं तो भी आप ततोधिका ॥२५॥

कभी किसी को दुख पहुंचाती हैं नहीं।
सबको सुख हो यही सोचती हैं सदा ।।
कटु - बाते आनन पर आती ही नही।
आप सी न अवलोकी अन्य प्रियम्वदा ।।२६।।

नवनीतोपम कोमलता के साथ ही।
अन्तस्तल में अतुल - विमलता है बसी।
सात्विकता - सितता से हो उद्भासिता।
. वही श्यामली - मूर्ति किसी की है लसी ॥२७॥

देवि ! आप वास्तव में हैं पति - देवता ।
आप वास्तविकता की सच्ची - स्फूर्ति हैं।
हैं प्रतिपत्ति प्रथित - स्वर्गीय - विभूति की।
आप सत्यता की, शिवता की मूर्ति हैं ।।२८।।

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त्रयोदश सर्ग

किन्तु देखती हूँ मैं जीवन आपका ।
प्रायः है आवरित रहा आपत्ति से ।।
ले लीजिये विवाह - काल ही उस समय ।
रहा स्वयंवर ग्रसित विचित्र - विपत्ति से ॥२९॥

था विवाह आधीन शंभु - धनु भंग के।
किन्तु तोड़ने से वह तो टूटा नही ।।
वसुंधरा के वीर थके बहु - यत्न कर।
किन्तु विफलता का कलंक छूटा नहीं ॥३०॥

देख यह दशा हुए विदेह बहुत - विकल ।
हुई आपकी जननी व्यथिता, चिन्तिता, ॥
आप रही रघु - पुंगव - बदन विलोकती।
कोमलता अवलोक रही अति - शंकिता ॥३१॥

राम - मृदुल - कर छूते ही टूटा धनुष ।
लोग हुए उत्फुल्ल दूर चिन्ता हुई।
किन्तु कलेजों में असफल - नृप - वृन्द के।
चुभने लगी अचानक ईर्पा की सुई ॥३२॥

कहने लगे अनेक नृपति हो संगठित ।
परिणय होगा नही टूटने से धनुप ।।
समर भयंकर होगा महिजा के लिये।
असि - धारा सुर - सरिता काटेगी कलुष ॥३३॥

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त्रयोदश सर्ग

वर विलासमय बन वासर था विलसता।
रजनी पल पल पर थी अनुरंजन - रता॥
यदि विनोद हँसता मुखड़ा था मोहता।
तो रसराज रहा ऊपर रस बरसता ॥३९।।

पितृ - सद्म - ममता न भूल मन जिस समय ।
ससुर - सदन मे शनैः शनैः था रम रहा।
उन्ही दिनों अवसर ने आकर आपसे ।
समाचार पति राज्यारोहण का कहा ॥४०॥

आह । दूसरे दिवस सुना जो आपने।
किसका नही कलेजा उसको सुन छिला ।।
कैकेई - सुत राज्य पा गये राम को।
कानन - वास चतुर्दश - वत्सर का मिला ।।४१।।

कहाँ किस समय ऐसी दुर्घटना हुई।
कहते हैं इतिहास कलेजा थामकर ।।
वृथा कलंकित कैकेई की मति हुई।
कहते है अब भी सब इसको आह भर ।।४२।।

आपने दिखाया सतीत्व जो उस समय ।
वह भी है लोकोत्तर, अद्भुत है महा ॥
चौदह सालों तक वन मे पति साथ रह ।
किस कुल - बाला ने है इतना दुख सहा ।।४३।।

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त्रयोदश सर्ग

नीचाशयता की वे चरम - विवृत्ति थीं।
दुराचार की वे उत्कट - आवृत्ति थीं।
रावण वज्र - हृदयता की थी प्रक्रिया।
दानवता की वे दुर्दान्त - प्रवृत्ति थीं ॥४९॥

किन्तु हुआ पामरता का अवसान भी।
पापानल मे स्वयं दग्ध पापी हुआ ।।
ऑच लगे कनकाभा परमोज्वल बनी।
स्वाति - विन्दु चातकी चारु - मुख में चुआ ॥५०॥

आपके परम - पावन - पुण्य - प्रभाव से।
महामना श्री भरत - सुकृति का बल मिले।
फिर वे दिन आये जो बहु वांछित रहे।
जिन्हें लाभकर पुरजन पंकज से खिले ॥५१।।

हुआ राम का राज्य, लोक अभिरामता।
दर्शन देने लगी सब जगह दिव्य वन ।।
सकल - जनपदों, नगरों, प्रामादिकों मे।
विमल - कीर्ति का गया मनोज्ञ वितान तन ॥५२॥

सव कुछ था पर एक लाल की लालसा ।
लालायित थी ललकित चित को कर रही।
मिले काल - अनुकूल गर्भ - धारण हुआ।
युगल उरों में वर विनोद धारा बही ।।५३।।

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किन्तु देखती है, यह, पुत्रवती बने ।
हुआ आपको एक साल से कुछ अधिक ॥
किन्तु अवध की दृष्टि न फिर पाई इधर ।
और आपके स्वर में स्वर भर गया पिक ॥५८॥

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त्रयोदश सर्ग

कुलपति - आश्रम की विधि मुझको ज्ञात है।
गर्भवती - पति - रुचि के वह आधीन है।
वह चाहे तो उसे बुला ले या न ले।
पर आश्रम का वास ही समीचीन है॥५९॥

तपोभूमि में जिसका सव संस्कार हो।
आश्रम मे ही जो शिक्षित, दीक्षित, वने ।
वह क्यो वैसा लोक - पूज्य होगा नहीं।
धरा पूत वनती है जैसा सुत जने ॥६०॥

रघुकुल - पुंगव सव वाते हैं जानते।
इसीलिये हैं आप यहाँ भेजी गई ।
कुलपति ने भी उस दिन था यह ही कहा।
देख रही हूँ आप अव यही की हुई ॥६१॥

आप सती है, हैं कर्तव्य - परायणा ।
सव सह लेगी कृति से च्युत होंगी नहीं।
किन्तु बहु - व्यथामयी है विरह - वेदना ।
उससे आप यहाँ भी नही वची रही ॥६२।।

आजीवन जीवन - धन से बिछुड़ी न जो।
लंका के छ महीने जिसे छ युग बने ।
उसे क्यों न उसके दिन होंगे व्यथामय ।
जिस वियोग के वरस न गिन पाये गिने ॥६३।।

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आह ! कहूँ क्या प्राय: जीवन आपका।
रहा आपदाओं के कर में ही पड़ा।
देख यहाँ के सुख में भी दुख आपका ।
मेरा जी बन जाता है व्याकुल वड़ा ॥६४।।

पर विलोककर अनुपम - निग्रह आपका ।
देखे धीर धुरंधर जैसी धीरता ॥
पर दुख कातरता उदारता से भरी।
अवलोकन कर नयन - नीर की नीरता ॥६५॥

होता है विश्वास विरह - जनिता - व्यथा।
बनेगी न वाधिका पुनीत - प्रवृत्ति की।
दूर करेगी उर - विरक्ति को सर्वदा ।
ममता जनता - विविध - विपत्ति - निवृत्ति की ॥६६।।

पड़ विपत्तियों में भी कव पर - हित - रता।
पर का हित करने से है मुँह मोड़ती ॥
वेधती गिरती टकराती है शिला से।
है न सरसता को सुरसरिता छोड़ती ॥६७॥

महि में महिमामय अनेक हो गये हैं।
यथा समय कम हुई नही महिमामयी ।।
पर प्रायः सव विविध - संकटों मे पड़े।
किन्तु हुए उनपर स्वआत्मबल से जयी ।।६८।।

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त्रयोदश सर्ग

मलिन - मानसों की मलीनता दूर कर।
भरती रहती है भूतल में भव्यता ।।
है फूटती दिखाती संकट - तिमिर मे।
दिव्य - जनों या देवी ही की दिव्यता ॥६९।।

आश्रम की कुछ ब्रह्मचारिणी - मूर्तियाँ।
ऐसी हैं जिनमें है भौतिकता भरी।
किन्तु आपके लोकोत्तर - आदर्श ने।
उनकी कितनी बुरी - वृत्तियाँ है हरी ॥७०॥

इस विचार से भी पधारना आपका ।
तपस्विनी - आश्रम का उपकारक हुआ ।।
निज प्रभाव का वर - आलोक प्रदान कर।
कितने मानस - तम का संहारक हुआ ॥७१॥

है समाप्त हो गया यहाँ का अध्ययन ।
अव अगस्त - आश्रम में मैं हूँ जा रही॥
विदा ग्रहण के लिये उपस्थित हुई हूँ।
यद्यपि मुझे पृथकता है कलपा रही ॥७२।।

है कामना अलौकिक दोनों लाडिले।
पुण्य - पुंज के पूत - प्रतीक प्रतीत हों।
तज अवैध - गति विधि - विधान - सर्वस्व वन ।
आपके विरह - वासर शीघ्र व्यतीत हों।७३।।

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वैदेही-वनवास

जनक - नन्दिनी ने अन्याश्रम - गमन सुन।
कहा आप जायें मंगल हो आपका ॥
अहह कहाँ पाऊँगी विदुषी आप सी।
आपका वचन पय था मम - संताप का ॥७४॥

अनुसूया देवी सी वर - विद्यावती।
सदाचारिणी सर्व - शास्त्र - पारंगता ॥
यदि मैंने देखी तो देखी आपको।
वैसी ही हैं आप सुधी पर - हित - रता ॥७५॥

जो उपदेश उन्होंने मुझको दिये हैं।
वे मेरे जीवन के प्रिय - अवलम्ब हैं।
उपवन रूपी मेरे मानस के लिये।
सुरभित करनेवाले कुसुम - कदम्ब हैं ॥७६॥

कहूँ आपसे क्या सब कुछ हैं जानती।
पति - वियोग - दुख सा जग में है कौन दुख ॥
तुच्छ सामने उसके भव - सम्पत्ति है।
पति - सुख पत्नी के निमित्त है स्वर्ग - सुख ॥७७॥

अन्तर का परदा रह जाता ही नही ।
एक रंग ही में रॅग जाते हैं उभय ।।
जीवन का सुख तब हो जाता है द्विगुण ।
बन जाते हैं एक जब मिले दो हृदय ॥७८।।

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त्रयोदश सर्ग

रहे इसी पथ के मम जीवन - धन पथिक ।
यही ध्येय मेरा भी आजीवन रहा ।
किन्तु करे संयोग के लिये यत्न क्या।
आकस्मिक - घटना दुख देती है महा ॥७९।।

कार्य - सिद्धि के सारे-साधन मिल गये।
कृत्यों मे त्रुटि - लेश भी न होते कही।
आये विन्न अचिन्तनीय यदि सामने।
तो नितान्त - चिन्तित चित क्यों होगा नही ।।८०।।

जब उसका दर्शन भी दुर्लभ हो गया।
जो जीवन का सम्वल अवलम्बन रहा।
तो आवेग बनाये क्यों आकुल नही।
कैसे तो उद्वेग वेग जाये सहा ।।८१।।

भूल न पाई वे बाते ममतामयी।
प्रीति - सुधा से सिक्त सर्वदा जो रही।
स्मृति यदि है मेरे जीवन की सहचरी ।
अहह आत्म - विस्मृति तो क्यों होगी नही ।।८२॥

बिना वारि के मीन वने वे आज हैं।
रहे जो नयन सदा स्नेह - रस में सने ।।
भला न कैसे हो मेरी मति वावली।
क्यों प्रमत्त उन्मत्त नहीं ममता बने ॥८३॥

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वैदेही-वनवास

रविकुल - रवि का आनन अवलोके विना।
सरस शरद - सरसीरुह से वे क्यों खिले ॥
क्यों न ललकते आकुल हो तारे रहें।
क्यों न छलकते आँखों में आँसू मिले ।।८४।।

कलपेगा आकुल होता ही रहेगा।
व्यथित बनेगा करेगा न मति की कही। .
निज - वल्लभ को भूल न पायेगा कभी।
हृदय हृदय है सदा रहेगा हृदय ही ॥८५।।

भूल सकेंगे कभी नहीं वे दिव्य - दिन ।।
भव्य - भावनायें जब दम भरती रही ।।
कान रहे जब सुनते परम रुचिर - वचन ।
ऑखें जब छबि - सुधा - पान करती रही ॥८६)

कभी समीर नहीं होगा गति से रहित ।
होगा सलिल तरंगहीन न किसी समय ॥
कभी अभाव न होगा भाव - विभाव का।
कभी भावना - हीन नहीं होगा हृदय ।।८७॥

यह स्वाभाविकता है इससे बच सका -
कौन, सभी इस मोह - जाल में हैं फंसे ॥
सारे अन्तस्तल में इसकी व्याप्ति है।
मन - प्रसून हैं वास से इसी के वसे ॥८८।।

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त्रयोदश सर्ग

विरह - जन्य मेरी पीड़ाये हैं प्रकृत।
किन्तु कभी कर्तव्य - हीन हूँगी न मैं ॥
प्रिय - अभिलाषाये जो हैं प्राणेश की।
किसी काल में उनको भूलूंगी न मैं ॥८९।।

विरह - वेदनाओं में यदि है सबलता।
उनके शासक तो प्रियतम - आदेश हैं।
जो हैं पावन परम न्याय - संगत उचित ।
भव - हितकारक जो सच्चे उपदेश हैं ॥९०॥

महामना नृप - नीति - परायण दिव्य - धी।
धर्म - धुरंधर दृढ़ - प्रतिज्ञ पति - देव हैं।
फिर भी हैं करुणानिधान बहु दयामय ।
लोकाराधन के विशेष अनुरक्त हैं॥९१।।

आत्म - सुख - विसर्जन करके भी वे इसे।
करते आये हैं आजीवन करेगे।
बिना किये परवा दुस्तर - आवर्त की।
आपदाब्धि - मज्जित - जन का दुख हरेगे ।।९२।।

निज - कुटुम्ब का ही, न, एक साम्राज्य का।
भार उन्ही पर है, जो है गुरुतर महा ।।
सारी उचित व्यवस्थाओं का सर्वदा ।
अधिकारी महि में नृप - सत्तम ही रहा ।।९३।।

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वैदेही-वनवास

सुतों के सहित मेरे आश्रम - वास से।
देश, जाति, कुल, का यदि होता है भला ।।
अन्य व्यवस्था तो कैसे हो सकेगी।
सदा तुलेगी तुल्य न्याय - शीला - तुला ॥९४॥

रघुकुल - पुंगव की मैं हूँ सहधर्मिणी ।
जो है उनका धर्म वही मम - धर्म है।
भली - भॉति मम - उर उसको है जानता।
उनके प्रिय - सिद्धान्तों का जो मर्म है।९५।।


उनकी आज्ञा का पालन मम - ध्येय है।
उनका प्रिय - साधन ही मम - कर्तव्य है।
उनका ही अनुगमन परम - प्रिय - कार्य है।
उनकी अभिरुचि मम - जीवन - मन्तव्य है ॥९६॥

विरह - वेदनाये हों किन्तु प्रसन्नता ।
उनकी मुझे प्रसन्न बनाती रहेगी।
मम - ममता देखे पति - प्रिय - साधन वदन ।
यातनाये सुखपूर्वक सहेगी ॥९७॥

दोहा


नमन जनकजा ने किया, कह अन्तस्तल - हाल ।
विदा हुई कह शुभ - वचन आत्रेयी तत्काल ।।९८