वैदेही वनवास/१८ स्वर्गारोहण

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वैदेही-वनवास  (1939) 
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
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अष्टादश सर्ग
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स्वर्गारोहण
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तिलोकी

शीत - काल था वाष्पमय बना व्योम था।
अवनी - तल में था प्रभूत - कुहरा भरा।
प्रकृति - वधूटी रही मलिन - वसना बनी।
प्राची सकती थी न खोल मुंह मुसुकुरा ॥१॥

ऊपा आई किन्तु विहॅस पाई 'नहीं।
राग - मयी हो वनी विरागमयी रही।
विकस न पाया दिगंगना - वर - बदन भी।
वात न जाने कौन गई उससे कही ॥२॥

ठंढी - सॉस समीरण भी था भर रहा। ।
था प्रभात के वैभव पर पाला पड़ा।
दिन - नायक भी था न निकलना चाहता।
उन पर भी था कु - समय का पहरा कड़ा ॥३॥

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वैदेही-वनवास

हरे - भरे - तरुवर मन मारे थे खड़े।
पत्ते कॅप कॅप कर थे ऑसू डालते ॥
कलरव करते आज नही खग - वृन्द थे।
खोतों से वे मुंह भी थे न निकालते ॥४॥

कुछ उजियाला होता फिर विरता तिमिर ।
यही दशा लगभग दो घंटे तक रही ।
तदुपरान्त रवि - किरणावलि ने बन सबल ।
मानी बाते दिवस - स्वच्छता की कही ॥५॥

कुहरा टला दमकने अवधपुरी लगी।
दिवनायक ने दिखलाई निज - दिव्यता।
जन - कल - कल से हुआ आकलित कुल - नगर।
भवन भवन में भूरि - भर - गई - भव्यता ।।६।।

अवध - वर - नगर अश्वमेध - उपलक्ष से।
समधिक - सुन्दरता से था सज्जित हुआ।
जन - समूह सुन जनक - नन्दिनी - आगमन ।
था प्रमोद - पाथोधि में निमज्जित हुआ॥७॥

ऋपि, महर्षि, विबुधों, भूपालों, दर्शकों।
संत - महंतों, गुणियों से था पुर भरा॥
विविध - जनपदों के बहु - विध - नर वृन्द से ।
नगर बन गया देव - नगर था दूसरा ॥८॥

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अष्टादश सर्ग

आज यही चर्चा थी घर घर हो रही।
जन जन चित की उत्कण्ठा थी चौगुनी ।।
उत्सुकता थी मूर्तिमन्त बन नाचती ।
दर्शन की लालसा हुई थी सौगुनी ।।९।।

यदि प्रफुल्ल थी धवल - धाम की धवलता।
पहन कलित - कुसुमावलि - मंजुल - मालिका ॥
वहु - वाद्यों की ध्वनियों से हो हो ध्वनित ।
अट्टहास तो करती थी अट्टालिका ॥१०॥

यदि विलोकते पथ थे वातायन - नयन ।
सजे - सदन स्वागत - निमित्त तो थे लसे॥
थे समस्त - मन्दिर बहु - मुखरित कीर्ति से।
कनक के कलस उनके थे उल्लसित से ॥११॥

कल - कोलाहल से गलियाँ भी थीं भरी।
ललक - भरे - जन जहाँ तहाँ समवेत थे।
स्वच्छ हुई सड़के थी, सुरभित - सुरभि से -
वने चौरहे भी चारुता - निकेत थे॥१२॥

राजमार्ग पर जो बहु - फाटक थे बने।
कारु - कार्य उनके अतीव - रमणीय थे।
थीं झालरे लटकती मुक्ता - दाम की।
कनक - तार के काम परम - कमनीय थे॥१३॥

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वैदेही-वनवास

लगी जो ध्वजायें थीं परम - अलंकृता ।
विविध - स्थलों मन्दिरों पर तस्वरों पर ।।
कर नर्तन कर शुभागमन - संकेत - बहु ।
दिखा रही थी दृश्य बड़े ही मुग्धकर ॥१४॥

सलिल - पूर्ण नव - आम्र - पल्लवों से सजे।
पुर - द्वारों पर कान्त - कलस जो थे लसे ।।
वे यह व्यजित करते थे मुझमें, मधुर -
मंगल - मूलक - भाव मनों के हैं बसे ॥१५॥ .

राजभवन के तोरण पर कमनीयतम ।
नौबत बड़े मधुर - स्वर से थी बज रही।
उसके सम्मुख जो अति - विस्तृत - भूमि थी।
मनोहारिता - हाथों से थी सज रही ॥१६॥

जो विशालतम - मण्डप उसपर था बना।
धीरे धीरे वह सशान्ति था भर रहा।
अपने सज्जित - रूप अलौकिक - विभव से।
दर्शक - गण को बहु - विमुग्ध था कर रहा ॥१७||

सुनकर शुभ - आगमन जनक - नन्दिनी का।
अभिनन्दन के लिए रहे उत्कण्ठ सब ।
कितनों की थी यह अति - पावन - कामना ।
अवलोकेगे पतिव्रता - पद - कंज कब ॥१८॥

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अष्टादश सर्ग

स्थान बने थे भिन्न भिन्न सबके लिये।
ऋपि, महर्षि, नृप - वृन्द, विबुध - गण-मण्डली ।।
यथास्थान थी बैठी अन्य - जनों सहित ।
चित्त - वृत्ति थी बनी विकच - कुसुमावली ॥१९॥

एक भाग था वड़ा - भव्य मञ्जुल - महा।
उसमे राजभवन की सारी - देवियाँ
थीं विराजती कुल - वालाओं के सहित ।
वे थीं वसुधातल की दिव्य - विभूतियाँ ॥२०॥

जितने आयोजन थे सज्जित - करण के।
नगर में हुए जो मंगल - सामान थे।
विधि - विडम्बना - विवश तुषार - प्रपात से।
सभी कुछ न कुछ अहह हो गये म्लान थे ॥२१॥

गगन - विभेदी जयजयकारों के जनक ।
विपुल - उल्लसित जनता के आह्लाद ने ॥
जनक - नन्दिनी पुर - प्रवेश की सूचना ।
दी अगणित - वाद्यों के तुमुल - निनाद ने ॥२२॥

सबसे आगे वे सैकड़ों सवार थे।
जो हाथों में दिव्य - ध्वजायें थे लिये ॥
जो उड़ उड़ कर यह सूचित कर रही थी।
कीर्ति - धरा मे होती है सत्कृति किये ॥२३॥
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३००
वैदेही-वनवास

इनके पीछे एक दिव्यतम - यान था।
जिसपर बैठे हुए थे भरत रिपुदमन ।।
देख आज का स्वागत महि - नन्दिनी का ।
था प्रफुल्ल शतदल जैसा उनका बदन ॥२४॥

इसके पीछे कुलपति का था रुचिर - रथ ।
जिसपर वे हो समुत्फुल्ल आसीन थे।
बन विमुग्ध थे 'अवध - छटा अवलोकते ।
राम - चरित की ललामता में लीन थे ॥२५।।

जनक - सुता - स्यंदन इसके उपरान्त था।
जिसपर थी कुसुमों की वर्षा हो रही ।।
वे थीं उसपर पुत्रों - सहित विराजती।
दिव्य - ज्योति मुख की थी भव - तम खो रही ॥२६॥

कुश मणि - मण्डित - छत्र हाथ में थे लिये ।
चामीकर का चमर लिये लव थे खड़े ।।
एक ओर सादर बैठे सौमित्र थे।
देखे जनता - भक्ति थे प्रफुल्लित - बड़े ॥२७॥

सबके पीछे बहुशः - विशद - विमान थे।
जिनपर थी आश्रम - छात्रों की मण्डली ॥
छात्राओं की संख्या भी थोड़ी न थी।
बनी हुई थी जो वसंत - विटपावली ॥२८॥

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अष्टादश सर्ग

धीरे धीरे थे समस्त - रथ चल रहे।
विविध - वाद्य - वादन - रत वादक - वृन्द था ।
चारों ओर विपुल - जनता का यूथ था।
जो प्रभात का बना हुआ अरविन्द था ॥२९॥

बरस रही थी लगातार सुमनावली ।
जय - जय - ध्वनि से दिशा ध्वनित थी हो रही ।।
उमड़ा हुआ प्रमोद - पयोधि - प्रवाह था।
'प्रकृति, उरों में 'सुकृति, बीज थी वो रही ॥३०॥

कुश - लव का श्यामावदात सुन्दर - बदन ।
रघुकुल - पुंगव सी उनकी. - कमनीयता ॥
मातृ - भक्ति - रुचि वेश - वसन की विशदता ।
परम - सरलता मनोभाव - रमणीयता ।।३१।।

मधुर - हॅसी मोहिनी - मूर्ति मृदुतामयी।
कान्ति - इन्दु सी दिन - मणि सी तेजस्विता ।।
अवलोके द्विगुणित होती अनुरक्ति थी।
वनती थी जनता विशेष - उत्फुल्लिता ॥३२॥

जव मुनि - पुंगव रथ समेत महि - नन्दिनी ।
रथ पहुँचा सज्जित - मंडप के सामने ॥
तव सिंहासन से उठ सादर यह कहा।
मण्डप के सब महज्जनों से राम ने ॥३३॥

[ ३०२ ]

वैदेही-वनवास

आप लोग कर कृपा यहीं बैठे रहें।
जाता हूँ मुनिवर को लाऊँगा यहीं ।
साथ लिये मिथिलाधिप की नन्दिनी को।
यथा शीघ्र मैं फिर आ जाऊँगा यही ॥३४॥

रथ पहुंचा ही था कि कहा सौमित्र ने।
आप सामने देखें प्रभु हैं आ रहे।
श्रवण - रसायन के समान यह कथन सुन ।
स्रोत - सुधा के सिय अन्तस्तल में बहे ॥३५॥

उसी ओर अति - आकुल - ऑखे लग गई।
लगीं निछावर करने वे मुक्तावली ॥
बहुत समय से कुम्हलाई आशा - लता।
कल्पबेलि सी कामद बन फूली फली ॥३६।।

रोम रोम अनुपम - रस से सिञ्चित हुआ।
पली अलौकिकता - कर से पुलकावली ।।
तुरत खिली खिलने में देर हुई नहीं।
बिना खिले खिलती है जो जी की कली ॥३७॥

घन - तन देखे वह वासना सरस बनी।
जो वियोग - तप - ऋतु - आतप से थी जली ॥
विधु - मुख देखे तुरत जगमगा वह उठी।
तम - भरिता थी जो दुश्चिन्ता की गली ॥३८॥

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३०३
अष्टादश सर्ग

जव रथ से थी उतर रही जनकांगजा ।
उसी समय मुनिवर की करके वन्दना ।
पहुँचे रघुकुल - तिलक वल्लभा के निकट ।
लोकोत्तर था पति - पत्नी का सामना ॥३९॥

ज्योंही पति प्राणा ने पति - पद - पद्म का।
स्पर्श किया निर्जीव - मूर्ति सी बन गई।
और हुए अतिरेक चित्त - उल्लास का।
दिव्य - ज्योति में परिणत वे पल में हुई ॥४०॥

लगे वृष्टि करने सुमनावलि की त्रिदश ।
तुरत दुंदुभी - नभतल मे बजने लगी।
दिव्य - दृष्टि ने देखा, है दिव - गामिनी ।
वह लोकोत्तर - ज्योति जो धरा में जगी ॥४१॥

वह थी पातिव्रत - विमान पर विलसती।
सुकृति, सत्यता, सात्विकता की मूर्तियाँ॥
चमर डुलाती थी करती जयनाद थी।
सुर - बालाये करती थी कृति - पूर्तियाँ ॥४२॥

क्या महर्पि क्या विबुध-वृन्द क्या नृपति-गण ।
क्या साधारण जनता क्या सब जानपद ॥
सभी प्रभावित दिव्य - ज्योति से हो गये।
मान लोक के लिये उसे आलोक प्रद ॥४३॥
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वैदेही-वनवास

मुनि - पुंगव ; रामायण की बहु - पंक्तियाँ।
पाकर उसकी विभा जगमगाई अधिक ।।
कृति - अनुकूल ललिततम उसके ओप से।
लौकिक बाते भी बन पाई अलौकिक ॥४४||

कुलपति - आश्रम के छात्रों ने लौटकर।
दिव्य - ज्योति - अवलम्वन से गौरव - सहित ॥
वह आभा फैलाई निज निज प्रान्त में।
जिसके द्वारा हुआ लोक का परम - हित ॥४५॥

तपस्विनी - छात्राओं के उद्बोध से।
दिव्य ज्योति - बल से बल सका प्रदीप वह ।।
जिससे तिमिर - विदूरित बहु - घर के हुए।
लाख लाख मुखड़ों की लाली सकी रह ॥४६||

ऋषि, महर्पियों, विबुधों, कवियों, सज्जनों।
हृदयों में बस दिव्यं - ज्योति की दिव्यता ॥
भवहित - कारक सद्भावों मे सर्वदा।
भूरि भूरि भरती रहती थी भव्यता ॥४७॥

जनपदाधि - पतियों नरनाथों - उरों में।
दिव्य - ज्योति की कान्ति वनी राका - सिता॥
रंजन - रत रह थी जन जन की रंजिनी ।
सुधामयी रह थी वसुधा मे विलसिता ॥४८

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३०५
अष्टादश सर्ग

साधिकार - पुरुपों साधारण - जनों के।
उरों में रमी दिव्य - ज्योति की रम्यता ॥
शान्तिदायिनी बन थी भूति - विधायिनी ।
कहलाकर कमनीय - कल्पतरु की लता ॥४९॥

यथाकाल यह दिव्य - ज्योति भव - हित - रता।
आर्य - सभ्यता की अमूल्य - निधि सी बनी।
वह भारत - सुत - सुख - साधन वर - व्योम में।
है लोकोत्तर ललित चाँदनी सी तनी ॥५०॥

उसके सारे - भाव भव्य हैं बन गये।
पाया उसमें लोकोत्तर - लालित्य है।
इन्दु कला सी है उसमे कमनीयता।
रचा गया उस पर जितना साहित्य है ॥५१॥

उसकी परम - अलौकिक आभा के मिले।
दिव्य बन गई हैं कितनी ही उक्तियाँ॥
स्वर्णाक्षर हैं मसि - अंकित - अक्षर बने ।
मणिमय है कितने ग्रंथो की पंक्तियाँ ॥५२॥

आज भी अमित - नयनों की वह दीप्ति है।
आज भी अमित - हृदयों की वह शान्ति है।
आज भी अमित तम - भरितों की है विभा।
आज भी अमित - मुखड़ों की वह कान्ति है ॥५३॥