वैशाली की नगरवधू/17. महामिलन

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17. महामिलन

अम्बपाली अपने उपवन के लताकुंज में बैठी गहन चिन्तन में व्यस्त थी। वह सोच रही थी, जीवन के तत्त्व को। सप्तभूमि प्रासाद में आकर, वहां की अतुल सम्पदा, कोमल सुख-साधन, सान्ध्यबेला में आने वाले कामुक तरुणों के गर्मागर्म प्रेम-सम्भाषण, उनके प्रति अपने अनुराग का प्रदर्शन, हर्षदेव का प्रेमोन्माद और अपने पूर्ण जीवन का सम्पूर्ण वैशाली के प्रति विद्रोह। वह प्रयत्क्ष देख रही थी कि प्रारम्भ में जिस सुख-सज्जा को तुच्छ समझा था, वह उसके जीवन की अब अनिवार्य सामग्री हो गई है। उसके रूप की दोपहरी खिली थी और इसी अल्पकाल में उसके तेज, माधुर्य, विलास और अलौकिक बुद्धि-वैचित्र्य की कहानियां देश-देशांतरों में फैल चुकी थीं। उसकी आंखों के सामने अब अपने बाल्यकाल का वह चित्र कभी-कभी आ जाता था, जब वह एक साधारण कंचुक के लिए रोई थी। वह अपने पिता के अकपट स्नेह को याद कर बहुधा आंसू बहाती। आज उसके अंग यौवन के अमृत से स्नात होकर ऐसी सुषमा बिखेर रहे थे; कि बूढ़े और युवा, नगर के चौकीदार, चाण्डाल और कर्मकार से लेकर परिषद् के संभ्रांत सदस्य, तरुण सामन्त-पुत्र और सेट्ठिपुत्र, नागरिक, देश देशान्तर के श्रीमन्त, नरपति और सम्राट् जिसे एक आंख देखने भर के लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार थे। अपनी इस विजय पर उसे गर्व था। वह जब शिविका पर सवार हो, राजपथ पर निकलती तो नागरिक उत्सव मनाते। नित्य प्रातःकाल से सन्ध्या तक, देश देशान्तरों से आए विदेशी और वैशाली के नागरिक उसके प्रति अपना उत्कट प्रेम प्रकट करने के लिए सप्तभूमि प्रासाद के तोरण पर बहमूल्य सुगन्धित पुष्पों की मालाएं चढ़ाते थे, उससे नित्य तोरण पट जाता था। अपने प्रेमियों से उसे अतुल धन मिलने लगा था, उसका गिनना असम्भव था। उसके कोषरक्षक तराजू से स्वर्ण तोला करते थे। कृषक वृद्ध सेट्ठियों और सम्राटों की जीवन-भर की संचित सम्पदा उसके ऊपर लुटाई जाती थी। प्रेमियों के प्रेम संदेश और मिलने वालों की प्रार्थनाओं से उसे सांस लेने का अवकाश न था। वह सोचने लगती—मैं क्या से क्या हो गई। वह कभी-कभी अपने प्रेमियों की बात सोचने लगती, जिनमें से प्रत्येक उसे आकर्षित करने में असमर्थसिद्ध हुआ था।

उसने देवताओं, प्रेतों, तांत्रिकों, सिद्धों और योगियों के विषय में बहुत-कुछ सुना था। वह इन विषयों पर सोचती रहती। कभी-कभी मित्रों से वार्तालाप करती। मारण, उच्चाटन, वशीकरण के प्रति कौतूहल प्रकट करती। अन्त में विरक्त हो, अनमनी हो, वह एकान्त में इसी कुंज में आ आत्मचिन्तन करती। उसके यहां ओझे, सयाने, तांत्रिक बहुधा आते, भविष्य-वर्णन करते। वह स्वयं कभी-कभी प्रसिद्ध सिद्धों से मिलने, भविष्य पूछने जाती। बहुत लोग उससे कहते—जीवन का उद्देश्य सुख भोग है। आओ, जीवन की बहार लूटें। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाली ज्ञान-अनुभूति ही सत्य है और सब असत्य है। मिथ्या है। परन्तु इन विचारों से, ऐसे लोगों से वह शीघ्र ही ऊब जाती। उनका तिरस्कार कर बैठती।
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जीवन के रहस्यों को समझने के लिए उसने दर्शनों और उसके तत्त्वों का अध्ययन किया था, पर उनसे उसे शान्ति नहीं मिली थी। उसका सर्वप्रथम विषय उसकी बाल्यावस्था की स्मृति थी, जो दिन-दिन उससे दूर होती जाती थी और अब सत्य यह था कि उसके अधर धधकती अग्नि के समान दाहक और मधु से मधुर थे। इन्हीं सब बातों पर विचार करते-करते वह कभी-कभी उत्तेजित होकर चिल्लाने लगती—"नहीं, नहीं , मैं किसी से प्रेम नहीं करती, नहीं कर सकती, किसी व्यक्ति से भी नहीं। मैं उन सबसे घृणा करती हूं जो आनन्दभोगी हैं। यह सप्तभूमि प्रासाद मेरे जीवन पर बोझ है। ये सान्ध्यमित्र मेरे हृदय पर रेंगने वाले घृणित कीट हैं, वह उनके स्त्रैण चरित्र और स्त्रैण वेशभूषा का स्मरण कर घृणा से होंठ सिकोड़ लेती। कभी-कभी विचलित होकर चिल्ला उठती।

फिर उसका ध्यान अपने अप्रतिम अंग-सौष्ठव पर जाता, वह अपने अद्भुत रूप को पुष्करिणी के स्वच्छ जल में निहारकर कभी-कभी बहुत प्रसन्न हो जाती। उस समय वे सब वासनाएं, जिनकी उसे चाट पड़ गई थी, एक-एक कर उसके निकट आकर उसके अंग-प्रत्यंग में पैठ जाती थीं और वह मन्द मुस्कान के साथ कहती—कोई हानि नहीं, इसी रूप की ज्वाला में, मैं विश्व को भस्म करूंगी। इस अछूते रूप को सदा अछूता रखूंगी, इस सुषमा की खान गात्र को किसी को छूने भी न दूंगी, विश्व इसे भोग न सकेगा। वह इसकी पूजा ही करे। उसका हृदय गर्व और तेज से भर आता। वह अब उन कवियों, चित्रकारों और कलाकारों का स्मरण करती, जिनकी कृति से वह प्रभावित हो चुकी थी और उन पर एक सन्तोष की विचारधारा दौड़ाकर बहुधा उसी लताकुञ्ज में उसी श्वेत मर्मर की श्वेत शीतल पटिया पर वह सो जाती।

उपवन में दर्श-विदश के बहुत-से वृक्ष लगे थे। उन्हें देश-देशान्तरों से लाने, उनकी प्रकृति के अनुकूल जलवायु में उन्हें पालने में बहुत द्रव्य खर्च हुआ था। उनकी सिंचाई के लिए निर्मल मीठे जल की एक कृत्रिम उपकुल्लिका पुष्करिणी से निकालकर उपवन के चारों ओर बहाई गई थी। काम-पुष्करिणी में कुशल शिल्पियों ने कई एक कृत्रिम पहाड़ियों, स्तम्भ-चिह्नों और कला की प्रतीक मूर्तियों का सर्जन किया था, जिनका प्रतिबिम्ब पुष्करिणी के मोती के समान जल में भव्य प्रतीत होता था। जिस लताकुञ्ज में अम्बपाली बैठी थी, उसमें जो प्रकाश आता था, वह पानी की पतली चादर से छनकर मद्धिम और रंगीन छटा धारण करता था। कुञ्ज में एक हाथीदांत का महार्घ छपरखट भी था जिसकी दुग्धफेन-सम शैया पर कभी-कभी अम्बपाली सुख की नींद लेती थी। रत्नजटित स्वर्ण के धूपदानों में वहां कीमती सुगन्ध-द्रव्य सदा जलते रहते थे। बड़े-बड़े आधारों में दुर्लभ रंग-बिरंगे पौधे सजाकर रखे गए थे। कुछ के फूल ऊदे रंग के थे, कुछ के पीत और कुछ के नील वर्ण। ऐसा ही वह अद्भुत लताकुञ्ज और उपवन था।

एकाएक आंख खुलने पर उसने देखा—उस सुरक्षित लताकुञ्ज में एक प्रभावशाली पुरुष उसके सम्मुख खड़ा है। उसकी अवस्था तरुणाई का उल्लंघन करने लगी है—परन्तु उसका गौर वर्ण, तेजस्वी मुख सूर्य के समान देदीप्यमान है। उसके सघन काले बाल काकपक्ष के रूप में पीछे को संवारे हुए हैं। प्रशस्त वक्ष और प्रलम्ब पुष्ट बाहु बहुमूल्य दुकूल से आवृत हैं। अधोअंग में एक कोमल पीत कौशेय सुशोभित है। उसकी सघन काली मूंछें उसके दर्शनीय मुख पर अद्भुत शोभाविस्तार कर रही हैं। कानों में हीरक-कुण्डल और कण्ठ
[ ७२ ]में गुलाबी आभा के असाधारण दुर्लभ मुक्ता सुशोभायमान हैं। उसके बड़े-बड़े काले चमकीले नेत्रों और उत्फुल्ल सरस ओष्ठों से आनन्द, विलास और प्रेम की अटूट धारा प्रवाहित हो रही है। उसके एक हाथ में महार्घ अप्रतिम वीणा है। अम्बपाली हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई। उसने आश्चर्यचकित होकर उस पुरुषपुंगव की ओर देखा। अनायास ही उस पर उस पुरुष का प्रभाव छा गया। वह अम्बपाली, जो आज तक किसी पुरुष से प्रभावित नहीं हुई थी, इस पुरुष को देखकर क्षण-भर जड़-स्तम्भित रह गई। पुरुष ने ही पहले कहा—

"जनपदकल्याणी देवी अम्बपाली प्रसन्न हों! क्या मैंने तुम्हारे इस एकान्त विश्राम में व्याघात करके तुम्हें रुष्ट कर दिया है?"

"नहीं–नहीं। परन्तु आप भन्ते, यहां इस सुरक्षित कोष्ठ में बिना अनुमति कैसे आ पहुंचे? क्या प्रहरी सो गए हैं? या आपने उन्हें अपनी माया से मोहित कर दिया है?"

पुरुष ने हंसकर कहा—"नहीं कल्याणी, मैं अदृश्य होकर आकाश-मार्ग से आया हूं। बेचारे प्रहरी मुझे देख नहीं सके।"

अम्बपाली आश्चर्य-मूढ़ होकर बोली—"किन्तु आप हैं कौन भन्ते? क्या आप गन्धर्व हैं?"

"नहीं भद्रे, मैं मनुष्य हूं।"

"परन्तु आपका ऐसा आगमन...?"

"मुझे सिद्धियां प्राप्त हैं। मैं लोपाञ्जन विद्या और खेचर विद्या जानता हूं।"

अम्बपाली खड़ी हो गई। उसने पूछा—"आप साधारण पुरुष नहीं हैं। महानुभाव, आप क्या कोई देव, दानव, यक्ष मुझे ठगने आए हैं?"

"नहीं जनपदकल्याणी, मैंने तुम्हारे अप्रतिम रूप, लावण्य, असह्य तेज, दर्प और लोकोत्तर प्रतिभा की चर्चा अपने देश में सुनी थी। इसी से, केवल तुम्हें देखने मैं बहुत दूर से छद्मवेश में आया हूं। अब मैंने जाना कि सुनी हुई बातों से भी प्रत्यक्ष बहुत बढ़कर है। तुम-सी रूपसी बाला कदाचित् विश्व में दूसरी नहीं है।"

अम्बपाली का कौतूहल कुछ कम हो गया था और उसका साहस लौट आया था। उसने अपने रूप-लावण्य की प्रशंसा सुन कहा—"भन्ते, औरों की प्रशंसा करने और अपना गुप्त प्रेम प्रदर्शन करने में आप वैसे ही कुशल हैं जैसे अदृश्यरूप से आकाश मार्ग द्वारा किसी स्त्री के एकान्त आवास में पहुंच जाने में। किन्तु..."

"किन्तु भद्रे अम्बपाली, मेरे हृदय में तुम्हारा असाधारण प्रेम बहुत प्रथम घर कर गया था। तुम मुझे जीवन और आत्मा से भी अधिक प्रिय हो।"

"भन्ते, ज़रा संभलकर इस प्रेम-मार्ग पर कदम रखिए। कदाचित् वहां आपकी खेचर-सिद्धि और लोपाञ्जन माया काम न दे सकेगी।"

"भद्रे, प्रेम के सत्य मार्ग से सारी ही सिद्धियां तुच्छ हैं। किन्तु मेरा प्रेम वासना की आग में जलता हुआ नहीं है। मैं तुम्हें फलों की सुवासित मदिरा की अपेक्षा अधिक नित्य, अमर और अखण्ड समझता हूं, देवी अम्बपाली!"

"ओह, तो भन्ते! आपका यह प्रेम कुछ अलौकिक-सा प्रतीत होता है।" अम्बपाली ने मुस्कराकर कहा—"भन्ते, इस कोरी प्रशंसा से मेरे हाथ क्या आएगा?"

"प्रेम?"
[ ७३ ] "प्रेम का व्यवसाय करते यद्यपि मुझे अधिक काल नहीं बीता, फिर भी मैं अब और किसी नवीनता की आशा नहीं करती। आपकी बातें दार्शनिकों जैसी हैं, किन्तु भन्ते, प्रेम का रहस्य दार्शनिकों की अपेक्षा प्रेमीजन ही अधिक जानते हैं।"

"वैशाली की जनपदकल्याणी देवी अम्बपाली से मैं ऐसे ही प्रत्युत्तर की आशा करता था। परन्तु भद्रे, तुम्हें वशीभूत करने की एक और वस्तु मेरे पास है।"

"वह क्या भन्ते?"

भद्र पुरुष ने महार्घ वीणा का आवरण उठाया। उस पर आश्चर्यजनक हाथीदांत का काम हो रहा था और वह दिव्य वीणा साधारण वीणाओं से अद्भुत थी। अम्बपाली ने आश्चर्यचकित होकर कहा—

"निश्चय यह वीणा अद्भुत है। परन्तु भन्ते, आप मेरा मूल्य इससे आंकने का दुस्साहस मत कीजिए।"

"इसका तो अभी फैसला होगा, जब इस वीणावादन के साथ देवी अम्बपाली को अवश नृत्य करना होगा।"

"अवश नृत्य?"

"निश्चय!"

"असम्भव!"

"निश्चय!"

आगन्तुक रहस्यमय पुरुष वहीं श्वेतमर्मर के पीठ पर बैठ गए। उन्होंने वीणा को झंकृत किया। अम्बपाली मूढ़वत् बैठी रही। एक ग्राम, दो ग्राम, पर जब उस आश्चर्य पुरुष की उंगलियां नृत्य करने लगीं और वातावरण में वीणा का स्वर भर गया—तो अम्बपाली जैसे मत्त होने लगी। उसे अपने चारों ओर एक मूर्तिमान् संगीत, एक प्रिय सुखस्पर्शी घोष, एक सुषमा से ओतप्रोत वातावरण प्रतीत होने लगा।

वीणा बज रही थी। उसकी गति तीव्र से तीव्रतर होती जा रही थी। अम्बपाली को ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तंतुवाद्य के कम्पन से जो स्वरलहरी उत्पन्न हो रही है, वह उसके चर्मकूपों को भेदकर उसके रक्त में प्रविष्ट हो रक्त को उत्तप्त कर रही है। उसका मुंह लाल हो गया, नेत्रों में मद छा गया, गात्र कांपने लगा। वह अपनी सम्पूर्ण सावधानता से उस पुरुषपुंगव के असाधारण वीणावादन को विस्फारित नेत्रों से देखती रही।

एकाएक ही वादक ने उंगलियों की गति में हेरफेर किया और तब अम्बपाली ने मूढ़ होकर देखा—वीणा एक ही काल में तीन ग्रामों में बज रही है। ऐसा तो न देखा, न सुना था। कुछ ही क्षणों में अम्बपाली विवश हो गई। उसे ऐसे प्रतीत हुआ, मानो उसके शरीर में रक्त के स्थान पर जलती हुई मदिरा बह रही है और अब वह स्थिर नहीं रह सकती। वह टकटकी बांधकर वीणा पर विद्युत्-वेग से थिरकती उंगलियों को देखते-देखते अचेत-सी हो गई। अब उसे ऐसा प्रतीत हुआ, उसका मृदुल गात्र ही वीणा के रूप में झंकृत हो रहा है। उसी अचेतनावस्था में उसने उठकर नृत्य करना आरम्भ कर दिया। पहले मंद, फिर तीव्र, फिर तीव्रतर, और अब उन उंगलियों में और उन चरणों में प्रगति की होड़ बदी थी। नृत्य और वादन एकीभूत हो गया था। वादक की उंगलियां और नर्तकी के चरण-चाप एक-मूर्त हो गए थे। कौन नृत्य कर रहा है, कौन वीणावादन और कौन उस अलौकिक दृश्य को देख-सुन रहा
[ ७४ ]है, यह नहीं कहा जा सकता था। धीरे-धीरे अम्बपाली अवश होने लगी और वादक की उंगलियां भी विराम पर आने लगीं। अम्बपाली धीरे-से एक लतागुल्म पर झुक गई और महापुरुष ने महार्घ वीणा रखकर उसे हाथों ही में उठाकर श्वेतमर्मर की पीठिका पर लिटा दिया।

धीरे-धीरे अम्बपाली ने आंखें खोलीं। आगन्तुक महापुरुष ने मुस्कराकर कहा—"देवी, अम्बपाली की जय हो!"

"मैं परास्त हो गई, भन्ते!"

"भद्रे, प्रेम में जय-पराजय नहीं होती। वहां तो दो का भेद नष्ट होकर एकीकरण हो जाता है।"

"किन्तु भन्ते, जो कुछ अनुभूति मुझे इस समय हुई, वह अभूतपूर्व है। क्या आप स्वयं गन्धर्वराज चित्ररथ अलकापुरी से मुझे कृतकृत्य करने पधारे हैं?"

"भद्रे, मैं उदयन हूं।"

"आप कौशाम्बीपति महाराज उदयन हैं? देव, अज्ञान में हुई मेरी अविनय की क्षमा करें।"

"सत्य प्रेम में अविनय-विनय नहीं होती है, भद्रे!"

"देव कैसे तीन ग्रामों में एक ही काल में वीणावादन करने में समर्थ हैं! ऐसा त्रिलोकी में कोई पुरुष नहीं कर सकता है।"

"और न त्रिलोकी में कोई जीवधारी वैशाली की जनपदकल्याणी अम्बपाली के समान तीन ग्रामों की ताल पर नृत्य कर सकता है।"

"किन्तु देव, वह नृत्य मैंने अवश अवस्था में किया है। क्या अब मैं फिर वैसा ही नृत्य कर सकती हूं?"

"यदि फिर वैसा ही वीणावादन हो तो।"

"किन्तु देव, इस वीणा से तो जड़-जंगम सभी अवश हो जाते हैं।"

"तुम्हारे अप्रतिम नृत्य से भी कल्याणी।"

"तो देव, आपको छोड़कर और भी कोई मनुष्य इस प्रकार वीणावादन कर सकता है?"

"केवल गन्धर्वराज चित्ररथ, जिन्होंने यह वीणा अपनी सम्पूर्ण विद्या सहित मुझे दी थी।"

"देव कौशाम्बीपति, क्या मैं फिर एक बार आपसे वैसे ही वीणावादन की प्रार्थना कर सकती हूं?"

"नहीं भद्रे, परन्तु अब तुम दिव्य नृत्य कभी न भूलोगी। जब भी तीन ग्राम में यह वीणा कोई बजाएगा, तुम ऐसे ही अलौकिक नृत्य कर सकोगी।"

"तो देव, आप क्या अपनी शिष्या अम्बपाली का आज आतिथ्य ग्रहण करेंगे?"

"नहीं भद्रे, मैं जैसे आया था, वैसे ही गुप्त भाव से चला जाऊंगा।"

"क्या अम्बपाली आपका कोई प्रिय कर सकती है?"

"वह कर चुकी। मैं अपना प्राप्तव्य पा चुका।"

"किन्तु देव...!"
[ ७५ ] "ओह भद्रे, क्या मैंने नहीं कहा था, कि मेरा प्रेम वासना की अग्नि से जलता हुआ नहीं है? मैंने तुम्हें देखकर नेत्र सार्थक किए और तुम्हारा वह देवदुर्लभ नृत्य अपनी वीणाध्वनि के साथ अंगीभूत कर लिया।"

"देव कौशाम्बीपति, जब सम्पूर्ण जनपद मेरे चरणों में आंखें बिछाता है, लाखों प्राणधारी इन चरणों का चुम्बन करने को अपने प्राण भेंट देने को उत्सुक हैं, मेरी प्राप्ति के लिए जनपद में होड़, ईर्ष्या, निराशा और अभिलाषा का इतना संघर्ष हुआ है, कि इसके बोझ में पर्वत भी धसक जाएगा, तब क्या मैं आपका कुछ भी प्रिय नहीं कर सकती?"

"क्यों नहीं भद्रे, अम्बपाली, यदि मेरा प्रिय करना चाहती हो, तो मेरी यह साधारण स्नेह–भेंट स्वीकार करो, जिसे एक बार तुम अस्वीकार कर चुकी हो।"

यह कहकर महाराज उदयन ने अपने कण्ठ से वह अलौकिक मोतियों की माला उतारकर अम्बपाली के गले में डाल दी।

अम्बपाली ने कहा—"अनुगृहीत हुई, किन्तु क्या मैं अपना कौतूहल निवदेन करूं?"

"कहो भद्रे!"

"क्या मुझ-सी कोई स्त्री आपने देखी है?"

"देखी है, पर तुमसे श्रेष्ठ नहीं कल्याणी।"

"कौन है वह?"

"गान्धार कन्या कलिंगसेना।"

"उसमें त्रुटि क्या है?"

"तीनों ग्रामों पर नृत्य नहीं कर सकती।"

"क्या वह देव के सान्निध्य में है?"

"नहीं भद्रे, मैं उसे प्राप्त करके भी प्राप्त न कर सका।"

"प्राप्त करके भी प्राप्त न कर सके, देव!"

"ऐसा ही हुआ भद्रे।"

"कैसे देव, क्या देवी कलिंगसेना द्वितीय कामदेव के समान सुन्दर महाराज उदयन को प्यार नहीं कर सकीं—या तक्षशिला के महाराज ने इन्द्र के मित्र वात्स–नरेश सहस्रानीक के पुत्र को ही अयोग्य समझा, जिसके लिए देवराज इन्द्र अपना रथ भेजता था?"

"ऐसा नहीं हुआ भद्रे, इसमें कुछ कौतुक हुआ।"

"यदि देव कौतुक वर्णन करें तो अच्छा।"

"कहता हूं, सुनो। विगलित-यौवन कोसल-नरेश प्रसेनजित् ने गान्धारपति कलिंगसेन से उसे मांगा था। गान्धारपति राजतन्त्र के स्वार्थवश प्रसेनजित् को अप्रसन्न नहीं कर सकते थे। उन्होंने कोसलपति को कन्या देना स्वीकार कर लिया था। भाग्यविधि से कलिंगसेना की मित्रता मायासुर की कन्या सोभप्रभा से हो गई थी। उसी ने सखी के कल्याण की कामना से उससे कहा था कि—हेमन्त ऋतु की कमलिनी के समान तुम, उस चमेली के मुर्झाए हुए पुष्प प्रसेनजित् के योग्य नहीं हो। उसी ने उससे मेरा सत्यासत्य वर्णन करके उसे मेरे प्रति आकर्षित कर दिया था। मुझे भी इसकी सूचना मिल चुकी थी। परन्तु देवी अम्बपाली, मैं अवन्तीनरेश चण्डमहासेन को अप्रसन्न नहीं कर सकता था, इसी से गान्धारपति कलिंगसेन से मैंने उसकी दिव्य पुत्री नहीं मांगी।"
[ ७६ ]अम्बपाली ने हंसकर कहा—"देव को महादेवी वासवदत्ता का भी तो लिहाज करना उचित था, जिन्होंने शकुन्तला और ऊषा से भी बढ़कर साहस किया है। परन्तु क्या सुश्री कलिंगसेना बहुत सुन्दरी हैं?"

"भद्रे, अम्बपाली, विश्व की स्त्रियों में तुम्हीं उसकी होड़ ले सकती हो। केवल नृत्य को छोड़कर, जिसमें तुम उससे बढ़ गईं। परन्तु मय असुर की कन्या की मित्रता से वह अक्षययौवना हो गई है। असुरनन्दिनी ने उसे विन्ध्य-गर्भ में स्थित मायापुरी में ले जाकर दिव्यौषध भक्षण कराया है, तथा माया के यन्त्रों से भरा पिटक भी दिया है। इससे वह अद्भुतकर्मिणी हो गई है। एक दिन वह अपनी सखी असुरनन्दिनी की सहायता से इन्हीं यन्त्रों के विमान पर चढ़कर कौशाम्बी में आ गई।"

"तो देव, घर–बैठे गंगा आई।"

"हुआ ऐसा ही भद्रे, किन्तु राजसम्पदा भी कैसा दुर्भाग्य है!"

"राजसम्पदा ने क्या बाधा दी महाराज?"

"ज्योंही मैंने सुना कि गान्धार कन्या कलिंगसेना स्वयंवर की इच्छा से आई है, मैंने आर्य यौगन्धरायण को उसका सत्कार करने और विवाह का मुहूर्त देखने को कहा। परन्तु आर्य यौगन्धरायण ने सोचा कि त्रैलोक्य-सुन्दरी कलिंगसेना पर आसक्त होकर राजा मोह में फंस जाएगा, देवी वासवदत्ता संतप्त हो शोक में प्राण दे देंगी। पद्मावती भी उनके बिना न रह सकेंगी, इससे चण्डमहासेन और महाराज प्रद्योत दोनों ही शत्रु हो जाएंगे। इन सब बातों को विचारकर उन्होंने देवी कलिंगसेना के सत्कार-निवास का तो समुचित प्रबन्ध कर दिया, परन्तु विवाह में टालमटोल करते रहे।

"उन्होंने कोसलपति और गान्धारराज दोनों ही को इसकी सूचना दे दी। कोसलपति ने सैन्य भेजकर गान्धारराज को विवश कर दिया। कोसलपति को नाराज़ करने की सामर्थ्य गान्धारपति में नहीं थी। वे न उसकी सैन्य का सामना कर सकते थे और न सुदूरपूर्व के व्यापार-वाणिज्य का मार्ग बन्द होना ही सहन कर सकते थे। उन्होंने पुत्री को अपनी कठिनाइयां बताईं, तो देवी कलिंगसेना ने पिता और जनपद के स्वार्थरक्षण के लिए बलि दे दी और विगलित-यौवन प्रसेनजित् से विवाह करना अंगीकार करने वे श्रावस्ती चली गईं।"

"पूजार्ह हैं देवी कलिंगसेना, देव!"

"पूजार्ह ही हैं भद्रे, परन्तु जनपद के लिए आत्मबलि देने वाली पूजार्ह अकेली देवी कलिंगसेना ही नहीं हैं, देवी अम्बपाली भी हैं।"

"देव कौशाम्बीपति के इस अनुग्रह-वचन से आप्यायित हुई।"

"तो भद्रे, अब मैं जाता हूं, तुम्हारा कल्याण हो। मेरा यह अनुरोध रखना, कि किसी मनुष्य के सम्मुख दिव्य नृत्य न करना, जब तक कि तीन ग्रामों में वीणावादन करने वाला कोई पुरुष न मिल जाए।"

"ऐसा ही होगा महाराज!"

उदयन तत्क्षण अन्तर्धान हो गए। अम्बपाली विमूढ़ भाव से आश्चर्यचकित हो उसे श्वेतमर्मर की पीठ पर बैठी देखती रही।