वैशाली की नगरवधू/18. ज्ञातिपुत्र सिंह

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18. ज्ञातिपुत्र सिंह

ज्ञातिपुत्र सिंह तक्षशिला के विश्वविश्रुत विश्वविद्यालय में वहां के दिशा-प्रमुख युद्धविद्या के एकान्त आचार्य बहुलाश्व से रणचातुरी और राजनीति का अध्ययन कर ससम्मान स्नातक हो, दस वर्ष बाद वैशाली में लौटे थे। विश्वविद्यालय में अध्ययन करते हुए उन्होंने पर्शुपुरी के शासनुशास के साथ हुए विकट युद्धों में अपने धैर्य, प्रत्युत्पन्नमति और चातुरी का बड़ा भारी परिचय दिया था और उनके शौर्य पर मुग्ध हो आचार्य बहुलाश्व ने अपनी इकलौती पुत्री रोहिणी उन्हें ब्याह दी थी। सो ज्ञातिपुत्र बहुत सामान, बहुत-सा यश और चन्द्रकिरण के समान दिव्य देवांगना पत्नी को संग ले वैशाली आए थे। इससे वैशाली में उनके स्वागत-सत्कार की धूम मच गई थी। उनके साथ पांच और लिच्छवि तरुण विविध विद्याओं में पारंगत हो तक्षशिला के स्नातक की प्रतिष्ठा-सहित वैशाली लौटे थे। तथा गांधारपति ने वैशाली गणतन्त्र से मैत्रीबन्धन दृढ़ करने के अभिप्राय से गान्धार के दश नागरिकों का एक शिष्टदल, दश अजानीय असाधारण अश्व और बहुत-सी उपानय-सामग्री देकर भेजा था। इस दल का नायक एक वीर गान्धार तरुण था। वह वही वीर योद्धा था, जिसने उत्तर कुरु के देवासुर संग्राम में देवराज इन्द्र के आमन्त्रण पर असाधारण सहायता देकर असुरों को पददलित किया था और देवराज इन्द्र ने जिसे अपने हाथों से पारिजात पुष्पों की अम्लान दिव्यमाला भेंट कर देवों के समान सम्मानित किया था।

इन सम्पूर्ण बहुमान्य अतिथियों के सम्मान में गणपति सुनन्द ने एक उद्यान-भोज और पानगोष्ठी का आयोजन किया था। इस समारोह में सम्मिलित होने के लिए वैशाली के अनेक प्रमुख लिच्छवि और अलिच्छवि नागरिक और महिलाएं आमन्त्रित की गई थीं। गण-उद्यान रंगीन पताकाओं और स्वस्तिकों से खूब सजाया गया था, तथा विशेष प्रकार से रोशनी की व्यवस्था की गई थी। सुगन्धित तेलों से भरे हुए दीप और शलाकाएं स्थान-स्थान पर आधारों में जल रहे थे।

ज्ञातिपुत्र सिंह ने एथेन्स का बना एक महामूल्यवान् चोगा पहना था। यह चोगा यवन राजा ने उन्हें उस समय भेंट किया था, जब उन्होंने एथेन्स के वीरों के साथ मिलकर पर्शुपुरी के शासनुशास से युद्ध करके असाधारण शौर्य प्रकट किया था। उनके पैरों में एक पुटबद्ध लाल रंग का उपानह था और सिर पर लाल रंग के कमलों की एक माला यावनीक पद्धति से बांधी गई थी, जो उनके सुन्दर चमकदार केशों पर खूब सज रही थी। इस सज्जा में वे एक सम्पन्न यवन तरुण-से दीख पड़ रहे थे।

उनकी गान्धारी पत्नी रोहिणी ने सुरुचिसम्पन्न काशिक कौशेय का उत्तरीय, अन्तरवासक और कंचुकी धारण की थी। उसके सुनहरे केशों को ताज़े फूलों से सजाया गया था—जिसमें अद्भुत कला का प्रदर्शन था। चेहरे पर हल्का वर्णचूर्ण था; कानों में हीरक-कुण्डल और कण्ठ में केवल एक मुक्तामाला थी। उसकी लम्बी-छरहरी देहयष्टि अत्यन्त गौर,
[ ७८ ]स्वच्छ, संगमर्मर-सा चिकना गात्र, कमल के समान मुख और बहुमूल्य नीलम के समान पानीदार आंखें उसे दुनिया की लाखों-करोड़ों स्त्रियों से पृथक् कर रही थीं। उस असाधारण तेज-रूप और गरिमामयी रमणी की ओर उस पानगोष्ठी में अनगिनत आंखें उठकर अपलक रह जाती थीं। अन्य स्नातकों ने और गान्धार शिष्टदल के सदस्यों ने भी अपनी-अपनी रुचि और समय के अनुकूल परिधान धारण किया था और वे सब बहुत ही शोभायमान हो रहे थे। वे जिधर भी जाते—नागरिक स्त्री-पुरुष उनका ससम्मान स्वागत कर रहे थे।

वैशाली के नागरिकों में महाबलाधिकृत सुमन थे, जिनकी श्वेत लम्बी दाढ़ी और गम्भीर चितवन उनके अधिकार और गौरव को प्रकट करते थे। नौबलाध्यक्ष चन्द्रभद्र अपने स्थूल किन्तु फुर्तीले शरीर के साथ उपस्थित थे। उनकी आयु साठ को पार गयी थी, उनका चेहरा रुआबदार था। उस पर श्वेत गलमुच्छे और छोटी-छोटी चमकीली आंखें उन्हें सबसे पृथक् कर रही थीं। वे जन्मजात सेनापति मालूम देते थे। वे फक्कड़, हंसमुख और मिलनसार थे और इधर-उधर चुहल करते फिर रहे थे। इस समय वे खूब भड़कीली पोशाक पहने थे। श्रोत्रीय आश्वलायन भी इस गोष्ठी की शोभा बढ़ा रहे थे। ये प्रसिद्ध गृहसूत्रों के निर्माता कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे। ये कमर में पाटम्बर पहने और कन्धे पर काशी का बहुमूल्य शाल डाले, लम्बी चुटिया फटकारे, बढ़-बढ़कर बातें बना रहे थे और बात-बात पर अपने गृहसूत्रों का ही राग अलाप रहे थे। इनकी कमर में श्वेत जनेऊ था। इनकी खोपड़ी गंजी, चेहरा सफाचट और दांत कुछ गायब, कुछ सड़े हुए, शरीर लम्बा, दुबला, जैसे हड्डियों पर खाल चढ़ा दी हो। अपनी मिचमिची आंखों से घूर-घूरकर सुन्दरियों को ताक रहे थे।

इनकी बगल में उपनायक शूरसेन अपने ठिगने गोल-मटोल शरीर को विविध शस्त्रों और आभरणों से सजाए किसी अभिनयकर्ता से कम नहीं प्रतीत होते थे। ये बड़े विनोदी पुरुष थे और संगीत की इन्हें सनक थी। इनके संगीत की प्रशंसा करने पर इनसे सब-कुछ लिया जा सकता था।

ब्राह्मण मठ के आचार्य महापंडित भारद्वाज अपनी लम्बी चुटिया फटकारे, तांबे के समान चमकदार शरीर पर स्वच्छ जनेऊ धारण किए, महाज्ञानी दार्शनिक गोपाल से उलझ रहे थे। गोपाल हंस-हंसकर अपना तर्क भी करते जाते थे और गोल-गोल ललचाई आंखों से सुन्दरियों की रूप-सुधा का पान भी करते जाते थे। उनके इस आचरण पर कुछ मुग्धाएं झेंप रही थीं और कुछ प्रौढ़ाएं मुस्करा रही थीं।

परन्तु एक व्यक्ति इन सबसे अलग-अलग मानो सबको अपने से तुच्छ समझता हुआ, सबका बारीकी से निरीक्षण करता हुआ, कुछ मुस्कराता, कुछ गुनगुनाता घूम रहा था। उसके वस्त्र बहुमूल्य, पर अस्त-व्यस्त थे। उसकी आयु का कुछ पता नहीं लगता था कि कितनी है। शरीर ऐसा सुगठित दीख रहा था कि कदाचित् वह एक मजबूत सांड़ को भी गिरा दे। कुछ लोग उससे बात किया चाहते थे, पर वह किसी को मुंह नहीं लगाता था। लोग उसकी ओर संकेत करके बहुत भांति की बातें करते थे। कुछ चमत्कृत नेत्रों से और कुछ संदिग्ध भाव से उसकी ओर ताक रहे थे। वास्तव में यह वैशाली का प्रसिद्ध कीमियागर वैज्ञानिक सिद्ध गौडपाद था जिसकी बाबत प्रसिद्ध था कि उसके पास पारसमणि है और वह पर्वत को भी स्वर्ण कर सकता है तथा उसकी आयु सैकड़ों वर्ष की है।

तरुण-मण्डल में युवराज स्वर्णसेन, उनके मित्र सांधिविग्रहिक जयराज और अट्टवी-
[ ७९ ]रक्षक राजस्वर्णसेन, उनके मित्र सांधिविग्रहिक जयराज और अट्टवी-रक्षक महायुद्धवीर युवक सूर्यमल्ल का एक गुट था, जो हंस-हंसकर तरुणीजनों की व्याख्या, खासकर रोहिणी की रूप-ज्योति की अम्बपाली से तुलना करने में व्यस्त था। नगरपाल सौभद्र और उपनायक अजित ये दो तरुण घुसफुस अलग कुछ बातें कर रहे थे।

महिलाओं में उल्काचेल के शौल्किक की पत्नी रम्भा सबका ध्यान अपनी ओर आर्किषत कर रही थी। वह बसन्त की दोपहरी की भांति खिली हुई सुन्दरी थी। उसके हास्य-भरे होंठ, कटाक्ष-भरे नेत्र और मद-भरी चाल मन को मोहे बिना छोड़ती न थी। वह बड़ी मुंहफट, हाज़िरजवाब और चपला थी। एक प्रकार से जितनी लिच्छवि तरुणियां वहां उपस्थित थीं, वह उन सबकी नेत्री होकर गांधारी बहू रोहिणी को घेरे बैठी थी। उसके कारण क्षण-क्षण में तरुणी मण्डली से एक हंसी का ठहाका उठता था और गोष्ठी के लोग उधर देखने को विवश हो जाते थे। इसमें सन्देह नहीं कि रोहिणी एक दिव्यांगना थी और रूपच्छटा उसकी अद्वितीय थी, परन्तु एक असाधारण बाला भी यहां इस तरुणी-मण्डली में थी, जो लाजनवाई चुपचाप बैठी थी और कभी-कभी सिर्फ मुस्करा देती थी। उसकी लुनाई रोहणी से बिलकुल ही भिन्न थी। उसकी आंखें गहरी काली और ऐसी कटीली थीं कि उनके सामने आकर बिना घायल हुए बचने का कोई उपाय ही नहीं था। उसके केश अत्यन्त घने, काले और खूब चमकीले थे। गात्र का रंग नवीन केले के पत्ते के समान और चेहरा ताज़े सेब के समान रंगीन था। उसका उत्सुक यौवन, कोकिल-कण्ठ, मस्तानी चाल ये सब ऐसे थे जिनकी उपमा नहीं थी। पर इन सबसे अपूर्व सुषमा की खान उसकी व्रीड़ा थी। वह ओस से भरे हुए एक बड़े ताज़े गुलाब के फूल की भांति थी, जो अपने ही भार से नीचे झुक गया हो। इस भुवनमोहिनी कुमारी बाला का नाम मधु था और यह महाबलाधिकृत सुमन की इकलौती पुत्री थी।

इतने सम्मान्य अतिथिगण उद्यान में आ चुके थे और एक प्रहर रात्रि भी जा चुकी थी। भोज का समय लगभग हो चुका था, परन्तु एक असाधारण अतिथि नहीं आया था जिसकी प्रतीक्षा छोटे-बड़े सभी को थी वह थी देवी अम्बपाली। लोग कह रहे थे, आज यहां रूप का त्रिवेणी-संगम होगा।

सिंह को सम्मुख देखते ही नौबलाधिकृत चन्द्रभद्र दोनों हाथ फैलाकर आगे बढ़े। उन्होंने कहा—"स्वागत सिंह, वैशाली में तुम्हारा स्वागत है और गान्धारी स्रुषा का भी। आज आयुष्मान्, तुझे देखकर बहुत पुरानी बात याद आ गई। उस बात को आज बीस वर्ष बीत गए। पुत्र, तुम्हारे पिता अर्जुन तब महाबलाधिकृत थे और मैं उनका उपनायक था। उन्होंने किस प्रकार कमलद्वार पर सारी मागध सेना के हथियार रखवाए थे और एक नीच मागध बन्दी ने—जिसे तुम्हारे पिता ने कृपाकर जीवन-दान दिया था, धोखे से रात को मार डाला था। उस दिन हर्ष-विषाद के झूले में वैशाली झूली थी। पुत्र! वही मागध आज फिर अपनी लोल्प राज्यलिप्सा से हमारे गण को विषदृष्टि से देख रहे हैं।" सिंह ने हाथ उठाकर वृद्ध सेनापति का अभिवादन करके कहा—"भन्ते सेनापति, मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मागधों से पिता के प्राणों का मूल्य लूंगा, अपने रक्त की प्रत्येक बूंद देकर भी, एक सच्चे लिच्छवि तरुण की भांति।

"साधु सिंह, साधु, तो अब मुझे वृद्ध होने का खेद नहीं, परन्तु..." [ ८० ] "परन्तु क्या भन्ते?"

"आयुष्मान्, तेरा यह वेश तो बिल्कुल ही पराया है?"

"भन्ते सेनापति, आचार्य बहुलाश्व ने जब मुझे तक्षशिला से विदा किया था, तब दो बहुमूल्य वस्तुएं मुझे दी थीं—एक अपनी इकलौती पुत्री रोहिणी और दूसरी यह बात कि—पुत्र, विश्व के मानवों में परायेपन का भाव मत रखना।"

इस पर रम्भा ने हंसकर नटखटपने से कहा—"तो सिंह कुमार, इन दोनों बहुमूल्य वस्तुओं में से एक रोहिणी को तो मैं पसन्द करती हूं।"

"और दूसरी को मैं। आयुष्मान्, तुम रम्भा से सुलझो, मैं तब तक अन्य अतिथियों को देखूं।" वह हंसते हुए आगे बढ़ गए।

सेनापति चन्द्रभद्र ने श्रोत्रिय आश्वलायन को दूर से देखा, तो हर्ष से चिल्लाते हुए उनके पास दौड़े आए और कहा—"स्वागत मित्र आश्वलायन, खूब आए! कभी-कभी तो मिला करो। कहो, कैसे रहे मित्र!"

"परन्तु सेनापति, गृहसूत्रों के रचने से समय मिले तब तो। मैं चाहता हूं कि गृहस्थों की व्यवस्था स्थापित हो जाए और उनमें षोडश संस्कारों का प्रचलन हो जाए।"

"यह तो बहुत अच्छा है, परन्तु क्या रात-दिन सूत्र ही रचते हो, कभी अवकाश ही नहीं पाते?"

"पाता क्यों नहीं सेनापति, पर अवकाश के समय ब्राह्मणी जो भुजंगिनी–सी लिपटती है! अरे! क्या कहूं सेनापति, ज्यों-ज्यों वह बूढ़ी होती जाती है, उसका चाव-शृंगार बढ़ता ही जाता है। देखोगे...तो...."

"समझ गया, समझ गया! परन्तु आज कैसे ब्राह्मणी से अवकाश मिल गया, मित्र?"

"अरे उस पापिष्ठा अम्बपाली को देखने का कौतूहल खींच लाया। उसके आवास में तो हीरे-मोती बिखेरने वाले ही जा सकते हैं, मेरे जैसे दरिद्र ब्राह्मण नहीं।"

"अच्छा, यह बात है? मित्र आश्वलायन, किन्तु क्या ब्राह्मणी से यह बात कह आए हो?"

"अरे नहीं, नहीं। कहता तो क्या यहां आ पाता? जानते हैं सेनापति, डायन इतनी ईर्षा करती है, इतना सन्देह करती है कि क्या कहूं! तनिक किसी दासी ने हंसकर देखा कि बिना उसे बेचे चैन नहीं लेगी। उस दिन एक चम्पकवर्णा तरुणी दासी को चालीस निष्क पर बेच डाला। वह कभी-कभी इस बूढ़े ब्राह्मण की चरणसेवा कर दिया करती थी। सेनापति, कृत्या है कृत्या!"

"तो मित्र आश्वलायन, उस पापिष्ठा अम्बपाली को देखने के लिए इतनी जोखिम क्यों उठा रहे हो?"

"यों ही सेनापति, विश्व में पाप-पुण्य दोनों का ही स्पर्श करना चाहिए।"

"तो मित्र, खूब मज़े में स्पर्श-आलिंगन करो, यहां ब्राह्मणी की बाधा नहीं है।"

ब्राह्मण खूब ज़ोर से हंस पड़ा। इससे उसके कुत्सित-गन्दे दांत बाहर दीख पड़े। उन्होंने कहा—"आपका कल्याण हो सेनापति, पर वह पापिष्ठा यहां आएगी तो?"

"अवश्य आएगी मित्र, आयुष्मान् सिंह और उससे अधिक उसकी गान्धारी पत्नी
[ ८१ ]को देखने के लिए देवी अम्बपाली बहुत उत्सुक है।"

"यह किसलिए सेनापति?"

"उसने सुना है कि सिंह और उसके तरुण मित्रों ने उसकी उपेक्षा की है। देखते नहीं, वह गान्धारीकन्या देवकन्या–सी ऐसी अप्रतिम रूपज्योति लेकर वैशाली में आई है, जिससे अम्बपाली को ईर्ष्या हो सकती है।"

"ऐसा है, तब तो सेनापति, उस गान्धारीकन्या को भी भलीभांति देखना होगा।"

"सब कुछ देखो मित्र, आज यहां रूप की हाट लग रही है।"

"यह देखो, वे नायक शूरसेन और महापंडित भारद्वाज इधर ही को आ रहे हैं। खूब आए शूरसेन, आओ, मैं मित्र आश्वलायन श्रोत्रिय से तुम्हारा परिचय...।"

"हुआ, परन्तु सेनापति, देवी अम्बपाली अभी तक क्यों नहीं आईं—कह सकते हैं?"

"नहीं, नायक।"

"परन्तु वह आएंगी तो?"

"अवश्य आएंगी नायक शूरसेन, पर तुम उनके लिए इतने उत्सक क्यों हो?"

शूरसेन ने ही-ही-ही हंसते हुए कहा—"देखूंगा—एक बार देखूंगा। सुना है, उसने कोसल प्रसेनजित् को निराश कर दिया है।"

महापंडित भारद्वाज ने हाथ उठाकर नाटकीय ढंग से कहा—"अरे, वह वैशाली की यक्षिणी है। मैं उसे मन्त्रबल से बद्ध करूंगा।"

गणित और ज्योतिष के उद्भट ज्ञाता त्रिकालदर्शी सूर्यभट्ट ने अपने बड़े डील-डौल को पीछे से हिलाकर कहा—"मैं कहता हूं, महापंडित जन्म-जन्मांतर से उस यक्षिणी से आवेशित हैं।"

सबने लौटकर देखा, सूर्यभट्ट और महादार्शनिक गोपाल पीछे गम्भीर मुद्रा में खड़े हैं। सूर्यभट्ट की बात सुनकर दार्शनिक और तार्किक गोपाल बोले—"हो भी सकता है। नहीं भी हो सकता है। यह नहीं–कि नहीं हो सकता है।" इस पर सब हंस पड़े।

इन महार्घ पुरुषों के सामने की एक स्फटिक-शिला पर युवराज स्वर्णसेन, सूर्यमल्ल, सांधिविग्रहिक जयराज और आगार कोष्ठक सौभद्र बैठे थे।

युवराज ने कहा—"क्यों सौभद्र, क्या कारण है कि तुम कल रात मेरी पान-गोष्ठी में नहीं आए और यहां अभी से उपस्थित हो?"

"इसका कारण तो स्पष्ट है, वहां देवी अम्बपाली के आने की कोई संभावना नहीं थी और यहां अवश्य उनका दर्शन-लाभ होगा।"

"यह बात है? तो तुम कब से देवी अम्बपाली की कृपा के भिखारी बन गए?"

"कौन, मैं? मैं तो जन्म-जन्म से देवी की कृपा का भिखारी रहा हूं।"

उन्होंने सामने खड़े सूर्यभट्ट की ओर देखकर मुस्कराकर कहा—"परन्तु युवराज, हम उचित नहीं कर रहे हैं। हमें ज्ञातिपुत्र सिंह और उनकी पत्नी का अभिनन्दन करना चाहिए।"

"चाहिए तो, परन्तु अब समय कहां है? वह देवी अम्बपाली का आगमन हो रहा है।" [ ८२ ] सबने चकित होकर कहने वाले की ओर घूमकर देखा, आचार्य गौड़पाद भावहीन रीति से मुस्करा रहे हैं। तरुणों ने उनकी उपस्थिति से अप्रतिभ होकर कहा—

"नहीं, नहीं, अभी भी समय है। पान आरम्भ नहीं हुआ। चलो, हम लोग सिंह के पास चलें।" तीनों तरुण तेज़ी से उधर चल दिए—जहां तरुण मण्डल से घिरे सिंह उनके विविध प्रश्नों के उत्तर में उनके कौतूहल को दूर कर उनका मनोरंजन कर रहे थे।

देवी अम्बपाली अपनी दो दासियों के साथ आई थीं। उन्होंने अपना प्रिय श्वेत कौशेय का उत्तरीय और लाल अन्तर्वासक पहना था। वे कौशाम्बीपति उदयन की दी हुई गुलाबी रंग की दुर्लभ मुक्ताओं की माला धारण किए थीं। उनकी दृष्टि में गर्व, चाल में मस्ती और उठान में सुषमा थी। अम्बपाली को देखते ही लोगों में बहुविध कौतूहल फैल गया। क्षण भर को उनकी बातचीत रुक गई और वे आश्चर्यचकित हो उस रूपज्वाला की अप्रतिम देहयष्टि को देखने लगे।

पान प्रारम्भ हो गया। दास-दासी दौड़-दौड़कर मेहमानों को मैरेय, माध्वीक और दाक्खा देने लगे।

अम्बपाली हंसती हुई उनके बीच राजहंसिनी की भांति घूमने और कहने लगी—"मित्रो! अभिनन्दन करती हूं और अभिलाषा करती हूं खूब पियो!"

वह मन्द गति से घूमती हुई वहां पहुंची जहां तरुण-तरुणियों से घिरे हुए सिंह अपने संगियों के साथ हंस-हंसकर विविध वार्तालाप कर रहे थे। उसने रोहिणी के निकट पहुंचकर कहा—"गान्धार कन्या का वज्जी भूमि पर स्वागत! सिंह ज्ञातिपुत्र, तुम्हारा भी और तुम्हारे सब साथियों का भी।" फिर उसने हंसकर रोहिणी से कहा—

"वैशाली कैसी लगी बहिन?"

"शुभे, क्या कहूं! अभी बारह घड़ी भी इस भूमि पर आए नहीं हुईं। इसी बीच में इतनी आत्मीयता देख रही हूं। देखिए, रम्भा भाभी को, इनके स्पर्श मात्र से ही मार्ग के तीन मास की थकान मिट गई।"

"स्वस्ति रम्भा बहिन, तुम्हारी प्रशंसा पर ईर्ष्या करती हूं।"

"देवी अम्बपाली की ईर्ष्या मेरे अभिमान का विषय है।"

अम्बपाली ने मुस्कराकर सिंह से कहा—"मित्र सिंह, तुम्हें मैं तक्षशिला से ऐसी अनुपम निधि ले आने पर बधाई देती हूं।" फिर रोहिणी की ओर देखकर कहा—"भद्रे रोहिणी, वज्जीभूमि क्या तुम्हें गान्धार-सी ही दीखती है? कुछ नयापन तो नहीं दीखता?"

"ओह, एक बात मैं वज्जीभूमि में सहन नहीं कर सकती हूं?"

"वह क्या बहिन?"

"ये दास!"

उसने एक कोने में विनयावनत खड़ी अम्बपाली की दोनों दासियों की ओर संकेत करके कहा—"कैसे आप मनुष्यों को भेड़-बकरियों की भांति खरीदते-बेचते हैं? और कैसे उन पर अबाध शासन करते हैं?" वह शरच्चन्द्र की कौमुदी में निर्मल पुष्करिणी में खिली कुमुदिनी की भांति स्निग्ध-शीतल सुषमा बिखरने वाली अम्बपाली की यवनी दासी मदलेखा के निकट आई, उसकी लज्जा से झुकी हुई ठोड़ी उठाई और कहा—" कैसे इतना सहती हो बहिन, जब हम सब बातें करते हैं, हंसते हैं, विनोद करते हैं, तुम मूक-बधिर-सी
[ ८३ ]चुपचाप खड़ी कैसे रह सकती हो? निर्मम पाषाण-प्रतिमा सी! यही विनय तुम्हें सिखाया गया है? ओह! तुम हमारे हास्य में हंसती नहीं और हमारे विलास से प्रभावित भी नहीं होतीं?" रोहिणी ने आंखों में आंसू भरकर मदलेखा को छाती से लगा लिया। फिर पूछा—"तुम्हारा नाम क्या है, हला?" मदलेखा ने घुटनों तक धरती में झुककर रोहिणी का अभिवादन किया और कहा—"देवी, दासी का नाम मदलेखा है।"

"दासी नहीं, हला। अच्छा देवी अम्बपाली, जब तक हम यहां हैं, कुछ क्षणों के लिए मदलेखा और उसकी संगिनी को...क्या नाम है उसका?"

"हज्जे चन्द्रभागा।"

"सुन्दर! मदलेखा और चन्द्रभागा को स्वच्छन्द इस पानगोष्ठी में भाग लेने और आमोद-प्रमोद करने की स्वाधीनता दे दी जाए।"

"जिसमें गान्धारकुमारी का प्रसाद हो!" अम्बपाली ने हंसते हुए कहा। फिर उसने स्वर्णसेन की ओर हाथ करके कहा—

"युवराज, क्यों नहीं तुम वज्जी में दासों को अदास कर देते हो?"

रोहिणी ने कहा—"क्या युवराज ऐसा करने की क्षमता रखते हैं?"

"नहीं भद्रे, मुझमें यह क्षमता नहीं है। इन दासों की संख्या अधिक है। फिर वज्जीभूमि में अलिच्छवियों के दास ही अधिक हैं।"

"वज्जी में अलिच्छवि?"

"हां भद्रे, वे लिच्छवियों से कुछ ही कम हैं। वे सब कर्मकर ही नहीं हैं, आर्य हैं। उनमें ब्राह्मण हैं, वैश्य हैं। उन्हें वज्जी-शासन में अधिकार नहीं हैं, पर उनमें बहुत-से भारी-भारी धनकुबेर हैं। उनके पास बहुत धरती है, लाखों-करोड़ों का व्यापार है जो देश देशान्तरों में फैला हुआ है। उनके ऊपर किसी प्रकार का राजभार नहीं, न वे युद्ध करते हैं। वे स्वतन्त्र और समृद्ध जीवन बिताते हैं। उन्हें नागरिकता के सम्पूर्ण अधिकार वज्जीभूमि में प्राप्त हैं। उनका बिना दासों के काम चल ही नहीं सकता। फिर यवन, काम्बोज, कोसल और मगध के राज्यों से बिकने को निरन्तर दास वज्जीभूमि में आते रहते हैं।"

"परन्तु युवराज, वे कर्मकर जनों से वेतन-शुल्क देकर अपना काम करा सकते हैं।"

"असम्भव है शुभे, इन अलिच्छवियों की गुत्थियां हमारे सामने बहुत टेढ़ी हैं। ये आचार्य आश्वलायन यहां विराजमान हैं। इन्हीं से पूछिए, ये श्रोत्रिय ब्राह्मण हैं और अलिच्छवियों के मुखिया हैं।" आर्य आश्वलायन अपनी मिचमिची आंखों से इन सुन्दरियों की रूप-सुधा पी रहे थे, अब उन्होंने उनकी कमल-जैसी आंखें अपनी ओर उठती देखकर कहा—"शान्तं पापं! शान्तं पापं, भद्रे दास दास हैं और आर्य आर्य हैं। मैं श्रोत्रिय ब्राह्मण हूं, नित्य षोडशोपचार सहित षड्कर्म करता हूं। षडंग वेदों का ज्ञाता हूं, दर्शनों पर मैंने व्याख्या की है और गृह्यसूत्रों का निर्माण किया है। सो ये अधम क्रीत दास क्या मेरे समान हो सकते हैं? आर्यों के समान हो सकते हैं?"

उन्होंने अपने नेत्रों को तनिक और विस्तार से फैलाकर और अपने गन्दे-गलित दांतों को निपोरकर मैरेय के घड़े में से सुरा-चषक भरते हुए तरुण काले दास की ओर रोषपूर्ण ढंग से देखा।

देवी अम्बपाली खिलखिलाकर हंस पड़ी। उन्होंने अपनी सुन्दरी दासी मदलेखा की
[ ८४ ]ओर संकेत करके कहा—"और आर्य, उस नवनीत-कोमलांगी यवनी के सम्बन्ध में क्या राय रखते हैं?"

आर्य आश्वलायन का रोष तुरन्त ठण्डा हो गया। उन्होंने नेत्रों में अनुराग और होंठों में हास्य भरकर कहा—"उसकी बात जुदा है, देवी अम्बपाली, पर फिर भी दास-दास हैं और आर्य आर्य।"

"किन्तु आर्य, यह तो अत्यन्त निष्ठुरता है, अन्याय है। कैसे आप यह कर पाते हैं और कैसे इसे वह सहन करते हैं? इस विनय, संस्कृति, शोभा और सौष्ठव की मूर्ति मदलेखा को 'आहज्जे' कहकर पुकारने में आपको कष्ट नहीं होता?" रोहिणी ने कहा।

"किन्तु भद्रे, हम इन दासों के साथ अत्यन्त कृपा करते हैं, फिर वज्जी के नियम भी उनके लिए उदार हैं, वज्जी के दास बाहर बेचे नहीं जाते।"

"किन्तु आर्य, समाज में सब मनुष्य समान हैं।"

"नहीं भद्रे, मैं समाज का नियन्ता हूं, समाज में सब समान नहीं हो सकते। इसी वज्जी में ये लिच्छवि हैं, जिनके अष्टकुल पृथक्-पृथक् हैं। ये किसी अलिच्छवि माता-पिता की संतान को लिच्छवि नहीं मानते। अभिषेक-पुष्करिणी में वही लिच्छवि स्नान कर पाता है–जिसके माता-पिता दोनों ही लिच्छवि हों और उसका गौर वर्ण हो, इसके लिए इन लिच्छवियों के नियम बहुत कड़े हैं। फिर हम श्रोत्रिय ब्राह्मण हैं, शुद्ध आर्य, गृहपति वैश्य हैं, जो सोलह संस्कार करते हैं और पंच महायज्ञ करते हैं। अधगोरे कर्मकर हैं और काले दास भी हैं, जो मगध, चम्पा, ताम्रपर्णी से लेकर तुर्क और काकेशस एवं यवन तक से वज्जीभूमि में बिकने आते हैं। भद्रे, इन सबमें समानता कैसे हो सकती है? सबकी भाषा भिन्न, रंग भिन्न, संस्कृति भिन्न और रक्त भिन्न हैं।"

"किन्तु आर्य, हमारे गान्धार में ऐसा नहीं है, वहां सबका एक ही रंग, एक ही भाषा, एक ही रक्त है। वहां हमारा सम्पूर्ण राष्ट्र एक है। ओह, कैसा अच्छा होता आर्य, यदि यहां भी ऐसा ही होता!"

"ऐसा हो नहीं सकता बहिन," अम्बपाली ने हंसकर कहा। "अब तुम गान्धार के स्वतन्त्र वातावरण का सुखस्वप्न भूल जाओ। वज्जी संघ को आत्मसात् करो, जहां युवराज स्वर्णसेन जैसे लिच्छवि तरुण और आर्य आश्वलायन जैसे श्रोत्रिय ब्राह्मण रहते हैं, जिन्हें बड़े बने रहना ही होगा। इन्हें दास चाहिए, दासी चाहिए और भोग चाहिए। किन्तु क्या बातों में ही रहेंगी शुभे गान्धारपुत्री! अब थोड़ा पान करो। हज्जे मदलेखा, गान्धारी देवी को मद्य दे।"

"नहीं, नहीं, सौम्ये, तुम यहां आकर मेरे निकट बैठो, मदलेखा!"

"तो ऐसा ही हो, भद्रे! मदलेखा, गान्धारी देवी जैसा कहें वैसा ही कर।"

"जेदु भट्टिनी, दासी...।"

"दासी नहीं, हला, यहां बैठो, हां, अब ठीक है। युवराज स्वर्णसेन आपको कुछ आपत्ति तो नहीं?"

"नहीं भद्रे, आपकी उदारता प्रशंसनीय है, परन्तु मुझे भय है इससे आप उनका कुछ भी भला न कर सकेंगी।"

"कैसे दुःख की बात है प्रिय, गान्धार से आते हुए मैंने जब प्राची के समृद्ध नगरों
[ ८५ ]की पण्य-वीथियों में पड़े हुए स्वर्ण-रत्न और ठसाठस साधन-सामग्री देखी, तो मुझे बड़ा आह्लाद हुआ। मैं स्वीकार करती हूं कि हम गान्धारगण इतना ठाठ-बाट नहीं रखते, पर जब दासों, चाण्डालों और कर्मकरों के टूटे-फूटे झोंपड़े और उनके घृणास्पद उच्छिष्ट आहार तथा उन पर पशुओं की भांति आर्य नागिरकों का शासन देखा तो मेरा हृदय दुःख से भर गया। दासता और दारिद्र्य का यह दायित्व किस पर है प्रिय?" गान्धारी ने सिंह से कहा।

सिंह ने हंसकर पत्नी से कहा—"कदाचित् उस बूढ़े राजा पर, जिसे तुमने कल्माषदम्ब में देखा था, जिसके झुर्री-भरे मुंह पर अशोभनीय दाढ़ी थी और पिलपिले सिर पर एक भारी मुकुट था, जिसमें सेरों सोना-हीरा-मोती जड़ा हुआ था।"

"उस पर क्यों प्रिय?"

"क्योंकि वह अधिकार को बहुत महत्त्व देता है, वह अपने राज्य का सबसे धनी, सबसे बड़ा और सबसे स्वच्छन्द व्यक्ति है। उसके पास बिना ही कोई काम किए दुनिया भर की दौलत चली आती है, राज्य भर में फैले हुए दास, कर्मकर और प्रजावर्गीय जन उसी की सम्पत्ति हैं। यह दासों का तो अधिपति है ही, प्रजा के सर्वस्व का भी स्वामी है। वह उनकी युवती पुत्रियों को अपनी विलास-कामना के लिए अपने अन्तःपुर में जितनी चाहे भर सकता है, उनके तरुण पुत्रों को अपने अकारण युद्धों में मरवा सकता है, वह प्रजा की पसीने की कमाई को बड़े-बड़े महल बनवाने और उन्हें भांति-भांति के सुख-स्वप्नों से भरपूर करने में खर्च कर सकता है, उसकी आज्ञा सर्वोपरि है।"

"छिः–छिः, कैसे लोग यह सहन करते हैं प्रिय?

"यह तो अभ्यास की बात है। तुमने देखा नहीं, पश्चिम गान्धार कैसे पशुपुर के शासानुशास का शासन मान रहा है, कैसे उसने कलिंगसेना जैसी नारी को प्रसेनजित् के अन्तःपुर में भेज दिया? फिर वह सावधान और भयभीत भी तो रहता है, वह अनेकानेक विधि-विधानों से अपने को सुरक्षित रखता है।"

अम्बपाली ने हंसकर कहा—"कदाचित् गांधारपुत्री पर यह विदित नहीं है कि उनके जल को, ताम्बूल को, आहार को, जब तक कोई चख न ले, वे नहीं खाते-पीते।"

"यह किसलिए?"

"अपने प्राणनाश का जो उन्हें भय रहता है, सम्पूर्ण प्रजा का भार उन्हीं पर लदा रहता है, उनके बहुत गुप्त और प्रकट शत्रु होते हैं।"

"ओह, तो उन पर केवल उनके शरीर पर लदे हीरे-मोतियों ही का बोझ नहीं है, जीवन का भी बोझ है? फिर ये भाग्यहीन उस बोझ को लादे क्यों फिरते हैं? अपने जीवन में ये रज्जुले इतने भयभीत और भारवाही होने पर भी अन्य देशों को विजित करने की लिप्सा नहीं छोड़ सकते?"

"यही तो प्रिय, राजसत्ता और गणतन्त्र में मूलभेद है। गणतन्त्र तो एक जनतन्त्र तक सीमित है। उसका शासन अधिकार के सिद्धान्त पर नहीं, कर्तव्य के सिद्धान्त पर है। वह शासन करने के लिए नहीं, जन में सुव्यवस्था और सामूहिक सामंजस्य बनाए रखने के लिए है। परन्तु ये रज्जुले तो अधिकार के लिए हैं। उनकी नीति ही यह है कि उन्हें शासन करने को ऐसे अनेक राष्ट्र दरकार हैं, जो एक-दूसरे के विरुद्ध समय-समय पर उनकी सहायता करते रहें। फिर इन राजाओं की यह भी नीति है कि राष्ट्रों में फूट डालते रहें। आर्यों ही के राज्यों
[ ८६ ]को ले लो। देखा नहीं तुमने प्रिय, हस्तिनापुर, काम्पिल्य कान्यकुब्ज, कोसल और प्रतिष्ठान, जहां-जहां आर्यों के रज्जुले हैं, वहां राष्ट्र टूटा-फूटा है। वहां ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय हैं, वैश्य हैं और कर्मकर हैं, वे सब अपने को दूसरे से भिन्न समझते हैं। ये सभी बातें राजाओं की स्वेच्छाचारिता में बड़ी सहायक हैं। परन्तु गणशासन की बड़ी बाधा है। यहां वैशाली ही को लो। लिच्छवि सब एक हैं, पर अलिच्छवि आर्य और कर्मकर राजशासन में अधिकार न रखते हुए भी इस भिन्नता के कारण हमारी बहुत बड़ी बाधाएं हैं।

रम्भा ने इन बातों से ऊबकर कहा—"किन्तु स्रुषा गान्धारी, इस गहरी राजनीति से अपने हाथ कुछ न आएगा। कुछ खाओ-पियो भी।"

पान-भोजन प्रारम्भ हुआ। मैरेय, शूकर-मार्दव, मृग, गवन ओदन और मधुगोलक आदि भोजन-सामग्री परोसी जाने लगी। देवी अम्बपाली धर्मध्वज मण्डली से चुहल कर रही थीं। किन्तु उनकी सुन्दर दासियों को गान्धारी रोहिणी ने नहीं छोड़ा था—वे उसके पास बैठीं महिला–मण्डली के साथ-साथ खा-पी रही थीं। भोजन की समाप्ति पर सब नर नारियों ने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार नृत्य किया और अर्द्धरात्रि व्यतीत होने पर यह समारोह समाप्त हुआ।