वैशाली की नगरवधू/31. चम्पा में
31. चम्पा में
मगध-सेनापति चण्डभद्रिक ने पटमण्डप में प्रवेश करके कहा—"मित्रो, अब वैशाखी के केवल पांच ही दिन बाकी रह गए हैं। उन्हीं पांच दिनों में मागधी सेना का और चम्पा के प्राचीन राज्य के भाग्य का निपटारा होना है। यदि हम बैसाखी के दिन चम्पा के दुर्ग में प्रवेश कर पाते हैं तो मगध-साम्राज्य का विस्तार सुदूरपूर्व के सम्पूर्ण द्वीप-समूह पर हो जाएगा। परन्तु यदि हम ऐसा नहीं कर पाते तो निश्चय मागधी सेना का यहीं क्षय होगा और हममें से एक भी चम्पा महारण्य को पारकर जीवित मगध नहीं लौट सकेगा।"
मण्डप में बहुत से सेनानायक, उपनायक आदि सेनापति भद्रिक की प्रतीक्षा कर रहे थे। सेनापति के ये वाक्य सुनकर एक ने कहा—"परन्तु भन्ते सेनापति, हम बहुत ही विपन्नावस्था में हैं। आर्य वर्षकार ने हमें सहायता नहीं भेजी। मगध की इस पराजय का दायित्व हम पर नहीं, आर्य वर्षकार पर है।"
"नहीं भन्ते, ऐसा नहीं। जय-पराजय का उत्तरदायित्य तो हमीं पर है। हमें अपने बलबूते पर जो करने योग्य है, करना चाहिए।"
"हमने तीन मास से दुर्ग को घेर रखा है। यह कोई साधारण बात नहीं भन्ते सेनापति।"
"चाहे जो भी हो, परन्तु यदि बैशाखी के दिन हम दुर्ग में प्रविष्ट न हो सके तो साम्राज्य की ऐसी क्षति होगी, जिसका प्रतिकार शताब्दियों तक न हो सकेगा। यों कहना चाहिए कि सुदूर-पूर्व की सारी आशाएं सदा के लिए लुप्त हो जाएंगी। ब्रज, क्या रसद की कुछ आशा है?
"खेद है कि नहीं।"
"तब तो हम जो कुछ कर सकते थे, कर चुके।"
"फिर भी भन्ते सेनापति, हमें कुछ समय निकालना चाहिए। सम्भव है, राजगृह से सहायता मिल जाए।"
"परन्तु हमारे सभी सैनिक घायल हैं। एक भी अश्व युद्ध के काम का नहीं। हम भूख-प्यास और घावों से जर्जरित हैं। यदि हम युद्ध जारी रखते हैं तो इसका अर्थ आत्मघात करना होगा। क्या इससे अच्छा यह न होगा कि हम चम्पानरेश महाराज दधिवाहन की सन्धि-शर्तें स्वीकार कर लें? मैं समझता हूं, निश्चित पराजय की अपेक्षा यह अच्छा है।"
किसी ने उच्च स्वर से कहा—"क्या यह आर्य भद्रिक की वाणी मैं सुन रहा हूं, जिनके शौर्य की यशोगाथा पशुपुरी के शासानुशास गाते नहीं अघाते?"
भद्रिक ने सिर ऊंचा करके कहा, "कौन है यह आयुष्मान्?"
एक कोने से सोमप्रभ उठकर सेनापति के सम्मुख आया। वह साधारण किसान के वस्त्र पहने था। सेनापति ने उसे सिर से पैर तक घूरकर कहा—"कौन हो तुम आयुष्मान्—ऐसे कठिन समय में ऐसे तेजस्वी वचन कहने वाले?"
"भन्ते सेनापति, मेरा नाम सोमप्रभ है। मैं राजगृह से सहायता लेकर आया हूं। यह आर्य वर्षकार का पत्र है।"
युवक के वचन सुनकर सभी उत्सुकता से उसकी ओर देखने लगे। सेनापति ने पत्र लेकर मुहर तोड़ी और शीघ्रता से उसे पढ़ा। फिर कुछ चिन्तित होकर कहा—"परन्तु सहायता कहां है सौम्य? आर्य वर्षकार का आदेश है कि बैशाखी के दिन चम्पा में प्रवेश करना होगा।"
"वह प्रच्छन्न है, भन्ते सेनापति।"
"परन्तु हमारा कार्यक्रम?"
"क्या मैं निवेदन करूं आर्य?"
"अवश्य, आर्य वर्षकार ने तुम्हारे विषय में मुझे कुछ आदेश दिए हैं।"
"तब ठीक है। बैशाखी के दिन सूर्योदय होने पर चम्पावासी जो दृश्य देखेंगे, वह चम्पा दुर्ग पर फहराता हुआ मागधी झण्डा होगा।"
"परन्तु यह तो असाध्य-साधन है आयुष्मान्! यह कैसे होगा?"
"यह मुझ पर छोड़ दीजिए, भन्ते सेनापति।"
सेनापति ने अब अचानक कुछ स्मरण करके कहा—"परन्तु तुम शिविर में कैसे चले आए सौम्य?"
"किसी भांति आज का संकेत-शब्द जान गया था भन्ते।"
"यह तो साधारण बात नहीं है आयुष्मान्।"
"भन्ते, सोमप्रभ साधारण तरुण नहीं है।"
"सो तो देखूंगा, पर तुम करना क्या चाहते हो?"
"अभी हमारे पास चार दिन हैं। इस बीच में बहुत काम हो जाएगा।"
"पर चार दिन हम खाएंगे क्या?"
"आज रात को रसद मिल जाएगी।"
"परन्तु प्रतिरोध कैसे पूरा होगा? हमारे पास तो युद्ध के योग्य..."
'एक सौ सशस्त्र योद्धा आज रात को आपके पास पहुंच जाएंगे?"
"केवल एक सौ!"
"आपको करना ही क्या है भन्ते! केवल प्रतिरोध ही न?"
"परन्तु शत्रु के बाण जो हमें बेधे डालते हैं। हमारे पास रक्षा का कोई साधन नहीं है।"
"यह तो बहुत सरल है भन्ते! उधर बहुत-सी टूटी नौकाएं पड़ी हैं, उनमें रेत भरकर उनकी आड़ में मजे से प्रतिरोध किया जा सकता है। मैंने सिन्धुनद के युद्ध में गान्धारों का वह कौशल देखा है।"
"तुम क्या गान्धार हो वत्स?"
"नहीं, मागध हूं। मैंने तक्षशिला में आचार्यपाद बहुलाश्व से शिक्षा पाई है।"
"अरे आयुष्मान्! तुम वयस्य बहुलाश्व के अन्तेवासी हो। साधु, साधु! तुम्हारी युक्ति बहुत अच्छी है।" "बस, कुछ नावों को आज रात के अंधेरे में यहां खींच लाया जाय और उनमें रेत भर दिया जाय।"
"यह हो जाएगा। परन्तु तुम्हारे सौ सैनिक?"
"रात को तीसरे पहर तक पहुंच जाएंगे।"
"ठीक है, तब तक तुम...?"
"मैं एक चक्कर नगर का लगाकर उसका मानचित्र तैयार करता हूं।"
"तुम्हें कुछ चाहिए आयुष्मान्?"
"कुछ नहीं भन्ते? परन्तु अब मैं चला।" सोमप्रभ सेनापति का अभिनन्दन करके चल दिया। मागध योद्धाओं की सूखी आशा-लता पल्लवित हो उठी। घायल योद्धा भी बीर दर्प से हुंकार भरने लगे।