वैशाली की नगरवधू/37. आक्रमण
37. आक्रमण
चन्दना नद में ज्वार आ रहा था। अपने बीस आरोहियों को लेकर एक नौका जल में प्रबल थपेड़ों पर निःशब्द नाचती हुई आकर दक्षिण बुर्ज के नीचे रुक गई। साहसी मांझी ने यत्न करके पत्थर की चट्टानों से टकराती लहरों से नौका को बचाकर ठीक बुर्ज के नीचे उसी चट्टान के निकट लगा दिया। सोम सबसे प्रथम चुपचाप नीचे उतरा। उसके पीछे अश्वजित था। अश्वजित ने बुर्ज के तल में जाकर देखा, एक मजबूत रस्सी लटक रही है और शंब उसकी यत्न से रक्षा कर रहा है। सोम का संकेत पाकर बीस योद्धा अपने-अपने खड्ग कोश से खींच और दांतों में दबाकर रस्सी के सहारे बुर्ज पर चढ़ने लगे। तीन सौ हाथ ऊंची सीधी ढालू चट्टान पर स्थित उस बुर्ज पर चढ़ना कोई हंसी-खेल न था। परन्तु वीरों की यह टोली भी कोई साधारण टोली न थी। सबसे प्रथम शंब, फिर अश्वजित् और उसके बाद एक के बाद दूसरा, कुल बीस योद्धा और सबके अन्त में सोम बुर्ज पर पहुंच गए। प्रत्येक आदमी बुर्ज पर पेट के बल लेट गया। अश्वजित् का भाई पहरे पर नियुक्त था। उसने धीरे-से सोम के निकट आकर कहा—"पहरा बदलने का समय हो गया है। सबसे पहले नये प्रहरियों को काबू में करना होगा। वे चार हैं और आधे ही दण्ड में आनेवाले हैं।" सोम ने अपने योद्धाओं को आवश्यक आदेश दिए। प्रत्येक व्यक्ति चुपचाप प्राचीर पर लेटा हुआ था और प्रत्येक के हाथ में नग्न खड्ग था।
चारों नये प्रहरी बेसुध चले आए और अनायास ही काबू कर लिए गए। एक शब्द भी नहीं हुआ।
सोम ने कहा—"अब?"
"अब हमें सिंहद्वार के रक्षकों पर अधिकार करना होगा। कुल 16 हैं, परन्तु निकट ही दो सौ सशस्त्र योद्धा सन्नद्ध हैं। खटका होते ही वे आ जाएंगे।"
"देखा जाएगा। समय क्या है?"
अश्वजित् ने आकाश की ओर देखकर कहा—"तीन दण्ड रात्रि जा चुकी है।"
"तो अभी हमें एक दण्ड समय है।"
इसके बाद अश्वजित् के भाई बाहुक की ओर देखकर उसने कहा—"मित्र, तुम्हें अभी और भी हमारी सहायता करनी होगी।"
"मैं मगध का सेवक हूं।"
"तो मित्र, यह मद्यभाण्ड लो और झूमते हुए सिंहद्वार तक चले जाओ। जितना सम्भव हो, प्रहरियों को मद्य पिलाओ और तुम उन्मत्त का अभिनय करके वहीं पड़े रहो, जब तक कि हम लोग न पहुंच जाएं। ठीक चार दण्ड रात बीतने पर सेनापति दुर्गद्वार पर बाहर से आक्रमण करेंगे।"
अश्वजित् के भाई ने हंसकर कहा—"और तब तक यह सुवासित मद्य उनके पेट में अपना काम कर चुका होगा तथा सेनापति को द्वार उन्मुक्त मिलेगा। मैं अब चला, आपका कल्याण हो!"
सोम आवश्यक व्यवस्था में जुट गए और उनके आदेश को ले-लेकर उनके साहसी भट दांतों में खड्ग दबाए सिंहद्वार के चारों ओर को पेट के बल खिसकने लगे। सब कुछ निःशब्द हो रहा था।
बाहुक ने सिंहपौर पर लड़खड़ाते हुए पहुंचकर कहा—"तुम्हारा कल्याण हो सामन्त, किन्तु इसमें किसी का हिस्सा नहीं है।" उसने मद्यपात्र मुंह में लगाकर मद्य पिया।
एक प्रहरी ने हंसकर कहा—"अरे बाहुक, तुम हो? आज तो रंग है, कहां से लौट रहे हो?"
"रंगमहल से मित्र। बहार है। वहां वह पशुपुरी की अप्सरा आई है।"
कई प्रहरी जुट गए—"कौन आई है सामन्त?"
"चुप रहो, गुप्त बात है। पशुपुरी की रम्भा। महाराज आज पान-नृत्य में व्यस्त हैं। प्रहरियों को भी प्रसाद मिला है, यह देखो।"
"वाह-वाह, तो सामन्त, एक चषक हमें भी दो।"
"वहां जाओ और ले आओ। इसमें किसी का हिस्सा नहीं है।" उसने फिर पात्र मुंह में लगाया और एक ओर को लुढ़क गया।
एक प्रहरी ने मद्यपात्र छीनकर कहा—"वाह मित्र, हमें क्यों नहीं? अरे वाह, अभी बहुत है। पियो मित्रो! तेरी जय रहे सामन्त!"
सब प्रहरी मद्य ढालने लगे। बाहुक ने एक प्रेम-गीत गाना प्रारम्भ कर दिया। पीलू के स्वर उस टूटती रात में मद्य के घूंटों के साथ ही प्रहरियों के हृदयों को आन्दोलित करने लगे।
एक ने कहा—"सामन्त, वह पशुपुरी की अप्सरा देखी भी है?"
"देखी नहीं तो क्या, अरे! वह ऐसा नृत्य करती है और देव को मद्य ढालकर देती है—देखोगे?"
"वाह सामन्त, क्या बहार है। नाचो तो तनिक, उसी भांति मद्य ढालकर दो तो।"
बाहुक दोनों हाथ ऊंचे करके नृत्य करने लगा और नृत्य करते-करते उसने मद्य ढाल-ढालकर प्रहरियों को पिलाना आरम्भ कर दिया। प्रहरी उन्मत्त हो उठे—कई तो बाहुक के साथ नाचने लगे और कई उसके स्वर के साथ स्वर मिलाकर गाने लगे। मद्य-भाण्ड रिक्त हो गया।
सब मद्य प्रहरियों के उदर में पहुंच गया। तब बाहुक मद्य-भाण्ड को पेट पर रखकर लेट गया और पात्र को ढोल की भांति पीट-पीटकर बजाने और कोई विरह-गीत गाने लगा। प्रहरी हंसते-हंसते लोट-पोट हो गए और उस विशिष्ट मद्य के प्रभाव से फिर गहरी नींद में अचेत हो गए। बाहुक ने सावधान होकर प्रथम आकाश के नक्षत्र को, फिर चारों ओर अन्धकार से परिपूर्ण दिशाओं को देखा। अब चार दण्ड रात्रि व्यतीत हो रही थी।