वैशाली की नगरवधू/38. मृत्युपाश

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वैशाली की नगरवधू  (1949) 
द्वारा आचार्य चतुरसेन शास्त्री
[ १५१ ]

38. मृत्युपाश

महाराज दधिवाहन कुण्डनी के उज्ज्वल उन्मादक रूप पर मोहित हो गए। कुण्डनी के यौवन, मत्त नयन और उद्वेगजनक ओष्ठ, स्वर्ण देहयष्टि—इन सबने महाराज दधिवाहन को कामान्ध कर दिया। वे उस पर मोहित होकर ही उसे अपनी कन्या चन्द्रभद्रा की सखी बनाकर रंगमहल में लाए थे। पर जब उन्होंने जाना कि वह कुमारी है और पशुपुरी का वह रत्न-विक्रेता कोई ऐसा-वैसा व्यक्ति नहीं, सम्राटों के समकक्ष सम्पत्तिशाली है, तो महाराज के मन में रत्न-विक्रेता की कन्या से विवाह करने की अभिलाषा जाग्रत हो गई।

आज बैशाखी पर्व का दिन था। इस दिन महाराज की आज्ञा से कुमारी चन्द्रभद्रा ने अपनी सखी कुण्डनी के आतिथ्य में नृत्य-पान गोष्ठी का आयोजन किया था। उसमें महाराज दधिवाहन ने भी भाग लिया था। अर्द्धरात्रि व्यतीत होने तक पान-नृत्य-गोष्ठी होती रही। कुमारी अस्वस्थ होने के कारण जल्दी ही शयनागार में चली गई। कुण्डनी महाराज दधिवाहन का मनोरंजन करती रही। वह चषक पर चषक सुवासित मद्य महाराज को देती जा रही थी।

अवसर पाते ही महाराज ने दासियों और अनुचरों को वहां से चले जाने का संकेत किया। एकान्त होने पर महाराज ने कहा—"सुभगे कुण्डनी, तुम्हारा अनुग्रह अनमोल है।"

"देव तो इतना शिष्टाचार एक साधारण रत्न-विक्रेता की कन्या के प्रति प्रकट करके उसे लज्जित कर रहे हैं।"

"नहीं-नहीं, कुण्डनी, तुम्हारे पिता के पास अलौकिक रत्न हैं, पर तुम-सा एक भी नहीं।"

"किन्तु, देव आपके महल में एक-से-एक बढ़कर रत्न हैं।"

"नहीं प्रिये कुण्डनी, मुझे कहने दो। मैं तुम्हारा अधिक अनुग्रह चाहता हूं।"

"देव की क्या आज्ञा है?"

"कुण्डनी प्रिये, मैं जानता हूं—तुम अभी अदत्ता हो। क्या तुम चम्पा की अधीश्वरी बनना पसन्द करोगी?"

कुण्डनी ने हंसकर कहा—"तो देव, मुझे पट्ट राजमहिषी का कोपभाजन बनाया चाहते हैं! लीजिए एक पात्र।"

"परन्तु अनुग्रह-सहित।"

"कैसा अनुग्रह-देव।"

"इसे उच्छिष्ट कर दो प्रिये, अपने मृदुल अधरों का एक अणु रस इसमें मिला दो। प्रिये कुण्डनी, एक अणु रस।"

"यह चम्पाधिपति की मर्यादा के विपरीत है देव, चषक लीजिए। अभी मैं आपको कालनृत्य का अभिनय दिखाऊंगी।" [ १५२ ] "तो यही सही प्रिये कुण्डनी, तुम्हारा नृत्य भी दिव्य है।"

कुण्डनी ने चषक महाराज के मुंह से लगाकर नृत्य की तैयारी की। धीरे-धीरे उसके चरणों की गति बढ़ने लगी। महाराज दधिवाहन स्वयं मृदंग बजाने लगे। कुण्डनी ने प्रत्येक सम पर महाराज के निकट चुम्बन निवेदन करना प्रारम्भ कर दिया और हर बार उस दुष्प्राप्य चुम्बन को प्राप्त न कर सकने पर चंपाधिपति अधीर हो गए। नृत्य की गति बढ़ती गई और मृदंग का गंभीर रव उस टूटती रात में एक उन्मत्त वातावरण उत्पन्न करने लगा। उस एकांत रात में अनावृत्त सुन्दरी कुण्डनी की मनोरम देह नृत्य की अनुपम शोभा विस्तार कर रही थी और कामवेग से महाराज दधिवाहन के रक्त की गति असंयत हो गई थी। कुण्डनी ने अपनी चोली से थैली निकाली और उसमें से महानाग ने अपना फन निकालकर कुण्डनी के मुंह के साथ नृत्य करना प्रारम्भ किया। महाराज दधिवाहन एक बार भीत हुए, परन्तु मद्य के प्रभाव से वे असंयत होकर भी मृदंग बजाते रहे। उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया था। परन्तु कुण्डनी की चरण-गति अब दुर्धर्ष हो रही थी। इसी समय उसने अपने अधरों पर दंश लिया।

नागराज कुण्डनी का अधर-चुम्बन कर शान्त-भाव से उसी बहुमूल्य थैली में बैठ गए। विष की ज्वाला से कुण्डनी लहराने लगी। नृत्य से थकित और दंश से विवश और उसकी पुष्पाभरण-भूषित सुरभित देहयष्टि धीरे-धीरे महाराज दधिवाहन के निकट और निकट आकर नृत्य की नूतनतम कला का विस्तार करने लगी। विलास और शृंगार का उद्दाम भाव उसके नेत्रों में आ व्यापा।

महाराज दधिवाहन ने मृदंग फेंककर कुण्डनी को आलिंगन-पाश में कस लिया और कुण्डनी फूलों के एक ढेर की भांति महाराज दधिवाहन के ऊपर झुक गई। महाराज दधिवाहन ने ज्यों ही कुण्डनी का अधरोष्ठ चुम्बन किया त्योंही वह तत्काल मृत होकर पृथ्वी पर गिर गए। कुण्डनी हांफते-हांफते एक ओर खड़ी होकर उनके निष्प्राण शरीर को देखने लगी।