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वैशाली की नगरवधू/45. भविष्य-कथन

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वैशाली की नगरवधू
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ १७० से – १७१ तक

 

45. भविष्य-कथन

भगवान् वादरायण दीपाधार के निकट बैठे एक भूर्जपत्र पर कुछ लिख रहे थे। माधव ने भू-प्रणिपात करके देवी अम्बपाली के आगमन का संदेश दिया। दूसरे ही क्षण अम्बपाली ने साष्टांग दण्डवत् किया। भगवान् ने कहा—"अब कहो शुभे अम्बपाली, मैं तुम्हारा क्या प्रिय कर सकता हूं?"

अम्बपाली मौन रही। संकेत पाकर माधव चले गए। उनके जाने पर अम्बपाली ने कहा—"भगवन्, इस समय क्या किसी गुरुतर कार्य में संलग्न हैं?"

"नहीं, नहीं, मैं तुम्हारी ही गणना कर रहा था।"

"इस भाग्यहीन के भाग्य में अब और क्या है?"

"बहुत-कुछ कल्याणी। तुम्हारा सौदा सफल है, तुम मगध के सम्राट् की माता होगी! किन्तु..."

अम्बपाली ने विस्मित होकर कहा—

"भगवान् सर्वदर्शी हैं, पर किन्तु क्या?"

"...किन्तु सम्राज्ञी नहीं।"

अम्बपाली के होंठ कांपे, पर वह बोली नहीं। भगवान् ने फिर कहा—

"और एक बात है शुभे!"

"वह क्या भगवन्?"

"तुम वैशाली गणतन्त्र की जन हो, वैशाली का अनिष्ट न करना!"

अम्बपाली के भ्रू कुञ्चित हुए। यह देख भगवान् वादरायण हंस दिए। उन्होंने कहा—"गणतन्त्र पर तुम्हारा रोष स्वाभाविक है, उसी कानून के सम्बन्ध में न?"

"भगवन्, उसी धिक्कृत कानून के सम्बन्ध में।"

"पर यह बात तो अब पुरानी हुई। फिर तुमने उसका मुंहमांगा शुल्क भी पाया। अब भी तुम्हारा रोष नहीं गया?"

"नहीं भगवन्, नहीं।"

"फिर यह सौभाग्य?"

"मगध-सम्राज्ञी न होते हुए मगध-साम्राज्य की राजमाता का लांछित हास्यास्पद पद?" अम्बपाली ने घृणा से होंठ सिकोड़े और क्रोध से उसके नथुने फूल गए।

भगवान् वादरायण विचलित नहीं हुए। वे मन्द स्मित करते अचल बैठे रहे। अम्बपाली एकटक उनकी भृकुटि में चिन्ताप्रवाह देखती रही। भगवान् ने मृदु-मन्द स्वर में कहा—"केवल यही नहीं..."

"क्या और भी कुछ?"

"बहुत-कुछ।" "वह क्या?"

भगवत्पाद क्षण-भर गहन चिन्ता में डूबे रहे, फिर जलद-गंभीर वाणी में बोले—"शुभे अम्बपाली, तुम विश्वविश्रुत साध्वी प्रसिद्ध होगी।"

"भगवन्! मैं अधम वेश्या..."

"शुभे, जिसके चरणतल की अपेक्षा मगध-साम्राज्य का चक्र भी लघु है, उसे यह आत्म-प्रतारणा शोभा नहीं देती।" फिर उन्होंने भाव-गंभीर हो दोनों हाथ उठाकर कहा—"तुम्हारा कल्याण हो, परन्तु तुम वैशाली की जनपद-कल्याणी हो। एक बार तुमने आत्मदान करके वैशाली को गृहयुद्ध से बचा लिया था, अब अपने तामसिक रोष में जनपद का अनिष्ट न करना। व्यक्ति से समष्टि की प्रतिष्ठा भी बड़ी है, स्वार्थ भी बड़ा है। व्यक्ति का स्वार्थ हेय है, परन्तु समष्टि का स्वार्थ उपादेय।" भगवत्पाद यह कहकर कुछ देर मौन रहे! फिर बोले—"त्याग संसार में महाश्रेष्ठ है, त्याग से अरिष्ट-अनिष्ट सब टल जाते हैं। तुम जब देखो कि तुम्हारे द्वारा वैशाली का, उत्तराखंड के इस एकमात्र गणतन्त्र का अनिष्ट हो रहा है, तब कोई महान् त्याग करना, अनिष्ट टल जाएगा। मेरा यह वचन भूलना नहीं शुभे, नहीं तो वह महासौभाग्य तुम्हें प्राप्त नहीं होगा।"

"मैं याद रखूंगी भगवन्!"

"तुम्हारा कल्याण हो भद्रे, अब तुम अपने आवास को जाओ।"

अम्बपाली बड़ी देर तक भगवान् वादरायण व्यास के चरणों में चुपचाप पृथ्वी पर पड़ी रही। फिर आंखों में आंसू बहाती हुई उठकर चल दी।