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वैशाली की नगरवधू/46. साम्राज्य

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वैशाली की नगरवधू
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ १७२ से – १७४ तक

 

46. साम्राज्य

"अब?"

"भगवत्पाद जो आदेश दें!"

"साम्राज्यों के विधाता विचारशील मनुष्य नहीं होते सम्राट, वे लोहयन्त्र होते हैं। वे अपनी गति पर तब तक चलते जाएंगे, जब तक वे टूटकर चूर-चूर नहीं हो जाते। उनकी राह में जो आएगा उसी का विध्वंस होगा।"

"किन्तु भगवन्, जन्म का मूल उद्देश्य निर्माण है, विध्वंस नहीं। फिर बाधाएं यदि ध्वस्त न हों तब?"

"निर्माण का अतिरेक भी एक अभिशाप है सम्राट्। यदि निर्माण ही के लिए ध्वंस हो?"

"नहीं भगवन, आवश्यकता ही के लिए निर्माण होता है।"

"तो जनपद को सैन्यबल से आक्रांत करने की क्या आवश्यकता है? निरन्तर युद्ध कितनी घृणा, संदेह और वैर बिखेरते हैं?"

"परन्तु व्यवस्था भी तो स्थापित करते हैं!"

"व्यवस्था जहां अधिकार पर आरूढ़ होती है, वहां जनपद-कल्याण नहीं होता। वह व्यवस्था जनपद-कल्याण के लिए होती भी नहीं, अधिकारारूढ़ कुछ व्यक्तियों ही के लिए होती है, जिनकी आवश्यकताएं इतनी बढ़ जाती हैं कि वे जनपद का सम्पूर्ण प्राण, धन और श्रम अपहरण करके भी भूखी और प्यासी ही बनी रहती है।"

"किन्तु भगवन्, शक्ति का विराट संगठन सदैव जनपद का रक्षण करता है।"

"कहां? कुरुक्षेत्र में आर्यों और संकरों की चरम शक्ति का प्रदर्शन हुआ, परन्तु शक्ति संचय के द्वारा जनपद-कल्याण करने में वासुदेव कृष्ण कृत्य नहीं हुए। कुरुक्षेत्र में केवल महाविनाश ही होकर रह गया।"

"इसमें दोष कहां था?"

"आपात दोष था। किस सदुद्देश्य से कुरुक्षेत्र में 18 अक्षौहिणी सैन्य का संहार किया गया? जनपद-कल्याण की किस भावना से पृथ्वी के लाखों तरुणों को बर्बर पशु की भांति उत्तेजित करके एक-दूसरे के हाथ से निर्दयतापूर्वक वध करा डाला गया? पांडवों को राज्य का भाग दिलाने के लिए जनपद का इतना धन-जन क्यों क्षय किया गया? सम्राट्, आज आप भी वही प्रयोग कर देखिए। नई-नई सेनाएं भरती कीजिए, उनके द्वारा जनपदों को लुटवाइए, फिर उस लूट का कुछ स्वर्ण उन भाग्यहीन मूर्ख तरुण सैनिकों के पल्ले बांध दीजिए, जो निरर्थक नरहत्या को वीरकृत्य समझते हैं। कुछ उन पुरोहित ब्राह्मणों को दीजिए, जो आपकी यशोगाथा गा-गाकर यह प्रचार करें कि आपका यह सामर्थ्य और अधिकार देवी है और यज्ञ के देवता आप पर प्रसन्न हैं। बस, शेष सम्पदा आप जैसे चाहे भोगिए, लक्षावधि निरीह जनपद उसे सहन कर जाएगा।"

भगवान् वादरायण कुछ देर दूर क्षितिज में टिमटिमाते तारे को देखते रहे, फिर उन्होंने कहा—"सम्राट् आर्यों ने अपने पाप का फल पा लिया। उन्होंने जीवन में भूलों पर भूलें कीं, भारत की उर्वरा भूमि में आकर भी उन्होंने अपना विनाश किया। हिमालय के उस ओर से आनेवाली कुरु-पांचालों की शाखाओं से यदि उत्तर कुरु के भरतों का संघर्ष न होकर दोनों की संयुक्त जाति बनती तो कैसा होता? परन्तु उत्तर कुरु के देवगण अपनी विजय के गर्व में मत्त रहे, वहीं खप गए। आर्यावर्त में उनका प्रसार ही न हो पाया। इधर ये पौरव दक्षिण में द्रविणों को आक्रान्त कर उनसे मिल गए। आर्यों की यह पहली भूल थी। इसके बाद उन्होंने राजन्यों की, पुरोहितों की, फिर विशों की न्यारी-न्यारी शाखाएं चलाईं। अनुलोभ-प्रतिलोभ विवाह प्रचलित किए। ब्राह्मणों ने दक्षिणा में और क्षत्रियों ने विजयों में सुन्दरी दासियों के रेवड़ भर लिए। परिणाम वही हुआ जो होना था। अनगिनत वर्णसंकर सन्तानें उत्पन्न होने लगीं। पहले उन्होंने उन्हें पिता के कुलगोत्र में ही रखा और दाय भाग भी नहीं दिया। परन्तु बाद में उन्हें इन आर्यों ने अपने कुलगोत्र से च्युत कर दिया। दायभाग तब भी नहीं दिया। पहले प्रतिलोभ सन्तान ही संकर थी, अब अनुलोभ-प्रतिलोभ प्रत्येक सन्तान संकर बना दी गई और उन्हें अपना उपजीवी बनाकर उनकी पृथक् जातियां बना दी गईं। यह आर्यों की दूसरी भूल थी। सभी संकर मेधावी, परिश्रमी, सहिष्णु एवं उद्योगी थे—जैसा कि होता ही है; आर्य अधिकार-मद पी मद्यप, आलसी, घमण्डी और अकर्मण्य होते गए। अब वे या तो थोथे यज्ञाडम्बरों की हास्यापद विडम्बना में फंसे हैं, या कोरे कल्पित ब्रह्मवाद में। इसी से सम्राट्, आज आर्यों में प्रसेनजित् जैसे सड़े-गले राजा रह गए। आज सम्पूर्ण भरतखंड में आर्य केवल प्रजावर्गीय रह गए हैं, राजसत्ता उन कर्मठ संकरों के हाथ में आती जा रही है। एक दिन भाग्यहीन प्रसेनजित् अति दयनीय दशा में प्राणों के भार को त्यागेगा।"

"किन्तु भगवन् मेरा स्वप्न क्या सत्य होगा?"

"जम्बूद्वीप पर अखंड साम्राज्य-स्थापन का? इसके लिए तो पूर्व में आपका उद्योग चल ही रहा है। उधर पश्चिम में पार्शव सम्राट भी इसी आयोजन में है।"

"परन्तु भगवन्, आर्य कभी उसे न अपनाएंगे।"

"क्यों नहीं, बहुत बार उसने इन्द्रपद ग्रहण किया है। सभी आर्यों ने तो उसका पूजन किया।"

"किन्तु वासुदेव कृष्ण ने जो उसका प्रबल विरोध किया था, वह क्या भगवान् को विदित नहीं?"

"क्यों नहीं!"

"भगवन्, मैं शिशुनागवंशी बिम्बसार वासुदेव कृष्ण का अनुवंशी हूं, आर्य नहीं; मैं पार्शव सम्राट का विरोध करूंगा।"

"सम्राट की इस वासना को मैं जानता हूं।"

"तो भगवत्पाद का अब मुझे क्या आदेश है?"

"सम्राट तुरन्त राजगृह जाएं।"

"किसलिए भगवन्?" "राजगृह में कुछ घटनाएं होने वाली हैं।"

"अच्छी या बुरी?"

"यह सम्राट् को समय पर मालूम होगा, परन्तु उन्हें दोनों ही प्रकार की घटनाओं को देखने की आशा रखनी चाहिए।"

"यही भगवत्पाद का मुझे आदेश है?"

"राजगृह में शीघ्र ही श्रमण गौतम पहुंचेंगे, वे सम्राट् को समुचित आदेश देंगे।"

भगवान् वादरायण फिर नहीं बोले। एकबारगी ही वे समाधिस्थ हो गए। इसी समय मधु ने कहा—"सम्राट के सैनिक आ पहुंचे हैं। वे सम्राट को अपना अभिवादन निवेदन कर रहे हैं।"

सम्राट् ने भगवान् वादरायण के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और चल दिए।