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वैशाली की नगरवधू/47. दास नहीं, अभिभावक

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वैशाली की नगरवधू
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ १७५ से – १७७ तक

 

47. दास नहीं, अभिभावक

पूरा दिन चारों अश्वारोहियों ने घोड़े की पीठ पर व्यतीत किया। वे नगर, जनपद, वीथी सबको बचाते हुए गहन वन में चलते ही गए। मार्ग में दो-एक हिंसक जन्तु मिले। शंब ने उनका आखेट किया। परन्तु सोम अत्यन्त खिन्न मुद्रा से सबके आगे-आगे जा रहे थे। उनमें बातचीत का भी दम नहीं था। उनके पीछे कुण्डनी राजकुमारी को दाहिने करके चली जा रही थी। राजकुमारी अत्यन्त म्लान, थकित और शोकाकुला थीं। परन्तु जब-जब उनसे विश्राम के लिए कहा गया, उन्होंने कहा—

"नहीं, चले ही चलो, मैं और चल सकती हूं।"

शंब सबके पीछे चारों ओर देखता, सावधानी से चल रहा था। एकाध बात कुण्डनी कर लेती थी। फिर सन्नाटा हो जाता था। कभी-कभी वायु लम्बे वृक्षों और पर्वत-कन्दराओं से टकराकर डरावने शब्द करती थी। कुमारी का चेहरा पत्थर की भांति भावहीन और सफेद हो गया था और उनके नेत्रों की ज्योति जैसे बुझ चुकी थी।

सोम ने अतिविनय से एक-दो बार कुमारी से विश्राम कर लेने और थोड़ा-बहुत आहार करने को कहा था, परन्तु कुमारी बहुत भीत थीं। उन्होंने हर बार भीत दृष्टि से कुण्डनी की ओर ताककर कहा—"नहीं हला, अभी चले चलो। धूमकेतु थका नहीं है, मैं भी थकी नहीं हूं।"

सोम कुमारी की व्यग्रता तथा वैकल्प को समझते थे। इसी से वह चुप हो रहे। वे चलते ही गए। मध्याह्न की प्रखर धूप धीमी पड़ गई। अश्वारोही और अश्व एकदम थक गए। सोम ने एक उंचे स्थान पर चढ़कर चारों ओर दृष्टि फेंकी। कुछ दूर उन्हें बस्ती के चिह्न प्रतीत हुए। उन्होंने तनिक रुककर शंब से कहा—"शंब, आखेट का ध्यान रख।" और फिर कुण्डनी के निकट जाकर कहा—"वहां बस्ती मालूम होती है। आज रात वहीं व्यतीत करनी होगी।"

और उसने बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए उधर ही प्रस्थान कर दिया। सूर्यास्त होने तक ये लोग नगर उपकूल में पहुंच गए। नगर में न जाकर उन्होंने नगर के प्रान्त-भाग में अवस्थित एक चैत्य में विश्राम करना ठीक समझा। चैत्य बहुत पुराना और भग्न था। उसके एक कक्ष की दीवार बिलकुल टूट गई थी, फिर भी वहां विश्राम किया जा सकता था। निकट ही एक पुष्करिणी थी।

अश्वों ने जल पिया और अश्वारोहियों ने भी। राजकुमारी के विश्राम की सम्पूर्ण व्यवस्था कर सोम ने चिन्तित भाव से कुण्डनी की ओर देखा। शंब ने एक सांभर मारा था। उसकी ओर निराशा से ताककर सोम ने कहा—"कुण्डनी, यह क्या राजनन्दिनी के आहार के लिए यथेष्ट होगा?"

"परन्तु किया क्या जाय? नगर में जाने से कदाचित् थोड़ा दूध मिल सके। परन्तु आज आखेट पर ही रहें।"

शंब अपनी सफलता पर बहुत प्रसन्न था। सांभर बहुत भारी था। उसने जल्दी-जल्दी राजकुमारी और कुण्डनी के विश्राम की व्यवस्था की और हरिणी का मांस भूनने लगा। सोम ने कहा—"तनिक इधर-उधर मैं देख लूं, यदि थोड़ा दूध मिल जाय।"

उन्होंने अपना बर्छा उठाया और चल दिए। निवृत्त होकर कुण्डनी ने कुमारी के मनोरंजन की बहुत चेष्टा की। वह उनके निकट आकर बातें करने लगी। कुण्डनी ने कहा—

"राजकुमारी प्रसन्न हों, भाग्य-दोष से समय-कुसमय जीवन में आता ही है। इतना खिन्न न हों राजकुमारी।"

"खिन्न नहीं हूं हला, लज्जित हूं, तुम्हारे और तुम्हारे इस सौम्य दास के उपकार के लिए। कब कैसे बदला चुका सकूंगी?"

"राजकुमारी; हम सब तो आपके सेवक हैं। आपको कभी सुखी देखकर हमें कितना आनन्द होगा।" कुण्डनी ने आर्द्र होकर कहा।

"किन्तु सखी, क्या सचमुच वह वीर तुम्हारा दास है?" राजकुमारी ने नीची दृष्टि से सोम की ओर देखकर कहा।

"मेरा ही नहीं, आपका भी राजनन्दिनी।"

"नहीं, नहीं उसका तेज, शौर्य सत्साहस श्लाघ्य हैं। वह तो किसी भी राजकुल का भूषण होने योग्य है। फिर उसका विनय और कार्य-तत्परता कैसी है!"

"इसकी उसे शिक्षा मिली है हला।"

"क्या नाम कहा—सोम?"

"हां, सोम।"

"और उस दास के दास का नाम शंब?"

"जी हां, दास के दास का शंब।" कुण्डनी हंस दी।

राजकुमारी होंठों ही में मुस्कराईं। उन्होंने कोमल भाव से कहा—

"सखी, इस विपन्नावस्था में ऐसे अकपट सहायक मित्रों से दासवत् व्यवहार करना ठीक नहीं है। वे हमारे आत्मीय ही हैं।"

"किन्तु राजनन्दिनी, दास दास हैं, सेवा उनका धर्म है। उनके प्रति उपकृत होना उन्हें सिर चढ़ाना है।"

"ऐसा नहीं हला, अन्ततः मनुष्य सब मनुष्य ही हैं और वह तो एक श्रेष्ठ पुरुष है। मैं उन्हें दास नहीं समझ सकती।"

"तो आप राजकुमार समझिए राजनन्दिनी। यह आपके हृदय की विशालता है।"

"नहीं, वे राजकुमार से भी मान्य पुरुष हैं हला।" राजकुमारी का मुंह लज्जा से लाल हो गया और आंख से आंसू झरने लगे।

इसी समय सोम कुछ आहार-द्रव्य और थोड़ा दूध ले आए। शंब ने भी हरिण को भून-भान लिया था। राजकुमारी क्षण-भर को अपनी विपन्नावस्था भूलकर फुर्ती से आहार को स्वयं परोसने लगीं। उन्होंने पलाश-पत्र पर आहार्य संजोकर अपनी बड़ी-बड़ी पलकें सोम की ओर उठाईं और कहा—"भद्र, भोजन करो।"

सोम ने विनयावनत होकर कहा— "नहीं राजनन्दिनी, पहले आप और कुण्डनी आहार कर लें, पीछे हम लोग खाएंगे।"

"नहीं-नहीं, ऐसा नहीं।"

"दास का निवेदन है..."

"दास नहीं, भद्र, अभिभावक कहो।"

राजनन्दिनी का गला भर आया। उन्होंने फिर उन्हीं भारी-भारी पलकों को उठाकर सोम की ओर गीली आंखों से ताका। उस मूक अनुरोध से वशीभूत होकर सोम ने और आग्रह नहीं किया। उन्होंने कहा—

"तो फिर, राजनन्दिनी की जैसी आज्ञा हो, हम लोग साथ ही बैठकर भोजन करें।"

राजकुमारी ने भी जल्दी-जल्दी कुण्डनी और अपने लिए आहार परोसा। शंब को भी दिया, पर शंब किसी तरह साथ खाने को राजी न हुआ। वे तीनों भोजन करने लगे।