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वैशेषिक दर्शन

विकिस्रोत से
वैशेषिक दर्शन  (1921) 
गंगानाथ झा

वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ मुखपृष्ठ से – ८ तक

 

 

वैशेषिक दर्शन
डाक्टर गंगानाथ झा एम॰ ए॰
लिखित

 
 

काशीनागरीप्रचारिणी सभा द्वारा
प्रकाशित

 

मूल्य।⇗)

वैशेषिक दर्शन।
[औलूक्य]

वैशेषिक दर्शन के आदि प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं। यह 'कणभुक्', 'कणभक्ष' इत्यादि नामों से भी ग्रंथों में प्रसिद्ध हैं। त्रिकाण्डशेष कोष में इन का नाम 'काश्यप' भी कहा है। कणाद कश्यप के पुत्र थे ऐसा किरणावली में लिखा है। एक नाम इन का 'औलूक्य' भी है। इस से इन को लोग उलूक ऋषि का पुत्र बतलाते हैं। ये उलूक मुनि विश्वामित्र के पुत्र थे यह महाभारत अनुशासन पर्व ४ अध्याय में लिखा है। वायु पुराण, पूर्वखण्ड, २३ अध्याय में कणाद के प्रसङ्ग में लिखा है कि वे सत्ताइसवीं चौयुगी में प्रभास क्षेत्र में शिव जी के अवतार सोमशर्मा नाम ब्राह्मण के शिष्य थे। इस से ऐसा मालूम होता है कि कश्यप गोत्र में, विश्वामित्र के पुत्र उलूक के पुत्र, सोमशर्मा के शिष्य कणाद रहे। इन के सूत्र 'कणाद सूत्र', 'वैशेषिक दर्शन' इत्यादि नाम से प्रसिद्ध हैं। जैसे एक एक सूत्र की टीका रूप से 'भाष्य' और सूत्रों के हैं वैसा भाष्य वैशेषिक सूत्रों का कोई अब तक उपलब्ध नहीं है। प्रशस्त पाद की टीका 'भाष्य' कर के प्रसिद्ध है। पर इस ग्रन्थ के देखने से मालूम होता है कि यह सूत्रों की टीका नहीं है। सूत्रों के क्रम तक को इस में नहीं स्वीकार किया है। सूत्रों के आधार पर यह एक स्वतंत्र ही ग्रन्थ है। इस को 'भाष्य' कहना ठीक नहीं। पर सूत्रों को छोड़ कर यही ग्रन्थ वैशेषिक विषय पर सब से प्राचीन अब तक मिला है इस से इस को लोगों ने 'भाष्य' मान लिया है। प्रशस्तपाद ने अपने ग्रन्थ का नाम भी 'भाष्य' नहीं रक्खा-इस कानाम 'पदार्थधर्मसंग्रह' प्रथम श्लोक में कहा है। इस पर टीका जो 'न्यायकन्दली' नाम से प्रसिद्ध है उस में कहीं 'भाष्य' नाम से इस ग्रन्थ को नहीं कहा है। न्यायकन्दली की केवल एक पुस्तक पाई गई है जिस में मूलग्रन्थ को 'भाष्य' कहा है। फिर प्रशस्तपाद के ग्रन्थ की टीका-किरणावली-में लिखा है कि प्रशस्तपाद ने इस पदार्थधर्मसंग्रह को लिखा––'क्योंकि भाष्य बहुत बड़ा ग्रन्थ है। इस पर पद्मनाभ मिश्र टीकाकार ने लिखा है कि 'यह भाष्य रावण का किया है'। इस रावण कृत भाष्य की चर्चा वेदान्त भाग्य की रत्नप्रभा टीका में भी पाई जाती है। फिर भाष्य के लक्षण भी इस ग्रन्थ में नहीं पाए जाते। सूत्रों के अनुसार जिस में सूत्र पदों का अर्थ हो उसी को भाष्य कहते हैं। प्रशस्तपाद भाष्य की भूमिका में जिस तरह यह लक्षण इस ग्रंथ में लगाया गया सो मन में नहीं बैठता। फिर जब एक बड़ा 'भाष्य' दूसरा है–ऐसा किरणावली ऐसे प्राचीन ग्रंथ के लेख से स्पष्ट मालूम होता है–तब इस ग्रन्थ को भाष्य कहने का आग्रह ही क्यों? भाष्य ही होने से ग्रंथ प्राचीन नहीं होता। बिना भाष्य हुए भी यह ग्रंथ भाष्यों से प्राचीन हो सकता है। परन्तु वर्धमान उपाध्याय न्यायनिबन्धप्रकाश में–'सूत्रं बुद्धिस्थीकृत्य तत्पाठनियमं'–बिना तद‍्न्याख्यानं भाष्यम्–ऐसा लक्षण करके प्रशस्त-पाद के ग्रंथ को 'भाष्य' बतलाया है।

प्रशस्तपाद के ग्रंथ पर किरणावली और न्यायकंदली दो टीकायें प्रसिद्ध हैं। सूत्रों पर टीका, शंकर मिश्र का उपस्कार आज कल उपलब्ध है। सूत्रों पर इस से प्राचीन कोई टीका अभी नहीं मिली है। सूत्रों पर एक वृत्ति भारद्वाज मुनि की की हुई है। सम्भव है यह 'भारद्वाज' न्यायवार्तिककार उद्योतकर ही हों। यह वृत्ति प्रायः प्रशस्तपाद के भाष्य से अधिक प्राचीन है। पर इस की पोथियां नहीं मिलतीं। एक आध प्रति बनारस में है।

प्रकरणग्रंथ इस दर्शन के अनेक हैं। सप्तपदार्थी तर्कसंग्रह तर्कामृत-चपक-तर्ककौमुदी-मुक्तावली-इत्यादि।

वैशेषिकों का परमाणुवाद-परमाणु से सृष्टि होती है सो मत– और शब्द अनित्य है–यह मत मीमांसक और वेदान्तियों को नास्तिकता से मालूम पड़े। इस से वैशेषिकों को कुमारिल ने बौद्धों के समान नास्तिक (अर्थात् वेदनिन्दक) बतलाया है और शंकराचार्य ने इन को 'अर्धवैनाशिक'–आधा बौद्ध–कहा है। परन्तु प्रशस्तपाद ने ग्रन्थ के आरम्भ में महादेव को नमस्कार किया है–और 'महेश्वर की इच्छा से सृष्टि होती है' यह स्पष्ट लिखा है। इस से इन को नास्तिक कहना ठीक नहीं मालूम होता।

गौतम ने न्याय सूत्रों में दो वादी प्रतिवादी के बीच शास्त्रार्थ रूप से अपने शास्त्र को रचा है—उसी के अनुकूल उन्होंने अपने सोलह पदार्थों का निरूपण किया है। इसीसे न्याय सूत्रों में फजूल बातों का विचार घुसेड़ दिया है ऐसा लोग आक्षेप करते हैं। वैशेषिक सूत्रों में यह बात नहीं है। इस में आरम्भ ही से मोक्ष कैसे होता है इसी का विचार किया है।

कणाद ने पहिले सूत्र में प्रतिज्ञा की है कि मैं 'धर्म की व्याख्या करता हूं' अर्थात् धर्म क्या वस्तु है सो समझाऊंगा। धर्म का विचार आवश्यक है क्योंकि बिना धर्म के पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता। दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण कहा है—'जिस से पदार्थों का तत्त्वज्ञान होने पर मोक्ष होता है वही धर्म है'। अर्थात् धर्म से पदाथों का ज्ञान होता है और तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है। यह धर्म कौन सी वस्तु है जिससे तत्त्वज्ञान होता है? काम्य कर्मों से निवृत्ति और नित्य कर्मों का अनुष्ठान—इत्यादि जो वेद में कहे हैं वही धर्म है।

वह कौन सा 'तत्वज्ञान' है जिस से मोक्ष होता है? चौथे सूत्र में कहा है कि द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, ये छओ पदार्थ क्या हैं—इन का क्या लक्षण है—कौन से लक्षण किन किन पदार्थों में हैं—इन में से किन में क्या साधर्म्य है क्या वैधर्म्य है—इत्यादि के ज्ञान को 'तत्वज्ञान' कहते हैं। और इसी तत्वज्ञान से निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष होता है।

यहां पदार्थ छही कहे हैं। प्राचीन वैशेषिक ग्रन्थों में ये ही छ हैं। सप्त पदार्थों में पहिले सातवां पदार्थ 'अभाव' माना है।

ये द्रव्यादि पदार्थ कौन से हैं, इनके लक्षण—साधर्म्य वैधर्म्य, क्या हैं इत्यादि विचार पांचवें सूत्र से लेकर अन्त तक किया है।

द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय येही पदार्थ सूत्र (१.१.४) में कहे हैं। प्रशस्तपाद ने भी येही छ पदार्थ कहे हैं। 'पदार्थ' उसको कहते हैं जिसका ज्ञान हो सके। इससे जितनी चीजें संसार में हैं सभी 'पदार्थ' कहलाती हैं। वे कुल चीजें इन्हीं छओं के अन्तर्गत हैं। इन छओं से बाहर कोई भी चीज नहीं हो सकती। ये छ 'भाव' पदार्थ हैं और हर एक वस्तु अपने विपरीत को सूचित करती है। इस से इन पदार्थों के विपरीत एक पदार्थ 'अभाव' नवीन वैशेषिकों ने मान लिया है। जितनी चीजों का ज्ञान होता है वे क्या भावरूप हैं या अभावरूप। भावरूप जितनी हैं वे क्या द्रव्य हैं वा गुण वा कर्म वा सामान्य वा विशेष वा समवाय। पदार्थों के साधर्म्य वैधर्म्य ज्ञान से यह मतलब है कि इसी तरह कुल पदार्थों के यथार्थ लक्षण का ज्ञान हो सकता है। कौन कौन गुण किन किन पदार्थों में है इस के जानने ही से पदार्थों का तत्वज्ञान होता है। इसी से प्रशस्तपाद भाष्य से लेकर मुक्तावली पर्यन्त सब वैशेषिक ग्रन्थों में पहिले पदार्थों के साधर्म्य का विचार कर के फिर वैधर्म्य का विचार किया है। वैधर्म्य के विचार ही से एक एक कर सब पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है।

अब इन पदार्थों के परस्पर साधर्म्य वैधर्म्य का विचार करना आवश्यक है। पहिले साधर्म्य का विचार किया गया है, अर्थात् कौन कौन सी चीजें एक तरह की समझी जा सकती हैं। इसके बाद इन सभों के वैधर्म्य का विचार होगा; अर्थात् एक एक करके इन के क्या लक्षण हैं, क्या स्वभाव हैं, इत्यादि बातों पर विचार होगा।

छओं पदार्थों का साधर्म्य यही है कि ये सब वर्तमान हैं-शब्दों से कहे जा सकते हैं और इनका ज्ञान हो सकता है।

नित्य द्रव्यों को छोड़ कर और जितनी चीजें हैं उन सभों का यह साधर्म्य है कि वे आश्रित हैं, अर्थात् किसी आधार पर रहती हैं।

द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष-इन पांचों का यही साधर्म्य है कि ये अनेक हैं और द्रव्यों के साथ इनका नित्य सम्बन्ध रहता है।

गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, इन पाँचों का साधर्म्य है कि इन के कोई गुण या कर्म नहीं हैं।

द्रव्य, गुण, कर्म, इन तीनों का साधर्म्य है कि इन में सत्ता रहती है-इन के सामान्य (जातियाँ) होती हैं, इन के विशेष भी होते हैं और धर्म अधर्म के कारण होते हैं।

सभी रहती हैं इस का यह तात्पर्य नहीं है कि ये वर्तमान हैं, तात्पर्य यह है कि 'सत्ता' इन में जाति रहती है अर्थात् 'सत्ता' जो एक जाति है उस में द्रव्य, गुण, कर्म अन्तर्गत हैं। और पदार्थ यद्यपि वर्तमान या सत् है तथापि उनमें 'सत्ता' जाति हैं ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि द्रव्य, गुण और कर्म इन्हीं तीन पदार्थों में सामान्य या जाति रह सकती है।

जितनी वस्तुओं के कारण हैं वे सब कार्य हैं और अनित्य हैं, यही इन का साधर्म्य है।

परमाणु के परिमाण को छोड़ कर और जितनी चीजें हैं इन सभों में यही साधर्म्य है कि ये कारण हो सकती हैं।

सामान्य, विशेष और समवाय, इन तीनों का साधर्म्य यह है कि इनका विकार नहीं होता। अपने अपने रूप से ये सदा बने रहते हैं। बुद्धि ही से केवल इनका ज्ञान हो सकता है, इन्द्रियादि से नहीं, ये कार्य नहीं होते, कारण नहीं होते। इन का सामान्य या विशेष नहीं होता, ये नित्य हैं।

द्रव्य गुण का साधर्म्य है कि दोनों अपनी सजातीय वस्तु उत्पन्न करते हैं।

पृथिवी, जल, तेज (अग्नि), वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन ये नव 'द्रव्य' कहलाते हैं। गुणों का आधार जो हो सकै, जिस में गुण का आधार होने की सामर्थ्य हो, वही 'द्रव्य' कहलाता है। और पृथिव्यादि जो नौ चीजें हैं उन्हीं में गुण रह सकते हैं। इन से अलग कोई गुण कहीं भी नहीं रह सकता है। इस से इन नवों चीजों में यही साधर्म्य है कि ये गुणों के आधार हो सकती हैं—अर्थात् द्रव्य हैं। इन नवों के और साधर्म्य ये हैं कि इन का विकार होता है, इन के गुण हैं, कार्य या कारण से इन का नाश नहीं होता और इन में अन्त्य विशेष होते हैं।

अवयव वाले द्रव्यों को छोड़ कर और जितने द्रव्य हैं उन का यह साधर्म्य हैं कि ये किसी आधार पर नहीं रहते और नित्य हैं।

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आत्मा और मन का यह साधर्म्य है कि ये अनेक हैं और इन की पर अपर दोनों तरह की जाति होती है।

पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और मन का यह साधर्म्य है कि इन में क्रिया होती है—ये मूर्त हैं अर्थात् स्थूल मूर्तिवाले हैं। इनमें परत्व अपरत्व और वेग है।

आकाश, काल, दिक्, आत्मा, इन का साधर्म्य यह है कि ये सर्वव्यापी हैं—इनका परिमाण परम है, ये इतने बड़े हैं कि जिस से बड़ा दूसरा नहीं हो सकता।

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इनका साधर्म्य है कि ये भूत है—एक एक बाह्य इन्द्रिय से ग्राह्य हैं। और इन्द्रियां इन्हीं के विकार हैं।

पृथिवी, जल, वायु, अग्नि इनका साधर्म्य है कि इनका स्पर्श होता है और ये ही समवाय कारण होते हैं।

पृथिवी, जल, अग्नि, का साधर्म्य है कि ये प्रत्यक्ष है, इन में रूप और द्रवत्व है।

पृथिवी, जल का साधर्म्य है कि इन्हीं में गुरुत्व और रस है।

पृथिव्यादि पांचों भूत और आत्मा, इनका साधर्म्य है कि इनके विशेष गुण होते हैं।

आकाश और आत्मा का साधर्म्य, हैं कि इनके जितने विशेष गुण हैं सब क्षणिक हैं और इनके एक एक अंशों ही में ये गुण रहते हैं।

दिक्, काल का साधर्म्य है कि कुल कार्यों के ये निमित्त कारण होते हैं।

पृथिवी, अग्नि का साधर्म्य है कि इनके नौमित्तिक द्रवत्व है।

रूप, रस, गन्ध,स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, अदृष्ट और शब्द—ये २४ 'गुण' हैं अर्थात् ये चौबीस द्रव्यों में रहते हैं और इनका स्वयं कोई कर्म नहीं है। यही इनका साधर्म्य है।

उत्क्षेपण (ऊपर फेकना)—अपक्षेपण (नीचे फेकना)—आकुंचन (सकोड़ना)—प्रसारण (फैलाना) और गमन (जाना या चलना), ये पांच 'कर्म' हैं। कर्म वही है जिस से दो वस्तुओं का संयोग उत्पन्न होता है। इस से पांच कर्म जो गिनाये हैं उनका साधर्म्य यही है कि ये संयोग उत्पन्न करते हैं। घूमना-बहना-जलना-गिरना इत्यादि जितनी क्रियायें हैं वे सब 'गमन' के अन्तर्गत हैं।  

पर और अपर ये दो 'सामान्य' हैं—सामान्य उसको कहते हैं जो नित्य है, एक है, और अनेक वस्तु में एक काल में रहता है। अर्थात् जिसके द्वारा अनेक वस्तुओं का एक ज्ञान हो सकता है। इस से यहीं पर अपर का साधर्म्य हुआ।

'विशेष' वे हैं जिनके द्वारा नित्य द्रव्य में विभेद होता है। अर्थात् जिनके द्वारा भिन्न भिन्न परमाणु का भिन्न भिन्न ज्ञान उत्पन्न होता है। जितने नित्य द्रव्य हैं उतने ही विशेष भी हैं। इनका यही साधर्म्य है कि ये नित्य द्रव्यों में रहते हैं और भिन्न भिन्न व्यक्ति को भिन्न भिन्न ज्ञान उत्पन्न करते हैं।

जो चीजें कभी एक दूसरे से अलग नहीं पाई जातीं और जो एक दूसरे का आधार होती हैं—इनका जो यह नित्य सम्बन्ध है उस को 'समवाय' कहते हैं। जितने ऐसे सम्बन्ध हैं उनका यही साधर्म्य है कि वे 'समवाय' अर्थात् नित्य सम्बन्ध हैं।

 

 

पदार्थों के साधर्म्य यों हैं। अब इनके वैधर्म्य का विचार करते है। अर्थात् किस पदार्थ में क्या खास गुण है क्या खास लक्षण है जिस से वह और पदार्थों से भिन्न समझा जाता है, यह एक एक पदार्थ को लेकर निरूपण करेंगे।

द्रव्य।

पदार्थों में सब से पहिले 'द्रव्य' कहा है। और पदार्थों से द्रव्य का वैधर्म्य यही है कि यह गुणों का और कर्मों का आश्रय होता है और यही समवायि कारण होता है। (सूत्र १.१.१५)। द्रव्य नव हैं—पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन।

पृथिवी।

पृथिवी का वैधर्म्य है गन्ध—अर्थात् गन्ध एक ऐसा गुण है जो केवल पृथिवी में रहता है और किसी द्रव्य में नहीं (सू. २.२.२)। इस के अतिरिक्त और गुण पृथिवी में ऐसे भी हैं जो और द्रव्यों में भी हैं, जैसे रूप, रस, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्य, संस्कार। सूत्र में (२.१.१.) 'रूप-रस-गंध-स्पर्शवती पृथिवी' ऐसा ही कहा है—पर भाष्य में ये चौदहों कहे हैं। रूप पृथिवी के शुक्ल आदि अनेक होते हैं। रस छः प्रकार के हैं—मीठा, खट्टा, लवण, कड़ुआ, तीता, कषाय। गंध दो प्रकार का है—सुगंध और दुर्गन्ध। स्पर्श इसका असल में न ठंढा ही है न गरम—परन्तु अग्नि के संयोग से बदलता रहता है।

पृथिवी दो प्रकार से संसार में पाई जाती है। नित्य और अनित्य। परमाणुरूप से नित्य और कार्य-स्थूल-वस्तु रूप से अनित्य। कार्य रूप पृथिवी से बनी हुई स्थूल चीज़ तीन प्रकार की होती है। शरीर, इन्द्रिय और विषय। आत्मा का भोगायतन—जिस आधार में रह कर आत्मा को सुख दुःख का भोग होता है उसको 'शरीर' कहते हैं। शरीर दो प्रकार के होते हैं—योनिज और अयोनिज। अयोनिज शरीर देवताओं और ऋषियों के होते हैं—इनके शरीर की उत्पत्ति में शुक्र शोणित संयोग की अपेक्षा नहीं होती। इनके धर्म का पृथिवी-परमाणुओं पर असर ऐसा पड़ता है कि इनके शरीर उत्पन्न हो जाते हैं। इसी तरह क्षुद्र कीड़े खटमल इत्यादि के शरीर भी बिना शुक्र शोणित संयोग ही के उत्पन्न होते हैं—केवल उनके अधर्म का असर पृथिवी परमाणुओं पर पड़ने से। शुक्र शोणित के मिलने से जो शरीर उत्पन्न होता है वही योनिज है। ये दो तरह के होते हैं। जरायुज, जैसे मनुष्यादि शरीर और अण्डज जैसे पक्षियों के शरीर।

जिस से संयुक्त होकर मन आत्मा का संयोग पाकर प्रत्यक्ष ज्ञान को उत्पन्न करता है उसी को इन्द्रिय कहते हैं। वैशेषिकों का मत है कि प्रत्यक्ष ज्ञान में जिस विषय का ज्ञान होता है उस का संयोग इन्द्रिय से होता है। फिर मन का संयोग उस इन्द्रिय से होता है, तब मन का संयोग आत्मा से होता है—तदनन्तर इस आत्मा में उस विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसीसे न्यायकंदली में (पृ॰ ३२) आत्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान का जो साधन या कारण है उसी को 'इन्द्रिय' कहा है। पृथिवी का बना हुआ इन्द्रिय वह है जिस से गन्ध का ग्रहण होता है—अर्थात् घ्राणेन्द्रिय—नाक। यह इन्द्रिय पृथिवी का

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।