वैशेषिक दर्शन/ भाग 1
बना है इस में सबूत यही है कि गुणों में गंध ही का ग्रहण इससे होता है और गंध गुण केवल पृथिवी में है।
पृथिवी के विषय मिट्टी, पत्थर, वृक्ष इत्यादि हैं। यद्यपि शरीर और इन्द्रिय का भी ज्ञान होता है—इससे ये भी 'विषय' कहला सकते हैं—पर जिस शरीर में या जिस इन्द्रिय के द्वारा आत्मा में ज्ञान होता है वह शरीर या इन्द्रिय उस आत्मा के ज्ञान का विषय नहीं होता। इसीसे शरीर और इन्द्रिय को 'विषय' से अलग कहा है। न्यायकन्दली (पृ॰ ३२) में शरीर और इन्द्रिय के अतिरिक्त जो आत्मा के उपभोग के साधन होते हैं उन्हीं को विषय कहा है। आत्मा के भोग–सुख दुःख–में जिनका उपयोग होता है अर्थात् जिनका ज्ञान होता है, जिन के पाने न पाने से आत्मा को सुख दुःख होता है, वे ही विषय हैं।
वृक्षों को प्रशस्तपाद ने 'विषय' माना है। कुछ लोगों का मत है कि इन में चेष्टा होती है, इस से वृक्षों को 'शरीर' कहना उचित है। ऐसा मत विश्वनाथ का है। पर शंकर मिश्र (उपस्कार में) कहते हैं कि इन में चेष्टा है इस का दृढ़ प्रमाण नहीं मिलता है, इससे यद्यपि इन में शरीरत्व हो भी तथापि इनको 'शरीर' कहना ठीक नहीं।
जल।
शीत स्पर्श जिस द्रव्य में है वही जल है [सूत्र २.२.५]। जल के गुण [सूत्र २.१.२ में] रूप रस स्पर्श द्रवत्व और स्नेह कहे हैं। पर भाष्य में उन के अतिरिक्त संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, संस्कार भी कहे हैं (पृ॰ ३५)। जल का रूप शुक्ल है। जब जल में दूसरा रंग देख पड़ता है तब वह रंग जल में मिली हुई किसी दूसरी चीज का है। जैसे लाल स्याही में से अगर लाल बुकंनी अलग कर दी जाय तो खाली पानी का रंग सफेद रह जायगा। जल का रस मीठा है। छः तरह के रस होते हैं। कड़ुआ, तीता, मीठा, खट्टा, लवण, कषाय। इन में से मीठा छोड़ कर और कोई भी रस पानी में नहीं पाया जाता। वैसे तो मीठापन भी साफ साफ नहीं मालूम होता, पर जब हर्रे या आँवला खाकर पानी पीया जाता है तो मीठापन साफ मालूम होता है। स्पर्श इस का शीत है। जब तक बाहर से गरमी न लगाई जाय तब तक पानी ठंढा ही मालूम होता है। स्वाभाविक द्रवत्व–अर्थात् बिना बाहर से गरमी लगाये हुये भी बहना–यह गुण केवल जल ही में है। और जितनी चीजें हैं वे गल कर तभी बह सकती हैं जब गरमी लगाई जाय। जल में ऐसा नहीं है, वह स्वयं बहता ही रहता है। स्नेह–चिकनाहट–भी जल ही का गुण है, बगैर जल के चिकनाहट नहीं होती।
परमाणु और कार्य—इन्हीं दो रूप में जल भी पाया जाता है। परमाणु नित्य है, कार्य अनित्य। शरीर इन्द्रिय विषय कार्यरूप जल के भी हैं। जलीय शरीर वरुण लोक में पाए जाते हैं। इन शरीरों में केवल जल ही रहता है ऐसा नहीं। मुख्य द्रव्य इन में जल रहता है, जैसे हम लोगों के शरीर में केवल पृथिवी नहीं है, पांचों भूत हैं तथापि ये पार्थिव कहलाते हैं क्योंकि प्रधान द्रव्य इन में पृथिवी है। जलीय इन्द्रिय है जिह्वा। विषय है नदी समुद्र बरफ़ इत्यादि।
तेजस् (अग्नि)।
उष्ण (गरम) स्पर्श जिस में है वही तेजस् या अग्नि है। गरमी केवल तेज ही में है (सूत्र २.२.४)। तेज के गुण सूत्र में (२.१.३) रूप और स्पर्श दो ही कहे हैं। पर भाष्य में इनके अतिरिक्त विशेष गुण संख्या परिमाण पृथक्त्व संयोग वियोग परत्व अपरत्व द्रवत्व संस्कार भी कहे हैं (पृ॰ ३८)। इसका रूप शुद्ध भास्वर—सफ़ेद चमकीला है। स्पर्श गरम है।
तेज भी दो प्रकार का है, परमाणु रूप और कार्यरूप शरीर इन्द्रिय विषय तीन प्रकार के कार्य हैं। तेजस शरीर अयोनिज सूर्यलोक के वासियों का ही है। तेजस इन्द्रिय आँख है। इससे केवल रूप का ग्रहण होता है। तेजस विषय चार प्रकार के हैं। भौम (भूमि सम्बन्धी) जैसे लकड़ी कोयले के जलाने से उत्पन्न आग; दिव्य—जैसे सूर्य नक्षत्रादि विद्युत् के तेज; उदर्य–प्राणियों के उदर सम्बन्धी–जैसे पेट की आग जिस से आहार का पाक होता है; आकरज–खान से उत्पन्न–जैसे सोना चांदी इत्यादि। भाम और दिव्य तेज का तेज होना तो साफ़ है। पेट की आग को आग इस लिये माना है कि बिना आग के किसी तरह का पाक नहीं हो सकता और बिना आग के गरमी भी नहीं उत्पन्न हो सकती; और हम देखते हैं कि पेट में जाकर अन्न पचता है, उसका रूपान्तर होता है और इस पचने से शरीर में गरमी पैदा होती है। इस से हम समझ सकते हैं कि पेट में आग है। सुवर्णादि धातु पिघल कर फिर पिछली ही अवस्था में रहते हैं न गरमी से ठोस ही हो जाते और न जल कर खाक ही होते हैं। इस से ये पृथिवी द्रव्य नहीं कहे जा सकते। इनका स्वरूप ठोस है इस से ये जल नहीं हो सकते। स्पर्श है इस से वायु नहीं। इस लिये इन को तेजस् अवश्य मानना चाहिये।
पदार्थ विद्या जिस अवस्था में प्राचीन समय में थी उसके अनुसार इस युक्ति का उत्तर नहीं हो सकता। पर अब हम लोग जानते हैं कि आज कल जितने गरमी पहुँचाने के यन्त्र हैं उनमें यदि सोना डाल दिया जाय तो भस्म हो जाता है। पुराने समय में भी रसायन शास्त्रवाले इनका भस्म करते थे पर यह भस्म औषधियों के द्वारा होता था इससे स्वतंत्र सोना भस्म होता है इस बात को वैशेषिकों ने नहीं स्वीकार किया।
तेजस् विषयों का एक और विभाग शंकर मिश्र ने काणादरहस्य में बतलाया है। (१) जिसका रूप और स्पर्श उद्भूत अर्थात् अनुभव योग्य हो, जैसे सूर्य का तेज। (२) जिसका रूप उद्भूत है पर स्पर्श अनुद्भूत, जैसे चन्द्रमा का तेज। (३) जिसके रूप और स्पर्श दोनों अनुद्भूत हैं जैसे आँखों का तेज। (४) जिसका रूप अनुद्भूत है और स्पर्श पूरे तौर पर उद्भूत, जैसे तपाई हुई मिट्टी की हांडी में या तपाए तेल में।
वायु।
जिस द्रव्यः में ऐसा स्पर्श है जो न गरम हो न ठंढा, वही वायु है। वायु के गुण हैं स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, संस्कार। वायु में रूप नहीं है। इससे पृथिवी, जल तेज की तरह यह आँख से देखी नहीं जाती। सूत्र के अनुसार वायु का प्रत्यक्ष नहीं होता। क्योंकि इस में रूप नहीं है (सूत्र ४१,७) भाष्य के भी मत में वायु का प्रत्यक्ष नहीं है (पृ॰ ४४)। यद्यपि वायु के स्पर्श का प्रत्यक्ष होता है तथापि इस को वायु का प्रत्यक्ष नहीं कह सकते। क्योंकि स्पर्श का केवल ज्ञान होता है स्पर्शवान् द्रव्य का प्रत्यक्ष नहीं होता। अर्थात् जैसे रूपवाली वस्तु में रूप रूपी दोनों का प्रत्यक्ष होता है, पीला फल और पीला रंग दोनों देख पड़ते हैं, वैसे स्पर्श और स्पर्शवाले वायु का प्रत्यक्ष नहीं होता है। केवल स्पर्श का ज्ञान होता है। स्पर्श एक गुण है। इसका आधार कोई द्रव्य अवश्य होगा। इसी से अनुष्ण अशीत स्पर्श के आधार वायु का अनुमान ही होता है। इस में वायु के गुण का प्रत्यक्ष है और वायु का अनुमान ही होता है ऐसा नैयायिकों का सिद्धान्त है। काणाद रहस्य में शंकर मिश्र और तर्कसंग्रह में अन्नम्भट्ट ने भी ऐसा ही माना है। परंतु नवीन नैयायिक वायु का प्रत्यक्ष भी मानते हैं।
वायु भी अणु कार्य रूप से दो प्रकार का है। कार्य रूप वायु चार प्रकार के हैं। (१) शरीर वायु, लोक के जीवों का है। (२) इन्द्रिय—जिस इन्द्रिय से स्पर्श का ज्ञान होता है वह त्वगिन्द्रिय वायु ही से बनी है और शरीर में सर्वत्र रहती है। (३) विषय जिस को हम लोग हवा कहते हैं, जिसके द्वारा वृक्ष हिलते हैं, बादल इधर उधर उड़ते हैं, जिसका अनुमान स्पर्श, शब्द, कम्प इत्यादि से होता है। वायु नाना है इस में यही प्रमाण है कि अकसर देखा गया है कि दो तरफ से हवा जोर से बहती है तो बीच में मिल कर दोनों की तेजी कट जाती है जिसे 'हवा गिर गई' ऐसा कहते हैं। और ऐसे विरुद्ध वायु वेग की टक्कर से धूल के या सूखी पत्तियों के चक्कर ऊपर उठते नजर आते हैं। (४) प्राण भी वायु का विषय है। यही शरीर के भीतर रस, मल, धातुओं का इधर उधर चालन करता है। यद्यपि यह है एक ही तथापि नाना कार्य करने के कारण से पांच माना गया है। जैसे मूत्रादि जिस वायु के द्वारा बाहर निकलता है उसे 'अपान' कहते हैं। जिस के द्वारा रस नाड़ियों में फैलता है उस को 'व्यान' कहते हैं। अन्न पानी जिस के द्वारा ऊपर आते हैं वह 'उदान' कहलाता है। जिस के द्वारा पेट की आग अन्न के पचाने के लिये इधर उधर चलाई जाती है उसे 'समान' कहते हैं। मुख और नाक के द्वारा जो बाहर निकलता है उसे 'प्राण' कहते हैं। (प्रशस्तपाद श्रीधरी टीका पृ॰ ४८)
प्राण हृदय में, अपान गुदा में, समान नाभि में, उदान कंण्ठ में, व्यान सर्वत्र शरीर में रहता है ऐसा पुराणों का मत है।
पृथिवी, जल, तेज, वायु कैसे उत्पन्न होते हैं।
आकाश, काल, दिक् और आत्मा इन चार द्रव्यों के अवयव नहीं होते। ये अपने रूप में सर्वदा बने रहते हैं। इन में घटती बढ़ती नहीं होती। इससे इनको नित्य माना है। इनकी उत्पत्ति नहीं होती नाश नहीं होता। पृथिवी आदि के अवयव होते हैं। इस से इनकी उत्पत्ति मानी गई हैं।
पृथ्वी आदि द्रव्यों की उत्पत्ति प्रशस्तपाद भाष्य (पृष्ट ४८, ४९) में इस प्रकार वर्णित है।
जीवों के कर्मफल के भोग करने का समय जब आता है तब महेश्वर की उस भोग के अनुकूल सृष्टि करने की इच्छा होती है। इस इच्छा के अनुसार जीवों के अदृष्ट के बल से वायु के परमाणुओं में चलन उत्पन्न होता है। इस चलन से उन परमाणुओं में परस्पर संयोग होता है। दो दो परमाणुओं के मिलने से द्वयणुक उत्पन्न होते हैं। तीन द्वयणुक मिलने से त्रसरेणु। इसी क्रम से एक महान् वायु उत्पन्न होता है। उसी वायु में परमाणुओं के परस्पर संयोग से जलद्वयणुक त्रसरेणु इत्यादि क्रम से महान् जलनिधि उत्पन्न होता है। इस जल में पृथ्वी परमाणुओं के परस्पर संयोग से द्वयणुकादि क्रम से महापृथ्वी उत्पन्न होती है। फिर उसी जलनिधि में तेजस् परमाणुओं के परस्पर संयोग से तेजस् द्वयणुकादि क्रम से महान् तेजोराशि उत्पन्न होती है। इसी तरह चारों महाभूत उत्पन्न होते हैं।
यही संक्षेप में वैशेषिकों का 'परमाणुवाद' है। इसमें पहिली बात विचारने की यह है कि परमाणु मानने की क्या आवश्यकता है। इस पर वैशेषिकों का सिद्धान्त ऐसा है कि जितनी चीजें हम देखते हैं और हमारे देखने योग्य हैं वे सब कई छोटे२ टुकड़ों से बनी हुई हैं। इन टुकड़ों के भी कई टुकड़े हैं। इस तरह एक२ टुकड़े को तोड़ते२ अन्त में जाकर ऐसे टुकड़े होंगे जिनके टुकड़ों को हम नहीं देख सकते। ऐसे टुकड़े का नमूना सूर्य की किरणों में जो छोटे२ कण देख पड़ते हैं उन्हें बतलाया गया है। इसके भी टुकड़े अवश्य होंगे क्योंकि मैं इसे देख सकता हूं। परन्तु इन टुकड़ों को मैं देख नहीं सकता। इसलिये इन टुकड़ों को अणु माना है। इस अणु के भी टुकड़े हैं, क्योंकि अगर इनके टुकड़े न होते तो इनसे बना हुआ पदार्थ देख नहीं पड़ता। इसी अन्तिम टुकड़े को 'परमाणु' कहते हैं। ऐसे दो परमाणुओं के मिलने से द्वयणुक, तीन द्वयणुकों के मिलने से एक त्रसरेणु, इस क्रम से सब वस्तु उत्पन्न होती हैं।
टुकड़ा करने का अन्त कहीं न कहीं अवश्य मानना होगा। नहीं तो संसार में जितनी चीजें हैं सब ही में अनन्त टुकड़े मानने पड़ेंगे। सभी वस्तु एक परिमाण की होंगी अर्थात् जितने अनन्त टुकड़े, पृथ्वी के खण्ड, एक छोटे से मिट्टी के ढेले में, होंगे वैसे ही अनन्त टुकड़े पहाड़ में भी होंगे। परन्तु यदि टुकड़ों का विराम परमाणु पर जाकर मान लिया जाय तो ऐसा नहीं होगा। छोटी चीज में थोड़े परमाणु होंगे बड़ी चीज में अधिक। इस तरह परमाणु भेद सिद्ध हो जाता है।
वैशेषिकों ने चार भूतों के चार तरह के परमाणु माने हैं, पृथ्वी परमाणु, जल परमाणु, तेज परमाणु, वायु परमाणु। पांचवें भूत आकाश के अवयव या टुकड़े नहीं हैं। वह निरवयव स्थिर भूत केवल शब्द का आधाररूप माना गया है। इन सब परमाणुओं के खास खास गुण हैं।
परमाणुओं का संयोग तीन प्रकार का होता है। (१) शुद्ध—एक भौतिक वस्तु की उत्पत्ति में अनवरत चलते हुए परमाणु दो दो कर के संयुक्त होकर द्वयणुक हो जाते हैं। फिर ये द्वयणुक तीन, चार, पांच, छ इस क्रम से इकट्ठे हो कर नाना वस्तु बन जाते हैं। प्राचीन वैशेषिकों का यही मत है। परन्तु कुछ लोगों का ऐसा मत है कि दो परमाणुओं के मिलने से द्वयणुक, तीन परमाणुओं के मिलने से त्रसरेणु इत्यादि बनते हैं। परन्तु वैशेषिकों का शुद्ध मत यही है कि दो परमाणु से द्वयणुक, तीन द्वयणुक से त्रसरेणु, चार द्वयणुक से चतुरणुक इत्यादि। जैसे जैसे गुण परमाणु में होंगे वैसे ही वैसे गुण उनसे बने हुए सब वस्तुओं में होंगे। अर्थात् जो गन्ध जो गुरुत्व इत्यादि पृथ्वीपरमाणु में हैं वे ही सब पार्थिव वस्तुओं में हैं। वैशेषिकों का सिद्धान्त हैं कि कारणगुण पूर्वक ही कार्य के गुण होते हैं। पृथ्वी वायु इत्यादि भूतों की बनी वस्तु नाना आकार नाना रूप की होती है इसका कारण यह है कि भिन्न भिन्न वस्तु के द्वयणुकों का या त्रसरेणुकों का संनिवेश, गठन, भिन्न भिन्न तरह का है। सामान्य रूप से यद्यपि वस्तुओं के गुण इस प्रकार तथापि तेज (अग्नि) के संबन्ध से वस्तुओं के गुण में फेर फार आ जाता है, जैसे कच्चा घड़ा पकाये जाने पर लाल हो जाता है। इसमें वैशेषिकों का यह मत है कि अग्नि की तेजी से घड़े के टुकड़े२ हो जाते हैं। इस तरह परमाणुओं का रङ्ग बदल कर लाल हो जाता है। ये लाल परमाणु आपस में मिल मिला कर घड़े के रूप से परिणत होते हैं। यह घड़े का नष्ट और उत्पन्न होना ऐसे सूक्ष्म काल में होता है कि हम लोग इसे देख नहीं सकते। यही मत 'पीलुपाक मत' कहलाता है। नैयायिकों का मत ऐसा नहीं है। उनका मत है कि इस प्रकार अदृश्य नाश और उत्पत्ति मानने की कुछ आवश्यकता नहीं है। सब वस्तु में परमाणुओं का या द्वयणुकों का संयोग इस प्रकार रहता है कि उनके बीच बीच में छिद्र रह जाते हैं। इन्हीं छिद्रों में अग्नि का तेज जाकर परमाणुओं का रूप बदल कर घट इत्यादि के रूप को बदल देता है (न्यायवार्तिक ३.१.४)।
(२) कई वस्तु ऐसी हैं जो कि एक ही भूत के बने हुए दो वस्तुओं के संयोग से उत्पन्न होकर उन दोनों वस्तुओं से भिन्न रूपादि गुण वाली उत्पन्न हो जाती हैं। जैसे शुक्र और शोणित के संयोग से शरीर उत्पन्न होता है। इसमें भी अग्नि के तेज के द्वारा शुक्रपिंड और शोणित पिण्ड दोनों खण्ड खण्ड होकर परमाणु रूप से अवस्थित होते हैं और फिर उसी तेज के बल से अपने खास खास गुण को खो कर एक सामान्य गुण का ग्रहण करते हैं। फिर परस्पर द्वयणुकादि क्रम से संयुक्त हो कर शरीर रूप से परिणत हो जाते हैं। यह तो एक भूत के बने हुए का संयोग हुआ। कभी कभी भिन्न भूतों से बने हुए वस्तुओं का संयोग देख पड़ता है। जैसे दूध में, तेल में, फलों के रस में पार्थिव और जलीय वस्तुओं का संयोग पाया जाता है। इन सब में पृथ्वी परमाणु जल में घुल कर जब जल परमाणु से वेष्टित हो जाते हैं तब जल परमाणु के उपष्टम्भ या जोर से पृथ्वी परमाणु में तेज के द्वारा भिन्न भिन्न प्रकार के रूप, रस, गंध इत्यादि उत्पन्न हो जाते हैं। यहां एक भेद झिरणावली में बतलाया है। उपष्टम्भक पांचों भूत हो सकते हैं। अर्थात् परमाणुओं के गुण परिवर्तन में पृथ्वी जल वायु सभी प्रवर्तक हो सकते हैं। परन्तु ऐसे परिवर्तन का निरोधक केवल पृथ्वी परमाणु हो सकता है।
(३) कुछ द्रव्यों के संयोग ऐसे हैं कि ये परमाणु तक नहीं जाते, केवल ऊपर ऊपर संयोग मात्र है। जैसे जब मांस जल में पकाया जाता है तव मांस के पृथ्वी परमाणु में या जल के परमाणु में कुछ भेद नहीं उत्पन्न होता है।
अग्नि के संयोग से परमाणुओं के गुण बदलते हैं। जहां प्रत्यक्ष अग्नि नहीं देख पड़ती वहां वस्तु के भीतर अग्नि है ऐसा सिद्धान्त वात्स्यायन का है (४-१-४७)। परन्तु किरणावली में सिद्धान्त किया है कि जहां जहां तेज के संयोग से गुण का परिवर्तन होता है तहां तहां सूर्य के किरणों ही का व्यापार मान लेना उचित है।
भिन्न भिन्न भूतों के बने हुए वस्तु जब मिलते हैं, जैसे पृथ्वी और जल फल के रस में, तब पृथ्वी परमाणु जल परमाणु से नहीं मिलते किन्तु एक पृथ्वी द्वयणुक एक जल द्वयणुक से संयुक्त होकर एक टुकड़ा हुआ, फिर ऐसे ही द्वयणुक के जोड़े बनकर एक दूसरे से संयुक्त हो जाते हैं। (प्रशस्तपाद, संयोग प्रकरण)।
आकाश।
पांचवां द्रव्य आकाश है। शब्द गुणवाले द्रव्य को आकाश कहते हैं। इसके गुण हैं शब्द, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग। शब्द एक गुण है। इससे यह किसी द्रव्य में रहेगा। जितने द्रव्य स्पर्श वाले हैं, जिनका स्पर्श हो सकता, जिनको हम छू सकते हैं, ऐसे द्रव्योँ का गुण शब्द नहीं हो सकता क्योंकि स्पर्शवान् द्रव्य के जितने गुण हैं सब जब तक वह द्रव्य रहता है तब तक स्थित रहते हैं और उस द्रव्य के अतिरिक्त और द्रव्योँ में भी पाये जाते हैँ। जैसे लाल रंग, जब तक घट रहेगा तब तक रहेगा। और घट के अतिरिक्त और द्रव्योँ में (कपड़े इत्यादि में) भी यह रंग रहता है। शब्द ऐसा नहीं है। इससे स्पर्शवाले द्रव्यों का गुण शब्द नहीं होसकता। अर्थात् पृथ्वी जल वायु अग्नि इन चार का गुण शब्द नहीं है। फिर आत्मा के जितने गुण हैँ, बुद्धि इत्यादि, ये किसी वाह्य इन्द्रिय से नहीं जाने जा सकते हैँ। और शब्द कान से गृहीत होता है। इससे शब्द आत्मा का गुण नहीं हो सकता। इसी कारण मन का भी गुण नहीं हो सकता। दिक्काल के भी जितने गुण हैँ उनका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। इससे शब्द इनका भी गुण नहीं हो सकता है। पृथ्वी जल वायु अग्नि आत्मा काल दिक् मन इन आठ द्रव्यों का गुण शब्द नहीं हो सकता। इससे बाकी जो नवम द्रव्य आकाश रहा उसी का गुण शब्द माना गया है। सारांश यह है कि शब्द गुण जिस द्रव्य में रहता है उसी द्रव्य का नाम आकाश है।
शब्द एकही माना गया है और शब्दही आकाश का चिह्न है। इससे आकाश भी एकही है। परिमाण इसका 'परम महत्' है अर्थात् जिससे बड़ा नहीं हो सकता। आकाश की उत्पत्ति या नाश कभी नहीं देखे जाते, इससे वह नित्य है। शब्द आकाश का गुण है इससे शब्द का भान जिस इन्द्रिय से होता है—कान—उसको वैशेषिकों ने आकाशही माना है। अर्थात् कान के भीतर जो आकाश है उसीके द्वारा शब्दज्ञान होता है।
आकाश विभु सर्वत्र व्याप्त है। इसीसे इसका ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता। अनुमान ही से इसका ज्ञान होता है। शब्द गुण का आधार द्रव्य कोई अवश्य होगा। पृथ्वी आदि द्रव्य शब्द के आधार नहीं हो सकते हैँ। इससे आकाश एक द्रव्य है—इसी अनुमान से आकाश सिद्ध होता है।
काल
छठाँ द्रव्य काल है। द्रव्यों के विषय में ऐसे ज्ञान होते हैं कि यह इसके आगे हुआ था पीछे—या 'ये दोनों साथ ही देख पड़े,'—'यह जल्दी देख पड़ा', 'वह देर से देख पड़ा'। इन ज्ञानों का जो असाधारण कारण है उसी को वैशेषिकों ने "काल" माना है (सूत्र २-२-६)। द्रव्यों के जितने उत्पत्ति और नाश होते हैं किसी न किसी काल में होते हैं। इससे उन उत्पत्तिनाशों का भी कारण काल को माना है (सूत्र २-२-९)। क्षण, लव, निमेष, काष्ठा, कला, मुहूर्त्त, याम, अहोरात्र, अर्धमास, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, कल्प, मन्वन्तर, प्रलय, महाप्रलय इत्यादि शब्दों का जो प्रयोग होता है उसका भी असाधारण कारण काल ही है। संख्या परिमाण पृथक्त्व संयोग विभाग काल के गुण हैं। आकाश की तरह काल भी विभु अर्थात् सर्वव्यापी है। जहां जो कुछ है वह अवश्य किसी काल में है। इस से इसका भी परिमाण महत् परिमाण माना गया है। काल अमूर्त है। अतएव इसका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, केवल अनुमान ही होता है। यद्यपि असल में यह एक है तथापि उपाधियों के द्वारा क्षण इत्यादि अनेक नामोंसे प्रसिद्ध होता है। जैसे किसी काल में किसी वस्तु के उत्पन्न होने की सामग्री जुट गई है इसके बाद उस वस्तु के उत्पन्न होने तक जो सूक्ष्म काल है उसको क्षण कहते है। अर्थात् जैसे दिन में हमने बाग़ की तरफ आँख उठाई और फूलों को देखा। नज़र के फूलों पर पड़ने और उनके देखे जाने के बीच में जो सूक्ष्म काल हुआ वही 'क्षण' कहलाता है। दो क्षण का एक लव, दो लव का एक निमेष [आँख की पलक के गिरने में जितना काल लगता है], अठारह निमेष की काष्ठा, तीस काष्ठा की कला, तीस कला का मुहूर्त्त, साठ मुहूर्त्त का अहोरात्र (दिन रात), पन्द्रह अहोरात्र का पक्ष, दो पक्षका मास, दो मास का ऋतु, तीन ऋतु का अयन, दो अयन का वर्ष—इत्यादि किरणांवली में वर्णित है।
दिक्
सातवां द्रव्य दिक् है। जब हम लोग दो सूर्त्त पदार्थों को देखते हैं तब किसी एक को अवधि मान कर 'इससे वह द्रव्य पूर्व में है, वह पश्चिम में' इत्यादि ज्ञान होते हैं। इसी ज्ञान का असाधारण कारण दिक् है। काल और दिक् में यही मुख्य भेद है कि कालिकसम्बन्ध स्थिर रहता है और दैशिकसम्बन्ध बदलता है, अर्थात् दो भाइयों में किसकी उत्पत्ति पहले और किसकी बाद को, कौन जेठा है कौन छोटा, यह ज्ञान कभी बदल नहीं सकता। जो पहिले हो गया वह सदा पहि
यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।
यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।