वैशेषिक दर्शन/ भाग 4

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वैशेषिक दर्शन  (1921) 
द्वारा गंगानाथ झा

[ ३८ ]इच्छा करते हैं। सुख की इच्छा ऐसी नहीं है। सुख की इच्छा केवल सुख ही के लिये होती है।

माला चन्दन इत्यादि अभीष्ट वस्तु के पाने पर उन वस्तुओं का इन्द्रियों के साथ सन्निकर्ष होता है, फिर पूर्व जन्म कृत धर्म के ज़ोर से आत्मा मन का संयोग होता है, इन कारणों से एक चित्त में ऐसा भाव उत्पन्न होता है जिससे मनुष्य के चेहरे पर एक तरह का उजियाला छा जाता है। इसी भाव को 'सुख' कहते हैँ। (प्रशस्तपाद. पृ॰ २५९)

वर्तमान जितनी चीज़ें हैँ उनकी प्राप्ति से इस प्रकार सुख इन्द्रिय सन्निकर्ष द्वारा उत्पन्न होता है। भूत वस्तुओं से सुख उनके स्मरण से ही होता है। और भविष्यत् वस्तुओं से सुख उनके प्रसंग संकल्प–पाने की इच्छा–करने से होता है। ज्ञानियों को जो केवल ध्यानादि से अपूर्व सुख मिलता है उसका कारण उनकी विद्या, ज्ञान, श्रम, सन्तोष और विशेष प्रकार का धर्म है।

दुःख (१३)

किसी तरह का अभिघात हानि जिससे सूचित हो उसी को दुःख कहते हैं। जिसका द्वेष स्वतंत्र उसी के द्वारा हो वही दुःख है। और चीज़ों पर द्वेष केवल उनके दुःख उत्पन्न करने पर निर्भर है। जब विष इत्यादि अनभिप्रेत वस्तु सामने आती है तब उस वस्तु का इन्द्रियों के साथ संयोग होता है, फिर पूर्व जन्म कृत अधर्म के द्वारा आत्मा मन का संयोग द्वारा एक ऐसा भाव चित्त में उत्पन्न होता है जिससे आदमी के चेहरे पर दीनता और मलिनता छा जाती है—इसी भाव को 'दुःख' कहते हैं। वर्तमान काल की वस्तु से दुःख प्रत्यक्ष होता है, भूत वस्तुओं से स्मृति द्वारा और भविष्यद् वस्तुओं से संकल्प द्वारा।

इच्छा (१४)

जो वस्तु अपने पास नहीं है उसके मिलने के लिये जो प्रार्थना अपने लिये या दूसरे के लिये चित्त में उठती है—उसी को 'इच्छा' कहते हैं। जब किसी वस्तु के द्वारा सुख मिल चुका है तब जब कभी वह वस्तु सामने आती है या उसका स्मरण होता है तब उस [ ३९ ]से प्राप्त सुख का भी स्मरण होता है, फिर आत्मा मन के संयोग से उस वस्तु के पाने की अभिलाषा उत्पन्न होती है, वही 'इच्छा' है। यह इच्छा स्वार्थ भी है—'मुझे यह वस्तु मिले', और परार्थ भी 'फलाने आदमी को यह मिले'। प्रयत्न, स्मरण, धर्म, अधर्म इतने इच्छा के फल होते हैं। जब किसी वस्तु के पाने की इच्छा होती है तब उसके पाने के लिये प्रयत्न किया जाता है। जब किसी वस्तु के स्मरण करने की इच्छा हुई तो उस वस्तु का स्मरण होता है। स्वर्ग पाने की इच्छा से यज्ञादि करने से धर्म उत्पन्न होता है। निषिद्ध कर्म के करने की इच्छा से अधर्म होता है।

इच्छा अनेक प्रकार की है—

स्त्री सुख की इच्छा को 'काम' कहते हैं। भोजन की इच्छा को 'अभिलाष'। फिर फिर किसी वस्तु का सुख मिले ऐसी इच्छा को 'राग' कहते। जो वस्तु अभी नहीं है, आगे आने वाली है, उस वस्तु के अभी प्राप्त करने की इच्छा 'संकल्प,' अपनी इच्छा का कुछ भी विचार न कर दूसरे के दुःख को दूर करने की इच्छा 'कारुण्य', वस्तुओं का दोष देखकर उन वस्तुओं को अपनी ओर से हटाने की इच्छा को 'वैराग्य' दूसरों को ठगने की इच्छा, 'उपधा' बाहर व्यक्त नहीं हुई मन ही में छिपी हुई इच्छा को 'भाव' किसी काम के करने की इच्छा को 'चिकीर्षा' कहते हैं, स्त्री की पुरुष विपथिणी इच्छा को भी, 'काम' कहते हैं। इस प्रकार इसके अनन्त भेद हैं।

द्वेष (१६)

किसी वस्तु को देखकर या उसका स्मरण होने पर चित्त में जो जलन पैदा होती है इसी जलन को 'द्वेष' कहते हैं। जब किसी से अपने को दुःख पहुंचा है तब फिर जब कभी वह वस्तु सामने आती है या उसका स्मरण होता है तो उस दुःख का भी स्मरण होता है। फिर आत्मा मन के संयोग से द्वेष उत्पन्न होता है। यह भी इच्छा की तरह प्रयत्न स्मृति धर्म और अधर्म को उत्पन्न करता है। द्वेष भी कई प्रकार का होता है।

प्रयत्न (१७)

'प्रयत्न' कहते हैं संस्मरण को, उत्साह को। अर्थात् जब किसी [ ४० ]काम करने को चित्त उत्तेजित होता है इसी उतेजित उत्साहित होने को 'प्रयत्न' कहते हैं।

प्रयत्न दो प्रकार का है—१) जीवनपूर्वक यह प्रयत्न है जिससे सोये हुये आदमी का श्वास पर श्वास चलता है, या जागते हुये आदमी का भी जिस प्रयत्न के द्वारा मन का संयोग इन्द्रियों के साथ हुआ करता है। इस प्रयत्न की उत्पत्ति धर्म अधर्म के द्वारा आत्मा मन के संयोग से होती है। (२) इच्छाद्वेषपूर्वक प्रयत्न वह है जिसके द्वारा इष्ट वस्तु के पाने के लिये और अनिष्ट वस्तु को दूर करने के लिये व्यापार किया जाता है। इसकी उत्पत्ति इच्छा या द्वेष के द्वारा आत्मा मन के संयोग से होती है।

गुरुत्व (१८)

जलीय और पार्थिव पदार्थ जिस गुण के द्वारा ऊपर से नीचे गिरते हैँ उसी गुण को 'गुरुत्व' कहते हैँ। इस गुण का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। कोई वस्तु जब गिरती देख पड़ती है तब इसी गिरने से यह अनुमान किया जाता है कि इसमें गुरुत्व है क्योंकि बिना गुरुत्व के गिरना असम्भव है। संयोग प्रयत्न और वेग से इस गुण का व्यापार रोका जाता है। जैसे मकान की छत पर जब आदमी चढ़ता है तब जो अपने गुरुत्व से वह नीचे नहीं गिर जाता इसका कारण यही है कि उस समय उस आदमी का छत के साथ संयोग है। शरीर खड़ा रहता है इस का कारण शरीर वाले का प्रयत्न ही है। धनुष से जब वाण छूटता है तब बाहर निकलते ही वह नहीं गिर जाता है इसमें कारण उस वाण का वेग ही है। ज्योंही वेग समाप्त होता है त्योंही वाण जमीन पर गिर पड़ता है। पृथिवी और जल, परमाणु के गुरुत्व नित्य हैं ओर स्थूल वस्तुओं में अनित्य हैं। आश्रय विनाश ही से गुरुत्व का विनाश होता है।

द्रवत्व (१९)

जिस गुण के द्वारा वस्तुओं का स्यन्दन, बहना, होता है उसे 'द्रवत्व' कहते हैँ। पृथिवी, जल, अग्नि इन तीन द्रव्यों में द्रव्य रहता है। द्रवत्व दो प्रकार का है—सांसिद्धिक और स्वाभाविक। [ ४१ ]और नैमित्तिक, किसी कारण से उत्पन्न। स्वाभाविक द्रवत्व केवल जल ही में है नैमित्तिक द्रवत्व पृथिवी और जल में है।

बर्फ का टुकड़ा यद्यपि जल का विकार है इसमें स्वाभाविक द्रवत्व है परंतु जल परमाणु अग्नि के संयोग से ऐसे परस्पर संयुक्त हो जाते हैं कि इस संयोग से जलपरमाणु का स्वाभाविक द्रवत्व तब तक रुक जाता है।

पृथिवी और तेज में अग्नि संयोग से द्रवत्व उत्पन्न होता है। द्रवत्व की उत्पत्ति रूप की तरह होती है। अर्थात् किसी पार्थिव वस्तु में–लाह में–जब द्रवत्व उत्पन्न होगा तब अग्नि संयोग द्वारा उस वस्तु का नाश होगा फिर उस वस्तु के परमाणुओं में द्रवत्व उत्पन्न होगा–फिर द्रवत्व सहित परमाणुओं का संयोग होकर–फिर से द्रवत्वगुणवाली वस्तु उत्पन्न हो जायगी।

स्नेह (२०)

स्नेह–चिकनाहट–जल का विशेष गुण है। यह वही गुण है जिसके द्वारा वस्तुओं का संग्रह (कई पिंडों का एक साथ मिलकर एक पिंड बन जाना), सफाई और कोमलता उत्पन्न होते हैं। यह भी परमाणुओं में नित्य और स्थूल वस्तुओं में अनित्य है—आश्रयनाश से इस का भी नाश होता है।

संस्कार (२१)

संस्कार तीन प्रकार का होता है (१) वेग–(२) भावना–(३) स्थितिस्थापक।

(१) इनमें से वेग–'तेजी'–पांचो मूर्त द्रव्यों में–पृथिवी जल वायु अग्नि और मन–में खास खास कारणों से उत्पन्न होता है। इससे द्रव्यों के संयोग का नाश होता है।

(२) अनुभव–प्रत्यक्षादि–होने के बाद जो उन अनुभवों का कुछ अंश चित्त में रह जाता है–उसी के द्वारा उन अनुभूत वस्तुओं का स्मरण होता है और ये फिर पहिचाने जाते हैं। उसी को 'भावना' कहते हैं–उसका 'वासना' भी दूसरा नाम कहा गया है। सामान्यतः 'संस्कार' नाम से भी यही संस्कार प्रसिद्ध है। यह संस्कार केवल आत्मा में रहता है। बार बार जिस वस्तु का अनुभव होता है उससे उस वस्तु की भावना चित्त में बन जाती है। जिस [ ४२ ]अनुभव का चित्त पर बड़ा असर पड़ता है उसकी भी भावना दृढ़ उत्पन्न होती है। जिस वस्तु के देखने की बड़ी अभिलाषा हो उस वस्तु को जब लोग देखलेते हैं तो इस अनुभव से भी दृढ़ वासना उत्पन्न होती है।

(३) स्थिति स्थापक संस्कार उस लपक (लचक) को कहते हैं जिसके द्वारा रबड़ का टुकड़ा खींचे जाने के बाद फिर पुराने स्वरूप पर आजाता है। यह संस्कार उन्हीं द्रव्यों में रहता है जिन का स्पर्श होता है—पृथिवी जल वायु और अग्नि में। इसकी नित्यता अनित्यता गुरुत्व की तरह होती है।

अदृष्ट-धर्म-अधर्म (२२)

जो काम आदमी करता है वह भला या बुरा होता है। और हर एक काम के करने से उस आदमी के चित्त पर एक तरह का असर पड़ता है—इसी असर को 'अदृष्ट' कहा है क्योंकि यह देखा नहीं जा सकता। अच्छा काम करने से जो असर या संस्कार पैदा होता है उसको 'धर्म' कहते हैं और बुरे काम के असर को 'अधर्म'। ये दोनों मनुष्य के आत्मा के गुण हैं। क्योंकि कर्मों का असर शरीर पर नहीं रहता—शरीर नष्ट हो जाने पर धर्म अधर्म का फल भुगता जाता है। इससे आत्माही के ये धर्म-अधर्म गुण माने गए हैं।

आदमी का प्रिय-हित सय वस्तु और मोक्ष धर्म से सिद्ध होता है। चरम ज्ञान से और चरम सुख से धर्म का नाश होता है, अर्थात् चरम सुख जब मिल गया तब सब धर्म का मानो फल प्राप्त हो चुका फिर और धर्म बाकी नहीं रह जाता। इसी तरह जब तक सुख उत्पन्न करनेवाले धर्म का कुछ भी लेश बाकी रह जायगा तब तक मोक्ष नहीं होगा। इससे जब मोक्ष होगा तब धर्म बाकी नहीं रहेगा।

धर्म के साधन भिन्न भिन्न जाति भिन्न भिन्न आश्रमों के लिये पृथक पृथक कहे गए हैं। श्रौतस्मृति में विहित–करने योग्य उपभोग के योग्य प्राप्त करने के योग्य–जितने द्रव्य गुण और कर्म हैं ये सब धर्म के साधन होते हैं। धर्म में श्रद्धा, अहिंसा, प्राणियों [ ४३ ]पर दया, सत्य बोलना, चोरी से बचना, इन्द्रियनिग्रह, छल न करना, क्रोध का रोकना, स्नान, पवित्र द्रव्य का भोजन पान, देवता विशेष पर भक्ति, उपवास, आचरण में सावधानी—ये सब मनुष्यों के लिये सामान्यधर्म के साधन होते हैं। इनके अतिरिक्त ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यों के लिये यज्ञ करना, वेद पढ़ना, दान करना, ब्राह्मणों के लिये इनके अतिरिक्त पढ़ना और दान लेना, क्षत्रियों के लिये प्रज्ञापालन, दुष्टों को दंड देना, युद्ध में डटे रहना, वैश्यों के लिये वाणिज्य, खेती, शूद्रों के लिये और वर्णों की सेवा, पृथक् पृथक् आश्रम के धर्म यों हैं। ब्रह्मचारी के लिये—गुरु के पास रहना, गुरु शुश्रूषा, सेवा, भिक्षाचरण, मद्य मांस स्त्री का वर्जन सब तरह की शानदारी से हटे रहना। गृहस्थ स्नातकों के लिये, विवाह, सद्दृत्ति से उपार्जित धन से अपने को। और अपने कुटुम्ब को पालना, सब प्राणियों को और देवताओं को बलि देना, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, ऋषियज्ञ, मनुष्ययज्ञ और भूतयज्ञ नित्य करना अग्निहोत्र इत्यादि। वानप्रस्थ के लिये वनवास, वृक्ष की छाल पहिंनना, बाल न काटना, वन में उत्पन्न पदार्थों ही से देव और अतिथि पूजन करके अपनी जीविका निवाहना। संन्यासी के लिये—सब जन्तुओं को अभय देना, यमनियमासनादिसेवन। ऊपर फहे हुए साधनों के द्वारा आत्मा मन के संयोग होने पर आत्मा में धर्म गुण उत्पन्न होता है।

अधर्म भी आत्मा का गुण है। करने वाले के अहित अप्रिय का कारण होता है। चरम दुःख और चरम ज्ञान से यह नष्ट होता है। शास्त्र में प्रतिविद्ध जितने द्रव्यगुण कर्म हैं इनका सेवन अधर्म का कारण होता है। धर्म के जितने साधन कहे गये हैं उनके विरुद्ध जितने द्रव्यगुण कर्म हैं, वे अधर्म के कारण हैं। जैसे हिंसा, चोरी करना, शास्त्र विहित कर्म का न करना इत्यादि। इन कारणों के द्वारा आत्मा मन के संयोगसे आत्मा में अधर्म गुण उत्पन्न होता है।

अदृष्ट, धर्माधर्म, संसार में जन्म का और संसार से मुक्ति का भी कारण होता है।

जब तक आदमी को असल ज्ञान नहीं प्राप्त होता तब तक राग और द्वेष उसके चित्त में बने रहते हैं। ऐसा आदमी जब [ ४४ ]अधिकतर धर्म करता है और थोड़ा सा अधर्म का अंश भी रहता है तब मरने पर ऐसे आदमी का आत्मा अपने अदृष्ट के अनुसार शरीर धारण करके ब्रह्मलोक में या इन्द्रलोक में या मनुष्य लोक ही में शरीर इन्दियों के द्वारा सुख भोग करता है। और जब इस के अधिक अधर्म और थोड़ा ही धर्म रहता है तब क्षुद्र जन्तुओं के शरीर में नाना प्रकार के दुःख भोग करता है। इसी तरह धर्म अधर्म के द्वारा आत्मा स्वर्ग लोक में या पृथिवी में सुख दुःख भोगने के लिये जन्मग्रहण करता है।

जब तत्त्वज्ञान प्राप्त होगया तब अज्ञान के नष्ट हो जाने से राग द्वेष भी नष्ट होजाते हैं। फिर इनके दूर होजाने से नया धर्म अधर्म उत्पन्न नहीं होता। पहिले का जितना धर्म अधर्म है उनके फल का जब भोग समाप्त हो जाता है तब वे धर्म अधर्म भी नष्ट होजाते हैं। आगे सुख दुःख उत्पन्न करनेवाले धर्म अधर्म तो होते ही नहीं फिर किस वास्ते ऐसे आत्मा का जन्म होगा। फिर वर्तमान शरीर के नष्ट होजाने पर उसका जन्म नहीं होता। यही उस आत्मा का 'मोक्ष' हुआ।

शब्द (२३)

शब्द आकाश का गुण है। इसका प्रत्यक्ष श्रोत्रेन्द्रिय से होता है। एक क्षणमात्र यह अवस्थित रहता है। इसका नाश इसी से उत्पन्न शब्दान्तर से होता है।

शब्द दो प्रकार का है—वर्णरूप और ध्वनिरूप। 'अकार', 'ककार' इत्यादि वर्णों के उच्चारण में जो शब्द उत्पन्न होता है सोही वर्ण-रूप है। शंख इत्यादि के बजाने से जो अस्पष्ट शब्द होता है उसी को 'ध्वनि' कहते हैं। वर्णलक्षण शब्द की उत्पत्ति स्मृति के द्वारा आत्मा मनस के संयोग से उत्पन्न होती है। पहिले वर्ण उच्चारण करने की इच्छा होती है, फिर उच्चारण करनेवाले का प्रयत्न, फिर इस प्रयत्नवान् आत्मा का शरीरस्थ वायु से संयोग, इस संयोग से वायु में चयन क्रिया—यह वायु उदर से ऊपर को चलकर कण्ठ तालु आदि सुख के नाना स्थानों में लगता है। इन स्थानों से वायु का संयोग होता है और फिर इन्हीं स्थानों से आकाश का

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