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शिवशम्भु के चिट्ठे/४-पीछे मत फेंकिये

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शिवशम्भु के चिट्ठे
बालमुकुंद गुप्त, संपादक विजयेन्द्र स्नातक

नई दिल्ली: दिग्दर्शन चरण जैन, पृष्ठ ३० से – ३४ तक

 
[४]
पीछे मत फेंकिये

माइ लार्ड! सौ साल पूरे होनेमें कई महीनोंकी कसर है। उस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनीने लार्ड कार्नवालिसको दूसरी बार इस देश का गवर्नर-जनरल बनाकर भेजा था। तब से अब तक आप ही को भारतवर्षका फिरसे शासक बनकर आनेका अवसर मिला है। सौ वर्ष पहलेके उस समयकी ओर एक बार दृष्टि कीजिये! तबमें और अबमें कितना अन्तर हो गया है, क्या से क्या हो गया है। जागता हुआ रंक अति चिन्ताका मारा सो जावे और स्वप्नमें अपनेको राजा देखे, द्वार पर हाथी झूमते देखे अथवा अलिफलैला के अबुलहसनकी भांति कोई तरुण युवक प्यालेपर उड़ाता घरमें बेहोश हो और जागनेपर आंखें मलते-मलते अपने को बगदाद का खलीफा देखे, आलीसान सजे महलकी शोभा उसे चक्कर में डाल दे, सुन्दरी दासियोंके जेवर और कामदार वस्त्रोंकी चमक उसकी आंखोंमें चकाचौंध लगा दे तथा सुन्दर बाजों और गीतोंकी मधुर ध्वनि उसके कानोंमें अमृत ढालने लगे— तब भी उसे शायद आश्चर्य न हो, जितना सौ साल पहले के भारतमें अंगरेजी राज्यकी दशाको आजकलकी दशाके साथ मिलानेसे हो सकता है।

जुलाई सन् १८०५ ई० लार्ड कार्नवालिस दूसरी बार भारतके गवर्नर-जनरल होकर कलकत्तेमें पधारे थे। उस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनीकी सरकारपर चारों ओरसे चिन्ताओंकी भरमार हो रही थी, आशंकाएं उसे दम नहीं लेने देती थीं। हुलकरसे एक नई लड़ाई होनेको थी। सेंधियासे लड़ाई चलती थी। खजानेमें बरकत-ही-बरकत थी। जमीनका कर वसूल होने में बहुत देर थी। युद्धस्थलमें लड़नेवाली सेनाओंको पांच-पांच महीनेसे तनख्वाह नहीं मिली थी। विलायतके धनियोंमें कम्पनीका कुछ विश्वास न था। सत्तर सालका बूढ़ा गवर्नर-जनरल यह सब बातें देखकर घबराया हुआ था। उससे केवल यही बन पड़ा कि दूसरी बार पदारूढ़ होने के तीन ही मास पीछे गाजीपुरमें जाकर प्राण दे दिया। कई दिन तक इस बातकी खबर भी लोगोंने नहीं जानी। आज विलायतसे भारत तक दिनमें कई बार तार दौड़
जाता है। कई एक घण्टोंमें शिमलेसे कलकत्ते तक स्पेशल ट्रेन पार हो जाती है। उस समय कलकत्तेसे गाजीपुर जानेमें बड़े लाटको कितने ही दिन लगे थे। गाजीपुरमें उनके लिये कलकत्तेसे जल्द किसी प्रकारकी सहायता पहुंचने का कुछ उपाय न था।

किन्तु अब कुछ और ही समय है। माइ लार्ड! लार्ड कार्नवालिसके दूसरी बार गवर्नर-जनरल होकर भारतमें आने और आपके दूसरी बार आने में बड़ा अन्तर है। प्रताप आपके साथ-साथ है। अंगरेजी राज्यके भाग्यका सूर्य्य मध्याह्नमें है। उस समयके बड़े लाटको जितने दिन कलकत्तेसे गाजीपुर जानेमें लगे होंगे, आप उनसे कम दिनमें विलायतसे भारतमें पहुंच गये। लार्ड कार्नवालिस को आते ही दो-एक देशी रईसोंके साथ लड़ाई करनेकी चिन्ता थी, आपके स्वागतके लिये कोड़ियों राजा-रईस बम्बई दौड़े गये और जहाजसे उतरते ही उन्होंने आपका स्वागत करके अपने भाग्यको धन्य समझा। कितने ही बधाई देने कलकत्ते पहुंचे और कितने और चले आ रहे हैं। प्रजाकी चाहे कैसी ही दशा हो, पर खजानेमें रुपये उबले पड़ते हैं। इसके लिये चारों ओरसे आपकी बड़ाई होती है। साख इस समयकी गवर्नमेण्टकी इतनी है कि विलायतमें या भारतमें एक बार हूं करते ही रुपयेकी वर्षा होने लगती है। विलायती मंत्री आपकी मुट्ठीमें है। विलायतकी जिस कन्सर्वेटिव गवर्नमेण्टने आपको इस देशका वैसराय किया, वह अभी तक बराबर शासन की मालिक है। लिबरल निर्जीव हैं। जान ब्राइट, ग्लाडस्टोन ब्राडला जैसे लोगोंसे विलायत शून्य है, इससे आप परम स्वतन्त्र हैं। इण्डिया आफिस आपके हाथकी पुतली है। विलायतके प्रधानमंत्री आपके प्रिय मित्र हैं। जो कुछ आपको करना है, वह विलायतमें कई मास रहकर पहले ही वहांके शासकोंसे निश्चय कर चुके हैं। अभी आपकी चढ़ती उमर है। चिन्ता कुछ नहीं है! जो कुछ चिन्ता थी, वह भी जल्द मिट गई। स्वयं आपकी विलायत के बड़े भारी बुद्धिमानों और राजनीति विशारदोंमें गिनती है। वरञ्च कह सकते हैं कि विलायतके मंत्री लोग आपके मुंहकी ओर ताकते हैं। सम्राटका आप पर बहुत भारी विश्वास है। विलायतके प्रधान समाचारपत्र मानो आपके बन्दीजन हैं। बीच-बीचमें आपका गुणगान सुनना पुण्य कार्य्य समझते हैं। सारांश यह कि लार्ड कार्नवालिसके समय और आपके समयमें
बड़ा ही भेद हो गया है।

संसारमें अब अंगरेजी प्रताप अखण्ड है। भारतके राजा अब आपके हुक्मके बन्दे हैं। उनको लेकर चाहे जुलूस निकालिये, चाहे दरबार बनाकर सलाम कराइये, उन्हें चाहे विलायत भिजवाइये, चाहे कलकत्ते बुलवाइये, जो चाहे सो कीजिये, वह हाजिर हैं। आपके हुक्मकी तेजी तिब्बतके पहाड़ों की बरफको पिघलाती है। फारिसकी खाड़ीका जल सुखाती है, काबुलके पहाड़ोंको नर्म करती है। जल, स्थल वायु और आकाशमण्डलमें सर्वत्र आपकी विजय है। इस धराधाममें अब अंगरेजी प्रतापके आगे कोई उंगली उठानेवाला नहीं है। इस देशमें एक महाप्रतापी राजाके प्रतापका वर्णन इस प्रकार किया जाता था कि इन्द्र उसके यहां जल भरता था, पवन उसके यहां चक्की चलाता था, चांद-सूरज उसके यहाँ रोशनी करते थे इत्यादि। पर अंगरेजी प्रताप उससे भी बढ़ गया था। समुद्र अंगरेजी राज्यका मल्लाह है, पहाड़ोंकी उपत्यकाएं बैठनेके लिये कुर्सी-मूढ़े। बिजली कलें चलानेवाली दासी और हजारों मील खबर लेकर उड़नेवाली दूती। इत्यादि-इत्यादि।

आश्चर्य्य है माइ लार्ड! एक सौ सालमें अंगरेजी राज्य और अंगरेजी प्रतापकी तो इतनी उन्नति हो; पर उसी प्रतापी ब्रिटिश राज्य के अधीन रहकर भारत अपनी रही-सही हैसियत भी खो दे! इस अपार उन्नतिके समयमें आप जैसे शासकके जीमें भारतवासियोंको आगे बढ़ानेकी जगह पीछे धकेलनेकी इच्छा उत्पन्न हो! उनका हौसला बढ़ानेकी जगह उनकी हिम्मत तोड़नेमें आप अपनी बुद्धिका अपव्यन करें! जिस जातिसे पुरानी कोई जाति इश धराधामपर मौजूद नहीं, जो हजार सालसे अधिककी घोर पराधीनता सहकर भी लुप्त नहीं हुई, जीती है, जिसकी पुरानी सभ्यता और विद्याकी आलोचना करके विद्वान और बुद्धिमान लोग आज भी मुग्ध होते हैं, जिसने सदियों इस पृथ्वीपर अखण्ड शासन करके सभ्यता और मनुषत्वका प्रचार किया—वह जाति क्या पीछे हटाने और धूल में मिला देनेके योग्य है आप जैसे उच्च श्रेणीके विद्वानके जीमें यह बात कैसे समाई कि भारतवासी बहुत से काम करनेके योग्य नहीं और उनको आपके सजातीय ही कर सकते हैं? आप परीक्षा करके देखिये कि भारतवासी सचमुच उन ऊंचेसे ऊंचे कामों को कर सकते हैं या नहीं, जिनको आपके सजातीय कर सकते हैं? श्रममें, बुद्धि
में, विद्यामें, काममें, वक्त्तृतामें, सहिष्णुतामें किसी बातमें इस देशके निवासी संसारमें किसी जातिके आदमियोंसे पीछे रहनेवाले नहीं हैं। वरंच दो-एक गुण भारतवासियों में ऐसे हैं कि संसार भरमें किसी जातिके लोग उनका अनुकरण नहीं कर सकते। हिन्दुस्थानी फारसी पढ़के ठीक फारिसवालों कि भांति बोल सकते कविता, कर सकते हैं। अंगरेजी बोलनेमें वह अंगरेजोंकी पूरी नकल कर सकते हैं, कण्ठ-तालूको अंगरेजोंके सदृश बना सकते हैं। पर एक भी अंगरेज ऐसा नहीं है, जो हिन्दुस्थानियोंकी भांति साफ हिन्दी बोल सकता हो। किसी बातमें हिन्दुस्थानी पीछे रहनेवाले नहीं हैं। हां, दो बातोंमें वह अंगरेजोंकी नकल या बराबरी नहीं कर सकते हैं। एक तो अपने शरीरके काले रंगको अंगरेजों की भांति गोरा नहीं बना सकते और दूसरे अपने भाग्यको उनके भाग्यसे रगड़कर बराबर नहीं कर सकते।

किन्तु इस संसारके आरम्भमें बड़ा भारी पार्थक्य होनेपर भी अन्तमें बड़ी भारी एकता है। समय अन्तमें सबको अपने मार्गपर ले आता है। देशपति राजा और भिक्षा मांगकर पेट भरनेवाले कंगाल का परिणाम एक ही होता है। मिट्ठी मिट्टी में मिल जाती है और यह जीतेजी लुभानेवाली दुनिया यहीं रह जाती है। कितने ही शासक और कितने ही नरेश इस पृथ्वीपर हो गये, आज उनका कहीं पता-निशान नहीं है। थोड़े-थोड़े दिन अपनी-अपनी नौबत बजा चले गये। बड़ी तलाशसे इतिहासके पन्ने अथवा टूटे-फूटे खंडहरों में उनके दो-चार चिह्न मिल जाते हैं। माई लार्ड! बीते हुए समय को फिर लौटा लेनेकी शक्ति किसीमें नहीं है, आपमें भी नहीं है। दूरकी बात दूर रहे, इन पिछले सौ सालहीमें कितने बड़े लाट आये और चले गये। क्या उनका समय फिर लौट सकता है? कदापि नहीं। विचारिये तो मानों कल आप आये थे, किन्तु छः साल बीत गये। अब दूसरी बार आनेके बाद भी कितने ही दिन बीत गये तथा और बीते जाते हैं। इसी प्रकार उमरें बीत जावेंगे। युग बीत जावेंगे। समयके महासमुद्रमें मनुष्यकी आयु एक छोटी-सी बूंदकी भी बराबरी नहीं कर सकती। आपमें शक्ति नहीं है कि पिछले छ: वर्षों को लौटा सकें, या उनमें जो कुछ हुआ है, उसे अन्यथा कर सकें। दो साल आपके हाथमें अवश्य हैं। इनमें जो चाहें कर सकते हैं। चाहें तो इस देशकी ३० करोड़ प्रजाको अपना अनुरक्त बना सकते हैं और इस देशके
इतिहासमें अच्छे वैसरायोंमें अपना नाम छोड़ जा सकते हैं। नहीं यह समय भी बीत जावेगा और फिर आपका करने धरनेका अधिकार ही कुछ न रहेगा।

विक्रम, अशोक, अकबरके यह भूमि साथ नहीं गई। औरंगजेब अलाउद्दीन इसे मुट्ठी में दबा कर नहीं रख सके। महमूद, तैमूर और नादिर इसे लूटके मालके साथ ऊंटों सौर हाथियोंपर लादकर न ले जा सके। आगे भी यह किसीके साथ न जावेगी, चाहे कोई कितनी ही मजबूती क्यों न करे। इस समय भगवानने इसे एक और ही जातिके हाथमें अर्पण किया है, जिसकी बुद्धि, विद्या और प्रतापका संसारभरमें डंका बज रहा है। माइ लार्ड! उसी जातिकी ओर से आप इस देशकी ३० करोड़ प्रजाके शासक हैं।

अब यह विचारना आपहीके जिम्मे है कि इस देशकी प्रजाके साथ आपका क्या कर्त्तव्य है। हजार सालसे यह प्रजा गिरी दशामें है। क्या आप चाहते हैं कि यह और भी सौ-पचास साल गिरती चली जावे? इसके गिराने में बड़ेसे बड़ा इतना ही लाभ है कि कुछ संकीर्ण हृदय शासकोंकी यथेच्छाचरिता कुछ दिन और चल सकती हैं; किन्तु इसके उठाने और सम्हालने में जो लाभ है, उसकी तुलना नहीं हो सकती है। इतिहासमें सदा नाम रहेगा कि अंगरेजोंने एक गिरी जातिके तीस करोड़ आदमियोंको उठाया था। माई लार्ड! दोनोंमें जो बात पसन्द हो, वह कर सकते हैं। कहिये क्या पसन्द है? पीछे हटाना या आगे बढ़ाना?

('भारतमित्र', २१ जनवरी सन् १९०५)