शिवशम्भु के चिट्ठे/८-वंग-विच्छेद

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शिवशम्भु के चिट्ठे  (1985) 
द्वारा बालमुकुंद गुप्त

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वंग-विच्छेद

गत १६ अक्टोबरको वंग-विच्छेद या बंगालका पार्टीशन हो गया। पूर्व बंगाल और आसामका नया प्रान्त बनकर हमारे महाप्रभु माइ लार्ड [ ५१ ]
इंगलैण्डके महान् राजप्रतिनिधिका तुगलकाबाद आबाद हो गया। भंगड़ लोगोंके पिछले रगड़ेकी भांति यही माइ लार्डकी सबसे पिछली प्यारी इच्छा थी। खूब अच्छी तरह भंग घुटकर तैयार हो जानेपर भंगड़ आनन्दसे उसपर एक और रगड़ लगाता है। भंगड़-जीवनमें उससे बढ़कर और कुछ आनन्द नहीं होता। माइ लार्डके भारत-शासन-जीवनमें भी इससे अधिक आनन्दकी बात कदाचित् कोई न होगी, जिसे पूरी होते देखनेके लिये आप इस देशका सम्बन्ध-जाल छिन कर डालनेपर भी उसमें अटके रहे।

माइ लार्डको इस देशमें जो कुछ करना था, वह पूरा कर चुके थे। यहां तक कि अपने सब इरादोंको पूरा करते-करते अपने शासन-कालकी इतिश्री भी अपने ही कर-कमलसे कर चुके थे। जो कुछ करना बाकी था, वह यही बंग-विच्छेद था। वह भी हो गया। आप अपनी अन्तिम कीर्तिकी ध्वजा अपने ही हाथोंसे उड़ा चले और अपनी आंखोंको उसके प्रियदर्शनसे सुखी कर चले, यह बड़े सौभाग्यकी बात है। अपने शासन-कालकी रकाबीमें बहुत-सी कड़वी-कसैली चीजें चख जानेपर भी आप अपने लिये 'मधुरेण समापयेत' कर चले, यही गनीमत है।

अब कुछ करना रह भी गया हो, तो उसके पूरा करनेकी शक्ति माइ लार्ड में नहीं है। आपके हाथोंमे इस देशका जो बुरा-भला होना था, वह हो चुका। एक ही तीर आपके तर्कशमें और बाकी था, उससे आप बंगभूमिका वक्षस्थल छेद चले! बस, यहां आकर आपकी शक्ति समाप्त हो गई! इस देशकी भलाईकी ओर तो आपने उस समय भी दृष्टि न की, जब कुछ भला करनेकी शक्ति आपमें थी। पर अब कुछ बुराई करनेकी शक्ति भी आपमें नहीं रही, इससे यहांके लोगोंको बहुत ढारस मिली है। अब आप हमारा कुछ नहीं कर सकते।

आपके शासन-कालमें बंग-विच्छेद इस देशके लिये अन्तिम विषाद और आपके लिये अन्तिम हर्ष है। इस प्रकारके विषाद और हर्ष इस पृथ्वीके सबसे पुराने देशकी प्रजाके बारम्बार देखे हैं। महाभारतमें सबका संहार हो जाने-पर भी घायल पड़े हुए दुर्म्मद दुर्योधनको अश्वत्थामाकी यह वाणी सुनकर अपार हर्ष हुआ था कि मैं पांचों पाण्डवों के सिर काटकर आपके पास लाया हूं। उसी प्रकार लेना-सुधार-रूपी महाभारतमें जंगी-लाट किचनर-रूपी
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भीमकी विजय-गदासे जर्जरित होकर पदच्युति हृदमें पड़े इस देशके माइ लार्डको इस खबरने बड़ा हर्ष पहुंचाया कि अपने हाथोंसे श्रीमान्को बंग-विच्छेदका अवसर मिला। इसी महाहर्षको लेकर माइ लार्ड इस देशसे बिदा होते हैं, यह बड़े सन्तोषकी बात है। अपनोंसे लड़कर श्रीमान् की इज्जत गई या श्रीमान् ही गये, उसका कुछ खयाल नहीं है। भारतीय प्रजाके सामने आपकी इज्जत बनी रही, यही बड़ी बात है। इसके सहारे स्वदेश तक श्रीमान् मोछोंपर ताव देते चले जा सकते हैं।

श्रीमान् के खयालके शासक इस देशने कई बार देखे हैं। पांच सौसे अधिक वर्ष हुए तुगलक-वंशके एक बादशाहने दिल्लीको उजाड़ दौलताबाद बसाया था। पहले उसने दिल्ली की प्रजा को हुक्म दिया कि दौलताबादमें जाकर बसो। जब प्रजा बड़े कष्टसे दिल्लीको छोड़कर वहां जाकर बसी, तो उसे फिर दिल्लीको लौट आनेका हुक्म दिया। इस प्रकार दो-तीन बार प्रजाको दिल्ली से देवगिरि और देवगिरिसे दिल्ली अर्थात् श्रीमान् मुहम्मद तुगलकके दौलताबाद और अपने वतनके बीचमें चकराना और तबाह होना पड़ा। हमारे इस समयके माइ लार्डने केवल इतना ही किया है कि बंगालके कुछ जिले आसाममें मिलाकर एक नया प्रान्त बना दिया है। कलकत्तेकी प्रजाको कलकत्ता छोड़कर चटगांवमें आबाद होनेका हुक्म तो नहीं दिया! जो प्रजा तुगलक-जैसे शासकोंका खयाल बर्दाश्त कर गई, वह क्या आजकलके माइ लार्डके एक खयालको बर्दाश्त नहीं कर सकती है?

सब ज्योंका त्यों है। बंगदेशकी भूमि जहां थी, वहीं है, और उसका हरेक नगर और गांव जहां था, वहीं है। कलकत्ता उठकर चीरापूंजीके पहाड़पर नहीं रख दिया गया और शिलांग उड़कर हुगली के पुल पर नहीं आ बैठा। पूर्व और पश्चिम बंगालके बीचमें कोई नहर नहीं खुद गई और दोनोंको अलग-अलग करने के लिये बीच में कोई चीनकी-सी दीवार नहीं बन गई है। पूर्व बंगाल पश्चिम बंगालसे अलग हो जानेपर भी अंगरेजी शासन ही में बना हुआ है और पश्चिमी बंगाल भी पहलेकी भाँति उसी शासनमें है। किसी बातमें कुछ फर्क नहीं पड़ा। खाली खयाली लड़ाई है। बंगविच्छेद करके माइ लार्डने अपना एक ख़याल पूरा किया है। इस्तीफा देकर भी एक खयाल ही पूरा किया और इस्तीफा मंजूर हो जानेपर इस
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देशमें पड़े रहकर भी श्रीमान्का प्रिन्स आफ वेल्सके स्वागत तक ठहरना एक खयाल-मात्र है।

कितने ही खयाली इस देशमें अपना खयाल पूरा करके चले गये। दो सवा-दो सौ साल पहले एक शासकने इस बंगदेशमें एक रुपयेके आठ मन धान बिकवाकर कहा था कि जो इससे सस्ता धान इस देशमें बिकवाकर इस देशके धनधान्यपूर्ण होनेका परिचय देगा, उसको मैं अपने से अच्छा शासक समझूंगा। यह शासक भी नहीं है, उसका समय भी नहीं है। कईएक शताब्दियोंके भीतर इस भूमिने कितने ही रंग पलटे हैं, कितनी ही इसकी सीमाएं हो चुकी हैं। कितने ही नगर इसकी राजधानी बनकर उजड़ गये। गौड़ के जिन खण्डहरोंमें अब उल्लू बोलते और गीदड़ चिल्लाते हैं, वहां कभी बांके महल खड़े थे और वहीं बंगदेशका शासक रहता था। मुर्शिदाबाद, जो आज एक लुटा हुआ-सा शहर दिखाई देता है, कुछ दिन पहले इसी बंगदेशकी राजधानी था और उसकी चहल-पहलका कुछ ठिकाना न था। जहां घसियारे घास खोदा करते थे, वहां आज कलकत्ता-जैसा महानगर बसा हुआ है, जिसके जोड़का एशियामें एक-आध नगर ही निकल सकता है। अब माइ लार्डके बंग-विच्छेदसे ढाका, शिलांग और चटगांवमें से हरेक राजधानीका सेहरा बंधवाने के लिये सिर आगे बढ़ाता है। कौन जाने इनमें से किसके नसीबमें क्या लिखा है और भविष्य क्या-क्या दिखलायेगा!

दो हजार वर्ष नहीं हुए, इस देशका एक शासक कह गया है— "सैकड़ों राजा जिसे अपनी-अपनी समझकर चले गये, परन्तु वह किसीके भी साथ नहीं गई, ऐसी पृथिवीके पानेसे क्या राजाओं को अभिमान करना चाहिये? अब तो लोग इसके अंशके अंशको पाकर भी अपने को भूपति मानते हैं। ओहो! जिसपर पश्चाताप करना चाहिये, उसके लिये मूर्ख उल्टा आनन्द करते हैं।" वही राजा और कहता है—-"यह पृथिवी मट्ठीका एक छोटा-सा ढेला है, जो चारों तरफसे समुद्ररूपी पानीकी रेखासे घिरा हुआ है। राजा लोग आपसमें लड़-भिड़कर इस छोटे-से ढेलेके छोटे-छोटे अंशोंपर अपना अधिकार जमाकर राज्य करते हैं। ऐसे क्षुद्र और दरिद्री राजाओंको लोग दानी कहकर जाँचने जाते हैं। ऐसे नीचोंसे धनकी आशा करनेवाले अधम पुरुषोंको धिक्कार है।" यह वह शासक था कि इस देशका चक्रवर्ती अधीश्वर होनेपर भी एक दिन राज-पाटको लात मारकर जंगलों और वनों में चला
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गया था। आज वही भारत एक ऐसे शासकका शासन-काल देख रहा है, जो यहांका अधीश्वर नहीं है; कुछ नियत समयके लिए उसके हाथमें यहां का शासन-भार दिया गया था, तो भी इतना मोहमें डूबा हुआ है कि स्वयं इस देशको त्यागकर भी इसे कुछ दिन और न त्यागनेका लोभ सवंरण न कर सका!

यह वंग-विच्छेद बंगका विच्छेद नहीं है। बंग-निवासी इससे विच्छिन्न नहीं हुए, वरञ्च और युक्त हो गये। जिन्होंने गत १६ अक्टूबरका दृश्य देखा है, वह समझ सकते हैं कि बंगदेश या भारतवर्ष में नहीं, पृथ्वी-भरमें वह अपूर्व दृश्य था। आर्य-सन्तान उस दिन अपने प्राचीन वेशमें विचरण करती थी। बंगभूमि ऋषि-मुनियोंके समयकी आर्यभूमि बनी हुई थी। किसी अपूर्व शक्तिने उसको उस दिन एक राखीसे बांध दिया था। बहुत कालके पश्चात् भारत-सन्तानको होश हुआ कि भारतकी मट्टी बन्दनाके योग्य है। इसीसे वह एक स्वरसे "वन्दे मातरम्" कहकर चिल्ला उठे। बंगालके टुकड़े नहीं हुए, वरञ्च भारतके अन्यान्य टुकड़े भी वंगदेशसे आकर चमटे जाते हैं।

हां, एक बड़े ही पवित्र मेलको हमारे माइ लार्ड विच्छिन्न किये जाते हैं। वह इस देशके राजा-प्रजाका मेल है। स्वर्गीय विक्टोरिया महारानीके घोषणा-पत्र और शासन-कालने इस देशकी प्रजाके जीमें यह बात जमा दी थी कि अंगरेज प्रजाकी बात सुनकर और उसका मन रखकर शासन करना जानते हैं और वह रंगके नहीं, योग्यताके पक्षपाती हैं। कैनिंग और रिपन आदि उदार हृदय शासकोंने अपने सुशासनसे इस भावकी पुष्टि की थी। इस समयके महाप्रभुने दिखा दिया कि वह पवित्र घोषणा-पत्र समय पड़ेकी चाल-मात्र था। अंगरेज अपने खयालके सामने किसीकी नहीं सुनते---विशेषकर दुर्बल भारतवासियोंकी चिल्लाहटका उनके जीमें कुछ भी वजन नहीं है। इससे आठ करोड़ बंगालियोंके एक स्वर होकर दिन-रात महीनों रोने-गानेपर भी अंगरेजी सरकारने कुछ न सुना। बंगालके दो टुकड़े कर डाले। उसी माइ लार्डके हाथसे दो टुकड़े कराये, जिसके कहनेसे उसने केवल एक मिलिटरी मेम्बर रखना भी मंजूर नहीं किया और उसके लिए माइ-लार्डको नौकरीसे अलग करना भी पसन्द किया। भारतवासियोंके जीमें यह बात जम गई कि अंगरेजोंसे भक्ति-भाव करना वृथा है, प्रार्थना करना वृथा
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है और उनके आगे रोना-गाना वृथा है। दुर्बलकी वह नहीं सुनते।

वंग-विच्छेद से हमारे महाप्रभु सरदस्त राजा-प्रजामें यही भाव उत्पन्न करा चले हैं। किन्तु हाय! इस समय इसपर महाप्रभुके देशमें कोई ध्यान देनेवाला तक नहीं है! महाप्रभु तो ध्यान देने के योग्य ही कहां।

('भारतमित्र',२१ अक्तुबर सन् १९०४)



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