शैवसर्वस्व/उपक्रम

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शैवसर्वस्व  (1890) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र
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नम: श्री हरिश्चन्द्राय।

उपक्रम ।

आजकल श्रावण का महीना है, वर्षारितु के कारण भू मण्डल एवं गगन मण्डल एक अपूर्व शोभा धारण कर रहे हैं ; जिसे देख के पशु पक्षी नर नारी सभी आनन्दित होतेहैं । काम धन्धा बहुत अल्प होने के कारण सब ढंग के लोग अपनी २ रुचि के अनुसार मन बहलाने में लगे हैं, कोई बागौ में झूला डाले मित्रों सहित चन्द्रमुखियों के मद माती आखों से हरियाली देखने में मग्न है ! कोई लंगोट कसे भंग खाने व्यायाम में संलग्न है ! कोई भोर मांझ नगर के बाहर की वायु सेवन ही को सुख जानता है ! कोई स्वयं तथा ब्राह्मण द्वारा भगवान भूतनाथ की दर्शन पूजनादि में लौकिक और पारलौकिक कल्याण मानता है ! संसार में भांति २ के लोग हैं उनकी रुची भी न्यारी है भक्त भी एक प्रकार के नहीं होते कोई बकुला भक्त हैं अर्थात् दिखाने मात्र के भक्त पर मन जैसे का तैसा ! कोई पेटहुन्त भक्त हैं अर्थात् यजमान से दक्षिणा मिलनी चाहिए और काम न किया पूजाही सही ! कोई व्यवहारी भक्त हैं अर्थात् ' या महादेव बाबा ! भेजना तो छप्पन करोड़ की चौडाई ' द्वन्दों में वह भी है जो संसारी पदार्थ तो नहीं चाहते पर मुक्ति अथवा केलाश धाम पर मरे धरे हैं । कोई भगत जी हैं जो रास्ते में श्री मन्दिर में आंखें सेंवाने ही को पूजा की भाड़ पकड़तै हैं । पर हम इन भक्तागस्सों की
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व्यथा व कष्ट से श्री विश्वनाथ विश्वंमर के सच्चे प्रेमियो के मनोदिनोदार्थ कुछ शिवमूर्ति और उन की पुजा पर अपना विचार प्रगट करते हैं ।

ईश्वर का नाम शिव है, यह बात वेद से लेके ग्राम्य गीतों तक में प्रसिद्ध है । और मूर्तिपजन हमारे यहां उस कारण से चला आता है जिस का ठीक २ पता भी कोई नहीं लगा सकता । जिस देश मे शिल्य विद्या का प्रचार और जहां लोगो के जी में स्त्रोड एवं सहदयता का उदगार होगा वहां मूर्ति पूजा किसी के हटाए नहीं हट सकती । मुहम्मदीय मत अब तक परद के अशिक्षितों में रहा तभी तक प्रतिमा पूजन से बचा रहा जहां फारस के रमिकों में फैला टझ 'शीया' भन्प्रदाय नियत हो नई ! इसी प्रकार राष्ट्रीय मत अब तक तुर्किस्तान में रहा वहां के प्रेम को यह दशा कि खुद हज़रत ईजा को उन के चुने हुए बारह शिष्यों में से एक शिष्य बह्वदार इस्करोही ने केवल तीस रुपए के लोभ से प्राण ग्राहक शत्रुओ के हाथ सौंप दिया ऐसे देश में मूर्ति पूजा क्या होती जहां साक्षात ही पूजा के लाले पड़े थे । परन्तु कम से मसीहो धर्म को आते देर न हुई कि महात्मा नसीड़ की प्रतिकृति पूजने लगी, रोम्बन केथोलिक मत फैल गया ! जब नए मतों की यह दशा है ते हमारे सनातन धर्म में मूर्ति पुजा क्यों न हो ? जहाँ प्रेम की उमंग में

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० वाक्य क्षयवामडे के सुमन्धन्यु ष्टिवर्षक इत्यादि ।

+ एंकरे महा देव सेवक आके इत्यादि । [  ]
खियां तक जीती अन्त आती रही हैं ! और शिल्य विद्या धर्म ग्रन्थ ( अर्थ वेद ) में भरी है ! जहां राजाओ और वीर पुरुषों तक की मूर्ति का आदर है वहां देवाधि देव महादेव की मूर्ती क्यों न पूजे ? यद्यपि आज कल अविद्या के प्रभाव से सब बातों के तत्व के साथ प्रतिमा पूजन का भी सत्य लोग भूल गए हैं पर जिन्हें कुछ भी इधर खता हैं वे इस लेख पर कुछ भी ध्यान देंगे तो कुछ भेद तो अवश्य ही पावैगे ।

यह सब लोग मानते हैं कि ईश्वर निराकार हैं पर मनुष्य अपनी रुचि और दशा के अनुसार उन के विषय में कल्पना कर दिया करते हैं । जिन मतो मे प्रतिमा पूजन का सदा महानिषेध है उन के धर्म ग्रंथों में भी भी ईश्वर के हाथ पांव नेत्रादि का वर्णन है फिर हमारे पूर्वजों के लेखों का तो कहना ही क्या है; जिन की कल्पना शक्ति के विषय में हम सच्चे अभिमान से कह सकते हैं कि दूसरे देश वालों को वैसो २ बातें समझनी ही कठिन हैं सूझञे श्चौ तो क्या क्षष्टा ! उन को छोटी २ बातों में बड़े २ आश्चय है ( एक विषय दुसरी पुस्तक में लिखा गया है ) फिर यह तो धर्म का अंग है इसका क्या कहना !

तनिक ध्यान देक् देखिए तो निश्चय कह उठिएगा कि हां बिम्बों ने पद्धिति पद्विन्त यह बातें निकाली यो कि ब्रह्म विद्या ; लोक हितैषिता और सहृदयता से जिस देश अर्थात

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* इंजील तथा कुरआन आदि । [  ]
'भर के बुद्धिमानों के शिरोमणि थे ! शिवालय, शिवमूर्ति अथवा शिवार्चन में सामजिक, शारीरक एवं आत्मिक उपदेश दूतने भरे हुए हैं कि बड़े २ बुद्धिमान बड़े २ ग्रंथ लिख के भी दूति श्री नहीं कर सकते हमारी छोटी सी बुद्धि द्वारा यह छोटी सी पुस्तिका तो समुद्र में से जलकण के सदृश भी नहीं हैं ।

शिवालय की बनावट देखिए तो ऊपर का गुम्बद गोल होता हैं जिस से चाहे जितना जल बरसे कुछ क्षति नहीं कर सकता इधर बूंद गिरी इधर भूमि पर आई ! वर्षा में बड़े २ घर गिर जाते हैं पर कोई छोटी सी शिवलियां कदाचित बहुत ही कम सुना होगा कि गिरपड़ी इस के अतिरिक्त भूगोल खगोल गृह नक्षत्र सब गोल हैं और परमात्मा सब का स्वामी सब में व्याप्त है यह बात भी शिवमंदिर में उपदिष्ट होते हैं । उस में चारों ओर द्वार होते हैं जिन से सदा स्वच्छ वायु का गमनागमन रहने से रोगोत्पत्ति की संभावना नहीं रहती ऊपर से यह भी ज्ञात होता हैं कि परमेश्वर के पास जाने की किमी ओर से रोक नहीं हैं सब मार्गो से कुछ हमें मिल सकते हैं ! हिंदूधर्म, नयनधर्म, क्रिस्तानी धर्म, मुसलमानी धर्म सब के द्वारा हमारा प्रभु हमें मिल सकता है "रुचू नाम्बै चितरयादृज कुटिल नाना पथ जुषां नृगामैको सम्वैत्वगसि पयसामर्णव चूव” केवल लिखने की इच्छा चाहिए ! आगे चलिए तो महिब्ते विना धार का धातु अथवा पाषाण निर्मित त्रिशूल देख पड़ेगा जिस के कारण शिवा-
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लय पर बिजली गिरने का कभी भय नहीं रहता ! बड़े २ सत्ववेत्ता ( फिलासफर ) कहते हैं कि जिस मकान के पास लोहे कांसे आदि की लंबी छड़ गड़ी होगी उस पर बिजली नहीं गिर सकतौ क्योंकि धातुओं को अकर्षण शक्ति से वह सीधी धरती में समा जाती है इस से घर की रक्षा रहती है पाषाण का त्रिशूल बहुत थोड़े मंदिरों में होते हैं उस में यह गुण तो नहीं हैं पर यह उपदेश दोनों प्रकार के त्रिशूल देते हैं कि मनुष्य के शरीरक, सामाजिक एवं मानसिक दौर्बल्य जनित भय, सदा डराया करते हैं कि देखो शिव के शरण जाओगे तो तुम्हारे संसारी मित्र तुम्हें पागल समझेंगे ! तुम्हारा शरीर और मन विषय सुखों से वंचित रह के दुःख चिपावैगा ! अथवा कायिक, वाचिक, मानसिक कुवासना बड़े २ लालच दिखाया करती हैं कि हमारे साथ रहने में जीवन का साफल्य है नहीं तो और संसार में इर्दु क्या ? पर यदि तुम इन संकल्प विकल्प जनित भय लालच शंकादि की कुछ भटक न करके आगे ही पांव उठाए जाय तो निश्चय ही जायगा कि यह त्रिशूल देखने ही मात्र को हैं तुम्हें कुछ वाधा नहीं कर सकते ! तुम आज तक शिव के समुख होने को कटि वस न थे तभी तक भ्रमोत्पादन करने मात्र की शक्ति इन में थी ! आगे बढ़िए तो कीर्तिमुख नामक ग्रंथ की झांकी होगी, ( बहुष्टा शिवालयें में अरघा के पास वा कुछ दूर पर मनुष्य का सा शिर बना रहता है वही किर्ति मुग्ध हैं ) इन के विषय पुरणों में लिखा है कि एक बार क्षुधित हुए
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शिवजी से खाने को मांगा तो उन्होनें कहा कि यहाँ क्या रक्खा है अपने ही हाथ पांव खा डालो ! इस पर इन्होंने ऐसा ही किया ! तब से यह भोलानाथ को अत्यंत प्यारे हैं । इस कथा का मूलोदेश्य यह है कि प्रियतम की आज्ञा से यहां तक मुंह न मोड़ो तो निस्संदेह वुइ कल्याण मय तुम्हे अतिशय प्यार करेगा !!! कीर्तिमुख स्त्री के दर्शन वार के श्री १०८ नागरी दास जी के दूम प्रेममय वचन का स्मरण करो तो एक अनिर्वचनीय स्वादु पाओगे मानो स्वयं कीर्तिमुख ही आज्ञा कर रहे हैं कि “सोम काटि आगे धरौ तापर राखौ पांव । इश्क चमन के बीच में ऐसा हो तो आव ॥ १ ॥” और कुछ वन के मंदिकेश्वर जी के दर्शन होंगे, जिन्हें लड़के बूढ़े सभी जानते हैं कि महेश्वर जी के वाहन है मुख्य गण हैं, उन्हें बहुत प्रिय हैं वरंच वे वही हैं ! वह इस बात का रूपक है कि यदि हम परमेश्वर के अभिन्न मिथ डुबा चाहें तो हमें चाहिए कि अपने मनुष्यत्व का अभिमान यहां तक

छोड़ दें कि मानो हम बैल हैं ! पर स्मरण रक्खो बैल उतना सज्ज नहीं है ! अपना पेट धाम हो भूसे से भरना पर लोकोपकारार्थ सदा सब रीति से प्रस्तुत रहना ! विशेषतः कृषिविद्या तो एक समय भारत संपत्ति का मूल थी, (उत्तम खेती मध्यम बाज) आज तक प्रसिद्ध है पर समय के फेर से इन दिनों लुप्त सी हो गई है उस के लिए जीवन भर बिला देना बैल ही का काम है ! या वों कड़ी शंकर स्वामी के परम सिद्ध को धर्म है ! कठिन परिश्रम कर के दूसरों के दिए अन्न
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वस्त्र उपजाना--कैसा ही बोझ उठाना हो, कैसे ही शीत उष्ण वर्षा सब के वन बीहड़ में जाना हो, कभी हिम्मत न हारना--मर जाने पर भी पृथ्वी सीचने को पुर, लोगों की पद रक्षा के लिए जूती, वस्त्राभरण धरने को संदूक, कठिन वस्तु जोड़ने को सरेस वृषभ ही से प्राप्त होता है यदि हम भी ऐसे ही बन जायें कि अपने दुख सुख की चिंता न कर के संसार के उपकार में धैर्य के साथ श्रम करते रहें! जगत के हितार्थ कहीं जाना हो कुछ ही करना हो कभी हिचिर मिचिर न करें! कुछ आचरण रक्खें कि हमारे मरणानंतर भी हमारे किए हुए कामों तथा लिखे हुए बचनों में पृथ्वी के लोगों के हृदय प्रेम जल से सिंचित हों, लोग स्वदेशोन्नति के पथावलंबन में सहारा पावें, देश भाई अपनी श्रद्धा रूपी पूंजी का आधार बनावैं, तथा पाषाण सदृश चित्त वाले भी आपस का मेल सीखें तभी हम विश्वनाथ के प्यारे होंगे! तभी वह प्रेमदेव हमारे हृदय में आरूढ़ होगा। जिसे यह सब बातें स्वीकृत हैं उसे शिवदर्शन दुरलभ नहीं है यद्यपि शिवमंदिर में गणेश-सूर्य-भैरवादि की प्रतिमा भी कहीं २ देख पड़ती हैं पर उन के मुख्य पार्षद यही हैं दूसरे देवताओं के मंदिर अलग भी बनते हैं अत: उन का वर्णन यहां पर विशेष रूप से आवश्यक नहीं है इस से हमारे पाठकों को शिवदर्शन की ओर झुकना चाहिए पर यदि केवल बुद्धि के नेत्रों से देखिएगा तो पत्थर देखिएगा! हां यदि प्रेम की आंखें हों तो उस अप्रतिम की प्रतिमा तुम्हारे आगे विद्यमान है।

[ ११ ]शिवमूर्ति इसको मन लगा के देखिए यह हमारे प्रेमदेव भगवान भूतनाथ सब प्रकार से अकथ्य अप्रतर्क्य एवं अचिंत्य हैं तौभी भक्तजन अपनी रुचि के अनुसार उन का रूप, गुण, स्वभाव कल्पित कर लेते हैं उन की सभी बातें सत्य है अतः उन के विषय में जो कुछ कहा जाय सब सत्य है। मनुष्य की भांति वै नाड़ी आदि बंधन से बद्ध नहीं हैं इस में हम उन्हें लिंगशङ्कर कह सकते हैं और प्रेमचक्षु से अपने मनोमंदिर में दर्शन कर के साकार भी कह सकते हैं। उनका यथातथ्य वर्णन कोई नहीं कह सकता तौभी जितना जो कुछ अभी तक कहा गया है और आगे के मननशील कहेंगे वह सब सास्त्रार्थ के आगे निरी बक २ है और विश्वास के आगे मनः शांति कारक सत्य है!!! महात्मा कबीर ने इस विषय में कहा है कि जैसे कई अंधों के आगे हाथी आवै और कोई उसका नाम बता दे तो सब उसे टटोलेंगे--वह तो संभव ही नहीं है कि मनुष्य के बालक की भांति उसे गोद में लेके सब जनै उस के सब अवयव का ठीक २ बोध करलें' एक २ जन केवल एक २ अंग टटोल सकता है और दांत टटोलने वाला हाथी को खूंटी के समान--काम छुनेवाला भूप के सदृश-पांव स्पर्श करने वाला खंभे की नाईं कहेगा यद्यपि हाथी न खूंटे के समान है न खंभे के समान पर कहने वाले की बात झूठ भी नहीं है उसने भली भांति निश्चय किया है और वास्तव में हाथी का एक २ अंग वैसा ही है भी । [ १२ ]
ईश्वर के विषय में मानवी बुद्धि की भी ठीक यही दशा है ! हम पूरा २ वर्णन कर लें तौ वह अनंत कैसे ? और यदि निरा अनंत मान के हम अपने मन वचन को उन की ओर से फेर ले तो हम आस्तिक कैसे ? सिद्धांत यह कि हमारी बुद्धि कहां तक है वहां तक उनकी स्तुति प्रार्थना ध्यान उपासना कर सकते हैं और इसी से हम शांति लाभ करेंगे ! उन के साथ जिस प्रकार से जितना संबंध रख सके उतना ही हमारे मन, बुद्धि, आत्मा, संसार, परमार्थ के लिए मंगल है ! जो लोग केवल जगत के दिखाने तथा सामाजिक नियम निभाने को इस विषय में कुछ करते हैं वे व्यर्थ समय में बितावै जितनी देर पूजा पाठ करते हैं उतनी देर कमाने खाने पढ़ने गुनने में रहें तो उत्तम है ! और जो केवल शास्त्रायी आस्तिक हैं वे भी व्यर्थ ईश्वर को पिता बना के माता को कलंक लगाते हैं ! माता कहके बिचारे बाप को दोषी ठहराते हैं साकार कल्पना करके व्यापकता और निराकार कह के उसके अस्तित्व का लोप करते हैं ! हमारा यह लेख केवल उन के लिए है जो अपनी विचार शक्ति को काम में लाते हैं, और जगदीश्वर के साथ जीवित संबंध रख के हृदय में आनंद पाते हैं ; तथा आप लाभकारक बातों को समझ के दूसरों को समझाते भी हैं ।

प्रियवर उसकी सब बातें अनंत हैं अतः मूर्तियां भी अनंत प्रकार की बन सकती हैं पर हमारी बुद्धि अनंत नहीं है इस से कुछ रीति की प्रतिमाओं का वर्णन करते हैं । यह [ १३ ]
भी सब जानते हैं कि अंनत की एक२ प्रति कृति का एक२ अंग भी अनंत भाव अनंत भलाई अनंत सुख से भरा होना चाहिए पर हम अनंत नहीं हैं इस से थोड़ी ही सी बातों पर लेख की अंत करेंगे ।

मूर्ति बहुधा पाषाण की होती है इस का यह भाव है कि उन से हमारा दृढ़ संबध है ! { दृढ़ पदार्थों की उपमा पाषाण से दी जाती है ) हमारे विश्वास की नीव पत्थर पर है ! हमारा धर्म प्रखर का है ! ऐसा नहीं है कि महज में और का और हो जाय ! बड़ा सुभीता यह भी है कि एक बेर प्रतिमा पधगय दीं कई पीढ़ियों की छुट्टी हुई, चाहे जैसे असावधान पूजक आवैं कुछ हानि नहीं हो सकती ।

धातु विग्रह का यह तात्पर्य है कि हमारा प्रभु दृवण शील अर्थात् दयामय हैं ! जड़ा हमारे हृदय में प्रेमाग्नि धधकी वहीं वुह इस पर पिघल उठे। यदि हम सच्चे तदीय हैं तो वह हमारी दशा के अनुसार हमारे साथ वर्ताव करें, गे ! यह नहीं कि ईश्वर अपने नियम पालन से काम रखता है कोई मरे चाहै जिए ।

रतनमयी प्रति कृतिका यह अर्थ है कि हमारा ईश्वरीय संबंध अमूल्य है ! जैसे पन्ना पुखराज आदि की मूर्ति बिना एक गृहस्थी भर का धन लगाए हाथ नहीं आती यह बड़े अमीर का साध्य है वैसे ही प्रेम स्वरुप परमात्मा भी हम को तभी मिलेंगे जब हम ज्ञानाज्ञान का सारा अभिमान ग्वोदे ! यह भी बड़े ही मनुष्य का काम है ।
[ १४ ]मृत्तिकामयी प्रतिमा का प्रयोजन है कि उन की सेवा हम सब ठौर कर सकते हैं जैसे मट्टी और जल का अभाव कहीं नहीं है ऐसे ही उन का वियोग भी कहीं नहीं है ! धन और गुण का भी उन के मिलने में काम नहीं है ! वे निरधनों के धन हैं ! जिसे जीवनयात्रा का कोई सहारा नहीं वुह मट्टी बेंच के पेट पाल सकता है योहीं जिसे कहीं गति नहीं उस के सहायक कैलाशवासी हैं ! सब पदार्थ का आदि मध्यावसान ईश्वर के सहारे है इस बात का दृष्टाँत भी मृतिका ही पर खूब घटता है इस के अतिरिक्त पार्थिवेश्वर का बनना भी बहुत सहज है लड़के भी माटी सान के निर्माण कर लेते हैं यह इस बात की सूचना है 'हुनर-मंदो से पूछे जाते हैं वां बेहुतर पहिले'!

गोवर का स्वरूप यह प्रगट करता है कि ईश्वर आत्मिक रोगों का नाशक है ! हृदय मंदिर की कुवासना रूपी दुर्गन्ध वही दूर करता हैं।

पारदेश्वर ( पारे की मूर्ति ) यह प्रकाश करते हैं कि परमेश्वर हमारे पुष्ठिकारक हैं 'सुगंधम्पुष्ठि वर्द्धनं' वेद वाक्य है ' ।

यदि मूर्ति बनाने बनवाने की सामर्थ्य न हो तो पृथिवी जल आदि अष्ठमूर्ति बनी बना ईविद्यमान हैं ! वास्तविक प्रेम मूर्ति मन के मंदिर में है ही पर तौभी यह दृश्य मूर्तियां भी निरर्थक नहीं है ! इन के कल्पना करनेवालों की विद्या और बुद्धि प्रतिमानिंदकों से अधिक ही थी ! मूर्तियों की रग औ
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यद्यपि अनेक होते हैं पर मुख्य रंग तीन ही हैं ? श्वेत २ रक्त ३ श्याम और सब इन्हीं का विकार हैं हम से इन्हीं का वर्णन आवश्यक है उस में------

पहिले श्वेत रंग की प्रतिमा में यह मूवित होता है कि परमेश्वर शुद्ध एवं स्वच्छ है ' शुद्धमपापबिद्ध ' उसकी किस बात में किसी का कुछ मेल नहीं है वुह ' वहेदहुला शरीक ' है पर सभी उस के आश्रित है' जैसे उजला रंग सब रंगों का आश्रय है वैसे ही सब का आश्रय परब्रह्म है ! सर्वेरप्ताश्च भावाश्च तरंगा दूब वारिधौ थी । उत्पध्य वीलियंते यत्र सः प्रेम संज्ञकः वुह विगुणातीत तो उर्दू पर चिगुणालय भी उसके बिना कोई नहीं है औ यदि उसे सतोगुणमय भी कहे ( सतोगुण श्वेत है ) तो कोई बेअदबी नहीं है ।

दूसरा लाल रंग रजोगुण का द्योतक है यह कौन कह सकता है कि यह संसार भर का ऐश्वर्य किसी अन्य का हैं कविता के आचार्यों ने अनुराग का भी अरुण वरण वर्णन किया है फिर अनुराग देव का रंग और क्या होगा ? काले रंग का तात्पर्य सभी सोच सकते हैं कि सब से पक्का यही हैं ! इसपर दूसरा रंग नहीं चढ़ता ! योंही प्रेम देव सब से अधिक पक्के है उन पर दूसरे का रंग क्या जमेगा ? इम के सिवा दृश्यमान जगत के प्रदर्शक नेच हैं उन की पुतली काली होती है ! भीतर का प्रकाश का प्रज्ञान है उस की प्रकाशिनीविद्या है जिसकी सारी पुस्तके काली ही स्याहौ से लिखी जाती हैं ! फिर कहिए जिसे भीतर बाहर का
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प्रकाश है ! जो प्रेमियों को आंख की पुतली से भी प्यारा है; जो अनंत विद्यामय है ‘सर्वेदायवचैकीभवंति' उस का और कौन रंग मानें ? हमारे रसिक पाठक जानते हैं किसी सुन्दर व्यक्ति की नयन में काजल और गोरे गालों पर तिल कैसा भलालगता है कि कवियों की पूरी शक्ति और रमज्ञों का सर्वख एक बार उस कवि पर निछावर हो जाता है; फिर कहिए सर्व शीभामय परमसुन्दर का कौन रंग कल्पना कीजिएगा ? समस्त शरीर में सर्वोपरि शिर है उस पर केश कैसे होते हैं ? फिर सर्वोत्कृष्टमहेश्वर का और क्या रंग होगा ? यदि कोई लाखों योजन का बहुत बड़ा मैदान को, और रात को उस का अन्त किया चाहो तो सौ दो सौ दीपक जलाओगे, पर क्या उन से उस स्थल का छोरदेख लोगे ? नहीं, जहां तक दीपों का प्रकाश है वहाँ तक कुछ सूझेगा फिर बस 'तमासा गूढ़सग्रे' ऐसे ही हमारे बड़े २ महर्षियों की बुद्धि जिसका भेद नहीं प्रकाश कर सकती उसे अप्रकाशवत् न मानें तो क्या माने ? श्री रामचन्द्र कृष्ण चन्द्रादि को यदि अंगरेजी जमानेवाले ईश्वर न भी मानें तोभी यह मानना पड़ेगा कि हमारी अपेक्षा उन से और ईश्वर से अधिक संबन्ध था फिर हम क्यों न कहें कि यदि उस पारत्पर का कुछ अस्तित्व हैं तो रंग यही होगा क्योंकि उसके निज के लोग कई एक इसी रंग ढंग के है अब आकारो का विचार कीजिए तो अधिकतः शिवमूर्त्ति लिंगाकार होती है जिस से हाथ पांव मुख नेत्र कुछ नहीं होते , सब
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मूर्तिपूजन कहते हैं कि इस प्रतिमा को स्वयं ब्रह्म नहीं जानते न यही मानते हैं कि यह उस की यथातथ्य प्रकृति हैं; केवल परम देव की सेवा करने तथा अपना मन लगाने के लिए एक संकेत तथा चिन्ह नियत करलेते हैं यह बात आदि में शैवों के ही घर से निकली है क्योंकि लिंग शब्द का अर्थ ही चिन्ह है ! और सच भी यही है जो वस्तु बाहरी नेत्रों से देखी नहीं जाती उसकी ठीक २ मूर्त्ति ही क्या ? आनंद की कैसी मूर्ति, दुःख की कैसी मूर्ति, राग रागिनियों की कैसी मूर्ति ? केवल मन: कल्पना द्वारा उस के गुणों का कुछ २ धोतन करने के योग्य कोई संकेत; बस ठीक इसी प्रकार ज्योतिर्लिंग है ! सृष्टिकर्तत्व, अचिंत्यत्व, अप्रतिमत्वादि कई बातें लिंगाकार मूर्ति से ज्ञात होती हैं ! ईश्वर कैसा है यह बात पूर्णरूप से कोई नहीं कई सकता ! अर्थात् उस की सभी बातें गोलमाल हैं; बस यही बात मोल मठोल ठीक मूर्ति भी सूचित करती है ! यदि ‘नतस्य प्रतिमास्ति' इस वेद वचन का यही अर्थ है कि ईश्वर के प्रतिमा नहीं है तो इस का ठीका रूप के शिवलिंग ही है क्योंकि जिसमें हस्त यादादि कुछ नहीं हैं उसे प्रतिमा कौन कहेगा ! पर यदि कोई मोटी बुद्धि वाला कहे कि यदि कुछ अवयव ही नहीं है । तो यही क्यों नहीं कहते कि कुछ नहीं ही है ! तो हम उत्तर दे सकते हैं कि आंखें हों तो देखो फिर धर्म से कहना कि कुछ है अथवा नहीं है ! तात्पर्य यह है कि कुछ है एवं कुछ नहीं है यह दोनों बातें ईश्वर के विषय में न हां कहीं
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जासकें न नहीं कहते बने और हां कहना भी ठीक हैं तथा नहीं कहना भी ठीक है 'का कहिए कहते न बने कुछ है कि नहीं कछु हैन न नहीं है' क्योंकि ईश्वर तो मन वचनादिका बिषय ही नही है यहां केवल अनुभव का काम है इसी भांति शिव मूर्ति भी समझ लीजिए कुछ नहीं है तो भी सभी कुछ है ! वास्तव में यह विषय ऐसा है कि जितना सोचा समझा कहा जाय उतनाही बढ़ता जायगा, बकनेवाला जन्मभर बके पर सुननेवाला यही जानेगा कि अभी श्री गणेशायनमः हुई है । इसी से महात्मा लोग कह गए हैं कि 'ईश्वर को बाद में न ढूंढ़ो वरंच विश्वास में' इसलिए हम भी उत्तम समझते हैं कि सावयव मूर्तियों के वर्णन की ओर झुकें ! क्योंदि यदि पाठकगण विश्वास साथ भजन करेंगे तो आप उस रूप का स्वरूप समझने लगेंगे हम रूपवान की उपासक हैं हमें अरूप से क्या ! हमारे लिए तो उन्हें भी रूप धारण करना पड़ता है !

जानना चाहिए कि जो जैसा होता है उम्र की कल्पना भी वैसी ही होती है ! यह संसार का स्वभाविक धर्म हैं ! जो वस्तु हमारे आस पास हैं उन्ही पर हमारी बुद्धि दौड़ती है ! फारस अरब और इंगलिस्तान के कवि जब संसार की अनित्यता का वर्णन करने लगेंगे तब कविस्तान का नक्शा खीचेंगे क्योंकि उनके यहां स्त्रशान होते ही नहीं हैं वे यह न कहें तो क्या कहें कि (कि बड़े २ बादशाह खाक में दबे पड़े हैं यदि कब्र का तख़ता उठाकर
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देखा जाये तो शायद दो चार हड्डियां निकलेगी जिनपर यह नहीं लिखी कि यह सिकंदर की हड्डी है यह दारा की इत्यादि ) हमारे यहां उक्त विषय में स्मशान का वर्णन होगा ( शिर पीड़ा जिन की नहीं हेरी करत कपाल क्रिया तिन केरी ॥ फूल वोझहु जिन न संभारे । तिन पर बोझ काठ बहु डारे ॥ इत्यादि ) क्योंकि कब्रों की चाल यहां विदेशियों की चलाई है । यूरोप में सुन्दरता वर्णन करेंगे तो अलकावली का रंग काला कभी न कहेंगे और हिंदुस्तान में तास्त्र वर्ण के केश सुन्दर न समझे जांयगे ! ऐसे ही सब बातों में समझ लीजिए तब जान जाइएगा कि ईश्वर के विषय में बुद्धि दौड़ानेवाले सदा सब ठौर मनुष्य ही हैं । अतः सब कहीं उसके स्वरूप की कल्पना मनुष्य के स्वरूप के समान की गई है । क्रिस्तानों और मुसलमानों के यहां भी कही २ खुदा के दहिने तथा बाए हाथ का वर्णन है ! वरं व यह खुला हुवा लिखा है कि उसने आदम को अपनी सुरत में बनाया ! पादरी साहब तथा मौलवाँ साहब चाहे जैसी उलट फेर के बाते कहें पर इस का यह भाव कहीं न जायगा कि अगर खुदा की कोई शकल है तो आदम ही की सी शत्व होगी । हो चाहे जैसा पर हम यदि ईश्वर को अपना आत्मीय मानेंगे तो अवश्य ऐसा ही मानना पड़ेगा जैसों से प्रत्यक्ष में हमारा सबंध है ! हमारे माता पिता भाई बहिन राजा रानी गुरू गुरुपत्नी इत्यादि जिन को हम अपने प्रेम प्रतिष्ठा का आधार मानते हैं उन
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सब के हमारी ही भांति हाथ पांव इत्यादि हैं तो हमारा सर्वेत्कृिष्ठ बंधु कैसा होगा ? बस इसी मूल पर सब सावयव मूर्तियां मनुष्य के से रूप को बनाई जाती हैं ! विष्णुदेव की सुंदर सौम्य प्रतिमा प्रेमोत्यादनार्थ हैं क्योंकि खबसूरती पर चित्त अधिक लगता है ! भैरवादि की भयानक प्रतिकृति इस सूचना में अर्थ है कि हमारा प्रभु हमारे शत्रुओं के हेतु भयकारक है अथवा हम उस की मंगलमयी सृष्टि में बिघ्न करेंगे, तो वह कभी उपेक्षा न करेगा ! क्योंकि वह क्रोधी है ! इसी प्रकार शिवमूर्तियों में भी कई विशेषता है जिन के हम यह उपकार लाभ कर सकते हैं । शिर पर गंगा होने का यह भाव है कि गंगा हमारे देश की संसार परमार्थं की सर्वख हैं ! पापी पुण्यात्मा सब की सुखदायिनी हैं !! भारत के सब संप्रदायों में माननीया हैं !!! ( गंगा जी की महिमा अनेक ग्रंथों में वर्णित है ! जल तथा बालुका अनेक रोग नाश करती है ! अनेक नगरों की शोभा अनेक जीवों को पालना इन्हीं पर निर्भर है ! मरने पर माता पिता सब छोड देंगे पर गंगा माई अपने में मिला लेंगी इत्यादि अनेक बातें परम प्रसिद्ध हैं अतः इस बिषय को यहां बहुत न बढ़ा के आगे चलते हैं ) और भगवान भवानी भावन विश्वव्यापी हैं तो विश्वव्यापक की मूर्ति कल्पना में जगत का सर्वोपरि पदार्थ ही शिरस्थानी कहा जा सकता है ! पुराणों में गंगा जी की उत्पत्ति विष्णु भगवान के चरणारविंद से मानी गई है और शिव जी को परम वैष्णव लिखा है उस परम वैष्णवता
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की पुष्ठि इस से उत्तम और क्या हो सकती है कि यह उन के चरणोदक को शिर पर धारण करें ! योंही विष्णु देव की परम शैव कहा है क्या है कि लक्ष्मीपति, सदा सहस्त्र कमल लेके पार्वतीपति की पूजा किया करते हैं एक दिन एक कमल घट गया तो उन्हों ने यह विचार के कि हमारा नाम पुंडरीकाक्ष है एक नेत्र रूपी पुंडरीक अपने इष्ट देव के पादपद्म पर अर्पण कर दिया ! सच है इस से अधिक शैवता और क्या होगी ! शास्त्रार्थ के लती ऐसे उपाख्यानों पर अनेक कुतर्क कर सकते हैं पर उन का उत्तर हम कभी पुराण प्रतिपादन में देंगे इस स्थल पर केवल इतना ही कहेंगे कि कविता पढे बिना ऐसे लेख समझना कोटि जन्म का असंभव है ! हाँ इतना कह सकते हैं कि यह भगवान वैकुंठ नाथ की शैवता और कैलाशनाथ की वैश्नवता का अलंकारिक वर्णन है ! वास्तव में विष्णु अर्थात् व्यापक एवं शिव अर्थात कल्याणमय यह दोनों एकही प्रेम स्वरूप के नाम हैं । पर उस का वर्णन पुर्णतया असंभव होने के कारण कुछ २ गुण एकत्र करके दो रूप कल्पना कर लिए गए हैं जिस में कवियों की वाणी को सहारा मिलै ! हमारा प्रस्तुत विषय शिव मूर्ति है और वह शैव समाज का आधार है अतः इन अप्रतक्यं विषयों का दिग्दर्शन मात्र करके अपने शैव भाइयों से पूछा चाहते हैं कि आप भगवान गंगाधर के पूजक होके वैष्णवों के साथ किस वीरते पर द्वेष रख सकते हैं ? यदि धर्म से अधिक मत वाद प्रिय हो तो अपने प्रेमाधार को गंगाधर
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अथच परम भागवत कहना छोड़ दीजिए ! नहीं तो सच्चा शैव वही हो सकता है जो वैष्णव मात्र को अपना देवरा समझे । जब परम वैष्णव महादेव हैं तो साधारण वैष्णव देव क्यों न होंगे ? इसी प्रकार यह भी समझने की बात है कि गंगाजी परम शक्ति हैं ! इस से शाक्तो के साथ विरोध रखना भी अनुचित है ! यद्यपि हमारी समझ में तो आस्तिक मात्र को किसी से द्वेष रखना पाप हैं ! क्योंकि सब हमारे जगदीश ही की प्रजा हैं ! इस नाते सभी हमारे बांधव हैं ! विशेषत: शैव समूह को वैष्णव और शाक्त लोगों से विशेष संबन्ध ठहरा अतः इन्हें तो परस्पर सदा मित्रता से रहना चाहिए ! और सुनिए गंगापत्य हमारे प्रभु के पुत्र को ही पूजते हैं अतः इन के लिये भी सदा शिव से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हरहु कृपा शिशु सेवक जानी' सूर्यनारायण शिवशंकर का नेत्रहो हैं ' बंटे् सूर्यो शशांक बन्हि नयन ' फिर क्या नयन शरीर से अलग हैं जो तुम सूर्योपासकों को अपने से भिन्न समझते हो ? भारत का क्या ही सौभाग्य था यदि यह पांचो मत एकता धारण कर के पंच परमेश्वर बनते ! अस्तु अपने२ मत का तत्व समझेगे तभी सही ! शिवमूर्ति में अकेली गंगा कितनी हितकारिणी हैं इस पर जितना सोचियेगा उतना हौ कल्याण है ! अब दूसरी छबि देखिए ।

बहुत सी मूर्तियों के पांच मुख होते हैं जिस से यह जान पड़ता है कि यावत् संसार और परमार्थ का तत्व तो
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आप चार वेदों में पाइएमा पर यह मत समझिए कि वेद विद्या ही से उनका दर्शन भी मिल जायगा ! जो कुछ चार वेद बतलाते हैं उस से भी उन का रूप गुण अधिक है ! वेद उन की वाणी हैं पर चार पुस्तकों ही पर उन की वाणी समाप्त नहीं हो गई ! एक सुख और है एवं वह सब के ऊपर है ! जिस की मधुर वाणी केवल प्रेमी सुनते हैं ! विद्याभिमानो जन बहुत होगा चार वेद द्वारा चार फल ( अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष ) प्राप्त कर लेंगे ! पर वुह पंचम् सुख संबंधी सुख औरों के लिए है ! जिसने चारो ओर से अपना मुख फेर लिया है वही प्रेममय सुख का दर्शन पाता है ।

तीन नेत्र से यह अभिप्राय है कि वह वैलोक्य एवं विकास के लोगों के विगुणात्मक (सात्विकं राजस तामस) तीनों प्रकार के ( कायिक वाचक मानसिक ) भावों को देखते हैं ! सूर्य, चंद्रमा, अग्नि उन के नेत्र हैं अर्थात् उन का विचार करने वाले के हृदय में प्रकाश होता है ! उन की आंखो देखने वाले ( सर्वथा उन्हीं के आश्रित ) को आनंद मिलता है ! शीतलता प्राप्त होती है ! उन के विमुख जला करते हैं ! या यों समझ लो कि वे आंख उठाते ही हमारे पाप ताप शाप दुःख दुर्गुण दुराशा सब को भस्म कर देते हैं।

उन के मस्तक पर दुइज का चंद्रमा है अर्थात् जो कोई अपने को महा क्षीण अति दीन समझता है ' पाप पीनस्व दीनस्व कृष्ण एक गतिर्मम् ' जिस के मन बचन से सदा निकला करता है ! वही भगवान की शिरोधार्य है ! ‘बंदों सीताराम पौद जिन्हें परम प्रिय खिन्न' ।
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यही भाव । कपाल माला से भी है जो होते हुए मृतकवत रहते हैं--अर्थात् अपने जीवन को कुछ समझते ही नहीं ! पराए लिए निज प्राण ह्रणवत समझते हैं ! वही लोग उन के गले का हार हैं !

चिंता भस्म सदृश अपने को निरा निकम्मा नहा अपावन समझो ! तो वुह तुम्हें अपना भूषण समझेगे ! जब तुम सच्चे जी से अपने अपने पापों को स्वीकार करलोगे ! गद-गद सूर से कहोगे कि हे प्रभो ! हम सर्प हैं ! संसार के दिखाने मात्र को ऊपर से चिकने २ कोमल २ बने रहते हैं । पर भीतर ( हृदय में ) विष ( कुवासना ) ही भरा है ! 'सो सम कौन कुटिल खल कामी । तुम से काह छिपी करुना निधि ! सव के अंतरज्ञामी ॥ इत्यादि' कहने ही से वुह तुम्हें अपनावैगे !!! यदि हम को यह अभिमान हो कि हम पूरे नक्षत्र नायक के समान कोर्तिमान हैं ! तो संसार को चाहे जैसी चमक दमक दिखा ले ! पर है वास्तव में कलंकी ! हमारा अस्तित्व दिन २ क्षीण होने वाला है ! ऐसे अहंकारी को भोलानाथ कभी अंगीकार न करेंगे ! उन्हें तो वही प्यारा हैं । वे तो उसी को वृद्धि करेंगे ! उसी को निष्कलंक बनावेगे ! जो शशि सम होने पर भी दीनता स्वीकार करे ! चंद्रशेखर नाम का यह भी भाव है कि 'चंद आहलादने' धातु से चंद्र शुब्द बनता है और सच्चा सुख प्रेम ही में होताहै । एवं नित्य बर्द्धमान, निष्कलंक, अमृत मय होने से द्वितीया के चंद्रमा से प्रेस का सादृश्य भी हैं इस
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से यह अर्थ हुआ कि जिस के गुणों का सर्वोपरि भूषण प्रेम है वही चंद्रमौलि है !!! शिव चिता भस्मधारी हैं इस से उन के उपासक भी भस्म लगाया करते हैं जिस से बहुत डाक्टरों को मतानुसार शरीर के अनेक रोग नाश होते हैं ! और बिजली की शक्ति बढ़ती है पर आत्मा को भी यह लाभ हो सकता है कि जब २ अपने शरीर की देखेंगे तब २ प्रभु के चिता भस्म लेपन की सुध होगी और चिता का ध्यान होते ही संसार को अनित्यता का कारण बना रहेगे ! अगले बुद्धिमानों का वचन है कि 'ईश्वर और मृत्यु को सदा याद रखना चाहिए, ! इस से बहुतेरी बुराइयां छुटी रहती हैं ! इसी भांति रुद्राक्ष एवं बड़े २ बाल भी स्वास्थ्य के लिए उपयोगी हैं पर यह विषय अन्य है अतः केवल वर्णनीय विषय लिखा जाता है ।

शिवमूर्ति के गले में विष की श्वामता का चिन्ह होता है जब समुद्र के मथने के समय महा तीक्ष्ण हलाहल निकला और कोई उसकी भार न सह सका तब आप उसे पान कर गए ! तभी से गरल कंठ कहलाते हैं इस पर थी पुष्पदंताचार्य में कितना अच्छा सिद्धांत निकाला है कि ‘विकारोपिश्लाघ्यो भुवन भयभंग व्यसनिनां' यहां हम शिव भक्तों से प्रश्न करेंगे कि जब हमारे प्रभु ने जगत की रक्षा के हेतु विष तक पी लिया है तो हमें निज देश के हिताधे क्या कुछ भी कष्ट अथवा हानि न सहनी चाहिए ?

उन के एक हाथ में त्रिशूल है अर्थात् दैहिक दैविक
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भौतिक दुःख उन की मुट्ठी में हैं ! फिर उन के भक्त संसार से क्यों न निर्भय रहे ! उस सर्व शक्तिमान के पंजे से छूटेंगे तब हम पर चोट करेंगे ! भला यह कब सम्भव है ? हमारा प्रभु हमारी रक्षा के अर्थ सदा शस्त्र धारण किएँ रहता है फिर हम क्यों डरें । हमारे विश्वनाथ त्रिशूल प्रहारक हैं अतः हमें कोई निष्कारण सतावैगा वुह कहां बच के जायगा ? हमारा या यों कहो कि संसार के शुभचिंतकों का शय पृथिवी स्वर्ग पाताल कहीं न बचेगा ! भगवान का नाम ही त्रिपुरारि है अर्थात् वे लोक्य के असुर प्रकृति वालों का शत्रु हा प्रिय शैव गुण ! यदि तुम में कोई भी आसुरी प्रकृति हो सार्थ के आगे देश की चिंता न हो । देशी भाइयों से द्वेष हो ! आलस्य हो ! दंभ हो ! पर संताप हो ! तो डरो सृष्टि संहारक के त्रिशत से ! और यदि सरलता के साथ उन के चरण और सदाचरण में श्रद्धा है तो समस्त सुल को वे स्वयं प्रहार कर डालेंगे । कभी २ कालचक्र की गति से सच्चे शैय को भी रोग वियोगादि शूल दुख देते हैं पर उसे संसारी लोगों की भांति कष्ट नहीं होती ! क्योंकि निश्चय रहता है कि यह प्रेमपात्र का चोचला मात्र है ! न जाने किस उमंग में आके विशूल दिखला दिया है पर हन पर चाट कदापि न करेंगे ।

दूसरे हाथ में डमरु है पंडित लोग जानते हैं कि व्यांकरणादि कई विद्याओ के अइउऋलुकादि मूल सूत्र इसी डमरू के शब्द से निकले हैं वह इस बात का इशारा है कि
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सब विद्या उन की मूठी में हैं ! पर हमारी समझ में एक बात आती है कि यदि वे केवल त्रिशूलधारी ही होते तो हम निर्वलो को केवल उन का भय होता इसी लिए एक वाला भी पास रखते हैं जिस में हमें निश्चय रहे है कि निरे न्यायी निरे दुष्ट दलन, निरे युद्ध प्रिय हो नहीं हैं बरंच अपने लोगों के लिए गान रमिक भी है ! मनुष्य की मनोवृत्ति गाने बजाने की ओर आप ही खिंच जाती है फिर भला जिसकी ओर चित्त लगाना हमें परमावश्यक है वुह प्रभु हमारे चित्त को अपनी ओर खीच ने के अर्थ गान प्रिय क्यों न हो ! सैकड़ों बार देखा गया है कि कभी २ किसी करण के बिना भी हमारा मन उग के निकट जा रहता है इस का कारण यही है कि उन का रूप गुण स्वभाव हृदययाही है ! धन्य है उस पुरुष रत्न का जीवन जिस के मन की आखो में सदा उन की छवि बसती है । और अंत: करण के कारण में नित्य प्रेम डमरू की ध्वनि पूरी रहती है ! संसार में जितने सुहावने शब्द सुनाई देते हैं सब उसी डमरू के शब्द है ! क्योंकि सब को उन्हीं के हाथ का सहारा है ।

कोई २ मूर्ति अडांगी होती है अर्थात् एक ही मूर्ति में एक ओर शिव एक ओर पार्वती देवी ऐसी झांकी से यह अकथ्य महिमा बिदित होती है कि वुह अष्ठ प्रहर अपनी प्यारी को बामांक में धारण करने पर भी योगश्वर एवं मदनांतक हैं ! क्या यह सामर्थ्य किसी टूसरे को हो सकती है ? हां जिस पर उन्हीं की विशेष दया हो ! धन्य प्रभो !'
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यह दूध और खटाई की एकत्र स्थिति तुम्हीं कर सकते हो' हमारी कवि समाज के मुकुटमणि गोस्वामी तुलसी दास जी ने जनक महाराज की प्रशंसा में कहा है कि 'योग भोग महं राखेउ गोई । राम बिलोकत प्रगटेउ सोई ।' यदि गोस्वामी महाराजा को हम से दैहिक संबंध होता तो उन से एक ऐसी चौपाई अनुरोध पूर्वक बनवाते कि ' योग भोग दोऊ प्रगट दिखाई । सूचत अति अतर्क्य प्रभुताई ' हमारे कान्यकुब्ज भाई अधिक तर शैव ही हैं परदेश के दुर्भाग्य से ऐसी प्रतिमा देखके यह उपदेश नहीं सीखते कि ' जो हरि सोई राधिका को शिव सीई शक्ति । जो नारी सोइ पुरुष है थामे कक्त न विभक्ति ' नहीं तो शैवों का यह परम कर्तव्य है कि अपनी गृहदेवी से इतना स्नेह करें कि ' एक आन दो का़लिब ’ बनजाय ! और व्यभिचार के समय यह ध्यान रक्खें कि हमारे भोला बाबा ने जिस कामदेव को भस्म कर दिया है यदि हम उसी भस्मावशिष्ठ मन्मथ के हरायल बन जायगी तो हर भगवान को क्या मुंह दिखावेगे ! ! !

कोई २ प्रतिमा बृषभारूढ होती है पर वृषभका वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं यहां केवल इतना और कहेगे कि नंदिकेश्वर ही की प्रीति के वश वे पशुपति अर्थात् पशुओ के पालनेवाले कहाते हैं अतः पशुओं का पालन विशेषतः वृषभ तथा उसकी अधगिनी का पोषण शैवो का परम धर्म हैं !
[ २९ ]शिव मूर्ति क्या और कैसी है यह तो बड़े २ ऋषि भी नहीं कह सकते पर जैसी बहुत सी प्रतिकृति देखने में आती हैं उनका कुछ २ वर्णन किया गया यद्यपि कोई बड़े बुद्धिमान इस विषय में लिखते ती बहुत सी उत्तमोत्तम बाते निकलती पर इतना लिखना भी कुछ तो किसी का हित करेहीगा ! मरने के पीछे कैलाशधाम तो विश्वास की बात हैं हमने न कभी कैलाश देखा है न देखने वाले से भेंट तथा पत्त्रालाप किया है हां यदि होगा तो प्रत्येक मूर्ति पूजक को हो रहेगा ! पर हमारी इस अक्षर मयी मूर्ति को सच्चे सेवकों को संसार ही में कैलाश का सुख प्राप्त होगा ! इम में संदेह नहीं है । क्योंकि जहां शिव हैं वहीं कैलाश है तो अब हमारे हृदय में शिव होंगे तो हृदय नगर कैलाश क्यों न होगा ? हे विश्वपते ! कभी इस मनोमंदिर में विराजोगे ! कभी वुह दिन दिखाओगे कि भारतवासी मात्र तुम्हारे ही जय और यह पवित्रभूमि कैलाश बने !

किस प्रकार अन्य धातु भाषाआदि मुर्तियो का नाम श्री रामनाथ, बैद्यनाथ, अनन्देश्वर, खेरेश्वरादि होता है वैसे घूस अक्षरमया मुर्ति के भी कई नाम हैं शृदएश्वर , मंगलेश्वर , भारतेश्वर इत्यादि पर मुख्य नाम प्रेमेश्वर है अर्थात् प्रेम मय ईश्वर ! इन का दर्शन की प्रेमचक्षु के बिना दुर्लभ है । जब अपनी अकर्मण्यता और उनके उपकारों का ध्यान जायेगा तब अवश्य हृदय उमड़ेग और नेत्रों से अश्रुधारा वह चलेगा ! उसी धारा का नाम प्रेम गंगा है इन्हीं प्रेम गंगा के
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जब से स्नान कराने का महात्म्य है ? हृदय कमल चढ़ाने का अक्षय पुण्य है ! यह तो इस मूर्ति की पूजा है जो प्रेम बिना नहीं हो सकती हैं ! पर यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जब मन में प्रेम होगा तभी संसार के यादत् मूर्तिमान तथा अमुर्तिमान पदार्थ शिवमूर्ति अर्थात् कल्याण का रूप निश्चित होंगे । नहीं तो सोने और हीरे की भी मूर्ति तुच्छ है ! यदि उससे स्त्री का गहना बनवाते ती उस की शोभा होती तुम्हें सुख होता भाई चारे में नाम होता विपत्ति में काम होता पर मूर्ति से तो कुछ भी न होगा ! फिर सृत्तिकादि का क्या कहना है वह तो तुच्छ हुई हैं ! केवल प्रेम ही के नाते ईश्वर हैं नहीं तो घर की चक्के से भी गए बीते ! यही नही प्रेम के बिना ध्यान ही में क्या इश्वर दिखाई देगा ? जब चाहें आंखे मूंद के अन्धे की नकलकर देखो अंधकार के सिवाय कुछ सूझे तो कहना ! वेद पढ़ने से हाथ मुंह दोनों दुखेंगे ! अधिक श्रम करोगे दिमाग में गरमी चढ़ जायगी ! अस्त ! इन बातों के बढ़ाने से क्या है, जहाँ तक सहदयता से विचारिएगा वहां तक यही सिद्ध होगा कि प्रेम के बिना वेद झगड़े की जड़ ! धर्म बे सिर पैर के काम ! स्वर्ग शेखचिल्ली का सहल और मुक्ति प्रेत की बहिन है ! ईश्वर का तो पता ही लगना कठिन है, ब्रह्मशब्दो नपुंसक अर्थात् जड़ हैं ! उस को उपमा आकाश से दी जाती हैं 'खम्ब ह्य' और अकाश है शुन्य ! पर हां यदि मनोमंदिर में प्रेम का प्रकाश हो तो सारा संसार शिव मय है क्योंकि, प्रेम ही
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वास्तविक शिवमूर्ति अर्थात् कल्याण का रूप है ! जब शिवमुर्ति समझ में आ जायगी तब यह भी जान जायगे कि उस की पूजा जो जिस रीति से करता है अच्छा ही करता है । पर तौ भी शिवपूजा की प्रचलित पद्धति का अभिप्राय सुन रखिए जिससे जान जाइए कि मूर्तिपूजन कोई पाप नहीं है ! शिवजी की पूजा में सब बातें तो वही हैं जो सब देवताओं की पूजा में होती हैं और सब प्रतिमापूजक समझ सकते हैं कि स्नान चंदन पुष्प धुप दीपादि मंदिर की शोभा और सुगंधि प्रसारण के द्वारा चित्त को प्रसन्नता के लिए हैं जिस में ध्यान करती बेला मन आनंदित रहे क्योंकि मैले कुचैले स्थान में कोई काम करो तो जी से नहीं होता ! नेवेद्यत्यादि इसलिए हैं कि हम अपने इष्ठ को खाते पीते सोते जागते सदा अपने साथ समझते हैं ! स्तुति प्रार्थनादि उन की महिमा और अपनी दीनता का स्मरण दिलाने की हैं पर शिवपूजा में इतनी बाते विशेष हैं एक तो मदार के फूल धतूरे के फल इत्यादि कई एक ऐसे पदार्थ चढ़ाए जाते हैं जो बहुधा किसी काम में नहीं आते इस से यह बात प्रदर्शित होती है कि जिस को कोई ने पूछे उसे विश्वनाथ ही स्वीकार करते हैं ! अथवा उन की पूजा के लिए ऐसी वस्तुओं की आवश्यकता नहीं है जिन में धन की आवश्यकता हो क्योंकि वे निर्धनों का धन हैं उन्हें केवल गृहस्त्र में मिलनेवाली वस्तु भेंट कर दो वें बड़े प्रसन्न हो जायंगे क्योंकि अकृत्तिमता उन्हे प्रिय है ।
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दूसरे विल्वपत्र चढ़ाने का भाव 'चिदल विगुणाकार' इत्यादि श्लोक ही से प्रगट है अर्थात् सतोगुण रजोगुण तमोगुण जो हमारी आत्मा के अंग है उन की भेंट कर देना ! यहां तक उन से दूर रहना कि उन्हें शिव निर्माल्य बना देना ! जैसी कि भगवान कृष्णचन्द्र कौ आज्ञा है ' निस्वैगुणयो भवार्जुन ' अर्थात् अपना मन उसी पर निछावर कर देना ! बस यही तो धर्म की परा काष्ठा है !

तीसरे मूर्तिं की चढ़ी हुई वस्तु नहीं ली जाती इनका प्रयोजन यह है कि हमारा उनका कुछ व्यवहार तो हुई नहीं कि लौटा लेने के लिए कोई वस्तु देते हों वे तो हमारे मित्र हैं ' ग्रान्नो मित्र: ' और मित्र को कोई वस्तु भेंट करके फेर लेना क्या !

चौथी बात है गाल बजाना जिसका तात्पर्य पुराणों में सबने सुना होगा कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ में शिव का भाग न देख के जब सती जी ने योगाग्नि में अपनी देह दाह कर दी तब शिव के गणों ने यज्ञ विध्वस कर डाली और अशिव याजक (दक्ष) का शिर काट के हवन कुंड में स्वाहा कर दिया पीछे से सब देवताओ की रुचि रखने को उस के धड़ में बकरे का शिर लगा के पुनर्जीवन दिया गया और उस ने उसी मुख से स्तुति की इसी के कारण से आज तक गलमंदरी बजाई जाती है इस 'आख्यान में दो उपदेश हैं । एक तो यह कि सती अर्थात् पूजनीया पतिव्रता वही स्त्री हैं जो अपने प्यारे पति की प्रतिष्ठा के आगे सगे बाप तथा
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अपने देह तक की पर्वा न करें ! वही विश्वेश्वर को प्यारी होती हैं ! दूसरे वह कि शिव विमुख होके अपनी दक्षता का अभिमान करनेवाला यज्ञ भी करे तौ भी अनर्थ हो करता है ! वह प्रजा पति ही क्यों न हो पर वास्तव में मृतक है ! पशु है ! वरंच पशु से भी बुरा नर के रूप में बकरा है ! यह तो पुराणोक्त ध्वनि है पर हमारी समझ में यह आता है कि जिन कल्याणकारी हृदय विहारी की महिमा कोई महर्षि भी नहीं गान कर सकते वेद स्वयं नेति २ कहते हैं श्रीपुष्पदंत जी ने जिन की स्तुति में यह परम सत्य वाक्य लिखा है कि--

काजर के घिसि पर्वत को मसि भाजन सर्व समुद्र बनावै । लेखनि दैवतरुन को डारहि कागद भूमिहिं को ठहरावै ॥ या विधि सारद क्येां न प्रताप सदा लिखिने मह वैस वितावै । नाथ! तहु तुम्हारी महिमा कर कैसे हु ने कहु पार न आवै ॥१॥

उन की स्तुति करने का जो क्षुद्र मानव विचार करे वुह गाल बजाने अर्थात् वेपर की उड़ाने के सिवा क्या करता है ? इसी बात की सूचनार्थ स्तुति के दो एकं श्लोक पढ़ के गाल से शब्द किया जाता है कि महाराज ! तुम्हारी स्तुति तो हम का कर सकते हैं यों ही कहौ गाल बजाया करें ! प्रसिद्ध है कि ऐसा करने से भवानी पति बड़े प्रसन्न होते हैं, भला सच्ची बात और युक्ति के साथ कही जायगी तो कौन सहृदय न प्रसन्न होगा ? फिर वे तो सहृदय समाज के आदिदेव ( गणेश जी ) के भी पिता हैं !
[ ३४ ]यद्यपि हमारा कोई मत नहीं है क्योंकि हमारे परम बुद्धश्री हरिश्चंद्र ने हमें यह सिखलाया है कि ‘मत का अर्थ हैं नहीं पर जब हम अपने पश्चिमोत्तर देश की ओर देखते हैं तो एक बड़े भारी समूह को शैव ही पाते हैं हमारे ब्राह्मण भाई विशेषतः कान्यकुञ्ज तिस्पर भी षटकुलस्य कदाचित सौ में निन्नानबे इसी ओर हैं इधर रहने वाले गौड़ सारस्वत भी तीन भाग से अधिक शैव ही हैं ! क्षत्रियों में राजपूत सौ में पांच से अधिक दूसरे मत के न होंगे ! खत्री भी फौ सैकड़ा दो ही चार हों तो हों ! वैश्वो में हमारे भोमर दोसरों को भी यही दशा है । हां अग्रवाल थोड़े होंगे । कायस्थ तो सौ में कार सहम में दो चार होंगे जो शिवोपासक न हों ! इस से हमारा यह कहना कदापि झूठ न होगा कि

हमारे यहां तीन भाग से अधिक इसी ढर्रें में चल रहे हैं ! वेद में भी यदि कुछ ऋचा विष्णु इत्यादि नामों से स्तवन करती हैं तो बहुत सी ऋचाए हमारे भोला बाबा ही की गीत गाती हैं ! ( नमः शंभवायच मयोभवायच नमः शंकरायच मरुस्करायक नमः शिवायच शिवतरायच ) ऐसा दुसरे नामों से भरा हुवा मंत्र कदाचित कोई ही हो ! इस के अतिरिक्त इस मार्ग में अकृतिमता बहुत है । बड़े कट्टर बना चाहो तो नहा के तीन उंगली भस्म में डुबो के माथे पर रगड़ लिया करो न जी चाहे तो यह भी न सही पूजा भी केवल लोटा भर पानी तक से हो सकती है ! जिस में निरी अकृतिमता, धोतौ, नैती, कंठी, माला, कुछ न देखिए
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उसे जान जाइए शैव है ! हमारे बहुत से मित्र आर्यसमाजी हैं बहुतेरे अंगरेज़ी ढंग के हैं बहुतेरे हमारे ऐसे हैं वें भी कभी लगावेंगे तो चिपुंड ही लगावैगे ! माला या कंठा रुद्राक्ष ही को पहिनेगे । फिर हमारी तबीयत क्यों न इस सीधी चाल पर झुके ? क्यों न हमारे मुंह से बेतहाशा निकले बुबुबुबुबुबुबुबु बोम महादेव कैलाशपी: ट्न टन् टन् नेति नेति नेती । [ ३६ ]

विद्यार्थी

भूगोलसंग्रह ।

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आज तक जितने भूगोल के ग्रन्थ छपे हुए हैं उन सबों को देख कर यह भूगोल बनाया गया है । इस में सहज रीति से इम्तिहान में पास होने के
लिये हर एक विषय को ग्रन्थ के प्रारंभ में इकट्ठा कर के लिखा है जैसे अंगरेजों की हवा खाने की जगह, लोहे और सोने की खानि आदि हर एक कमिश्नरी का व्यवरा चक्र में लिखा गया है और आज तक के जितने सवाल मिडल स्कूल वा अपरप्राइमरी में दिये गये हैं उन सबो को इकट्ठा कर लिखा है । कहांर को कौन २ वस्तु प्रसिद्ध है। तीर्थ खान, किला पौर छावनी की जगह आदि परीक्षा के योग्य सब वस्तु चुनी गई हैं। अद्योपति देखने ही से भूगोल इस्लामलक हो जायगा । आज तक जितने भूगोल बने हैं सबो से यह हरएक विषय में बढ़ा है ३२० पेज की किताब हैं भीड़ सत्य केवल ।) आने हैं । डाक महसूस अलवत्ते एक आना हैं । पुस्तक भी थोड़ी ही छपी हैं यदि इम्तिहान में अवश्य पास करना है तो षट आना के लिये जो में खटपट मत कीजिये नहीं तो इम्तिहान में कोई ऐसा उपकारक भूगोल नहीं है जो इस की बराबरी करे और न ऐसी सस्ती कोई पुस्तक मिलेगी । अब आप पुस्तक देखेंगे तो खुद यह बात जी में बैठ जायगी । यदि भूगोल का प्रचार कृपा तो हिसाब बगैरह की ऐसी ही सस्ती पुस्तक विद्यार्थियों के हित बनाई जायगी ।

यह किताब नीचे लिखे नाम की दुकानों पर हैं :---

रमेश चन्द्र सूर बुकसेलर बांकीपुर ।

कालीपदो सूर बुकसेलर बांकीपुर ।

मुहम्मद इसहाक कुतुबफ़रोश बांकीपुर।