सामग्री पर जाएँ

संग्राम/३.२

विकिस्रोत से
संग्राम
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ १५७ से – १६३ तक

 


दूसरा दृश्य

(स्थान—राजेश्वरीका सजा हुआ कमरा, समय—दोपहर ।)

लौंडी—बाई जी, कोई नीचे पुकार रहा है।

राजेश्वरी—(नींदसे चौंककर) क्या कहा आग लगी है?

लौंडी—नौज; कोई आदमी नीचे पुकार रहा है।

राजे०—पूछा नहीं कौन है, क्या कहता है, किस मतलबसे आया है। संदेसा लेकर दौड़ चली, कैसे मज़ेका सपना देख रही थी।

लौंडी—ठाकुर साहबने तो कह दिया है कि कोई कितना ही पुकारे, कोई हो, किवाड़ न खोलना, न कुछ जवाब देना। इसीलिये मैंने कुछ पूछपाछ नहीं की।

राजे०—मैं कहती हूँ जाकर पूछो कौन हो?

(महरी जाती है और एक क्षण में लौट आती है।)

लौंडी—अरे बाईजी बड़ा गजब हो गया। यह तो ठाकुर साहबके छोटे भाई बाबू कंचनसिंह हैं। अब क्या होगा?

राजे०—होगा क्या, जाकर बुला ला। लौंडी—ठाकुर साहब सुनेंगे तो मेरे सिरका एक बाल भी न छोड़ेंगे।

राजे०—तो ठाकुर साहबको सुनाने कौन जायगा। अब यह तो नहीं हो सकता कि उनके भाई द्वारपर आयें और मैं उनको बात तक न पूछूं। वह अपने मनमें क्या कहेंगे! जाकर बुला ला और दीवानखाने में बिठला। मैं आती हूँ।

लौंडी—किसीने पूछा तो मैं कह दूँगी, अपने बाल न नुचवाऊंगी।

राजे०—तेरा सिर देखनेसे तो यही मालूम होता है कि एक नहीं कई बार बाल नुच चुके हैं। मेरी खातिरसे एक बार और नुचवा लेना। यह लो इससे बालोंके बढ़ने की दवा ले लेना।

(लौंडी चली जाती है।)

राजे०—(मनमें) इनके आनेका क्या प्रयोजन है। कहीं उन्होंने जाकर इन्हें कुछ कहा सुना तो नहीं? आप ही मालूम हो जायगा। अब मेरा दांव आया है। ईश्वर मेरे सहायक हैं। मैं किसी भांति आप ही इनसे मिलना चाहती थी। वह स्वयं आ गये। (आइनेमें सूरत देखकर) इस वक्त किसी बनाव चुनावको जरूरत नहीं। यह अलसाई मतवाली आंखें सोलहों सिंगारके बराबर हैं। क्या जाने किस स्वभावका आदमी है। अभी तक विवाह नहीं किया है, पूजापाठ, पोथी पत्रेमें रात दिन लिप्त रहता है। इसपर मन्त्र चलना कठिन है। कठिन हो सकता है पर असाध्य नहीं है। मैं तो कहती हूँ कठिन भी नहीं है। आदमी कुछ खोकर तब सीखता है। जिसने खोया ही नहीं वह क्या सीखेगा। मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। भगवानने यह रूप दिया था तो ऐसे पुरुषका संग क्यों दिया जो बिलकुल दूसरोंकी मुट्ठीमें था! यह उसीका फल है कि जिन सज्जनोंकी मुझे पूजा करनी चाहिये थी, आज मैं उनके खूनकी प्यासी हो रही हूँ। क्यों न खूनकी प्यासी होऊँ? देवता ही क्यों न हो जब अपना सर्वनाश कर दे तो उसकी पूजा क्यों करूं। यह दयावान हैं, धर्मात्मा हैं, गरीबों का हित करते हैं पर मेरा जीवन तो उन्होंने नष्ट कर दिया। दीन दुनिया कहींका न रखा। मेरे पीछे एक बिचारे भोले भाले, सीधे सादे आदमीके प्राणोंके घातक हो गये। कितने सुखसे जीवन कटता था। अपने घरमें रानी बनी हुई थी। मोटा खाती थी, मोटा पहनती थी पर गांव भरमें मरजाद तो थी। नहीं तो यहां इस तरह मुंहमें कालिख लगाये चोरों की तरह पड़ी हूं जैसे कोई कैदी काल-कोठरीमें बन्द हो। आगये कंचन सिंह, चलुं। (दीवानखानेमें आकर) देवरजीको प्रणाम करती हूँ।

कंचन—(चकित होकर) (मनमें) मैं न जानता था कि यह ऐसी सुन्दरी रमणी है। रम्भाके चित्रसे कितनी मिलती जुलती है! तभी तो भाई साहब लोट पोट हो गये। वाणी कितनी मधुर है। (प्रगट) मैं बिना आज्ञा ही चला आया, इसके लिये क्षमा मांगता हूँ। सुना है भाई साहबका कड़ा हुक्म है कि यहां कोई न आने पावे।

राजे०—आपका घर है, आपके लिये क्या रोक टोक। मेरे लिये तो जैसे आपके भाई साहब वैसे आप। मेरे धन्य भाग कि आप जैसे भक्त पुरुषके दर्शन हुए।

कंचन—(असमञ्जसमें पड़कर, मनमें) मैंने काम जितना सहज समझा था उससे कहीं कठिन निकला। सौन्दर्य कदाचित् बुदशक्तियोंको हर लेता है। जितनी बातें सोचकर चला था वह सब भूल गई, जैसे कोई नया पट्ठा अखाड़ेमें उतरते ही अपने सारे दांव पेंच भूल जाय। कैसे बात छेड़? (प्रगट) आपको यह तो मालूम ही होगा कि भाई साहब आपके साथ कहीं बाहर जाना चाहते हैं?

राजेश्वरी—(मुसकिरा कर) जी हां यह निश्चय हो चुका है।

कंचन—अब किसी तरह नहीं रुक सकता?

राजे०—हम दोनोंमेंसे कोई एक बीमार हो जाय तो रुक जाय।

कंचन—ईश्वर न करें, ईश्वर न करें, पर मेरा आशय यह था कि आप भाई साहबको रोकें तो अच्छा हो। वह एक बार घरसे जाकर फिर मुशकिलसे लौटेंगे। भाभीजीको जबसे यह बात मालूम हुई है वह बार-बार भाई साहबके साथ चलनेपर जिद कर रही हैं। अगर भैया छिपकर चले गये तो भाभीके प्राणोंहीपर बन जायगी।

राजे०—इसका तो मुझे भी भय है क्योंकि मैंने सुना है ज्ञानीदेवी उनके बिना एक छन भी नहीं रह सकतीं। पर मैं भी तो आपके भैयाहीके हुक्मकी चेरी हूँ, जो कुछ वह कहेंगे उसे मानना पड़ेगा। मैं अपना देश, कुल, घरबार छोड़कर केवल उनके प्रेमके सहारे यहां आई हूं। मेरा यहाँ कौन है? उस प्रेमका सुख उठानेसे मैं अपनेको कैसे रोकूँ। यह तो ऐसा ही होगा कि कोई भोजन बनाकर भूखों तड़पा करे, घर छाकर धूपमें जलता रहे। मैं ज्ञानीदेवीसे डाह नहीं करती, इतनी ओछी नहीं हूँ कि उनसे बराबरी करूँ। लेकिन मैंने जो यह लोकलाज, कुल मरजाद तजा है यह किस लिये?

कंचन—इसका मेरे पास क्या जवाब है।

राजे०—जवाब क्यों नहीं है पर आप देना नहीं चाहते।

कंचन—दोनों एक ही बात है, भय केवल आपके नाराज होनेका है।

राजे०—इससे आप निश्चिन्त रहिये, जो प्रेमकी आँच सह सकता है, उसके लिये और सभी बातें सहज हो जाती हैं।

कंचन—मैं इसके सिवा और कुछ न कहूँगा कि आप यहाँसे न जायें।

राजे०—(कंचनकी ओर तिर्छी चितवनसे ताकते हुए) यह आपकी इच्छा है?

कंचन—हाँ यह मेरी प्रार्थना है। (मनमें) दिल नहीं मानता, कहीं मुँहसे कोई बात निकल न पड़े।

राजे०—चाहे वह रूठ ही जायँ?

कंचन—नहीं, अपने कौशलसे उन्हें राजी कर लो।

राजे०—(मुसकिराकर) मुझमें यह गुण नहीं है।

कंचन—रमणियों में यह गुण बिल्ली के नखोंकी भांति छिपा रहता है। जब चाहें उसे काममें ला सकती हैं।

राजे०—उनसे आपके आनेकी चरचा तो करनी ही होगी।

कंचन—नहीं, हरगिज नहीं। मैं तुम्हें ईश्वरकी कसम दिलाता हूं भूलकर भी उनसे यह जिक्र न करना, नहीं तो मैं जहर खा लूंगा, फिर तुम्हें मुँह न दिखाऊँगा।

राजे०—(हंसकर) ऐसी धमकियोंका तो प्रेम-बार्ता में कुछ अर्थ नहीं होता, लेकिन मैं भापको उन आदमियोंमें नहीं समझती। मैं आपसे कहना नहीं चाहती थी पर बात पढ़नेपर कहना ही पड़ा कि मैं आपके सरल स्वभाव और आपके निष्कपट बातोपर मोहित हो गई हूँ। आपके लिये मैं सब कष्ट सहनेको तैयार हूँ। पर आपसे यही विनती है कि मुझपर कृपादृष्टि बनाये रखियेगा और कभी २ दर्शन देते रहियेगा।

(राजेश्वरी गाती है)

क्या सो रहा! मुसाफिर बीती है रैन सारी।
अब जागके चलनकी करले सभी तयारी॥
तुझको है दूर जाना नहीं पास कुछ खजाना,
आगे नहीं ठिकाना होवे बड़ी खुआरी ॥टेव॥
पूँजी सभी गमाईं कुछ ना करी कमाई,
क्या लेके घरको जाई करजा किया है भारी।
क्या सो रहा०॥

(कंचन चला जाता है)