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संग्राम

विकिस्रोत से
संग्राम  (1939) 
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ १ से – ११ तक

 
 

संग्राम

 

(एक सामाजिक नाटक)

 

लेखक
प्रेमचन्द

 

प्रकाशक
हिन्दी पुस्तक एजेन्सी
ज्ञानवापी काशी

 
द्वितीय बार]
[मूल्य १॥)
१९३९
 

प्रकाशक
श्री बैजनाथ केडिया
हिन्दी पुस्तक एजेन्सी
ज्ञानवापी, काशी

 

ब्राञ्च
२०३ हरिसनरोड कलकत्ता
गनपतरोड लाहौर
दरीबा कलाँ, दिल्ली

बाँकीपुर, पटना
 

मुद्रक
रामशरण सिंह यादव
वणिक प्रेस
साक्षी विनायक, काशी

 
भूमिका

आजकल नाटक लिखने के लिये संगीतका जानना जरूरी है। कुछ कवित्व शक्ति भी होनी चाहिये। मैं दोनों गुणोंसे असाधारणतः वंचित हूँ। पर इस कथाका ढंग ही कुछ ऐसा था कि मैं उसे उपन्यासका रूप न दे सकता था। यही इस अनधिकार चेष्टाका मुख्य कारण है। आशा है सहृदय पाठक मुझे क्षमा प्रदान करेंगे। मुझसे कदाचित् फिर ऐसी भूल न होगी। साहित्यके इस क्षेत्र में यह मेरा पहला और अन्तिम दुस्साहसपूर्ण पदाक्षेप है।

मुझे विश्वास है यह नाटक रंगभूमिपर खेला जा सकता है। हां रसज्ञ "स्टेज मैनेजर" को कहीं-कहीं कुछ काट-छांट करनी पड़ेगी। मेरे लिये नाटक लिखना ही कम दुस्साहसका काम न था। उसे स्टेजके योग्य बनानेकी धृष्टता अक्षम्य होती।

मगर मेरी ख़ताओंका अन्त अभी नहीं हुआ। मैंने एक तीसरी ख़ता भी की है। संगीतसे सर्वथा अनभिज्ञ होते हुए भी मैंने जहां कहीं जी में पाया है गाने दे दिये हैं। दो ख़ताएँ माफ़ करनेकी प्रार्थना तो मैंने की। पर तीसरी ख़ता किस मुंहसे मुआफ़ कराऊं। इसके लिये पाठकवृन्द और समालोचक महोदय जो दण्ड दें शिरोधार्य्य है।

विनीत—

प्रेमचन्द

निवेदन

आज हम पाठकों के सामने हिन्दी पुस्तक एजेन्सीमाला की २६ वीं संख्या "संग्राम नाटक" लेकर उपस्थित होते हैं। आज हिन्दी संसार में नाटक की पुस्तकें धड़ाधड़ निकल रही हैं पर पढ़ने योग्य नाटक कितने हैं यह विज्ञ पाठक और चतुर समालोचक ही बता सकते हैं।

नाटक लिखने के लिये कितनी योग्यताकी आवश्यकता है और नाटककार में क्या-क्या गुण होने चाहिये यह प्रकाशक के निवेदन का आलोक्य विषय नहीं है। पर प्रसङ्गवश इतना लिख देना आवश्यक समझते हैं कि जिसने मनुष्य के चित्त के विविध प्रकार के भावों के मनन तथा अध्ययन करने का श्रम नहीं उठाया, जो प्रकृतिका सच्चा पर्यवेक्षण नहीं कर सकता, जिसकी वर्णन-पटुता में इतनी योग्यता नहीं कि वह मनुष्य के हृदयस्थ प्रत्येक भावों को कागज पर अपनी लेखनी द्वारा मूर्ति की भाँति लाकर खड़ा कर दे वह सच्चा नाटककार नहीं हो सकता और न उसके लिखे नाटक, नाटक की श्रेणी में गिने जाने योग्य हो सकते हैं। प्रस्तुत नाटक हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक श्रीयुत प्रेमचन्दजी की रचना है। प्रेमचन्द्रजी से हिन्दी संसार भली-भाँति परिचित है। जिन्होंने उनके रचे उपन्यास पढ़े हैं। वे सहज में ही समझ सकेंगे कि उनकी कलम से अङ्कित यह नाटक कैसा होगा। इससे अधिक लिखना अपने मुँह से अपनी प्रशंसा करना होगा।

हमारी इच्छा थी कि चित्र आदि से युक्त करके इस नाटक को बड़े सज-धज के साथ निकाला जाय पर लेखक महाशय ने चाहा कि इस पुस्तक की जांच इसके चित्ताकर्षक चित्रों और अन्य सजाने की सामग्रियों द्वारा न होकर इसके रोचक और मनोहारी विषय और वर्णनपटुता द्वारा ही होनी चाहिये। इसीलिये इसे इसी रूप में निकालने के लिये हम बाध्य हुए यानी यही उचित और यही परीक्षा वास्तविक परीक्षा होगी।

जो कुछ है उदार पाठककोंके सामने है। इसे चखकर वे ही हिन्दी संसार को बतलावेंगे कि प्रेमचन्दजी ने उपन्यास के बाद नाटक में भी कितना रस भर दिया है।

विनीत—

—प्रकाशक

 
नाटकके पात्र
हलधर मधुबनका किसान––नायक
फत्तू {{{1}}}{{{1}}}
मंगरू {{{1}}}{{{1}}}
हरदास {{{1}}}{{{1}}}
राजेश्वरी हलधर की पत्नी
सलोनी एक वृद्धा स्त्री
सबल सिंह मधुबन का जमींदार
कञ्चन सिंह सबलका भाई
अचल सिंह सबलका पुत्र
ज्ञानी सबलकी पत्नी
चेतनदास एक संन्यासी
गुलाबी सबल सिंहकी महराजिन
भृगुनाथ गुलाबीका पुत्र
चम्पा भृगुनाथकी पत्नी

इन्सपेक्टर, थानेदार, सिपाही, डाकू आदि।


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