संग्राम/५.३

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २९७ ]


तृतीय दृश्य

———

(स्थान—राजेश्वरीका कमरा, समय—३ बजे रात, फानूस जल
रही है, राजेश्वरी पानदान खोले फर्शपर बैठी है।)

राजेश्वरी—(मनमें) मेरे मनकी सारी अभिलाषाएं पूरी हो गईं। जो प्रण करके घर से निकली थी वह पूरा हो गया। जीवन सफल हो गया। अब जीवनमें कौनसा सुख रखा है। विधाताकी लीला विचित्र है। संसारके और प्राणियोंका जीवन धर्म्मसे सफल होता है। अहिंसा ही सबकी मोक्षदाता है। मेरा जीवन अधमसे सफल हुआ, हिंसासे ही मेरा मोक्ष हो रहा है। अब कौन मुँह लेकर मधुबन जाऊँ, मैं कितनी ही पतिव्रता बनूँ, किसे विश्वास आयेगा? मैंने यहाँ कैसे अपना धर्म निबाहा, इसे कौन मानेगा।

हाय! किसकी होकर रहूंगी। हलधरका क्या ठिकाना। न जाने कितनी जानें ली होगी, कितनोंका घर लूटा होगा, कितनोंके खूनसे हाथ रंगे होंगे, क्या-क्या कुकर्म किये होंगे। [ २९८ ]वह अगर मुझे पतिता और कुलटा समझते हैं तो मैं भी उन्हें नीच और अधम समझती हूं। वह मेरी सूरत न देखना चाहते हों तो मैं उनकी परछाईं भी अपने ऊपर नहीं पड़ने देना चाहती। अब उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। मैं अनाथा हूं, अभागिनी हूँ, संसारमें कोई मेरा नहीं है।

(कोई किवाड़ खटखटाता है, लालटेन लेकर नीचे जाती है,
और किवाड़ खोलती है ज्ञानीका प्रवेश)

ज्ञानी—बहिन क्षमा करना, तुम्हें असमय कष्ट दिया। मेरे स्वामीजी यहाँ हैं या नहीं। मुझे एक बार उनके दर्शन कर लेने दो।

राजे०—रानी जी, सत्य कहती हूं वह यहाँ नहीं आये।

ज्ञानी—यहाँ नहीं आये!

राजे०—न! जबसे गये हैं फिर नहीं आये।

ज्ञानी—घरपर भी नहीं हैं। अब किधर जाऊँ। भगवन्, उनकी रक्षा करना। बहिन, अब मुझे उनके दर्शन न होंगे। उन्होंने कोई भयङ्कर काम कर डाला। शंकासे मेरा हृदय काँप रहा है। तुमसे उन्हें प्रेम था। शायद वह एक बार फिर आयें। उनसे कह देना ज्ञानी तुम्हारे पदरजको शीशपर चढ़ानेके लिये आई थी। निराश होकर चली गई। उनसे कह देना वह अभागिनी, भ्रष्टा, तुम्हारे प्रेमके योग्य नहीं रही। [ २९९ ]

(हीरेकी कनी खा लेती है)

राजे०—रानीजी आप देवी हैं, वह पतित हो गये हों पर आपका चरित्र उज्ज्वल रत्न है। आप क्यों क्षोभ करती हैं।

ज्ञानी—बहिन, कभी यह घमण्ड था, पर अब नहीं है।

(उसका मुख पीला होने लगता है और पैर लड़खड़ाते हैं)

राजे०—रानीजी कैसा जी है?

ज्ञानी—कलेजेमें आग सी लगी हुई है। थोड़ासा ठंढा पानी दो। मगर नहीं, रहने दो। जबान सूखी जाती है। कंठमें कांटे पड़ गये हैं। आत्मगौरवसे बढ़कर कोई चीज नहीं। उसे खोकर जिये तो क्या जिये।

राजे०—आपने कुछ खा तो नहीं लिया?

ज्ञानी—तुम आज ही यहांसे चली जाव। अपने पति के चरणोंपर गिरकर अपना अपराध क्षमा करा लो। वह वीरात्मा हैं। एक बार मुझे डाकुओंसे बचाया था। तुम्हारे ऊपर दया करेंगे। ईश्वर इस समय उनसे मेरी भेंट करवा देते तो मैं उनसे शपथ खाकर कहती, इस देवी के साथ तुमने बड़ा अन्याय किया है। वह ऐसी पवित्र है जैसे फूलकी पंखड़ियोंपर पड़ी हुई ओसकी बूंदें या प्रभात कालकी निर्मल किरणें। मैं सिद्ध करती कि इसकी आत्मा पवित्र है............

(पीड़ासे विकल होकर बैठ जाती है)

[ ३०० ]राजेश्वरी—(मनमें) इन्होंने अवश्य कुछ खा लिया। आंखें पथराई जाती हैं, पसीना निकल रहा है। निराशा और लज्जाने

अन्तमें इनकी जान ही लेकर छोड़ी; मैं इनकी प्राणघातिका हूं। मेरे ही करण इस देवीकी जान जा रही है। इसे मार्य्याद-पालन कहते हैं। एक मैं हूँ कि कष्ट और अपमान भोगनेके लिये बैठी हूँ। नहीं, देवी, मुझे भी साथ लेती चलो। तुम्हारे साथ मेरी भी लाज रह जायगी। तुम्हें ईश्वरने क्या नहीं दिया। दूध, पूत, मान, महातम सभी कुछ तो है। पर केवल पतिके पतित हो जानेके कारण तुम अपने प्राण त्याग रही हो। तो मैं जिसका आंसू पोंछनेवाला भी कोई नहीं कौनसा सुख भोगने के लिये बैठी रहूँ।

ज्ञानी—(सचेत होकर) पानी, पानी।

राजे०—(कटोरेमें पानी देती हुई) पी लीजिये।

ज्ञानी—(राजेश्वरीको ध्यानसे देखकर) नहीं रहने दो। पतिदेवके दर्शन कैसे पाऊँ। मेरे मरनेका हाल सुनकर उन्हें बहुत दुःख होगा। राजेश्वरी, उन्हें मुझसे बहुत प्रेम है। इधर वह मुझसे इतने लज्जित थे कि मेरी तरफ सीधी आँखसे ताक भी न सकते थे। (फिर अचेत हो जाती है)

राजे०—(मनमें) भगवन्, अब यह शोक देखा नहीं जाता। कोई और स्त्री होती तो मेरे खूनकी प्यासी हो जाती। इस [ ३०१ ]देवीके हृदयमें कितनी दया है। मुझे इतनी नीची समझती है कि मेरे हाथ का पानी भी नहीं पीती, पर व्यवहार में कितनी भलमन्साहत है। मैं ऐसी दयाकी मूरतकी घातिका हूँ। मेरा क्या अन्त होगा!

ज्ञानी—हाय, पुत्रलालसा! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया। गजेश्वरी, साधुओं का भेस देवकर धोखेमें न आ जाना। (आँखें बन्द कर लेती है)

राजे०—कभी किसी साधुने इसे जटकर रास्ता लिया होगा। वही सुध आ रही है तुम तो चली, मेरे लिये कौन रास्ता है। वह डाकू ही हो गये हैं। अबतक सबल सिंहके भयसे इधर न आते थे। अब वह मुझे कब जीता छोड़ेंगे। न जाने क्या-क्या दुर्गति करें। मैं जीना भी तो नहीं चाहनी। मन, अब संसार की मायामोह छोड़ो। संसारमें तुम्हारे लिये अब जगह नहीं है। हां! यही करना था तो पहले ही क्यों न किया। तीन प्राणियों- की जान लेकर तब यह सूझी। कदाचित् तब मुझे मौतसे इतना डर न लगता। अब तो जमराजका ध्यान आते ही रोयें खड़े हो जाते हैं। पर यहां की दुर्दशासे वहांकी दुर्दशा तो अच्छी। कोई हसनेवाला तो न होगा।

(रस्सीका फन्दा बनाकर छतसे लटका देती है)

बस, एक झटके में काम तमाम हो जायगा। इतनीसी जानके [ ३०२ ]लिये आदमी कैसे-कैसे जतन करता है। (गलेमें फन्दा डालती है) दिल कांपता है। जरासा फन्दा खींच लू और बस। दम घुटने लगेगा। तड़प-तड़पकर जान निकलेगी। (भयसे कांप उठती है) मुझे इतना डर क्यों लगता है। मैं अपनेको इतनी कायर न समझती थी। सास के एक तानेपर, पतिकी एक कड़ी बातपर, स्त्रियां प्राण दे देती हैं। लड़कियां अपने विवाहकी चिन्तासे मातापिताको बचाने के लिये प्राण दे देती हैं। पहले स्त्रियां पतिके साथ सती हो जाती थीं। डर क्या है? जो भगवान यहां हैं वही भगवान वहां हैं। मैंने कोई पाप नहीं किया है। एक आदमी मेरा धर्म बिगाड़ना चाहता था। मैं और किसी तरह उससे न बच सकती थी। मैंने कौशलसे अपने धर्मकी रक्षा की। यह पाप नहीं किया। मैं भोग विलास के लोभसे यहां नहीं आई। संसार चाहे मेरी कितनी ही निन्दा करे, ईश्वर सब जानते हैं। उनसे डरनेका कोई काम नहीं।

(फन्दा खींच लेती है)

(तलवार लिये हलधरका प्रवेश)

हलधर—(आश्चर्यसे) अरे! यहां तो इसने फांसी लगा रखी है (तलवार से तुरत रस्सी काट देता है और राजेश्वरीको सँभालकर फर्शपर लिटा देता है)

राजेश्वरी—(सचेत होकर) वही तलवार मेरी गर्दनपर [ ३०३ ]क्यों नहीं चला देते?

हलधर—जो आप ही मर रही है उसे क्या मारूं।

राजे०—अभी इतनी दया है?

हलधर—वह तुम्हारी लाजकी तरह बाजारमें बेचनेकी चीज नहीं है।

ज्ञानी—कौन कहता है कि इसने अपनी लाज बेच दी। यह आज भी उतनी ही पवित्र है जितनी अपने घर थी। उसने अपनी लाज बेचने के लिये इस मार्गपर पग नहीं रखा, बल्कि अपनी लाजकी रक्षा करनेके लिये। अपनी लाजकी रक्षाके लिये इसने मेरे कुलका सर्वनाश कर दिया। इसीलिये इसने यह कपटभेष धारण किया। एक सम्पन्न पुरुषसे बचनेका इसके सिवा और कौनसा उपाय था। तुम उसपर लांछन लगाकर बड़ा अन्याय कर रहे हो। उसने तुम्हारे कुलको कलङ्कित नहीं किया बल्कि उसे उज्ज्वल कर दिया। ऐसी बिरला ही कोई स्त्री ऐसी अवस्थामें अपने व्रतपर अटल रह सकती थी। वह चाहती तो आजीवन सुख भोग करती, पर इसने धर्मको स्वाद-लिप्सा- की भेंट नहीं चढ़ाया......आह! अब नहीं बोला जाता। बहुत सी बातें मनमें थीं......सिरमें चक्कर आ रहा है......स्वामीके दर्शन न कर सकी.........

(बेहोश हो जाती है)

[ ३०४ ]हलधर—ज्ञानी हैं क्या?

राजे०—सबलका दर्शन पानेकी आशासे यहाँ आई थीं, किन्तु बिचारीकी लालसा मनमें रही जाती है। न जाने उनकी क्या गत हुई? हलधर—मैं अभी उन्हें लाता हूं।

राजे०—क्या अभी वह ......

हलधर—हाँ, उन्होंने प्राण देना चाहा था, पिस्तौलका निशाना छातीपर लगा लिया था, पर मैं पहुँच गया और उनके हाथसे पिस्तौल छीन ली। दोनों भाई वहीं हैं। तुम इनके मुँहपर पानी के छींटे देती रहना। गुलाबजल तो रखा ही होगा, उसे इनके मुँहमें टपकाना, मैं अभी आता हूँ।

(जल्दीसे चला जाता है)

राजे०—(मनमें) मैं समझती थी इनका स्वरूप बदल गया होगा। दया नामकी भी न रही होगी। नित्य डाका मारते होंगे, आचरन भ्रष्ट हो गया होगा। पर इनकी आंखोंमें तो दयाकी जोत झलकती हुई दिखाई देती है। न जाने कैसे दोनों भाइयों- की जान बचा ली। कोई दूसरा होता तो उनकी घातमें लगा रहता और अवसर पाते ही प्राण ले लेता। पर इन्होंने उन्हें मौत के मुँहमेंसे निकाल लिया। क्या ईश्वरकी लीला है कि एक हाथसे विष पिलाते हैं और दूसरे हाथसे अमृत। मुझीको कौन [ ३०५ ]बचाता। सोचता कि मर रही है मरने दो। शायद यह मुझे मारनेके ही लिये यहां तलवार लेकर आये होंगे। मुझे इस दशामें देखकर दया आ गई। पर इनकी दयापर मेरा जी झुंझला रहा है। मेरी यह बदनामी, यह जगहंसाई बिलकुल निष्फल हो गई। इसमें जरूर ईश्वरका हाथ है। सबल सिंहके परोपकारने उन्हें बचाया। कंचनसिंहकी भक्तिने उनकी रक्षा की। पर इस देवीकी जान व्यर्थ जा रही है। इसका दोष मेरी गरदनपर है। इस एक देवीपर कई सबलसिंह भेंट किये जा सकते हैं। (ज्ञानीको ध्यानसे देखकर) आंखें पथरा गईं सांस उखड़ गई, पतिके दर्शन न कर सकेंगी, मनकी कामना मनमेंही रह गई। (गुलाबके छीटे देकर) छन भर और.........

ज्ञानी—(आंखें खोलकर) क्या वह आ गये? कहाँ हैं, जरा मुझे उनके पैर दिखा दो।

राजे०—(सजल नयन होकर) आते ही होंगे, अब देर नहीं है। गुलाबजल पिलाऊं?

ज्ञानी—(निराशासे) न आयेंगे, कह देना तुम्हारे चरणोंकी मुच्छित हो जाती है।

(चेतनदासका प्रवेश)

राजे०—यह समय भिक्षा मांगनेका नहीं है। आप यहां कैसे चले आये? [ ३०६ ]चेतन—इस समय न आता तो जीवनपर्यन्त पछताता। क्षमादान मांगने आया हूं।

राजे—किससे?

चेतन—जो इस समय प्राण त्याग रही है।

ज्ञानी—(आंखें खोलकर) क्या वह आ गये? कोई अचलको मेरी गोदमें क्यों नहीं रख देता।

चेतन—देवी, सबके सब आ रहे हैं। तुम ज़रा यह जड़ी मुंहमें रख लो। भगवान चाहेंगे तो सब कल्याण होगा।

ज्ञानी—कल्याण अब मेरे मरने में ही है।

चेतन—मेरे अपराध क्षमा करो।

(ज्ञानीके पैरोंपर गिर पड़ता है)

ज्ञानी—यह भेष त्याग दो। भगवान तुमपर दया करें।

(उनके मुंहसे खून निकलता है और प्राण निकल जाते

हैं, अन्तिम शब्द उनके मुंहसे यही निकलता है

"अचल तू अमर हो।")

राजे०—अन्त हो गया (रोती है) मनकी अभिलाषा मनमें ले गई। पति और पुत्रसे भेंट न हो सकी।

चेतन—देवी थी।

(सबल सिंह, कंचन सिंह, अचल, हलधर सब पाते हैं)

राजे०—स्वामीजी, कुछ अपनी सिद्धि दिखाइये। एक पल [ ३०७ ]भर के लिये सचेत हो जातीं तो उनकी आत्मा शांत हो जाती।

चेतन—अब ब्रह्मा भी आयें तो कुछ नहीं कर सकते।

(अचल रोता हुआ मांके शवसे लिपट जाता है, सबलको
ज्ञानीकी तरफ देखनेकी भी हिम्मत नहीं पड़ती)

राजे०—आप लोग एक पलभर पहले आ जाते तो इनकी मनोकामना पूरी हो जाती। आपकी ही रट लगाये हुए थीं। अन्तिम शब्द जो उनके मुंहसे निकला वह अचल सिंहका नाम था।

सबल—यह मेरी दुष्टताका दंड है। हलधर, अगर तुमने मेरी प्राणरक्षा न की होती तो मुझे यह शोक न सहना पड़ता। ईश्वर बड़े न्यायी हैं। मेरे कर्मों का इससे उचित दण्ड हो ही नहीं सकता था। मैं तुम्हारे घरका सर्वनाश करना चाहता था। विधाताने मेरे घरका सर्वनाश कर दिया। आज मेरी आंखें खुल गईं। मुझे विदित हो रहा है कि ऐश्वर्य्य और सम्पत्ति जिसपर मानव-समाज मिटा हुआ है, जिसकी आराधना और भक्तिमें हम अपनी आत्माओंको भी भेंट कर देते हैं वास्तव में एक प्रचण्ड ज्वाला है जो मनुष्य के हृदयको जलाकर भस्म कर देती है। यह समस्त पृथ्वी किन प्राणियोंके पापभारसे दबी हुई हैं? वह कौनसे लोग हैं जो दुर्व्यसनोंके पीछे नाना प्रकारके पापाचार कर रहे हैं? वेश्याओंकी अट्टालिकाएं किन लोगों के दमसे रौनक [ ३०८ ]पर हैं? किनके घरोंकी महिलाएं रो-रोकर अपना जीवनक्षेप कर रही हैं? किनकी बन्दूकोंसे जंगलके जानवरोंकी जान संकट में पड़ी रहती है? किन लोगोंकी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये आये दिन समरभूमि रक्तमयी होती रहती है? किनके सुखभोग के लिये गरीबोंको आये दिन बेगारें भरनी पड़ती हैं? यह वही लोग हैं जिनके पास ऐश्वर्य है, सम्पत्ति है, प्रभुता है, बल है। उन्हींके भारसे पृथ्वी दबी हुई है, उन्हींके नखोंसे ससार पीड़िन हो रहा है। सम्पत्ति ही पापका मूल है, इसीसे कुवासनाएं जागृत होती हैं, इसीसे दुर्व्यसनोंकी सृष्टि होती है। गरीब आदमी अगर पाप करता है तो क्षुधाकी तृप्तिके लिये। धनी पुरुष पाप करता है अपनी कुवृत्तियों, और कुवासनाओंकी पूत्ति के लिये। मैं इसी व्याधिका मारा हुआ हूँ। विधाताने मुझे निर्धन बनाया होता, मैं भी अपनी जीविकाके लिये पसीना बहाता होता, अपने बाल बच्चोंके उदरपालनके लिये मजूरी करता होता तो मुझे यह दिन न देखना पड़ता, यो रक्तके आंसू न रोने पड़ते। धनीजन पुण्य भी करते हैं, दान भी करते हैं, दुखी आदमियोंपर दया भी करते हैं। देशमें बड़ी-बड़ी धर्मशालाएं, सैकड़ों पाठशालाएं, चिकित्सालय, तालाब, कूएं उनकी कीर्तिके स्तम्भ रूप खड़े हैं, उनके दानसे सदाव्रत चलते हैं, अनाथों और विधवाओं का पालन होता है, [ ३०९ ]साधुओं और अतिथियोंका सत्कार होता है, कितने ही विशाल मन्दिर सजे हुए हैं; विद्याकी उन्नति हो रही है लेकिन उनकी अपकीतियों के सामने उनकी सुकीर्तियां अधेरी रातमें जुगुनूकी चमकके समान हैं, जो अन्धकारको और भी गहन बना देती हैं। पापकी कालिमा दान और दयासे नहीं धुलती। नहीं मेरा तो यह अनुभव है कि धनी जन कभी पवित्र भावोंसे प्रेरित हो ही नहीं सकते। उनकी दानशीलता, उनकी भक्ति, उनकी उदारता, उनकी दीनवत्सलता वास्तवमें उनके स्वार्थको सिद्ध करनेका साधन मात्र है। इसी टट्टीकी आड़में वह शिकार खेलते हैं। हाय! तुम लोग मनमें सोचते होगे यह रोने और विलाप करनेका समय है; धन और सम्पदाको निन्दा करनेका नहीं। मगर मैं क्या करूँ,आंसुओं की अपेक्षाइ न जले हुए शब्दोंसे इन फफोलोंके फोड़नेसे, मेरे चित्तको अधिक शांति मिल रही है। मेरे शोक, हृदयदाह और आत्मग्लानिका प्रवाह केवल लोचनों द्वारा नहीं हो सकता, उसके लिये ज्यादा चौड़े, ज्यादा स्थूल मार्गकी जरूरत है। हाय! इस देवीमें अनेक गुण थे। मुझे याद नहीं आता कि, इसने कभी एक अप्रिय शब्द भी मुझसे कहा हो, वह मेरे प्रेममें मग्न थी। आमोद और विलाससे उसे लेशमात्र भी प्रेम न था। वह संन्यासियों का जीवन व्यतीत करती थी। मेरे प्रति उसके हृदयमें कितनी श्रद्धा थी, कितनी शुभका[ ३१० ]मना। जबतक जीयी मेरे लिये जीयी और जब मुझे सत्पथसे हटते देखा तो यह शौक उसके लिये असह्य हो गया। हाय! मैं जानता कि वह ऐसा घातक संकल्प कर लेगी तो अपने आत्मपतनका वृत्तान्त उससे न कहता। पर उसकी सहृदयता और सहानुभूतिके रसास्वादनसे मैं अपनेको रोक न सका। उसकी वह क्षमा, वह आत्मकृपा कभी न भूलेगी जो इस वृत्तान्तको सुनकर उसके उदास मुखपर झलकने लगी। रोष या क्रोधका लेशमात्र भी चिह्न न था। वह दयामूर्त्ति सदाके लिये मेरे हृदयगृहको उजाड़ कर अदृश्य हो गई। नहीं, मैंने उसे पटक कर चूर चूर कर दिया। (रोता है) हा! उसकी याद अब मेरे दिलसे कभी न निकलेगी।