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संग्राम/५.६

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संग्राम
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ ३२० से – ३३४ तक

 


छठा दृश्य
(स्थान--मधुबन, समय--सावन का महीना, पूजा उत्सव,

ब्रह्मभोज, राजेश्वरी और सलोनी गांवकी अन्य स्त्रियों के
साथ गहने-कपड़े पहने पूजा करने जा रही।)

गीत--

जय जगदीश्वरी मात सरस्वती,
सरनागत प्रतिपालनहारी।
चन्द जोतसा बदन बिराजे,
सीस मुकुट माला गलधारी--जय०
बीना बाम अङ्गामें सोहै,
सामगीत धुन मधुर पियारी--जय०
श्वेत वसन कमलासन सुन्दर,
सङ्ग सखी अरु ईस सवारी--जय०

सलोनी--(देवीकी पूजा करके राजेश्वरीसे) आ तेरे गले में माला डाल दूँ, तेरे माथेपर भी टीका लगा दूँ। तू भी हमारी देवी है। मैं जीती रही तो इस गांवमें तेरा मन्दिर बनवाकर छोड़ूंगी।

एक वृद्धा—साच्छात् देवी है। इसके कारन हमारे भाग जाग गये, नहीं तो बेगार भरने, और रो-रोकर दिन काटनेके सिवा और क्या था।

सलोनी—(राजेश्वरीसे) क्यों बेटी, तुने वह विद्या कहां पढ़ी थी। धन्न है तेरे माई-बापको जिनके कोखसे तूने जन्म लिया। मैं तुझे नित्य कोसती थी, कुलकलङ्किनी कहती थी। क्या जानती थी कि तु वहां सबके भाग संवार रही है।

राजेश्वरी—काकी मैंने तो कुछ नहीं किया। जो कुछ हुआ ईश्वरकी दयासे हुआ। ठाकुर सबलसिंह देवता हैं। मैं तो उनसे अपने अपमान का बदला लेने गई थी। मनमें ठान लिया था कि उनके कुलका सर्वनाश करके छोड़ूंगी। अगर तुम्हारे भतीजेने उनकी जान न बचा ली होती तो आज कोई कुलमें पानी देने वाला भी न रहता।

सलोनी—ईश्वरकी लीला अपार है।

राजेश्वरी—ज्ञानीदेवीने अपने प्राण देकर हम सभोंको उबार लिया। इस शोकने ठाकुर साहबको विरक्त कर दिया। कोई दूसरा समझता बलासे मर गई, दूसरा ब्याह कर लेंगे, संसारमें कौन लड़कियों की कमी है। लेकिन उनके मनमें दया और धर्मकी जोत चमक रही थी। ग्लानि उत्पन्न हुई कि मैंने इस कुमार्गपर पैर न रखा होता तो यह देवी क्यों लज्जा और शोकसे आत्महत्या करती। उनके मनने कहा, तुम्हीं हत्यारे हो, तुम्हींने इसकी गरदनपर छुरी चलाई है। इसी ग्लानिकी दशामें उनको विदित हुआ कि इन सारी विपत्तियों का मूल कारन मेरी संपत्ति है। यह न होती तो मेरा मन इतना चंचल न होता। ऐसी सम्पत्ति ही को क्यों न त्याग दूं जिससे ऐसे-ऐसे अनर्थ होते हैं। मैं तो बखानूंगी उस दुधमुंहे अचलसिंहको जो ठाकुर साहबके मुंहसे बात निकलते ही सब कोठी, महल, बाग-बगीचा त्यागनेपर तैयार हो गया। उनके छोटे भाई कञ्चनसिंह पहले हीसे भगवत-भजनमें मगन रहते थे। उनकी अभिलाषा एक ठाकुरद्वारा और एक धर्मशाला बनवाने की थी। राजभवन खाली हो गया। उसीको धर्मशाला बनायेंगे। घरमें सब मिलाकर कोई पचास साठ हजार नगद रुपये थे। हवागाड़ी, फिटिन, घोड़े, लकड़ी के सामान, झाड़-फन्नूम, पलंग, मसहरी, कालीन, दरी, इन सब चीजोंके बेचनेसे पचीस हजार मिल गये, दस हजारके ज्ञानीदेवीके गहने थे। वह भी बेच दिये गये। इस तरह सब जोड़कर एक लाख रुपये ठाकुरद्वाराके लिये जमा हो गये। ठाकुरद्वारेके पास ही ज्ञानीदेवीके नाम का एक पक्का तालाब बनेगा। जब कोई लोभ ही न रह गया तो जमींदारी रखकर क्या करते। सब जमीन असामियों के नाम दर्ज कराके तीरथयात्रा करने चले गये।

सलोनी—और अचल सिंह कहां गया। मैं तो उसे देख लेती तो छातीसे लगा लेती। लड़का नहीं है भगवानका अतार है।

एक स्त्री—उसके चरन धोकर पीना चाहिये।

राजे०—गुरुकुलमें पढ़ने चला गया। कोई नौकर भी साथ नहीं लिया। अब अकेले कंचनसिंह रह गये हैं। वह ठाकुरद्वारा बनवा रहे हैं।

सलोनी—अच्छा अब चलो, अभी १० मनकी पूरियां बेलनी हैं।

(सब स्त्रियाँ गाती हुई लौटती हैं, लक्ष्मी की
स्तुति करती हुई जाती हैं)

फत्तू—चलो, चलो, कड़ाहकी तैयारी करो। रात हुई जाती है। हलधर देखो, देर न हो, मैं जाता हूं मौलुद सरीफ़का इन्तजाम करने। फरस और सामियाना आ गया।

हलधर—तुम उधर थे इधर थानेदार आये थे ठाकुर सबलसिंहकी खोजमें। कहते थे उनके नाम वारण्ट है। मैंने कह दिया उन्हें जाकर अब स्वर्गधाममें तलास करो। मगर यह तो आनेका बहाना था। असममें आये थे नजर लेने। मैंने कहा, नजर तो देते नहीं, हाँ हजारों रुपये खैरात हो रहे हैं तुम्हारा जी चाहे तुम भी ले लो। मैंने तो समझा था कि यह सुनकर अपनासा मुँह लेके चला जायगा लेकिन इस महकमेवालोंको हया नहीं होती, तुरन्त हाथ फैला दिये। आखिर मैंने २५) हाथपर रख दिये।

फत्तू—कुछ बोला तो नहीं?

हलधर—बोलता क्या, चुपकेसे चला गया।

फत्तू—गानेवाले आ गये?

हलधर—हां, चौपाल में बैठे हैं, बुलाता हूं।

मँगरू—(गाँवकी ओरसे आकर) हलधर भैया, सबकी सलाह है कि तुम्हारा बिमान सजाकर निकाला जाय, वहाँसे लौटनेपर गाना-बजाना हो।

हरदास—तुम्हारी बदौलत सब कुछ हुआ है, तुम्हारा कुछ तो महाराम होना चाहिये।

हलधर—मैंने कुछ नहीं किया। सब भगवानकी इच्छा है। जरा गानेवालोंको बुला लो।

(हरदास जाता है)

मँगरू—भैया, अब तो जमींदारको मालगुजारी न देनी पड़ेगी?

हलधर—अब तो हम आप ही जमींदार हैं, मालगुजारी सरकारको देंगे।

मँगरू—तुमने कागद-पत्तर देख लिये हैं? रजिस्टरी हो गई है न?

हलधर—मेरे सामने ही हो गई थी।

(हलधर किसी कामसे चला जाता है, हरदास गानेवालोंको
बुला लाता है, वह सब साज़ मिलाने लगते हैं)

मँगरू—(हरदाससे) इसमें हलधरका कौन एहसान है। इनका बस होता तो सब अपने ही नाम चढ़वा लेते।

हरदास—एहसान किसीका नहीं है। ईश्वरकी जो इच्छा होती है वही होता है। लेकिन यह तो समझ रहे हैं कि मैं ही सबका ठाकुर हूं। जमीनपर पाँव ही नहीं रखते। चन्देके रुपये ले लिये लेकिन हमसे कोई सलाहतक नहीं लेते। फत्तू और यह दोनों जो जी चाहता है करते हैं।

मँगरू—दोनों खासी रकम बना लेंगे। दो हजार चन्दा उतरा है। खरच वाजिबी ही वाजिबी हो रहा है।

(गाना होता है)

जगदीश सकल जगतका तू ही अधार है
भूमि, नीर, अगिन, पवन, सूरज, चन्द, शैल, गगन,
तेरा किया चौदह भुवनका पसार है। जगदीश०
सुर,नर,पशु, जीव-जन्तु, जल थल चर हैं अनंत,

तरी रचनाका नहीं अन्त पार है। जगदीश०
करुनानिधि, विश्वभरण, शरणागत तापहरण,
सच चित सुख रूप सदा निरविकार है। जगदीश०
निरगुन सब गुन निधान निगमागम करत गान,
सेवक नमन करत बार बार है। जगदीश०


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