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संत-काव्य/प्रस्तावना

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संत-काव्य
परशुराम चतुर्वेदी, संपादक परशुराम चतुर्वेदी

इलाहाबाद: किताब महल, पृष्ठ ३ से – ८ तक

 

प्रस्तावना

अपनी पुस्तक 'उत्तरी भारत की संत-परंपरा' की 'प्रस्तावना' में मैंने कहा था कि उसका सम्बन्ध प्रधानतः संतों की परंपरा के ही परिचय से है, उनके मत एवं साहित्य का परिचय देने के लिए दो अन्य पुस्तकों की आवश्यकता होगी। इस विचार से मैं 'संत साहित्य की रूपरेखा' नाम से एक पुस्तक लिखने की सामग्री एकत्र करने लगा था। संत-साहित्य के केवल कुछ ही ग्रंथों का अभी तक प्रकाशित रूप में पाया जाना, हस्तलिखित पुस्तकों में से भी अनेक का दुष्प्राप्य होना तथा उपलब्ध प्रतियों का भी अधिकतर संदिग्ध पाठों के ही साथ मिलना इस प्रकार की बाधाएं हैं जिनके कारण विलंब होना अनिवार्य था। इस बीच कतिपय मित्रों के सुझाव के अनुसार, मुझे यह उपयोगी जान पड़ा कि संतों की काव्य रचना-शैली का भी एक परिचय दे दिया जाय और इसके लिए उनकी पद्यात्मक रचनाओं में से कुछ को चुन कर तब तक एक छोटा-सा संग्रह प्रकाशित कर दिया जाय। प्रस्तुत पुस्तक इसी उद्देश्य से किए गए प्रयत्नों का फल है और, इस कारण, इसका व्यापक क्षेत्र उतना व्यापक नहीं है।

इस संग्रह में आदि संत कवि जयदेव से लेकर स्वामी रामतीर्थ के समय तक की चुनी हुई रचनाएंं सम्मिलित की गई हैं। ये भिन्न-भिन्न संतों की कथन-शैली वा रचना-पद्धति का प्रतिनिधित्व करती हैं। फिर भी ये अपने रचयिताओं के अनुभूति-जन्य भावों की भी परिचायिका हैं और इस प्रकार इनके द्वारा संत साहित्य के प्रमुख विषय का कुछ आभास मिल जाना भी संभव हो सकता है। संतों ने इन्हें अपना काव्य-कौशल प्रदर्शित करने के उद्देश्य से नहीं लिखा था और न इनकी रचना द्वारा उनका प्रधान लक्ष्य कभी सगुणोपासक भक्तों की

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भांति, अपने इष्टदेव का गुण-गान करना ही रहा। वे इन्हें आत्मचिन्तन एवं स्वानुभूति के आधार पर समय-समय पर निर्मित करते गए थे। इस प्रकार, इनकी रचना विशेषतः उनके व्यक्तिगत उद्गारों अथवा उपदेशों के ही रूप में हुई थी और इनका जो कुछ भी महत्त्व है वह केवल इसीके अनुसार समझा जा सकता है। संतों में से अधिकांश को पूरी शिक्षा नहीं मिली थी और न वे काव्यकला से किसी प्रकार परिचित ही थे। अपने वर्ण्य विषय की तीव्र अनुभूति एवं मत-प्रचार की अभिलाषा ने उन्हें पद्यात्मक रचना की ओर प्रवृत्त किया था और उन्होंंने इसे अपने ढंग से निबाहा था।

संतों ने इन रचनाओं में भरसक अपने पारिभाषिक शब्दों के ही प्रयोग किये हैं और अपने भावों को, अपनी शैली विशेष के ही माध्यम से व्यक्त करने की ओर प्रायः सर्वत्र ध्यान देना उचित समझा है। यह बात पहले के संतों में विशेष रूप से उल्लेखनीय है और आधुनिक संतों में से भी कुछ ने पूर्व परिचित शब्द-भंडार से ही अधिक लाभ उठाया है। किंतु मध्ययुग के संतों में से अधिकांश ने उन रचना-शैलियों को भी अपनाया है जो उनके समय में प्रचलित थीं। अतएव संतों के पदों एवं साखियों की रचना-शैली का अनुकरण जहाँ पहले क्रमशः कृष्णोंपासक भक्तों तथा सूक्तिकारों ने किया था वहाँ रीतिकालीन संतों ने दूसरों के अनुकरण में कवित्त-सवैये आदि छंदों को भी अपना लिया और कभी-कभी भाषा चमत्कार के प्रदर्शन तक की ओर प्रवृत्त हो गए। फिर भी उन्होंने अपने प्रधान विषय को सदा ध्यान में रखा और वर्जन शैली के फेर में पड़कर भी, उसे भरसक अपने शब्दों द्वारा ही प्रकट किया।

वास्तव में, संतलोग साहित्यिक नहीं थे और न उनकी रचनाओं को साहित्यिक मानदंड के अनुसार परखना ही उचित है। उनकी भाषा में व्याकरण संबंधी अनेक दोष मिल सकते हैं और उनके पद्यों में छंदोनियम का पालन बहुत कम पाया जाता है। उनके साधना-संबंधी विवरणों में नीरस पंक्तियों की ही भरमार दीख पड़ेगी और उनके उपदेशों में भी कोई आकर्षण नहीं जान पड़ेगा। उनके सिद्धांत-संबंधी वर्णनों में भी, इसी प्रकार दार्शनिक व्याख्या की ही गंध मिल सकती है और उनकी विनयों में कोरी स्तुतियां पायी जा सकती हैं। किंतु संतों की रचनाएं केवल इन्हीं कतिपय बातों से संबंध नहीं रखतीं। उनमें दिया गया गहरी स्वानुभूति का अस्फुट परिचय, उनकी चेतावनियों की चुटीली उक्तियांँ तथा उनमें पाये जाने वाले स्वतःप्रसूत हृदयोद्गार ऐसे हैं जो निःसंदेह सरस एवं सुंदर कहला सकते हैं। इनका माधुर्य और सौंदर्य कुछ अपने ढंग का है और इनकी मर्मस्पर्शिता सिद्ध करने के लिए रीतिकालीन मानदंड का प्रयोग उचित नहीं। रस, अलंकार वा अन्य काव्य-संबंधी चमत्कारों के जो उदाहरण इन रचनाओं में दीख पड़ते हैं वे किसी साहित्यिक प्रयास के परिणाम नहीं हैं।

संतों की रचना-पद्धति एवं संत काव्य की विशेषता के संबंध में, संगृहीत पद्यों के पहले दी गई 'भूमिका' में विचार किया गया है और प्रसंगवश उसके अंतर्गत कुछ ऐसे उदाहरण भी दे दिए गए हैं जो साहित्यिक दृष्टिकोण से भी काव्य की कोटि में रखे जा सकते हैं। इसके सिवाय संतों के अनुसार निश्चित काव्य के आदर्श, उनके संगीत प्रेम, उनके द्वारा प्रयुक्त छंदों की विविधता तथा उनकी भाषा के बहुरंगेपन की भी चर्चा की गई है और यह दिखलाया गया है कि किस प्रकार वे इन सभी बातों के प्रति प्रायः उदासीन से रहते आए हैं। काव्य के रूप से कहीं अधिक थ्यान उन्होंने उसके विषय की ओर ही दिया था और उसे भी सदा अपने व्यक्तिगत रंग में ही रंग कर दिखलाया।

संत-परंपरा के सभी प्रमुख संतों की रचनाएं उपलब्ध नहीं हैं और कई एक की केवल थोड़ी-सी ही पायी जाती हैं। जिन संतों की कृतियां अधिक संख्या में नहीं मिल पातीं, किंतु जो कई अन्य कारणों से बहुत प्रसिद्ध हैं उनके पद्यों को भी उदाहरण स्वरूप संगृहीत कर लिया

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गया है जिनमें कम उनकी भाषा एवं वर्णन-शैली का कुछ न कुछ पता चल जाता है। अधिक लिखने वाले संतों के संग्रहों में से पद्य चयन करते समय उनके वर्ण्य विषयों पर भी विचार किया गया है और भरसक इस बात का प्रयत्न किया गया है कि एक ही संत की विषयानुसार बदलती गई शैली की अनेकरूपता का भी कुछ परिचय मिल सके। बड़े बड़े पद्यों और विशेषतः पदों के लिए उपयुक्त शीर्षक भी दे दिये गए हैं जो उनमें कही गई प्रमुख बातों के परिचायक हैं ।

सभी संतों की भिन्न-भिन्न संस्करणों में प्रकाशित अथवा अनेक हस्तलिखित प्रतियों में संगृहीत रचनाओं के न पाये जाने के कारण उनके पाठांतरों के रूप देने अथवा उनके सुधारने का अवसर मुझे कम मिल पाया है। जो पाठ जहाँ में मिला है वहाँ से उसे लगभग उसी रूप में ले लिया गया है और पाठांतर केवल उन्हीं के दिये गए हैं जिनके विषय में ऐसा करने का संयोग मिल सका। ऐसे पाठांतर अधिकतर संत कबीर साहब, रैदासजी आदि कुछ संतों की ही रचनाओं के दिये जा सके हैं और उनके उल्लेख पद्यों के अंत में किये गए मिलेंगे। संगृहीत पद्यों के नीचे उनमें आये हुए कठिन शब्दों अथवा वाक्यांशों के अर्थ यथास्थान टिप्पणी के रूप में दे दिये गए हैं और कहीं-कहीं पर साथ ही ऐसी अन्य पंक्तियाँ भी उद्धृत कर दी गई हैं जो दूसरे रचयिताओं की होती हुई भी, समान भाव व्यक्त करती हैं। ऐसी पंक्तियों में कहीं-कहीं भावसाम्य अतिरिक्त शब्दसाम्य तक के उदाहरण स्पष्ट दीख पड़ेंगे।

प्रस्तुत संग्रह में अधिकतर अपेक्षाकृत सरल एवं सुबोध रचनाओं को ही स्थान दिया गया है और इस बात का ध्यान रखा गया है कि उनमें उलटबासियों जैसे गूढ़ार्थवाची पद्यों का बहुत कम प्रवेश हो पाये। फिर भी संतों के प्रयोग में बहुथा आने वाले उन पारिभाषिक शब्दों की एक सूची भी अंत में दे दी गई है जो संगृहीत पद्यों में किसी न किसी प्रकार आ गए हैं। संगृहीत पद्यों में से कई के—अनेक शब्दों और वाक्यांशों का अभिप्राय पूर्णतः स्पष्ट करते समय संतोष नहीं हो पाता। ऐसी कठिनाई विशेषतः वहाँ आ पड़ती है जहाँ पर पद्यों का पाठ यातो संदिग्ध रह गया है अथवा उनके रचयिताओं ने उनका बेतुके ढंग से प्रयोग कर दिया है और केवल थोड़ी ही असावधानी के कारण उनमें न्यूनाधिक जटिलता का समावेश हो गया है। ऐसी समस्या कभी- कभी उस समय भी आ उपस्थित होती है जब देशज शब्दों और मुहावरों के प्रयोग मिलते हैं और उनके समुचित ज्ञान का अभाव हमें, पद्यों में व्यक्त किये गए गंभीर भावों के अंतस्तल तक पहुँच पाने में, असमर्थ-सा बना देता है। ऐसे एकाध स्थल इस संग्रह के कतिपय पद्यों में भी दीख पड़ेंगे और उन पर दी गई टिप्पणी भी इसी कारण बहुत कुछ अनुमान पर ही आश्रित जान पड़ेगी। शब्दों एवं वाक्यांशों के अभिप्राय कहीं-कहीं उनके प्रतीकार्थों द्वारा भी स्पष्ट कर दिये गए हैं।

संत-परंपरा के अंतर्गत साधारणतः वे ही संत सम्मिलित किये जाते हैं जिन्होंने संत कबीर साहब अथवा उनके किसी अनुयायी को अपना पथ-प्रदर्शक माना है और उनमें ऐसे अन्य संतों की भी गणना कर ली जाती है जिन्होंने उनके द्वारा स्वीकृत सिद्धांतों को किसी न किसी रूप में अपनाया है। इसके सिवाय उसमें कभी-कभी वैसे महात्माओं को भी स्थान दिया जाता है जो, सूफ़ी, वेदांती सगुणोपासक भक्त, जैसी वा नाथपंथी समझे जाते हुए भी, अपने विचार-स्वातंत्र्य एवं निरपेक्ष व्यवहार के कारण संतक्त माने जाते रहे हैं। इस संग्रह में ऐसे सभी प्रकार के संतों की कुछ न कुछ बानियाँ संगृहीत है। इनका वर्गीकरण, भिन्न-भिन्न युगों के आधार पर किया गया है और प्रत्येक युग की प्रवृत्ति विशेष का परिचय देने के लिए उसके पहले 'सामान्य परिचय' जोड़ दिया गया है। फिर भी संतों की रचनाओं तथा उनके जीवन-वृत्तों में घनिष्ठ

संबंध है, इस कारण पद्यों के पहले उनकी संक्षिप्त जीवनी भी दे दी

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है। संगृहीत पद्यों को जिन ग्रंथों वा स्थलों से लिया गया है तथा जिनसे भूमिकादि लिखने में किसी न किसी प्रकार की सहायता मिल सकी है उनकी एक सूची पुस्तक के अंत में 'सहायक साहित्य' के नाम से दे दी गई हैं। संभव है उसमें कई उल्लेखनीय नामों का समावेश नहीं हो पाया हो, किंतु ऐसी बात भूल से ही हो गई होगी। प्रस्तुत संग्रह का संपादक उन सभी लेखकों, प्रकाशकों वा साहित्य-प्रेमियों का आभारी है जिनसे उपलब्ध होने वाली सामग्रियों का उसने किसी न किसी रूप में उपयोग किया है अथवा जिनकी विचार-धारा वा संकेतों द्वारा उसे कोई प्रेरणा मिल पायी है। संतों की अधिकांश रचनाएं बहुत कुछ उपेक्षित सी ही बनी रहती आई हैं और अभी तक केवल कुछ ही साहित्य-मर्मज्ञों ने इस दिशा की ओर अपना समुचित ध्यान दिया है। अतः इस विषय के प्राय: अछूता-सा रह जाने के कारण संपादक की अनेक बातें विचित्र सी लग सकती हैं और उसके कथनों में अनधिकार चेष्टा का भी प्रतीत होना संभव है। फिर भी उसे विश्वास है कि इस पुस्तक में संगृहीत अनेक रचनाएं उसे इस प्रकार के आरोपों से बचाने में स्वयं समर्थ हो सकेंगी।

अंत में मैं उन सज्जनों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर देना अपना कर्तव्य समझता हूं जिन्होंने मुझे इस प्रकार एक संग्रह निकालने के लिए अपना सुझाव दिया था अथवा जिन्होंने इसके लिए सामग्रियाँ प्रस्तुत कर दीं। इस संबंध में यहाँ विशेषकर मेरे अनुज श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने इस कार्य में मुझे अनेक प्रकार की सहायता पहुंचाई है और इसे पूरा करने में सदा सक्रिय सहयोग प्रदान किया है।

परशुराम चतुर्वेदी

बलिया,

कार्तिकी पूर्णिमा

सं॰ २००८