संत-काव्य/भूमिका१

विकिस्रोत से

[ १४ ]



भूमिका

काव्य-परिचय

'काव्य' के संबंध में अनेक साहित्यज्ञों ने बहुत कुछ विचार किया है। उन्होंने इसकी भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ भी दी हैं। भरत मुनि से लेकर आधुनिक विद्वानों तक ने इस ओर सदा अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार ध्यान दिया है और उसी के आधार पर उन्होंने इसका परिचय भी देने के प्रयत्न किये हैं। उदाहरणार्थ यदि किसी ने ऐसा करते समय इस उद्देश्य वा परिणाम को अधिक महत्व दिया है तो दूसरे ने इसकी कतिपय विशेषताओं को ही प्रधानता दी है। इसी प्रकार यदि कुछ लोगों ने इसके मूलतत्व वा आत्मा की ओर निर्देश दिया है तो अन्य लेखकों ने इसके बाह्य रूप को ही सब कुछ मान लिया है। वर्तमान आलोचकों द्वारा इसी कारण उनकी विभिन्न परिभाषाएँ कभी-कभी एकांगी एवं अनुपयुक्त ठहरा दी जाती हैं और उन पर पूर्ण संतोष नहीं प्रकट किया जाता। फिर भी अपनी अपनी परिभाषा देने की परंपरा अब तक लगभग पूर्ववत् ही चलीआ रही है। अपने पूर्वकालीन साहित्यज्ञों के ऐसे 'दोषपूर्ण' वक्तव्यों को सुधारने के प्रयत्न में ये लोग अपनी ओर से भी कुछ न कुछ नवीनता लाते जा रहे हैं। इन विद्वानों में कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं जिन्होंने यदा-कदा उक्त भिन्न-भिन्न अंगों का समन्वय करने की भी चेष्टा की है। यदि इस प्रकार के लोगों की दृष्टि से विचार किया जाय तो सच्चा काव्य केवल उस प्रभावपूर्ण वाक्य वा वाक्यसमूह को ही कह सकेंगे जिसके शब्द सारगर्भित हों, जो गहरी अनुभूतिजन्य [ १५ ]होने के कारण अपने आप किंतु किसी कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त हुआ हो और जो अपने उदात्त भावों के कारण, आनंद के साथ-साथ मानव जीवन की प्रगतिशीलता में सहयोग भी प्रदान कर सकता हो।

परन्तु उपर्युक्त सभी गुणों से युक्त काव्य कोई आदर्श कृति ही कही जा सकती है जिसके उदाहरण भी बहुत कम मिल सकेंगे।ऐसी दशा में सारे बहुमान्य काव्यग्रंथों में से अधिकांश को हमें उनसे पृथक कर देना पड़ेगा और उन्हें किसी अन्य कोटि की रचनाओं में स्थान देना होगा। मानव समाज द्वारा प्रयुक्त वाक्यसमूह आज तक पद्य-गद्य नामक दो भिन्न-भिन्न रूपों में दीख पड़ते आए हैं जिनमें से प्रथम का प्रयोग हमारे बाङ्मय के अंतर्गत द्वितीय से कदाचित् कुछ कहले आरंभ हुआ था और उसी की उत्कृष्ट रचनाओं को स्वभावतः काव्य की संज्ञा देने की प्रथा भी पहलेपहल चली थी। फिर पद्य के वैसे उदाहरणों की ही मुख्य-मुख्य विशेषताएँ काव्य के लक्षण समझी जाने लगीं और वे हो उसका मानदंड भी बन गईं। पीछे आने वाले कवियों ने उन्हीं को अपने सामने रखकर अपने काव्यग्रंथों की रचना की और अपने-अपने समाज में ख्याति एवं धन भी उपार्जित किया। उक्त उत्कृष्ट पद्यों का चुनाव किसी समाज में उसके सहृदय व्यक्ति की रुचिविशेष के आधार पर ही होता रहा। इसी कारण देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार उक्त मान्य लक्षणों का बहुत कुछ भिन्न-भिन्न हो जाना भी स्वाभाविक था। काव्य की विविध परिभाषाओं में दीख पड़ने वाली उपर्युक्त विभिन्नताएँ भी संभवत: इसी कारण आ गई होंगी। किसी एक परिभाषा को स्वीकार कर लेने में हमें आजकल कुछ कठिनाई भी जान पड़ती है।

इसके सिवाय भरत मुनि के समय से लेकर आज तक मानव-समाज में अनेक परिवर्तन भी हो चुके हैं। भिन्न-भिन्न देशों की [ १६ ]जातियाँ अपनी-अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को साथ लिये हुए क्रमश: एक दूसरे के अधिकाधिक संपर्क में आती जा रही हैं। उनकी रहन- सहन, वेश-भूषा एवं विचार-पद्धतियों तक में कुछ न कुछ परिवर्तन होते जा रहे हैं। और उनकी साहित्यिक रुचि पर भी इसका प्रभाव पड़ता जा रहा है। भिन्न-भिन्न परिभाषाओं के उक्त समन्वय संबंधी प्रयास का एक यह भी बहुत बड़ा कारण है किसी काव्य की रचना करते समय अब उसके रचयिता का अधिक व्यापक दृष्टि से विचार करना स्वाभाविक हो गया है। अब केवल उसी काव्यकृति का समाज में अधिक स्वागत होना संभव है जो जन सामान्य की रुचि को भी अधिक से अधिक संतुष्ट करने में समर्थ हो। वैसे काव्य अब कभी चिरस्थायी नहीं हो सकते जो केवल व्यक्तिगत 'यश' वा अर्थ' की अभिलाषा से किसी ऐश्वर्यशाली पुरुष की छत्र-छाया में रचे गये हों और जो केवल भाषाविषयक बाह्य विशेषताओं का ही प्रदर्शन करते हों। सच्चे काव्य का मूल्यांकन अब उसके केवल मनोरंजन मात्र होने में ही नहीं, अपितु उस विषय की व्यापकता, उसके उद्देश्य की महानता तथा उसकी उस शक्ति के आधार पर ही होगा जिससे वह अधिकाधिक जनहृदय के मर्मस्थल को स्पर्श भी कर सकता हो। भाषा वा शैलीगत सौंदर्य अथवा व्यक्तिगत विशेषताओं को इसी कारण, क्रमशः गौण स्थान दिया जाने लगा है और विषय का महत्व ही आजकल उसका प्रधान लक्ष्य समझा जाने लगा है।[१]

किसी काव्य में प्रधानतः दो बातें देखने में आती हैं। उनमें से एक का संबंध उसके विषय से होता है और दूसरी का उसकी भाषा के साथ रहा करता है। भाषा की दृष्टि से उसकी उत्कृष्टता प्रायः


[ १७ ]उसके शब्दचयन, वाक्य रचना एवं वर्णनशैली में देखी जाती है

और विषय की दृष्टि से उसकी खोज उसके भावगांभीर्य, अर्थ गौरव तथा उस उद्देश्य में की जाती है जिसकी ओर वह संकेत करता है। दोनों में से किसी एक विशेषता के ही कारण कोई काव्य क्रमश:-भाषाप्रधान वा भावप्रधान कहा जाता है। पहले प्रकार के काव्य का रचयिता किसी विषय को लेकर उसके वर्णन की शैली में अपनी सारी कार्यपटुता प्रदर्शित करता हुआ लक्षित होता है। वह अपने वाक्यों में शब्द-सौंदर्य भरता है, विविध अलंकारों के प्रयोग करता है, लय का आयोजन करता है और अपने भावों को ऐसी निपुणता के साथ व्यक्त करता है जिससे उसकी कृति में एक प्रकार का चमत्कार-सा आ जाता है। परन्तु दूसरे प्रकार का कवि अपने वर्णन के साधनों की ओर उतना ध्यान नहीं देता। उसका वर्ण्य विषय उसे इतनी गहराई तक प्रभावित किये रहता है कि उसे ज्यों का त्यों व्यक्त कर देने में ही उसे एक प्रकार के आनंद का अनुभव होता है। उसके भावों की व्यंजना में किसी प्रयास की अपेक्षा नहीं रहा करती और वे उसके शब्दों द्वारा आप से आप रमणीयार्थों के रूप में व्यक्त होते जाते हैं। भाषा का सौंदर्य यहाँ पर वास्तविक भावों को यथावत् वहन करने वाली उसकी क्षमता में ही देखी जाती है, उसके वाह्य रूप की सजावट में नहीं। यह बात दूसरी है कि भाषा पर अच्छा अधिकार प्राप्त रहने के कारण ऐसा कवि कभी-कभी उसे सँवारने का भी कुछ न कुछ प्रयत्न कर देता है ।

अतएव, किसी काव्य का वास्तविक महत्व भाषा से अधिक उसके भावों के ही कारण माना जा सकता है। भाव, वस्तुतः काव्य पुरुष का 'स्वभाव' है जब कि भाषा केवल उसका 'शरीर' मात्र ही कही जा सकती है। इस कारण, जिस प्रकार किसी प्रकृत मनुष्य के चरित्र के सुन्दर बने रहते उसके शरीर का भी सुंदर होना अपेक्षित नहीं, उसी [ १८ ]प्रकार उत्कृष्ट भावों की उपस्थिति में काव्य के भाषा-सौंदर्य का भी होना अनिवार्य नहीं कहा जा सकता। इसके सिवाय काव्य का कोई भाषागत दोष किसी प्रकार क्षम्य भी हो सकता है, किन्तु उसके भावों की अशोभनता कभी स्पृहणीय नहीं समझी जा सकती है। काव्य सरिता सुरसरि की भाँति वक्र एवं विकृत होने पर भी अपने अंतःपूत सलिला बने रहने के कारण ही अभिनंदनीय हुआ करती है। इस कारण किसी काव्य को श्रेष्ठ वा साधारण ठहराते समय सर्वप्रथम उसके भावों की दष्टि से ही विचार करना आवश्यक होता है। यदि उसके भाषा वा शैली संबन्धी गुण भी उत्कृष्ट हुए तो वह एक आदर्श काव्य कहा जायगा अन्यथा उसे साधारण काय की श्रेणी में रख दिया जाता है। उच्च भावों का अभाव किसी पद्य को हल्का एवं नीरस बना देता है। वैसी दशा में, उसे कोरी तुकबंदी से अधिक नहीं समझा जाता जहाँ सुंदर भावों को यथावत् प्रकट करने वाला गद्य भी 'गद्यकाव्य' की संज्ञा पा जाता है। अतएव काव्य की संतोषप्रद परिभाषा न दे सकने का एक प्रमुख कारण यह भी हो सकता है कि इस मूलतः भावाश्रित वस्तु का वास्तविक स्रोत हृदयक्षेत्र है जहाँ पर किसी सीमा की वैसी इयत्ता नहीं प्रतीत होती जिसके आधार पर कोई रूपरेखा निर्धारित की जा सके और उसे सर्वसाधारण के समक्ष उपस्थित किया जा सके। ऐसा प्रयत्न करने वालों की बातें इसी कारण बहुधा दार्शनिक वा रहस्यमय तक बनकर रह जाती हैं और काव्य की कोई उपयुक्त परिभाषा देने की अपेक्षा उसका किसी न किसी रूप में परिचय दे देना ही उनके लिए पति समझा जाने लगता है।

किसी काव्य के उत्कर्ष में श्रीवृद्धि करने वाली जिन दो प्रमुख बातों की चर्चा साहित्यज्ञों में विशेषरूप से की है वे रस-परिपाक एवं अलंकारों का समुचित विधान है। 'रस' का वास्तविक अभिप्राय [ १९ ]उस 'साहित्यिक स्वाद' से है जो सहृदय व्यक्तियों की रूचि को बढ़ाने वाली काव्य-शक्ति के रूप में अनुभूत होता है। परन्तु उसका एक अन्य अर्थ उन विविध सहानुभूतियों के रूप में भी लिया जाता है जो किसी काव्प में लक्षित होने वाले कवि के विशेष भावों अथवा काव्य रचना के पात्रों के विशेष अनुभवों के साथ संगमन करती हैं। उन्हें कतिपय प्रमुख मानसिक वृत्तियों के रूप में श्रृंगार, वीर, हास्य, अद्भुत शान्त, रौद्र, वीभत्स, करुण तथा भयानक के पारिभाषिक नामों द्वारा नव प्रकार से गिनने की परिपाटी चली आती है। इस दूसरे प्रकार का रस उस न्यूनाधिक स्थायी प्रभाव का परिचायक है जो किसी काव्य के पाठक वा श्रोता के ऊपर पड़ सकता है और उसके मनोभाव में कुछ परिवर्तन लाने में भी समर्थ होता है। इसके विपरीत अलंकार किसी ऐसी रचना के विभिन्न भावों को उनके यथेष्ट रूप में ग्रहण करते समय उनके स्पष्टीकरण में सहायक हुआ करता है। जिस रचना के अंतर्गत रसविशेष का परिपाक इष्ट प्रभाव का उत्पादन न कर सकता हो उसमें रस भंग वा रस दोष आ जाता है और वह कृति अनौचित्य प्रदर्शित करती है।[२] इसी प्रकार जब किसी अलंकार के प्रयोग द्वारा भाव विशेष का अभीष्ट रूप हृदयंगम नहीं हो पाता, अपितु वह केवल चमत्कारवर्द्धक ही सिद्ध होता है, तो वहं एक प्रकार के काव्यदोष का कारण बन जाता है। काव्य के उत्कर्ष का आधार समझी जाने वाली, कतिपय साहित्यज्ञों द्वारा प्रस्तावित, 'ध्वनि' एवं 'रीति' नामक शक्तियों की चर्चा भी क्रमशः रस एवं अलंकार का वर्णन करते समय ही की जा सकती है। क्योंकि ध्वनि एक प्रकार के 'साहित्यिक स्वाद' की ही सृष्टि करती है और अलंकार को भी


[ २० ]साँचा:Running header

इसी प्रकार, वस्तुतः वर्णन शैली के एक ढंग विशेष से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता।

हिंदी काव्य धारा

हिंदी काव्य का इतिहास कम पुराना नहीं है। अपभ्रंश एवं प्राचीन हिंदी की वेश-भूषा में इसके उदाहरण विक्रम की ९वीं शताब्दी से ही मिलने लगते हैं जिनमें से कुछ तो प्रबंध काव्य हैं और दूसरे फुटकर पदों आदि के रूपों में दीखते हैं। उस काल से हिन्दी भाषा का क्रमश: निखरना आरंभ हो जाता है और उसका वास्तविक हिंदी रूप विक्रम की १३वीं शताब्दी में जाकर प्रकट होता है। इस समय तक रची गई काव्यों की सबदियों, चारणों के छप्पयों, भक्तों के पदों तथा अज्ञात कवियों की प्रेम-कहानियों में हमें इसके अनेक शब्द एवं वाक्य कुछ परिचित से समझ पड़ने लगते हैं और प्रतीत होने लगता है कि अब हम किसी सुविदित क्षेत्र में पदार्पण कर रहे हैं। इस समय अपनी चारों ओर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि हिंदी काव्य की सरिता एक से अधिक स्रोतों में प्रवाहित हो रही है जिनके मूल उद्गमों की परंपराएँ भिन्न-भिन्न हैं। उदाहरणार्थ यदि एक का लगाव योग तथा सांप्रदायिक विषयों से है तो दूसरे का श्रद्धा एवं भक्ति के साथ है। इसी प्रकार यदि एक अन्य का संपर्क प्रेमाख्यानों से है तो दूसरे का वीरगाथाओं तथा कीर्तिमान के साथ है। इसी बात को यदि साहित्यिक शब्दावली द्वारा व्यक्त किया जाय तो कह सकते हैं कि प्रथम दो प्रकार की रचनाएँ यदि शांतरस-प्रधान हैं तो तीसरे प्रकार की श्रृंगाररस-प्रधान। उसी प्रकार उक्त अंतिम दो की गणना हम वीररस प्रधान काव्यों में कर सकते हैं। कहना न होगा कि उपयुक्त विषय किसी न किसी रूप में हमारे हिंदी-काव्य के प्रमुख वर्ण्य वस्तु बनकर प्राय: ८०० वर्ष और आगे तक [ २१ ]निरंतर चले आते हैं। आधुनिक समय तक पहुँचने पर ही हमें उन में कोई वास्तविक परिवर्तन लक्षित हो पाता है।

हिंदी साहित्य के इतिहासकार उसके काव्य का आरम्भ पहले पहल अधिकतर वीररसप्रधान कृतियों से ही किया करते थे और उसका आदिकाल 'वीरगाथाकाल' के नाम से प्रसिद्ध हो चला था। किन्तु इधर की खोजों द्वारा प्राप्त किये गए हस्तलिखित ग्रंथों के आधार पर अब यह नामकरण कुछ अनुपयुक्त सा जान पड़ने लगा है और भिन्न-भिन्न लेखक अब इसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारने लगे हैं। तदनुसार आजकल यदि कोई इसे उस समय की प्रचलित भाषा के आधर पर नाम देना चाहते हैं तो दूसरे इसकी उपलब्ध कृतियों की पृष्ठभूमि-स्वरूप सामाजिक दशा को महत्व देते हैं। अन्य लोग इसे केवल आदिकाल वा प्रांरभिक युग कहकर ही संतोष ग्रहण कर लेते हैं। विषय की दृष्टि से इस युग में उक्त तीनों रसों की रचनाएं प्रायः समान रूप से दीख पड़ती हैं। बौद्ध सिद्धों, जैन मुनियों तथा इसके उत्तरार्द्ध काल के भक्त कवियों की कृतियों में शांतरस की प्रधानता है, प्रेम कहानियों में श्रृंगाररस प्रमुख बन गया है और जैन प्रबंधकाव्यों वा रासो जैसी रचनाओं में प्रसंगानुसार वीर एवं श्रृंगार दोनों ही प्रायः एक समान वर्तमान हैं। इसी प्रकार आगे विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक के समय का पूर्वाद्ध अधिकतर शांतरस-प्रधान एवं उत्तरार्द्ध शृंगाररस-प्रधान है। वीरररस के काव्यों की संख्या वैसी कृतियों की अपेक्षा बहुत कम दीख पड़ती है। पंद्रहवीं से लेकर सत्रहवीं तक फिर इसी प्रकार शांतरस-प्रधान काव्यों का ही बाहुल्य रहता है। आगे की उन्नीसवीं शताब्दी तक फिर श्रृंगाररस की प्रधानता हो जाती है। वीररस की कृतियों का कोई अपना विशेष युग नहीं है और वे सदा केवल छिटफुट रूप में ही दिखलाई पड़ती है। [ २२ ]दार्शनिक एवं धार्मिक विषय हिंदी काव्यधारा के कदाचित् सबसे प्राचीन वर्ण्य वस्तु हैं। इनका अस्तित्व उसके अपभ्रंश रूप में भी पाया जाता है। विक्रम की ९वीं शताब्दी में सर्वप्रथम, हमें बौद्ध सिद्धों की रचनाएँ मिलती हैं जिनमें वज्रयान एवं सहजयान संबंधी सांप्रदायिक विचारों और उनकी साधनाओं की चर्चा की गई है तथा उनसे विरोधी संप्रदायों की अनेक बातों की आलोचना भी की गई है। प्रायः उसी प्रकार की बातें, हमें आगे चलकर नाथपंथी 'जोगियों' तथा जैन मुनियों की भी वैसी उपलब्ध रचनाओं में दीख पड़ती हैं। प्रधान अंतर यह है कि बौद्ध सिद्धों की रचनाओं में जहाँ केवल 'वोहि, 'सुन्न' एवं 'सहज' का महत्व, नैरात्मा की विविध चेष्टाओं तथा कतिपय यौगिक साधनाओं के ही प्रसंग आते हैं वहाँ नाथों की रचनाओं में हमें ईश्वरत्व की भावना भी लक्षित होने लगती है। उस काल की प्रायः सभी वैसी रचनाओं में हमें कुछ नैतिक बातों का भी समावेश स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। ये सभी रचनाएँ अधिक सांप्रदायिक प्रेरणा से ही लिखी गई हैं और इनमें स्वभावतः उपदेशों की ही भरमार है। फिर भी बौद्ध सिद्धों के चर्यापदों, नाथों की सबदियों, जैनियों के चरितों एवं पुराण-ग्रंथों तथा उन सभी के अनेक दोहों में हमें अनेक ऐसे स्थल भी मिलते हैं जिन्हें हम काव्य के अच्छे उदाहरण कह सकते हैं। हिंदी-साहित्य के इतिहास के ये ४०० वर्ष उसके प्रांरभिक युग के ही द्योतक हैं। यह वस्तुतः अपभ्रंश वा प्राचीन हिंदी अथवा राजस्थानी का युग है जिस कारण इस समय की वैसी उपलब्ध कृतियों की गणना हिंदी काव्यों में करना उचित नहीं कहा जा सकता। हिंदी काव्यधारा का स्रोत इनमें बहुत क्षीण रूप में ही दीख पड़ता है।

हिंदी के उपर्युक्त प्रारंभिक युग से ही भारत पर मुसल्मानों का आक्रमण होने लगा था। सं॰ ७६९ में उन्होंने सिंध प्रदेश पर पहले [ २३ ]धावा किया और फिर ११वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध काल में महमूद गजनी (सं॰ १०४५-१०८७) के हमले हुए जिनमें यहाँ की संपत्ति कई बार लूटी गई। भारत उस समय वास्तव में, एक समृद्धिशाली देश था और यहाँ की कृषि, कला, एवं वाणिज्य की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल चुकी थी। यहाँँ के राजा सेठ एवं महंत जैसे लोग विलासिता में मग्न रहा करते थे। उनके तथा साधारण जनता के बीच एक बहुत बड़ी खाई बन गई थी। राजाओं के दर्बार लगते थे जहाँ सेवकों तथा चाटुकारों की भीड़ बनी रहती थी। सजावटों तथा युद्ध सामग्रियों में धन का अपव्यय हुआ करता था। युद्ध भी अधिकतर आपस में ही हुआ करते थे और विदेशी आक्रमणों की गंभीरता की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था। फलतः विक्रम की १३वीं शताब्दी के मध्यकाल में जब शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी (सं॰ १२४९-१२६३) के धावे हुए तब स्थिति संभाली न जा सकी और दिल्ली को बहुत दिनों के लिए पराधीन बन जाना पड़ा। गोरी के एक दास कुतुबुद्दीन ऐबक (सं॰ १२६३-१२६९) ने यहाँ पर जमकर शासन करना आरंभ कर दिया। भारतीयों की स्वतंत्रता में अगले प्राय: ७५० वर्षों तक निरंतर ह्रास होता चला आया। विक्रम की १६वीं शताब्दी के अंतिम चरण में मुगल राज्य की स्थापना होने के पहले तक कई भिन्न-भिन्न मुस्लिम वंशों ने शासन किया। किन्तु शांति एवं समृद्धि में वृद्धि की अपेक्षा बराबर कमी ही होती गई। भारतीय जन- समाज, जाति-पाँति, छुआ-छूत तथा पारस्परिक कलह आदि के कारण विशृंंखल बनकर आडंबर एवं मिथ्याचार का भी क्रमशः शिकार बनता गया।

विक्रम की १२वीं एवं १३वीं शताब्दियों का युग वैष्णव धर्म के तीन प्रमुख आचार्य श्री रामानुज, निम्बार्क एवं मध्व के आविर्भाव का भी समय था जिसमें वेदांतमूलक भक्तिमार्ग का प्रचार [ २४ ]संगठित रूप में आरंभ हुआ और दक्षिण से लेकर उत्तर तक बड़े वेग के साथ फैलने लगा। इसके मूल सिद्धांत उक्त आचार्यों द्वारा निर्मित भाष्यों के अतिरिक्त विष्णु पुराण एवं पाँचरात्र संहिताओं पर भी बहुत कुछ आश्रित थे। इसकी विविध साधनाएँ वैधमार्गों का अनुसरण करती थीं। वैष्णव धर्म की रागानुगाशाखा का प्रचार कुछ आगे चलकर आरम्भ हुआ जब 'श्रीमद्भागवत' को अधिक महत्व दिया जाने लगा और प्रेममूलक भक्ति का उपदेश दिया जाने लगा। विक्रम की १२वीं शताब्दी के ही लगभग यहाँ पर उस नये विदेशी धर्म का भी संगठित प्रचार आरम्भ हुआ। जिसका नाम 'मजहबे इस्लाम' था और जिसे तत्कालीन मुस्लिम शासकों की राजकीय सहायता भी उपलब्ध थी। इसकी अधिकांश बातें भारतीय संस्कृति एवं परंपरा के प्रतिकूल पड़ती थीं और यह एक आक्रामक के भी रूप में अग्रसर होता जा रहा था। अतएव, भारतीय समाज को इसके कारण विवश होकर अपने आचार एवं संगठन के नियमों में अनेक परिवर्तन करने पड़ गए। बौद्ध धर्म इसके बहुत पहले से ही तांत्रिक एवं योग क्रियामूलक रूप ग्रहण कर चुका था और नाथ-संप्रदाय के साथ-साथ हिंदू धर्म के विस्तृत सागर में क्रमशः लीन होता जा रहा था। उत्कल एवं महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों की विचित्र परिस्थितियों ने तो उन्हें यहाँ तक प्रभावित किया कि वहाँ के वैष्णवों से इनके सहजयानियों तथा नाथ-जोगियों का कोई विशेष अंतर ही नहीं रह गया। फलतः उत्कल एवं बंगाल के तत्कालीन वातावरण ने इधर संत जयदेव को उत्पन्न किया और महाराष्ट्र की परिस्थितियों के अनुसार उधर वारकरी संप्रदाय चल निकला जिसके संत नामदेव अपने उत्तरकालीन कबीर साहब अदि के आदर्श बन गए।

संत-परंपरा

कबीर साहब जैसे संतों की परंपरा का सूत्रपात विक्रम की १५वीं [ २५ ] शताब्दी के उत्तरार्द्ध काल में हुआ जब कि उन्होंने अपने कतिपय विचारों को स्वतंत्ररूप में प्रकट करना आरंभ किया। स्वामी रामानंद, रविदास एवं पीपा आदि संत भी प्रायः एक समान ही भावों द्वारा अनुप्राणित थे और इस नवीन संतमत के प्रचार में प्रायः सभी का सहयोग लगभग एक ही प्रकार का रहा। कबीर साहब साधारण जन समाज में उत्पन्न हुए थे और उन्हें धन-संपन्न व्यक्तियों अथवा विद्या-व्यसनियों के संपर्क में आकर अपना जीवन विकसित करने का भी कभी अवसर नहीं मिला था। परंतु वस्तुस्थिति को परखने, उसका उचित मूल्यांकन करने तथा व्यापक रूप से विचार करते हुए उसके अनुसार अपने सिद्धांत निर्धारित करने की उनमें अनुपम शक्ति थी। किसी धर्मग्रंथ, संप्रदाय अथवा वर्ग विशेष का आश्रय न ग्रहण करते हुए भी वे अपने मंतव्यों पर सदा दृढ़ रहे और उन्होंने उसका पूरी निर्भीकता के साथ प्रचार किया। उन्होंने सभी प्रचलित धर्मों के मूल सिद्धांतों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की, किन्तु उसके बाह्याचारों को गौण स्थान दिया। वे थोथी विडंबनाओं के प्रबल विरोधी थे और सत्य या ईश्वर के नाम पर ढोंग रचने का स्वार्थ साधन करने वालों को खरीखोटी सुनाने में कभी नहीं रुकते थे। उनकी सारी बातें निजी अनुभवों के आधार पर आश्रित थीं और दूसरों के भी निजी अनुभव को ही अपनी कसौटी के लिए लक्ष्य बनाती थीं। अतएव उनके हृदय की सचाई के प्रति विश्वास का होना अंसभव न था और धीरे-धीरे सभी उन्हें श्रद्धा एवं सम्मान की दृष्टि से देखने लगे।

प्रसिद्ध है कि कबीर साहब ने स्वामी रामानंद (सं॰ १३५५-१४६७) को अपना दीक्षा गुरू स्वीकार किया था। संत रविदास, सेन, पीपा, धन्ना आदि उनके गुरुभाई थे। उक्त स्वामीजी के ही उपदेशों से प्रभावित हो कर इन सभी लोगों ने संत-परंपरा का आरंभ किया था। परन्तु इसके लिए कोई स्पष्ट तथा ऐतिहासिक प्रमाण [ २६ ] नहीं मिलते और न इन संतों की किन्हीं रचनाओं द्वारा ही इसकी पुष्टि होती है। इसके सिवाय इन सभी संतों का स्वामी रामानंद के साथ समसामयिक होना भी सिद्ध नहीं होता जिस कारण उनके साथ इन सभी महापुरुषों के किसी प्रत्यक्ष संबंध के विषय में अनुमान करना अधिकतर जनश्रुतियों तथा पौराणिक गाथाओं के आधार पर ही संभव कहा जा सकता है। बात यह है कि उस समय के पहले अर्थात् लगभग ३०० वर्षों से ही संत-परंपरा की विचारधारा के लिए अनुकूल क्षेत्र तैयार होता आ रहा था। पूर्वी भारत की ओर विशेषतः उत्कल एवं बंगाल प्रदेशों में बौद्ध धर्म के क्रमशः वज्रयान एवं सहजयान में परिणत हो जाने के कारण, उसके तथा स्थानीय वैष्णव संप्रदायों के बीच कोई विशेष अंतर नहीं रह गया था। वे एक दूसर के साथ कई बातों का आदान-प्रदान करते हुए निकटतर आते जा रह थे। महाराष्ट्र एवं राजस्थान की ओर भी इसी प्रकार नाथ पंथ एवं स्थानीय वैष्णव संप्रदायों की विचार-धाराएँ आपस में मिलती जा रही थीं और सुदूर काश्मीर तक ऐसी बातों का प्रभाव वहाँ के शैव संप्रदाय की अनेक बातों में दीख पड़ने लगा था। फलस्वरूप पूर्व की ओर संत जयदेव, दक्षिण की ओर संत ज्ञानदेव, नामदेव एवं त्रिलोचन, पश्चिम की ओर संत बेनी एवं सधना तथा काश्मीर की ओर संत लालदेव का आविर्भाव स्वामी रामानंद से पहले ही हो चुका था। वे कबीर साहब तथा स्वयं उनके लिए भी पथ-प्रदर्शन का काम कर सकते थे। स्वामी रामानंद श्री संप्रदाय के अनुयायी श्री राघवानंद के दीक्षित शिष्य जिन पर नाथपंथ की साधनाओं तथा सिद्धांतों का भी बहुत कुछ प्रभाव पड़ चुका था और विस्तृत देशाटन तथा विविध सत्संगों के कारण उनके विचार अपने गुरु से भी कहीं अधिक व्यापक एवं उदार बन गए थे। अतएव स्वामी रामानंद कबीर साहब के प्रत्यक्ष गुरु न होते हुए भी उनके [ २७ ]अधिक निकट रहने के कारण उन्हें भलीभाँति प्रभावित कर सकते थे। परन्तु यह बात कबीर साहब के सभी समसामयिकों के विषय में भी उसी प्रकार घटायी नहीं जा सकती।

वास्तव में इन संतों के संबंध में इनके किसी सांप्रदायिक दीक्षा गुरु के रहने वा न रहने का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न भी नहीं उठता। 'संत' शब्द ‘सत्' शब्द का एक अन्यतम रूप है जिसका वास्तविक अर्थ अस्तित्व का बोधक है और जो एक प्रकार से 'सत्य' का भी पर्यायवाची है। संतों का प्रधान लक्षण, इस कारण, यही हो सकता है कि वे सत्य के प्रति पूरी 'आस्था' रखते हैं और उसी के अनुसार अपने जीवन को ढाल भी देते हैं। सत्य की अनुभूति उनमें उसके साथ-साथ तदाम्यता का भाव ला देती है जिस कारण उनमें सम्यक् दर्शन की शक्ति आ जाती है और उनका जीवन स्तर बहुत ऊँचे बनकर उनके व्यक्तित्व को एक नितांत शुद्ध, सरल एवं सात्विक रूप प्रदान कर देता है। तदनुसार उनमें किसी प्रकार के संकुचित वा संकीर्ण विचारों के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता। ये सभी धर्मों, संप्रदायों, जातियों वा वर्गों को एक समान देखने लग जाते हैं। उन्हें यदि किसी गुरु की आवश्यकता भी पड़ती है तो केवल इसीलिए कि वह उनके प्रांरभिक साधारण जीवन की दशा में उनके सामने कोई न कोई एक संकेत व सुझाव सा प्रस्तुत कर देता है जिसकी झलक उसके प्रवाह की दिशा को सहसा बदल देती है। गुरु उनका इस प्रकार केवल पथ-प्रदर्शन मात्र करता है। 'जीवन' का पूर्ण कायापलट उनकी निजी साधना एवं अनुभूति पर ही आश्रित रहा करता है। उनके लिए न तो किसी संप्रदाय-विशेष के रूढ़िगत नियमों का पालन आवश्यक होता है और न वे इसी कारण, किसी व्यक्ति विशेष के ऐसे दोक्षित शिष्य ही कहे जा सकते हैं जिनके लिए उसने कतिपय विधियों का निर्वाह तथा साधनाओं का अभ्यास [ २८ ]किसी प्रकार अनिवार्य बतलाया हो।

कबीर साहब और उनके समसामयिक संतों का काल संत-परंपरा के लिए प्रारंभिक युग था। उस समय के किसी भी संत ने अपन अनुकरण में अग्रसर होने वालों का कोई संगठन नहीं किया और न उन्हें किसी साधना व संदेश के प्रचार के लिए कोई प्रेरणा प्रदान की। जहाँ तक पता चलता है, उन लोगों ने जो भी उपदेश दिये, अपने व्यक्तिगत अनुभवों के अनुसार ही दिये और प्रत्येक व्यक्ति को अपने निजी अनुभव की कसौटी पर भलीभाँति उसे परखकर ही स्वीकार करने का परामर्श दिया। किन्तु संत-परंपरा की प्रगति के मध्य युग अर्थात् सं॰ १५५० से लेकर सं॰ १८५० तक के ३०० वर्षों में इस नियम का ठीक-ठीक पालन न हो सका और गुरु नानकदेव (सं॰ १५२६-१५९५) के समय से सामुदायिक संगठन, शिष्य पद्धति निर्माण तथा उपदेश संग्रह की भी प्रथा चल निकली। उक्त युग के पूर्वाद्ध काल (अर्थात् सं॰ १५५०-१७००) केवल गुरु नानकदेव के नानक पंथ के अतिरिक्त, दादू दयाल (सं॰ १६१०-१६६०) के दादू-पंथ, बावरी साहिबा (१७ वीं शताब्दी) के बावरी-पंथ, हरिदास (मृ॰ सं॰ १७०० ) के निरंजनी संप्रदाय तथा मलूकदास (सं॰ १६३१-१७३९) के मलूक पंथ नामक वर्गों की ही सृष्टि हुई, प्रत्युत कबीर साहब के नाम पर एक कबीर पंथ भी बनकर तैयार हो गया। इसी प्रकार लालपंथ एवं साधसंप्रदाय भी बन गए। इन पंथों वा संप्रदायों के भिन्न-भिन्न केंद्र स्थापित हो गए। इनके उपदेश-संग्रहों को धर्मग्रंथों का महत्व मिलने लगा और इन पृथक्-पृथक् वर्गों के प्रवर्तकों की मूल विचारधारा के कबीर साहब के सिद्धांतानुसार होने पर भी इनकी सामुदायिक इकाइयों में कुछ न कुछ विशेषताएं भी आने लगीं। उस समय केवल थोड़े ही ऐसे संत थे जिन्होंने उक्त प्रकार के सामूहिक वर्ग निर्माण की चेष्टा नहीं की। [ २९ ]फिर भी, मध्य युगीन संत-परंपरा का उक्त पूर्वार्द्धकाल केवल पंथ-निर्माण के सूत्रपात तथा उसके लिए किये गए प्रांरभिक प्रयासों के लिए ही प्रसिद्ध है। ऐसे पंथों वा संप्रदायों की अधिक संख्या उस युग के उत्तरार्द्ध काल (अर्थात् सं॰ १७००-१८५०) में दीख पड़ी जब कि संत बाबालाल (सं॰ १६४७-१७१२) के नेतृत्व में बाबालाली संप्रदाय, संत प्राणनाथ (सं॰ १६७५-१७५१) का धामी संप्रदाय, साध संप्रदाय की एक शाखा के रूप में सतनामी संप्रदाय बाबा धरनीदास। १८ वीं शताब्दी पूर्वाद्ध का धरनीश्वरी संप्रदाय, बिहारी दरिया दास (सं॰ १७३१-१८३७) का दरियादासी संप्रदाय, सारवाड़ी दरिया साहब (सं॰ १७३३-१८१५) का दरियापंथ, संत शिवनारायण (१८ वीं शताब्दी उत्तरार्द्ध) का शिवनारायणी संप्रदाय, संत चरणदास (सं॰ १७६०-१८३९) का चरणदासी संप्रदाय, संत गरीबदास (सं॰ १७७४-१८३५) का गरीब पंथ, संत पानपदास (सं॰ १७७६-१८३० ) का पानपपंथ और संत रामचरणदास (सं॰ १७७८- १८३०) का राम सनेही संप्रदाय नामक भिन्न-भिन्न वर्ग प्रतिष्ठित हो गए तथा इन सभी का अपने-अपने क्षेत्रों में संगठित रूप से प्रचार भी होने लगा। इस काल में दीन दरवेश (उन्नीसवीं शताब्दी प्रथम चरण तथा बुल्लेशाह (सं॰ १७३७-१८१०) और बाबा किनाराम (मृ॰ सं॰ १८२६) जैसे कुछ अन्य संत भी हुए जिन्होंने संतमत का किसी न किसी रूप में प्रचार किया। यह समय उस प्रकार के संतों का था जो संत-मत को अधिकतर किसी न किसी समन्वयात्मक दृष्टि से देखते थे। इनमें से कई एक सम्राट अकबर (सं॰ १५९९ १६६२) की भाँति, एक ऐसे मत का प्रचार करना चाहते थे जिसके अंतर्गत सभी प्रचलित धर्मों के मूल सिद्धांतों का समावेश हो सके। अतः अन्य धर्मों के प्रमुख मान्य ग्रंथों का अध्ययन और सूफ़ियों एवं वेदांतियों द्वारा प्रभावित विचारों का प्रचार तो हुआ ही, उसके [ ३० ]साथ-साथ पौराणिक गाथाओं की सृष्टि; अलौकिक प्रदेशों की कल्पना, भक्तमालों की रचना तथा अपने-अपने श्रेष्ठ ग्रंथों की पूजा भी इस काल से आरंभ हो गई। कुछ संत एक प्रकार के अवतारवाद को अपनाकर अपने को पूर्वकालीन संतों का प्रतिरूप वा भविष्य कालीन सुधारक अर्थात् मसीहा तक भी घोषित करने लगे। इस युग में एक विशेष बात यह भी दीख पड़ी कि उक्त संप्रदायों में से एकाध ने दिल्ली के तत्कालीन शासकों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठाया। सतनामी संप्रदाय के अनुयायियों ने इसी युग में सर्वश्रा औरंगजेब (मृ॰ सं॰ १७६४) के शासन के विरुद्ध सं॰ १७२९ में विद्रोह किया और गुरु नानकदेव के अनुयायी सिखों ने अपने नवें गुरु गोबिंद सिंह (सं॰ १७२३-१७६५) के नेतृत्व में उसके साम्राज्य के विरुद्ध 'खालसा' वीरों के रूप में डटकर लोहा लिया।

परन्तु संत-परंपरा के अंतर्गत उक्त प्रकार की सांप्रदायिक मनोवृत्तियों का जाग उठना, आगे चलकर उसके लिए अहितकर सिद्ध हुआ। भिन्न-भिन्न वर्गों के अनुयायियों का अपने पंथ विशेष के प्रति पक्षपात का होता जाना स्वाभाविक था जिस कारण उनमें रूढ़िवादिता एवं संकीर्णता आ गई। वे एक दूसरे को नितांत पृथक् तथा भिन्न समझने लगे। इन संप्रदायों के अनुयायी अपने मूलप्रवर्तकों एवं प्रमुख संतों को, राम, कृष्ण, बुद्ध आदि की भांति, देवत्व का स्थान देने लगे। उनकी अर्चना होने लगी। उनका स्तुति-गान आरंभ हो गया। उनके संगृहोत उपदेश ग्रंथों तक को गुरुवत् गौरव प्रदान किया जाने लगा । उनके चित्रों वा समाधियों की पूजा उनका एक महत्वपूर्ण कर्त्तव्य बन गई। उनके सम्मान में किये गए मेलों में प्रचलित पर्वों एवं -तीर्थों का सा चमत्कार आ गया। उनके जीवन की साधारण सी घटनाओं पर भी पौराणिकता का रंग चढ़ाकर बहुत सी पुस्तकें लिखी जाने लगीं और उनकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई। अपने-अपने [ ३१ ]संप्रदायों की गणना अब वे लोग भी क्रमशः अन्य प्रचलित धर्मों के संप्रदायों की भांति ही करते थे। उनमें विविध बाह्यचारों तथा कल्पित गाथाओं की सृष्टि होती जाती थी जिसका एक परिणाम यह हुआ कि जिन बातों को दूर कर एक शुद्ध एवं सात्विक धर्म की प्रतिष्ठा का उद्देश्य पहले उनके सामने रखा गया था वे उनमें फिर भी प्रवेश करने लगीं और उनका वास्तविक आदर्श उनकी दृष्टियों से ओझल हो गया। अब संतमत एवं अन्य संप्रदायों की मान्यताओं में विशेष अंतर नहीं रह गया, फलतः उच्च स्तर के संत ऐसी प्रतिकूल भावना की कभी-कभी आलोचना तक करने लगे और कोई-कोई इस पतनोन्मुख प्रवाह की रोक-थाम के लिए कटिबद्ध भी हो गए।

विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के लगभग प्रथम चरण से ही यहाँ पर अंग्रेजों की सत्ता जमने लगी थी। पाश्चात्य ढंग की शिक्षा तथा विदेशी साहित्य के अधिकाधिक अध्ययन के कारण, विचारशील भारतीयों में आत्म-निरीक्षण एवं पुनरुद्धार की भावना जागृत हो चुकी थी। विदेशी विद्वानों ने जिस ढंग से हमारे साहित्य, कला एवं संस्कृति का का अनुसंधान आरंभ किया था उसका अनुकरण अब यहाँ के लोग भी करने लगे थे। पाश्चात्य सभ्यता के आलोक में सभी बातों का मूल्यांकन करते हुए वे उनकी प्राचीन बातों की नवीन व्याख्या करने में भी संलग्न थे। तदनुसार संत-परंपरा के एकाध संतों ने भी ऐसे प्रयत्न आरंभ किये। वे पुराने संत जैसे कबीर साहब, गुरु नानकदेव एवं दादूदयाल आदि की अनेक बातों पर अपनी टिप्पणी कर उनके अनुयायियों को सचेत करने लगे थे। संत तुलसी साहब (मृ॰ सं॰ १८९९) तथा राधास्वामी सत्संग के तृतीय गुरु ब्रह्मशंकर मिश्र (सं॰ १९१८-१९६४) ने ऐसे प्रसंगों की बुद्धिवादी एवं वैज्ञानिक व्याख्या कर संतमत का औचित्य एवं महत्व दर्शाया। कबीर पंथ के रामरहसदास (मृ॰ सं॰ १८६६) तथा दादू पंथ के साधू निश्चलदास (मृ॰ सं॰ १९२०) ने अपने[ ३२ ]अपने पंथों के सिद्धांत स्पष्ट करने के उद्देश्य से अपने-अपने ढंग से कतिपय पुस्तकों का निर्माण किया। इसी प्रकार उस समय राजा राममोहन राय (सं॰ १८३५-१८९०) तथा स्वामी दयानंद (सं॰ १८८१-१९४१) जैसे सुधारकों द्वारा प्रभावित वातावरण के अनुसार कुछ कुरीतियों को दूर करने के प्रयास भी होते जा रहे थे। इतना ही नहीं, इस आधुनिक युग के अंतर्गत जो स्वामी रामतीर्थ (सं॰ १९३०-१९६३) एवं महात्मा गांधी (सं॰ १९२६-२००४) जैसे संत हुए। उन्होंने मानव जीवन के केवल आध्यात्मिक अंग के ही नहीं प्रत्युत उसकी पूर्णता के भी विकास की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया। जिन व्यक्ति विकास, पूर्णांग साधना आदि बातों को कबीर, गुरु नानकदेव तथा संत दादूदयाल ने केवल संकेत रूप से ही ही बतलाया था उन पर इन्होंने पूरा बल दिया। संतों का साधसंप्रदाय वाणिज्य एवं व्यवसाय की ओर पहले से ही प्रवृत्त था। राधास्वामी सत्संग की एक शाखा शिल्पकला विकास में भी लग गई। महात्मा गांधी ने प्राय: सभी प्रकार के ऐसे क्षेत्रों में उन्नति को प्रोत्साहन दिया। इन आधुनिक संतों के कारण विचार-स्वातंत्र्य, निर्भकता, विश्वप्रेम, सत्य, अहिंसा, विश्व शांति एवं विश्व नागरिकता जैसे उच्च नैतिक गुणों को अपनाने की एक बार फिर भी प्रेरणा मिली। संतों के 'भूतल पर स्वर्ग' वाले प्राचीन आदर्श की ओर एक बार सारा संसार फिर से आकृष्ट हो गया।

संतमत

संतमत किसी पंथ वा संप्रदाय के मूल प्रवर्तक द्वारा प्रचलित किये गए सिद्धांतों का संग्नहमात्र नहीं है। यह उस विधान का भी परिचायक नहीं जो भिन्न-भिन्न संतों के उपदेशों के आधार पर निर्मित किया गया हो। इसे किसी भी ऐसी व्यवस्था का निर्दिष्ट आदर्श से कोई संबंध नहीं जो इसके अनुयायी के भी अनुभव में आकर अपने [ ३३ ]को प्रमाणित में कर चुका हो। संत कबीर साहब ने अपने विषय में चर्चा करते हुए एक स्थल पर कहा है,

"सत गुर तत कह बिचार, मूल गह्यौ अनभै विस्तार।।"[३]

अर्थात् सतगुरु ने तत्व के विषय में विचार कर मुझे बतला दिया वा उसकी ओर संकेत कर दिया और मैंने उस मूल वस्तु को अपने निजी अनुभव के अनुसार ग्रहण कर लिया। वे दूसरों के लिए भी यही निश्चय करते हुए जान पड़ते हैं। इसी संबंध में वे एक अन्य पद में इस प्रकार भी कहते हैं,

"रांम नांम सब कोई बखानै, रांम नांम का मरस न जांनै॥"

ऊपर की मोहि बात न भावै, देखे गावै तो सुख पावे।

कहै कबीर कछु कहत न आवै, परचै बिनां मरम को पावें॥"[४]

अर्थात् रामनाम की चर्चा करने वाले सभी लोग उसके रहस्य को नहीं जानते। इसलिए मुझे ऊपर ही ऊपर से बात कर देने वालों की बात नहीं जँचती। उसका सुख वही प्राप्त कर सकता है जो उसका स्मरण, उसे स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव कर लेने पर ही करता हो। यह बात केवल कहने-सुनने की नहीं है। इसके रहस्य को बिना इसका परिचय प्राप्त किये कोई भी नहीं जान पाता। स्वामी रामतीर्थ ने भी एक बार लगभग ऐसे ही प्रसंग से कहा था "सत्य को सत्य तुम केवल इसीलिए मत समझो कि उसे कृष्ण, बुद्ध अथवा ईसा मसीह ने कहा है। उसे अपने निजी अनुभव की कसौटी पर परख कर भी देख लो।" सत्य का केवल उतना ही अंश हमें काम देता है और हमारे जीवन का अंग भी बन सकता है जितने को हम वस्तुतः जानते हैं। वह जैसा है वैसा उसे पूर्णरूप से कदाचित् कोई भी नहीं जानता। उसके लिए


[ ३४ ]भिन्न-भिन्न बातें सभी लोग अपने-अपने विचारानुसार गढ़ा करते हैं।

इसीलिए कबीर साहब ने भी एक स्थल पर इस प्रकार कहा है,

"वो है तैसा वोही जांचें, ओही आहि, आहि नहि आनै॥"[५]

अर्थात् वह सत् वा राम जैसा है वैसा केवल उसीको विदित है। (हम तों केवल इतना ही कहेंगे कि) केवल उसी एकमात्र का अस्तित्व है, उसके अतिरिक्त कोई दूसरी वस्तु नहीं है। इसका अभिप्राय दूसरे शब्दों में यों भी प्रकट कर सकते हैं कि 'सत्य' का शाब्दिक अर्थ ही अस्तित्व का बोधक है और जो कुछ है वह इसी कारण उसीकी परिधि के अंतर्गत आ जाता है।

संत लोग दार्शनिक नहीं थे और न उन्होंने इसके लिए कभी दावा ही किया है। वे लोग धार्मिक व्यक्ति एवं साधक थे। परमतत्व के विषय में किसी बात का वैज्ञानिक ढंग से निरूपण करना अथवा तद्विषयक प्रत्येक प्रश्न की जाँच के लिए कोरे तर्क की कसौटी लिये फिरना उनका स्वभाव न था। उन्होंने उस वस्तु के अनेक नाम दिये हैं। उन्होंने उसे कभी 'राम' कहा है कभी 'रहीम कहा है, कभी ब्रह्म कहा है, कभी 'खुदा' कहा है और कभी-कभी उसे केवल 'परमपद' वा 'निर्वाण' जैसी स्थिति निदर्शक संज्ञा भी प्रदान की है। किन्तु उनके लिए सबसे प्रिय नाम केवल 'नाम' अथवा 'सत्' अर्थात सत्य मात्र ही है। इन दोनों को एक साथ मिलाकर वे कभी-कभी 'सत्तनाम' शब्द का प्रयोग करते हैं और उसे बहुत बड़ा महत्व भी देते हैं। इन दोनों शब्दों में से 'सत्' वा सत्य शब्द उस अस्तित्व का सूचक है जो संतों के अनुसार परमतत्व का बोधक माना जा सकता है और 'नाम' उस वस्तु के उस अंशविशेष की ओर संकेत करता है जो साधक के निजी अनुभव में आ चुका है। जो उसके दिए [ ३५ ]सभी प्रचलित नामों का एक प्रकार से प्रतिनिधि भी समझा जा सकता है। उस 'नाम' का महत्व संतों ने सब कहीं दर्शाया है और उसीको सब कुछ मानते हुए उसके स्मरण का उपदेश भी दिया है। इसका प्रधान कारण कदाचित् यही हो सकता है कि सत्य का उतना ही अंश उसके लिए परिचित है और उसीकी अनुभूति उसके लिए लाभदायक भी सिद्ध हो सकती है। संत दादूदयाल ने एक स्थल पर 'सारग्राही' के प्रसंग में कहा है,

"गऊ बच्छ का ज्ञान गहि, दूध रहै ल्यौ लाइ।"

"सींग, पूंछ , पग पर हरै, अस्थन लागै धाइ॥"[६]

अर्थात् हमें ज्ञान का ग्रहण उस बछड़े की भाँति करना चाहिए जो दौड़कर गाय के स्तन में लग जाता है और उसके दूध को पीता है। वह उसकी सींग, पूँछ वा पैरों की ओर दृष्टि तक नहीं डालता है। संतों के नामस्मरण का भी वास्तविक रहस्य यही प्रतीत होता है।

नामस्मरण संतों के लिए सबसे प्रमुख साधना है। वे ऐसे साधक हैं जो अपनी साधना से कभी विरत होना नहीं जानते। उनका लक्ष्य सत् की अनुभूति है। वे चाहते हैं कि उसके अनुभव की दशा उनमें सदा एक समान बनी रहें। वे न केवल किसी एकांत स्थान में बैठकर शांतचित्त हो उसकी आग को सुलगाते रहना चाहते हैं, अपितु उनका मुख्य प्रयत्न रहा करता है कि वह किसी न किसी प्रकार हमारे साधारण सामाजिक व्यवहारों में लगे रहने पर भी निरंतर उसी भांति बना रहे। सत् के अनुभव को वे सभी काल में, सब कहीं एवं सभी स्थितियों में भी एक समान स्थिर रखना चाहते हैं और उसमें एक क्षण के लिए भी कमी का आ जाना उनके लिए असह्य हो जाता है। सगुणोपासक भक्तजन की भक्ति साधना षोडशोपचार पूजन एवं


[ ३६ ]भजन कीर्तन के रूप में चला करती है। योगीजन अपनी योग साधना

को समाधि लगाकर पूरी किया करते हैं। वे अपनी-अपनी साधनाओं में निरत रहते समय आनंद विभोर हो जाते हैं। उतने समय के लिए उन्हें व्यावहारिक कार्यों के लिए कोई अवकाश नहीं मिला करता। दैनिक व्यवहार एवं आध्यात्मिक अनुभूति के इस असामंजस्य के ही कारण वे बहुधा संसार से विरक्त बन जाया करते हैं और निवृत्तिमार्ग को ग्रहण कर करते हैं। परंतु संतों की विचारधारा के अनुसार ऐसा करना उचित नहीं है। इस कारण अपने सत् की अनुभूति को सदा एकरूप एवं एकरस बनाये रहने के लिए वे अपने सारे जीवन में ही कायापलट ला देना चाहते हैं। जब उनकी दशा में एकबार स्थिरता आ गई और उनके दृष्टिकोण में इसके द्वारा एकबार परिवर्तन आ गया तो उसे वैसा ही बना रहना चाहिए और उसमें किसी प्रकार का भी फेर-फार नहीं होना चाहिए। वे अनुभव की 'सुध' को सदा अपने समक्ष रखा करते हैं। नामस्मरण उनका इस बात में सब से बड़ा सहायक बनता है। संतों के इस नामस्मरण की विधि भी अपने ढंग की है। उसमें तथा साधारण जप की साधना में महान् अंतर है। इसके लिए न तो किसी माला की आवश्यकता पड़ती है और न इसके अनुसार जप करते समय अपनी उंगलियों से ही काम लिया जाता है। स्मरण का काम वे किसी प्रकार की गणना वा बारबार दुहराने की क्रिया द्वारा पूरा नहीं करते 'स्मरण' शब्द को भी उन्होंने सत् की ही भांति उसके ठीक मौलिक अर्थ 'स्मृति' के रूप में लिया है। उनका विश्वास है कि जो कुछ ब्रह्मांड में है ठीक-ठीक हमारे पिंड अर्थात् शरीर के भीतर विद्य- मान है। अतएव जिन शब्द (वा Logos ) के सृष्टि का आदि कारण कहा जाता है। उसका एक प्रतिरूप हमारे शरीर में भी मधुर ध्वनि के रूप में वर्तमान है जिसे यदि चाहें तो हम सुन भी सकते हैं। [ ३७ ]उनका कहना है कि हमारी जीवात्मा जिसके द्वारा हमारा शरीर अनुप्राणित है उसके भीतर उस परमतत्व की सुध वा 'सुरत' के रूप में अंतर्निहित है। इस कारण, यदि हम इस 'सुरत' को उस 'शब्द' के साथ जोड़ सके तो हमें अपने इष्ट 'सत्' की अनुभूति का भी हो जाना सर्वथा संभव है। इतना ही नहीं, इस संयोग की साधना का महत्त्व उस दशा में और भी बढ़ जाता है जब हम उक्त 'सुरत शब्द योग' की क्रिया में सदा एक भाव से लीन रहा करते हैं। ऐसी दशा में 'सुरत’ एक स्रोत की भक्ति 'शब्द' की की ओर सदा प्रवाहित सी होती रहा करती है। इस प्रकार हम उस 'सत्' के साथ सदा एकरस मिले-जुले से रहा करते हैं। फलतः हम अपने को उसे 'सत्' में लीन कर उसके साथ तदाकारता ग्रहण कर लेते हैं। वह 'सत्' ही, वस्तुतः हमारे रूप में 'संत' का भाव ग्रहण कर लेता है। संत के जीवन का इसी कारण विश्व-कल्याणमय हो जाना भी अनिर्वाय है क्योंकि विश्व मूलत: उस सत् का ही स्वरूप है। दोनों में कोई वास्तविक अंतर नहीं है। संतों की नामस्मरण-साधना, इस प्रकार जप की विधि के स्वयं निष्पन्न होते रहने के कारण, 'अजपाजाप' के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी समाधि का नाम भी उसके योगाभ्यासियों द्वारा प्रयासपूर्वक लगायी जाने वाली 'समाधि' से भिन्न होने के कारण 'सहज समाधि' कहलाती है।

संतों ने अपनी रचनाओं के अंतर्गत उपर्युक्त योगसाधना की भी कुछ न कुछ चर्चा की है। उन्होंने योगियों के प्रसिद्ध 'कुंडलिनी योग' की विभिन्न बातों का उल्लेख अनेक स्थलों पर किया है। पिंड वा शरीर के भीतर अन्य अनेक नाड़ियों के अतिरिक्त, तीन प्रमुख नाड़ियाँ ईड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना नाम भी वर्तमान हैं जो हमारी रीढ़ की हड्डी वा मेरुदंड में नीचे से ऊपर की ओर जाती हुई जान [ ३८ ]पड़ती है। ईड़ा एवं पिंगला सुषुम्ना के साथ लिपटी हुई सी प्रतीत होती है। उनमें से पहली का अंत बायीं नाक तक एवं दूसरी का दाहिनी नाक तक हो जाता है। नाक के मूल भाग अर्थात्, दोनों भृकुटियों के बीच वाले स्थान के आगे इन दोनों की भी शक्ति का प्रवाह सुषुम्ना द्वारा हो होने लग जाता है। सुषुम्ना वहाँ से आगे की ओर कुछ टेढ़ी सी होकर बढ़ती है। अंत में, हमारे मस्तिष्क के भीतर उस उच्चतम भाग तक के के निकट पहुँच जाती है जो 'ब्रह्मरंध्र' के नाम से प्रसिद्ध है और जो अपने नामानुसार ही, 'सत्' के मूल स्थान के लिए कल्पित किये गए, किसी सूक्ष्म छिद्र का द्योतक है। संतों ने सुषुम्ना के उक्त ब्रह्मरंध्र को 'वंकनाल' की संज्ञा दी है और ब्रह्मरंध्र के लिए एक अन्य नाम 'भंवर गुफा'[७] भी बतलाया है। सुषुम्ना नाड़ी के इस लंबे मार्ग में कई ऐसे स्थल भी मिलते हैं जो विचित्र ढंग से बने हुए हैं और एक प्रकार से उसकी क्रमिक उर्ध्व गति को सूचित करते हैं। ये संख्या में सात हैं और नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूरक चक्र, विशुद्ध चक्र, अज्ञा चक्र एवं सहस्त्रार के नाम से प्रसिद्ध हैं। योगियों के अनुसार इनकी रचना कमल पुष्पों के रूप में हुई है जिनमें क्रमशः केवल चार से छः, दस, बारह, दो तथा सहस्रों तक दल हैं और जिन के रंग, रूप एवं प्रभावादि में बहुत अंतर लक्षित होता है। मूलाधार चक्र का स्थान सुषुम्ना के सब से निचले भाग वा उसके लगभग प्रस्थान बिंदु के ही निकट है और स्वाधिष्ठान चक्र की स्थिति लिंग के मूल भाग में है। मणिपूरक, इसी प्रकार,


[ ३९ ]हमारी नाभि के समीप है, अनाहत हृदय स्थान में वर्तमान है।

विशुद्ध कंठ स्थान में हैं और अज्ञा चक्र का स्थान दोनों ध्रुवों के मध्य में जान पड़ता है। इन सभी के ऊपर जो सहस्त्रार है उसकी स्थिति शीर्षस्थान में बतलायी जाती है। कहा जाता है कि सुषुम्ना वहाँ तक पहुँचने के पहले ही समाप्त हो गई रहती है। सबसे निचले चक्र अर्थात् मूलाधार के समीप ही योगियों ने किसी एक अनुपम शक्ति के विद्यमान होने की भी कल्पना की है। उसे साढ़े तीन कुंडलियों वा घेरों में सिमटकर बैठी हुई सर्पिणी को भाँति वर्तमान 'कुंडलिनी शक्ति' का नाम दिया है। योगियों का कहना है कि साधक जब कुंभक प्राणायाम के द्वारा वायु का निरोध करता है तो उक्त कुंडलिनी जागृत हो कर सीधी हो जाती है और सुषुम्ना द्वारा ऊपर की ओर अग्रसर होने लगती है। यह उसी प्रकार आगे बढ़ती हुई क्रमश: उक्त छहों चक्रों का भेदन करती है। अंत में, उस सहस्त्रार तक पहुँच जाती है। जहाँ उस 'शक्ति' का 'सत्' वा ब्रह्मरूपी 'शिव' के साथ मिलन हो जाता है तथा इस प्रकार समाधि लग जाती है जो 'कुंडलिनी योग' का लक्ष्य है।

इस कुंडलिनी योग की चर्चा सभी संतों ने विस्तार के साथ नहीं की है, किंतु इसके प्रसंग उनकी रचनाओं में अनेक स्थलों पर दीख पड़ते हैं। संतों ने अष्टांगयोग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि में से भी प्रायः सभी के उल्लेख किसी न किसी प्रकार से किये हैं, किन्तु उनका सांगोपांग वर्णन कहीं नहीं किया है। यम-नियमों को उन्होंने साधारण संयत जीवन तथा नैतिक नियमों के प्रसंग में लाकर बतलाया है, किंतु आसनों में से किसी एक विशेष को महत्व नहीं दिया है। जिस किसी आसन में, सुख एवं शांति के साथ बैठकर, नामस्मरण कर सकें उसीको उन्होंने उपयोगी मान लिया है। प्राणायाम के पूरक, [ ४० ]कुंभक एवं रेचक में से दूसरे अर्थात् कुंभक को ही उन्होंने प्रधानता दी है और अधिकतर उसीको प्राणायाम का समानार्थक तक मान लिया है। प्रत्याहार तथा धारणा की चर्चा उन्होंने मन के स्वभावादि का वर्णन करते समय बड़े विस्तार के साथ किया है। मनोमारण, मनोयोग तथा मनोवृत्ति संयम के रूपों में उसकी चर्चा करते हुए उसकी साधना को सबसे आवश्यक ठहराया है। इसी प्रकार ध्यान एवं समाधि का वर्णन भी इनकी रचनाओं में एक विशेष ढंग से ही किया गया मिलता है। इन दोनों की चर्चा करते समय उन्होंने क्रमशः 'विरह' तथा 'परचा' (परिचय) के शीर्षक दिये हैं और इन दोनों के अत्यंत रोचक एवं सजीव चित्र भी खींचे हैं। संतों के अनुसार 'लययोग' की साधना के लिए 'हठयोग' की क्रियाओं का अभ्यास अनिवार्य नहीं है। वे अपनी 'सुरत' को 'शब्द' के साथ संयुक्त कर देने का कार्य, केवल कतिपय 'जुगतियों' के आधार पर ही संपन्न कर देना चाहते हैं। अतएव विभिन्न योगियों की रूढ़िगत बातों वा व्यवस्थाओं पर अधिक आश्रित रहने की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती और उक्त योग उनके लिए 'सहजयोग' बन जाता है।

संतों की भक्ति-साधना स्वभावत: निर्गुण एवं निराकार की उपासना के अंतर्गत आती है और उसे 'अभेद' भक्ति का भी नाम दिया जाता है। किंतु उन्होंने अपने इष्ट 'सत्' को कोरे अशरीरो वा भावात्मक रूप में ही नहीं समझा है। उनके तद्विषयक प्रकट किये गए उद्गारों से जान पड़ता है कि उसे सगुण एवं निर्गुण से परे बतलाते समय उन्होंने एक प्रकार का अनुपम व्यक्तित्व भी दे डाला है। वे उसे सर्वव्यापक राम कहकर उसका विश्व के प्रत्येक अणु में विद्यमान रहना तथा सभी के रूपों में भी दीख पड़ना मानते हैं। इसके सिवाय वे उसे सतगुरु, पति, साहब, सखा आदि भी समझते हैं। इन भावों के साथ उसके प्रति अनेक प्रकार की बातें कहा

  1. तुलनीय– It may be quite true that fine and telling rhythms without substance (substance of idea, suggestion, feeling) are hardly poetry at all, even if they make good verse. Letters of Sri Aurobindo (Third Series), p. 11.
  2. ध्वनिकार आनन्द वर्धनाचार्य ने इसके विपरीत अनौचित्य को ही रसभंग का कारण बतलाया है जो कुछ भिन्न दृष्टिकोण के कारण है और वह भी ठीक ही है ।
  3. कबीर ग्रंथावली पद ३८६, पृष्ठ २६।
  4. वही, पद २१८, पृष्ठ १६२।
  5. कबीर ग्रंथावली, पृष्ठ २४२।
  6. स्वामी दादू दयाल की वाणी (अंगवधू) साखी १५, पृ॰ २४५ ।
  7. देखिए ‘बंकनालि के अंतरै, पछिम दिसा की बाट।

    नीझर झरै रस पीजिए। तहाँ भँवर गुफा के घाट रे॥

    कबीर ग्रंथावली पृष्ठ ८८ (पद ४)।