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सङ्कलन/१० एक तरुणी का नीलाम

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काशी: भारतीय भंडार, पृष्ठ ५९ से – ६२ तक

 

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एक तरुणी का नीलाम

मुश्तरी नाम की एक वेश्या ने, जो कविता भी करती थी, एक बार अपने दिल के विषय में एक पद्य कहा था। जहाँ तक हमें याद है, वह पद्य यह था—

खरीदारो लो चल के बाजार देखो।
दिले मुश्तरी अब बिका चाहता है॥

इस वार-वनिता ने तो अपना दिल ही बेचना चाहा था; पर अमेरिका की खूब पढ़ी-लिखी एक नौजवान कुमारिका ने अपने सारे शरीर को, मन और प्राण सहित, नीलाम कर देने का इश्तहार दिया है। वह युवती वाशिंगटन की रहनेवाली है। शिकागो में वह टाइप-राइटिंग का काम करती है। मरते दम तक सर्व-श्रेष्ठ 'बोली' बोलनेवाले की दासी होने का विचार उसने किया है। वह अपने को नीलाम करना चाहती है। इसका कारण आप उसी के मुख से सुनिए—

"इस नीलामी नोटिस को पढ़ कर लोगों को आश्चर्य होगा। परन्तु आश्चर्य्य करने का कोई कारण नहीं। क्योंकि और तरुणी लड़कियाँ भी तो अपने को बेचकर लोगों की गुलामी करती हैं। हाँ, उनकी गुलामी कुछ कुछ दूसरी तरह की जरूर है। पर है वह भी पूरी पूरी गुलामी। गुलामी के सिवा और कुछ नहीं। कोई कोई प्रति सप्ताह तनख्वाह पाने के परिवर्तन में, अपने को बेच डालती हैं, कोई कोई पति-प्राप्ति के परिवर्तन में। पति को मालिक बनाकर उसके अधीन रहना क्या गुलामी नहीं ? औरों की नौकरी करना क्या गुलामी नहीं ? ये बातें सर्व-साधारण के सामने प्रकाश रूप से नहीं होतीं। हर एक नौजवान लड़की चुपचाप गुलामी स्वीकार कर लेती है। यह बात मैं प्रकाश रूप से करना चाहती हूँ। मैं सब लोगों को सूचना देकर अपने को नीलाम करने जाती हूँ। इस तरह नीलाम करने से मुझे आशा है कि मेरी क़ीमत लोग कुछ अधिक लगावेंगे। अतएव खुल्लम-खुल्ला नीलाम करने में हानि ही क्या है ?

"मेरा परलोकवासी पिता सरकारी नौकर था। मुझे लिखाने- पढ़ाने और शिक्षा देने में उसने ३०,००० रुपये खर्च किये। इतनी लागत से मैं जवान होकर नीलाम होने के लायक हुई हूँ। पर यद्यपि मैं जी-जान होम कर "टाइप राइटिङ्ग" का काम करती हूँ, तथापि ३० हफ़्ते से अधिक मुझे तनख्वाह नहीं मिलती। मेरी तैयारी में जो मूल धन लगाया गया है, उस पर यह ५ फी सदी के हिसाब से भी तो नहीं पड़ता। अब मैं यह जानने के लिए उत्कण्ठित हो रही हूँ कि गुलामों के मालिक अमेरिका-निवासी धनवान् लोग जियादह से जियादह कितनी कीमत देकर गुलाम बनाने के लिए अमेरिका ही की एक तरुण

कुमारी को खरीद कर सकते हैं। मैं जानना चाहती हूँ कि इस तरह की गुलाम कुमारिकाओं का बाजार-भाव क्या है। जब कोई आदमी किसी चीज को खरीद करना चाहता है, तब वह उसके गुणों का वर्णन भी सुनना चाहता है। बहुत अच्छा; जब मैं अपना नीलाम करने पर उतारू हूँ, तब अपना वर्णन भी अपने ही मुँह से क्यों न कर दूँ। सुनिए --

"मैं तरुण हूँ, समझदार हूँ, पढ़ी-लिखी हूँ, शिष्ट हूँ, व्यव- हारश हूँ, सच बोलती हूँ, विश्वासपात्र हूँ, न्यायनिष्ठ हूँ, काव्य- रसज्ञ हूँ, तत्वज्ञ हूँ, उदार हूँ -- सबसे बड़ा गुण मुझ में यह है कि मैं स्त्रीत्व के सर्वोच्च गुणों से विभूषित हूँ। मेरे भूरे नेत्र बड़े बड़े हैं। मेरे ओठों से सरसता टपकती है। मेरे दाँत अनार के दाने हैं। मैं अपने को सुन्दरी तो नहीं कह सकती, पर मेरी शकल-सूरत बहुत ही लुभावनी है। मेरा चरित्र खूब उच्च और दृढ़तापूर्ण है। हाव-भाव भी मुझ में कम नहीं है। दिल मेरा छोटा नहीं, बहुत बड़ा है। कभी कभी मैं बहुत ही विनोदशील हो जाती हूँ ! मैं खुश-मिजाज होकर अपनी प्रतिष्ठा का हमेशा खयाल रखती हूँ। पढ़ने-लिखने में मैं खूब दिल लगाती हूँ। मैं धार्म्मिक तो हूँ, परन्तु धर्म्मान्ध नहीं। मैं सीना तो नहीं जानती, पर पहनने के कपड़े बहुत अच्छे काट सकती हूँ; और काटना ही मुशकिल काम है। दुकान में रखे हुए भले-बुरे मांस की मुझे पहचान नहीं; पर खिलाने-पिलाने में मैं बड़ी होशियार हूँ। मिहमानों को खुश करना मैं बहुत अच्छा जानती हूँ। हिसाब लगाने में मैं कच्ची हूँ, पर अच्छे अच्छे किस्से कहना मुझे खूब आता है।"

यह इस अमेरिकन तरुणी के इश्तहार का कुछ अंश है। इसने अपने इश्तहार में यह भी लिख दिया है कि, कौन सर्व- श्रेष्ठ बोली बोलनेवाला है, इसका फैसला करना सर्वथा मेरे ही हाथ में है। मैं जिसे चाहूँगी, उसी की लगाई हुई कीमत कबूल करके उसके हाथ अपने को बेंच दूँगी। सुनते हैं, बहुत लोगों ने इस कुमारी के साथ शादी करने की इच्छा जाहिर की है। ये सब सभ्यता के चोचले हैं। देखते जाइए, यूरप और अमेरिका के सभ्य समाज में क्या क्या गुल खिलते हैं!

[जून १९०७.
 


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