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सङ्कलन/२२ निष्क्रिय प्रतिरोध का परिणाम

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काशी: भारतीय भंडार, पृष्ठ १४२ से – १५२ तक

 

२२
निष्क्रिय प्रतिरोध का परिणाम

राजा चाहे अपनी प्रजा को सुखी रक्खे, चाहे दुःखी। जिस प्रकार सन्तान की रक्षा का भार माता-पिता पर रहता है, उसी प्रकार प्रजा की रक्षा का भार राजा पर। दक्षिणी अफ़रीक़ा में भारत की जो प्रजा बस गई है, वह वहाँ के शासकों के सर्वथा अधीन है। खेद की बात है, उनके सत्वों की बहुत कम रक्षा उन लोगों ने अब तक की है। गत आठ वर्षौं से उन्हें अनेक प्रकार की तकलीफ़ें मिल रही थीं। अब कहीं, इतने समय बाद उन्हें दाद मिली है। इसका मुख्य श्रेय श्रीयुत गांधी को है। वहाँवाले चाहते थे कि भारतवासी वहाँ न रहें। रहें भी तो उनके बराबर नागरिकता का अधिकार वे प्राप्त न सकें; केवल कुली बन कर रहें।

पहले-पहल जब अँगरेज़ लोग अफ़रीक़ा में आबाद हुए, तब वहाँ बहुत सी ज़मीन बनजर पड़ी थी। वहाँ के प्राचीन निवासी, काफ़िर और अन्य जाति के हबशी, खेती करना न जानते थे। अतएव बसनेवाले अँगरेज़ों ने सोचा कि यदि यहाँ मिहनती और कम मज़दूरी पर काम करनेवाले मज़दूर कहीं से आ सके तो बड़ा लाभ हो। अँगरेज़ों का अधिकार पहले-पहल केप कालनी पर हुआ, फिर नटाल पर।

ट्रान्सवाल और आरेंज-फ्री-स्टेट में यूरप के कई देशों के बहुत से लोग बस गये थे। उनमें डच और फ्रेञ्च मुख्य थे। उन लोगों को भी मज़दूरों की ज़रूरत थी। केप कालनी में अङ्गरेज़ों का एक गवर्नर रहता था। सर जार्ज ग्रे जिस समय वहाँ के गवर्नर थे, उस समय केप कालनी में रहनेवाले अगरेज़ों की प्रार्थना पर सर जार्ज ने इंगलैंड को लिखा कि भारत से कुछ मज़दूर वहाँ भेज दिये जायँ तो अच्छा हो। इंगलैंड ने भारत को यही बात लिखी। इस पर भारत के बड़े लाट ने हिन्दुस्तानी मज़दूरों के सुभीते के लिए बहुत सी शर्तैं कीं। उनको केप कालनीवालों ने मञ्जूर कर लिया। इन्हीं शर्तौं के अनुसार अफ़रीक़ा जाकर भारत के मज़दूर मज़दूरी करने लगे। पहले तीन, फिर पाँच वर्ष में उनकी शर्तैं पूरी हो जाती थीं। तब वे स्वतन्त्र हो जाते थे। स्वतन्त्र होकर वे वहाँ बस जाते और वाणिज्य-व्यवसाय आदि करने लगते थे। उनके बसने के लिए वहाँ की सरकार उन्हें ज़मीन भी मुफ्त ही दिया करती थी। और भी अनेक सुभीते उन्हें थे। असल में वहाँ की सरकार का अभिप्राय यह था कि इन मज़दूरों के वहाँ बस जाने से अफ़रीक़ा आबाद भी हो जायगा और वहाँ के व्यवसायियों के लिए परिश्रमी और सीधे-सादे मज़दूर भी मिलने लगेगे। इसी से सैकड़ों लोग केप कालनी में बस गये । नटाल,
ट्रांसवाल और आरेंज-फ्री-स्टेट में भी वे पहुँचे और धीरे धीरे बस गये। मज़दूरी छोड़ने पर वे लोग स्वतन्त्रतापूर्वक स्वयं भी व्यापार और खेती करने लगे।

१८६० ईस्वी में भारत से पहले-पहल मज़दूर भेजे गये थे। इन मज़दूरों ने अफ़रीक़ा में बहुत सन्तोषजनक काम किया। अफ़रीक़ावाले इनके परिश्रम और इनकी कार्य-दक्षता पर बड़े प्रसन्न हुए। पर कारणवश यह शर्त -- बन्दी, १८६६ ईसवी में, तोड़ दी गई। शर्तबन्दी टूटतेही अफ़रीक़ा में फिर मज़दूरों की कमी हो गई। अतएव १८७७ ईसवी से फिर हिन्दुस्तानी मज़- दूर अफ़रीक़ा जाने लगे। तबसे दस पन्द्रह वर्षों तक अफ़रीक़ा में रहनेवाले हिन्दुस्तानियों को सब तरह से आराम रहा।

कुछ समय बाद ट्रान्सवाल-वालों को भारतीयों का वहाँ रहना खटकने लगा। अपनी मिहनत और अपनी किफ़ायत- शारी से भारतवासी खेती और व्यापार आदि से बहुत रुपया पैदा करने लगे थे। इससे ट्रांसवालवालों ने अपनी हानि समझी। अतएव उन्होंने १८८५ ईसवी में एक क़ानून बनाकर हिन्दुस्तानियों का विरोध आरम्भ किया। क़ानून यह बना कि कोई भी भारतवासी यदि वहाँ व्यापार के लिए रहना चाहे तो उसे एक नियत फ़ीस देकर अपना नाम रजिस्टरी कराना पड़ेगा। साथ ही सफ़ाई के लिहाज़ से हिन्दुस्तानियों ही को नहीं, सारे एशियावासियों को शहर के बाहर एक नियत स्थान पर रहना पड़ेगा। धीरे-धीरे नेटाल में भी यही हवा चली। वहाँ भी १८९४ में, हिन्दुस्तानियों का हित-विरोध आरम्भ हो गया। पहले केवल हिन्दुस्तानी मज़दूर ही अफ़रीक़ा जाते थे। जब यहाँ से व्यापारी और व्यवसायी लोग भी वहाँ जाने लगे, तब वहाँ के रहने- वालों को यह बात असह्य सी हो गई। उन्होंने काले और गोरे में भेद रखना चाहा। इस विषय का एक कानून वे बनाने लगे। वह यदि बन जाता तो हिन्दुस्तानियों का नेटाल जाना एक दम ही बन्द हो जाता। पर प्रसिद्ध राजनैतिक मिस्टर चेम्बरलेन के उद्योग से वह क़ानून न बन सका। उसके बदले एक ऐसा क़ानून बना जिसमें शिक्षा-विषयक एक शर्त रक्खी गई। शर्त यह थी कि जिस भारतवासी की शिक्षा की इयत्ता अमुक हो, वही वहाँ जा सके। नेटाल में यह कानून १८९७ ईसवी में "पास" हुआ। बस, तभी से नटाल में हिन्दुस्ता- नियों के दुःखों का आरम्भ हुआ -- तभी से हिन्दुस्तानियों के सत्वों पर आघात आरम्भ हुआ। उधर ट्रान्सवाल में तो उनकी पहले ही से दुर्गति हो रही थी।

ट्रान्सवाल में ब्रोअरों के साथ जब ब्रिटिश गवर्नमेंट की लड़ाई छिड़ी, तब यह आशा हुई कि सरकार के विजयी होने पर हिन्दुस्तानियों का दुःख दूर हो जायगा। पर यह आशा व्यर्थ हो गई। तब से उनके दुःख-कष्ट और भी बढ़ गये।

बोअरों के राज्य में नाम रजिस्टर कराने और ४५ रुपया वार्षिक कर देने का कोई क़ानून न था। पर, उनका राज्य जाने

पर यह क़ानून जारी हुआ कि जो नाम दर्ज कराने के लिए ४५ रुपये न दे, उसे १५० से १५०० रुपये तक जुर्माना और १४ दिन से ६ महीने तक की सजा भुगतनी पड़े। पहले लैसन्स लेकर ट्रांसवाल भर में एशियावासी व्यापार कर सकते थे। अब वही लोग ऐसा कर सकते थे जिनके पास लड़ाई के पहले के लैसन्स थे। नये व्यापारियों को शहर के बाहर एक ख़ास जगह पर ही व्यापार करने या दूकान खोलने के लिए लैसन्स मिलने लगे। हिन्दुस्तानियों को शहर के बाहर एक नियत जगह पर रहने का तो हुक्म था ही, अब यह भी हुक्म हुआ कि वे कोई जायदाद न ख़रीदें और बिना आज्ञा के एक स्थान से दूसरे स्थान को न जायँ। उनके नाम-धाम की ख़बर रखने के लिए हर शहर में पुलिस एक रजिस्टर रखने लगी।

इसके बाद हिन्दुस्तानियों पर एक और भी विपत्ति आई। लार्ड मिलनर ने आज्ञा दी कि हिन्दुस्तानियों को फिर से अपना नाम रजिष्टर कराना आवश्यक होगा। पर उन्होंने विश्वास दिलाया कि एक बार हो जाने पर फिर कभी रजिष्टरी न होगी। जिसको रजिष्टरी का प्रमाणपत्र मिल जायगा, वह चाहे जहाँ ट्रांसवाल भर में व्यापार कर सकेगा।

१८८५ ईसवी-वाला पहला क़ानून भारतवासियों को सता ही रहा था; इस दूसरे क़ानून ने भी उनकी शान्ति में बड़ी बाधा पहुँचाई। उन्होंने इसी कारण वहाँ की सबसे बड़ी अदालत में इस आज्ञा के विरुद्ध मुक़द्दमा दायर कर दिया। जजों ने मुकद्दमे का फैसिला यह किया कि हिन्दुस्तानी चाहे जहाँ व्यापार कर सकते हैं। उन्हें शहर के बाहर किसी नियत स्थान में न रहने के कारण क़ानूनन् कोई सज़ा नहीं दी जा सकती।

यह फ़ैसला हिन्दुस्तानियों के विरोधियों को बहुत ही बुरा लगा। उन्होंने इस फ़ैसले को रद कराने की खूब चेष्टा की। पर, उपनिवेशों के सेक्रेटरी, लार्ड लिटलटन, के ज़ोर देने पर उनका वह प्रयत्न उस समय व्यर्थं गया।

इसके बाद ट्रांसवाल-वालों ने यह शोर मचाया कि झुण्ड के झुण्ड हिन्दुस्तानी ट्रांसवाल में घुसे चले आते हैं। धीरे- धीरे उनका यह स्वर और भी ऊँचा हो चला। इतने ही में जोन्सबर्ग नामक नगर के हिन्दुस्तानियों के निवास-स्थान में प्लेग फूट पड़ा। इस कारण वहाँ के हिन्दुस्तानी सारे ट्रांस- वाल में फैल गये। ट्रांसवाल-वालों को यह अच्छा मौक़ा मिला। इस पर उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि नये भारत- वासियों को वहाँ न घुसने देना चाहिए। जो हैं, उन्हें शहर के बाहर रखना चाहिए और वहीं उन्हें वनिज-व्यापार की अनु- मति होनी चाहिए।

हिन्दुस्तानियों ने यह देख कर, एक कमीशन के द्वारा अपने दुःखों की जाँच की जाने की प्रार्थना सरकार से की। पर वह न सुनी गई। अन्त में १९०६ ईसवी में एक क़ानून बना। उसके अनु-

सार हिन्दुस्तानी स्त्री-पुरुषों और बच्चों तक को फिर से नाम रजिष्टर कराने की आज्ञा हुई।

हिन्दुस्तानियों ने इस विपत्ति से बचने की पूरी चेष्टा की। उनकी प्रार्थना पर केवल स्त्रियाँ उक्त क़ानून के पंजे से मुक्त हो सकीं; और कुछ न हुआ।

तब जोन्सवर्ग में हिन्दुस्तानियों ने एक बड़ी भारी सभा की। उसमें सभी ने मिलकर यह प्रतिज्ञा की कि जब तक ऐसे दुःखदायी क़ानून रह न किये जायँ, तब तक उन्हें कोई न माने। बस, इसी समय से हिन्दुस्तानियों के निष्क्रिय-प्रतिरोध ( Passive Resistance ) का आरम्भ हुआ। उनके कई प्रतिनिधि इँगलैंड भी पहुँचे। वहाँ उस क़ानून पर विचार करने के लिए एक कमिटी बनी। कमिटी के उद्योग से इस क़ानून का जारी होना थोड़े दिनों तक के लिए मुलतवी रहा। इस बीच में हिन्दुस्तानियों के मुखिया लोगों ने गवर्नमेंट से यह कहा कि हम खुशी से अपने नाम रजिस्टर करा देंगे, आप इस क़ानून को जारी न कीजिए; पर कुछ फल न हुआ। क़ानून का मसविदा ट्रांसवाल की पार्लियामेंट में पेश हुआ और पास भी हो गया। १९०७ ईसवी में जब से यह कानून जारी हुआ, तभी से हिन्दुस्तानियों ने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार निष्क्रिय-प्रतिरोध का प्रारम्भ किया। इस कारण सैंकड़ों को नहीं हज़ारों को जेल जाना पड़ा। पर वे ल़ोग अपनी प्रतिज्ञा से विचलित न हुए। इस पर क़ानून का बनाया जाना व्यर्थ हुआ देख सरकार ने यह निश्चय किया कि यदि हिन्दुस्तानी इच्छानुसार अपने नामों की रजिस्टरी करा लें तो यह क़ानून जारी न किया जायगा। पर हिन्दुस्तानियों ने निष्क्रिय-प्रतिरोध बन्द न किया। सरकार और भी चिढ़ गई। उसने एमिग्रेशन एक्ट नाम का एक और क़ानून जारी कर दिया। इसके कारण शिक्षित भारतवासियों का ट्रांसवाल में घुसना असम्भव सा हो गया।

तब वे लोग इच्छानुसार रजिष्टरी करा लेने पर राज़ी हो गये। सुनते हैं, उनसे गवर्नमेंट ने कहा कि रजिष्टरी करा लो; क़ानून मंसूख़ हो जायगा। पर रजिष्टरी हो चुकने पर भी क़ानून ज्यों का त्यों रहा। इस पूर हिन्दुस्तानियों ने और भी दृढ़ता के साथ निष्क्रिय-प्रतिरोध करना आरम्भ किया।

नेटाल के हिन्दुस्तानी भी ट्रांसवालवाले अपने भाइयों से आकर मिल गये। फिर एक भारी सभा हुई। सभा में क़ानून न मानने की प्रतिज्ञा हुई। उधर सरकार ने भी हिन्दुस्तानी नेताओं को देश से निकाल देने का विचार पक्का किया। फल यह हुआ कि सैकड़ों हिन्दुस्तानी ट्रांसवाल से हिन्दुस्तान को भेज दिये गये। क़ानून न माननेवाले सैकड़ों आदमी जेलों में ठूस दिये गये। स्थिति बड़ी भयङ्कर हो गई। हिन्दुस्तानी अपनी प्रतिज्ञा पर और भी दृढ़ हो गये। स्त्रियाँ तक जेल जाना अपना कर्तव्य समझने लगीं। अपने पतियों और भाइयों को वे निष्क्रिय-प्रतिरोध जारी रखने के लिए उत्साह दिलाने लगीं। १९०९ ईसवी में हिन्दुस्तानियों ने अपना एक प्रतिनिधि- दल हिन्दुस्तान को और दूसरा इंगलैंड को भेजना चाहा। वे दोनों दल रवाना होने ही वाले थे कि सरकार ने उन्हें पकड़ लिया और दल के सभी सभ्यों को जेल भेज दिया। पर हिन्दु- स्तानियों ने, कुछ समय बाद, अपना एक प्रतिनिधि-दल इँगलैंड भेज ही दिया। उसने वहाँ पहुँच कर खूब आन्दोलन किया।

हिन्दुस्तान को अकेले मिस्टर पोलक ही भेजे गये। उन्होंने यहाँ श्रीयुत गोखले की भारत-सेवक-समिति ( Servants of India Society ) की सहायता से प्रजा-मत को खूब जाग्रत किया। सहायता भी उन्हें खूब मिली। रतन जे० ताता नामक प्रसिद्ध पारसी सज्जन ने अपने भाइयों को धन द्वारा अच्छी सहायता दी।

हिन्दुस्तान की गवर्नमेंट के ज़ोर देने पर, विलायत की बड़ी सरकार ने बीच में पड़कर देश-निकाले की सज़ा पाये हुए हिन्दुस्तानियों को फिर ट्रांसवाल लौट जाने की आज्ञा दिलाई। इस बीच में बेचारे हिन्दुस्तानियों को अनन्त यातनायें भोगनी पड़ीं।

इसके बाद केप कालोनी, नेटाल, ट्रांसवाल और आरेञ्ज- फ्री-स्टेट ये चारों प्रदेश एक में जोड़ दिये गये और सबके ऊपर एक गवर्नर जनरल नियत हुआ। सब का नाम हुआ -- सम्मिलित राज्य। तब, १९१० ईसवी में, ब्रिटिश गवर्नमेंट ने सम्मिलित राज्य की सरकार को लिखा कि १९०७ ईसवी

वाला क़ानून रद्द कर देना चाहिए। पर वह रद्द न हुआ। उसमें कुछ परिवर्तन मात्र कर दिया गया।

वास्तव में जाति-भेद दूर कर देना गोरों को पसन्द न था। इसी से वे कभी कुछ बहाना कर देते, कभी कुछ। कभी कोई पख़ लगाई जाती कभी कोई। इस कारण हिन्दुस्तानियों की विपत्ति का पारावार न रहा। उनका विवाह नाजायज समझा जाता। उनकी सन्तति उनकी जायदाद की हक़दार तक न समझी जाती।

अन्त में आजिज़ आकर हिन्दुस्तानियों ने १९१३ के सितम्बर महीने से अपनी घोर निष्क्रिय-प्रतिरोध की लड़ाई नये सिरे से जारी की। हिन्दुस्तान ने भी धन द्वारा उनकी पूरी सहायता की। यह देखकर हिन्दुस्तान की और विलायत की भी गवर्नमेंट ने ज़ोर लगाया। तब हिन्दुस्तानियों के दुःखों की जाँच करने के लिए वहाँ सरकारी अफ़सरों की एक कमिटी बैठी। भारत-गवर्नमेंट के भेजे हुए सर बेंजामिन राबर्टसन भी उसमें शामिल हुए। उन्होंने हिन्दुस्तानियों की शिकायतों की अच्छी तरह जाँच की। उनकी रिपोर्ट हिन्दुस्तानियों के पक्ष में हुई और उनकी अधिकांश शिकायतें दूर कर दी गई।

इस सम्बन्ध में श्रीयुत गांधी का परिश्रम और अध्यवसाय सर्वथा प्रशंसनीय है। आपने ही अफ़रीक़ा के हिन्दुस्तानियों में जीवन का सञ्चार किया है। आप जूनागढ़ के निवासी हैं। बैरिस्टर हैं। तो भी आप जेल जाने, नाना प्रकार की यातनायें

भोगने और तिरस्कार पाने पर भी अपने कर्तव्य से च्युत नहीं हुए। आपकी धर्म-पत्नी, आपके सुयोग्य पुत्र -- सभी आपके व्रत के व्रती हुए। आपके सहायकों ने भी आपका पूरा साथ दिया। उनमें से मिस्टर पोलक और मिस्टर कालनबाक आदि विदेशी सज्जनों तथा २५०० से ऊपर हिन्दुस्तानियों ने कड़ी जेल की सज़ा भी भुगती।

हमें दक्षिणी अफ़रीक़ा के हिन्दुस्तानियों के मुख-पत्र इंडियन ओपिनियन का एक विशेष अङ्क (Golden Number) मिला है। यह पत्र श्रीयुत गांधी ही का निकाला हुआ है। फीनिक्स नामक स्थान से अँगरेज़ी और गुजराती में निकलता है। उसके इस अङ्क में पूर्वोक्त निष्क्रिय-प्रतिरोध की बड़ी ही हृदय-द्रावक कहानी है। मिस्टर गांधी और अन्यान्य नामी नामी आदमियों की सम्मतियाँ भी हैं। जेल में जाने तथा अन्य प्रकार की सहायता देनेवाले नर-नारियों के छोटे-मोटे १३८ चित्रों से यह अङ्क विभूषित है। यह मिस्टर गांधी के निष्क्रिय प्रतिरोध की यादगार में निकाला गया है। दिव्य है। पढ़ने और संग्रह में रखने की चीज़ है।

पाठकों को यह मालूम ही होगा कि श्रीयुत गांधी अब भारतवर्ष लौट आये हैं।

[ अप्रैल १९१५.
 

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