सत्य के प्रयोग/१.१: जन्म

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
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पहला भाग

जन्म

गांधी-परिवार, कहते हैं, पहले पंसारीका[१] काम करता था। परंतु मेरे दादासे लेकर तीन पुश्ततक उसने दीवानगिरी की है। जान पड़ता है, उत्तमचंद गांधी, उर्फ श्रोता गांधी, बड़े टेकवाले थे। उन्हें राज-दरबारी साजिशोंके कारण, पोरबंदर छोड़कर जूनागढ़ राज्यमें जाकर रहना पड़ा था। वहां गये तो उन्होंने बायें हाथ से नवाब साहबको सलाम किया। जब किसीने इस स्पष्ट गुस्ताखी का कारण पूछा, तो उत्तर मिला- 'दाहिना हाथ तो पोरबंदरके सुपुर्द हो चुका है।'

श्रोता गांधीने एक-एक करके अपने दो विवाह किये थे। पहली पत्नी से चार लड़के हुए थे और दूसरी से दो। लेकिन अपना बचपन याद करते हुए मुझे यह खयाल तक नहीं आता कि ये भाई सौतेले लगते थे। उनमें पांचवें करमचंद गांधी, उर्फकबा गांधी और अंतिम तुलसीदास गांधी थे। दोनों भाई बारी-बारीसे पोरबंदर में दीवान रहे थे। कबा गांधी मेरे पिताजी थे। पोरबंदर की दीवानगिरी छोड़ने के बाद वह 'राजस्थानिक कोर्ट'के सभासद रहे थे। इसके पश्चात् राजकोटमें और फिर कुछ समय बांकानेरमें दीवान रहे। मृत्यु के समय राजकोट-दरबारके पेंशनर थे।

कबा गांधीके भी एक-एक करके चार विवाह हुए थे। पहली दो-पत्नियोंसे दो लड़कियां थीं; अंतिम, पुतलीबाईसे एक कन्या और तीन पुत्र हुए, जिनमें सबसे छोटा मैं हूँ। [ २० ]मेरे पिताजी कुटुंब-प्रेमी, सत्यप्रिय, शूर और उदार परंतु साथ ही क्रोधी थे। मेरा खयाल है, कुछ विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका अंतिम विवाह चालीस वर्षकी अवस्था के बाद हुआ था। वह रिश्वतसे सदा दूर रहते थे, और इसी कारण अच्छा न्याय करते थे, ऐसी प्रसिद्धि उनकी हमारे कुटुंबमें तथा बाहर भी थी। वह राज्यके बड़े वफादार थे। एक बार असिस्टेंट पोलिटिकल एजेंटने राजकोटके ठाकुरसाहबसे अपमानजनक शब्द कहे तो उन्होंने उसका सामना किया। साहब बिगड़े और कबा गांधीसे कहा, माफी मांगो। उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। इससे कुछ घंटेके लिए उन्हें हवालातमें भी रहना पड़ा। पर वह टस-से-मस न हुए। तब साहबको उन्हें छोड़ देनेका हुक्म देना पड़ा।

पिताजीको धन जोड़नेका लोभ न था। इससे हम भाइयोंके लिए वह बहुत थोड़ी सम्पत्ति छोड़ गये थे।

पिताजीने शिक्षा केवल अनुभव-द्वारा प्राप्त की थी। आजकी अपर प्राइमरीके बराबर उनकी पढ़ाई हुई थी। इतिहास, भूगोल बिलकुल नहीं पढ़े थे। फिर भी व्यावहारिक ज्ञान इतने ऊंचे दरजेका था कि सूक्ष्म-से-सूक्ष्म प्रश्नोंको हल करनेमें अथवा हजार आदमियोंसे काम लेनेमें उन्हें कठिनाई न होती थी। धार्मिक शिक्षा नहीं-के बराबर हुई थी। परंतु मंदिरोंमें जानेसे, कथा-पुराण सुननेसे, जो धर्मज्ञान असंख्य हिंदुओंको सहज ही मिलता रहता है, वह उन्हें था। अपने अंतिम दिनोंमें एक विद्वान् ब्राह्मणकी सलाहसे, जोकि हमारे कुटुंबके मित्र थे, उन्होंने गीता-पाठ शुरू किया था, और नित्य कुछ श्लोक पूजाके समय ऊंचे स्वरसे पाठ किया करते थे।

माताजी साध्वी स्त्री थीं, ऐसी छाप मेरे दिलपर पड़ी है। वह बहुत भावुक थीं। पूजा-पाठ किये बिना कभी भोजन न करतीं, हमेशा हवेली-वैष्णव मंदिर-जाया करतीं। जबसे मैंने होश सम्हाला, मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास छोड़ा हो। कठिन-से-कठिन व्रत वह लिया करतीं और उन्हें निर्विघ्न पूरा करतीं। बीमार पड़ जानेपर भी वह व्रत न छोड़तीं। ऐसा एक समय मुझे याद है, जब उन्होंने चांद्रायणव्रत किया था। बीचमें बीमार पड़ गई, पर व्रत न छोड़ा। चातुर्मासमें एक बार भोजन करना तो उनके लिए मामूली बात थी। इतनेसे संतोष न मानकर एक बार चातुर्मासमें उन्होंने हर [ २१ ]
तीसरे दिन उपवास किया। एक साथ दो-तीन उपवास तो उनके लिए एक मामूली बात थी। एक चातुर्मासमें उन्होंने ऐसा व्रत लिया कि सूर्यनारायणके दर्शन होनेपर ही भोजन किया जाय। इस चौमासेमें हम लड़केलोग आसमानकी तरफ देखा करते कि कब सूरज दिखाई पड़े और कब मां खाना खाय। सब लोग जानते हैं कि चौमासेमें बहुत बार सूर्य-दर्शन मुश्किलसे होते हैं। मुझे ऐसे दिन याद हैं, जबकि हमने सूर्यको निकला हुआ देखकर पुकारा हैं-' मां-मां, वह सूरज निकला,' और जबतक मां जल्दी-जल्दी दौड़कर आती है, सूरज छिप जाता था। मां यह कहती हुई वापस जाती कि 'खैर, कोई बात नहीं, ईश्वर नहीं चाहता कि आज खाना मिले' और अपने कामोंमें मशगूल हो जाती।

माताजी व्यवहार-कुशल थीं। राज-दरबारकी सब बातें जानती थीं। रनवासमें उनकी बुद्धिमत्ता ठीक-ठीक आंकी जाती थी। जब मैं बच्चा था, मुझे दरबारगढ़में कभी-कभी वह साथ ले जातीं और 'वामां-साहब' (ठाकुर साहबकी विधवा माता) के साथ उनके कितने ही संवाद मुझे अब भी याद हैं।

इन माता-पिताके यहां आश्विन बदी १२ संवत् १९२५ अर्थात् २ अक्तूबर १८६९ ईसवीको पोरबंदर अथवा सुदामापुरीमें मेरा जन्म हुआ।

मेरा बचपन पोरबंदरमें ही बीता। ऐसा याद पड़ता है कि किसी पाठशाला में मैं पढ़ने बैठाया गया था। मुश्किलसे कुछ पहाड़े पढ़ा होऊंगा। उस समय मैने और लड़कोंके साथ मेहताजी-मास्टर साहब-को सिर्फ गाली देना सीखा था; इतना याद पड़ता है। और कोई बात याद नहीं आती। इससे यह अनुमान करता हूं कि मेरी बुद्धि मंद रही होगी और स्मरणशक्ति उस पंक्तियोंके कच्चे पापड़की तरह रही होगी जोकि हम लड़के गाया करते थे-

एकडे़ एक,पापड़ शेक,
पापड़ कच्चो... मारो...

पहली खाली जगह मास्टर साहबका नाम रहता था। उन्हें मैं अमर करना नहीं चाहता। दूसरी खाली जगहमें एक गाली रहती, जिसे यहां देनेकी आवश्यकता नहीं।

  1. गुजरात-काठियावाड़में पंसारीको गांधी कहते हैं।-अनु०