सत्य के प्रयोग/ 'जल्दी लौटो'

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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मैं मिलने गया तब दूसरे मिलने वाले उन्हें घेरे हुए थे। उन्होंने कहा, “मुझे अंदेशा है कि आपकी बात में यहां के लोग दिलचस्पी न लेंगे। आप देखते ही हैं कि यहां हम लोगों को कम मुसीबतें नहीं हैं। फिर भी आपको तो भरसक कुछ-न-कुछ करना ही है। इस काम में आपको महाराजाओं की मदद की जरूरत होगी। 'ब्रिटिश इंडिया एसोसियेशन के प्रतिनिधियों से मिलिएगा। राजा सर प्यारी-मोहन मुकर्जी और महाराजा टागोर से भी मिलिएगा। दोनों उदार-हृदय हैं और सार्वजनिक कामों में अच्छा भाग लेते हैं।” मैं इन सज्जनों से मिला; पर वहां मेरी दाल न गली। दोनों ने कहा-- 'कलकत्तामें सभा करना आसान बात नहीं, पर यदि करना ही हो तो उसका बहुत-कुछ दारोमंदार सुरेंद्रनाथ बनर्जीपर है। '

मेरी कठिनाइयां बढ़ती जाती थीं। 'अमृतबाजार पत्रिका' के दफ्तर में गया। वहां भी जो सज्जन मिले उन्होंने मान लिया कि मैं कोई रमताराम वहां आ पहुंचा होऊंगा। 'बंगवासी' वालों ने तो हद कर दी। मुझे एक घंटे तक तो बिठाये ही रक्खा। औरों के साथ तो संपादक महोदय बातें करते जाते; पर मेरी और आंख उठाकर भी न देखते। एक घंटा राह देखने के बाद मैंने अपनी बात उनसे छेड़ी। तब उन्होंने कहा--“आप देखते नहीं, हमें कितना काम रहता हैं ? आपके जैसे कितने ही यहां आते रहते हैं। आप चले जायं, यही अच्छा है। हम आपकी बात सुनना नहीं चाहते।” मुझे जरा देर के लिए रंज तो हुआ, पर मैं संपादक का दृष्टि-बिंदु समझ गया। 'बंगवासी' की ख्याति भी सुनी थी। मैं देखता था कि उनके पास आने-जानेवालों का तांता लगा ही रहता था। ये सब उनके परिचित थे। उनके अखबार के लिए विषयों की कमी न थी। दक्षिण अफ्रीका का नाम तो उन दिनों में नया ही नया था। नित नये आदमी आकर अपनी कष्ट-कथा उन्हें सुनाते। अपना-अपना दु:ख हरेक के लिए सबसे बड़ा सवाल था; परंतु संपादक के पास ऐसे दुखियों का झुंड लगा रहता। बेचारा सबको तसल्ली कैसे दे सकता है! फिर दु:खी आदमी के लिए तो संपादक की सत्ता एक भारी बात होती है। यह दूसरी बात है कि संपादक जानता रहता है कि उसकी सत्ता दफ्तर के दरवाजे के बाहर पैर नहीं रख सकती।

पर मैंने हिम्मत न हारी। दूसरे संपादकों से मिला। अपने मामूल के माफिक अंग्रेजों से भी मिला। ‘स्टेट्समैन’ और ‘इंग्लिशमैन'दोनों दक्षिण [ २०५ ]
अफ्रीका के प्रश्न का महत्व समझते थे। उन्होंने मेरी लंबी-लंबी बातचीत छापी, 'इंग्लिशमैन' के मि० सांडर्स ने मुझे अपनाया। उनका दफ्तर मेरे लिए खुला था, उनका अखबार मेरे लिए खुला था। अपने अग्रलेख में कमीबेशी करने की भी छूट उन्होंने मुझे दे दी। यह भी कहूं तो अत्युक्ति नहीं कि उनका मेरा खासा स्नेह हो गया। उन्होंने भरसक मदद देने का वचन दिया, मुझसे कहा कि दक्षिण अफ्रीका जाने के बाद भी मुझे पत्र लिखिएगा और वचन दिया कि मुझसे जो-कुछ हो सकेगा करूंगा। मैंने देखा कि उन्होंने अपना यह वचन अक्षरशः पाला; और जबतक कि उनकी तबीयत खराब न हो गई, उन्होंने मेरे साथ चिट्ठी-पत्री जारी रक्खी। मेरी जिंदगी में ऐसे अकल्पित मीठे संबंध अनेक हुए हैं। मि० सांडर्स को मेरे अंदर जो सबसे अच्छी बात लगी वह थी अत्युक्ति का अभाव और सत्यपरायणता। उन्होंने मुझसे जिरह करने में कोरकसर न रक्खी थी। उसमें उन्होंने अनुभव किया कि दक्षिण अफ्रीका के गोरों के पक्ष को निष्पक्ष होकर पेश करने में तथा उनकी तुलना करने में मैंने कोई कमी नहीं रक्खी थी।

मेरा अनुभव कहता है कि प्रतिपक्षी के साथ न्याय करके हम अपने लिए जल्दी न्याय प्राप्त करते हैं।

इस प्रकार मुझे अकल्पित सहायता मिल जाने से कलकत्त में भी सभा करने की आशा बंधी; पर इसी अर्से में डरबन से तार मिला-- 'पार्लमेंट की बैठक जनवरी में होगी, जल्दी लौटो।'

इस कारण अखबारों में इस आशय की एक चिट्ठी लिखकर कि मुझे दक्षिण अफ्रीका चला जाना जरूरी है, मैंने कलकत्ता छोड़ा और दादा अब्दुल्ला के एजेंट को तार दिया कि पहले जहाज से जाने का इंतजाम करो। दादा अब्दुल्ला ने खुद 'कुरलैंड' जहाज खरीद लिया था। उसमें उन्होंने मुझे तथा मेरे बाल-बच्चों को मुफ्त ले जाने का आग्रह किया। मैंने धन्यवाद सहित स्वीकार किया और दिसंबर के आरंभ में 'कुरलैंड' में अपनी धर्म-पत्नी, दो बच्चे और स्वर्गीय बहनोई के इकलौते पुत्र को लेकर दूसरी बार दक्षिण अफ्रीका रवाना हुआ। इस जहाज के साथ ही 'नादरी' नामक एक और जहाज डरबन रवाना हुआ। उसके एजेंट दादा अब्दुल्ला थे। दोनों जहाजों में मिलकर कोई आठ सौ यात्री थे। उनमें आधे से अधिक यात्री ट्रान्सवाल जाने वाले थे।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।