सामग्री पर जाएँ

सत्य के प्रयोग/ तीसरा भाग(तूफानके चिन्ह)

विकिस्रोत से
सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ २०६ से – २०८ तक

 

तूफानके चिन्ह

परिवार के साथ यह मेरी प्रथम जल-यात्रा थी। मैंने कई बार लिखा है कि हिंदू-संसार में विवाह बचपन में हो जाने से तथा मध्यमवर्ग के लोगों में पति के बहुतांश में साक्षर और पत्नी के निरक्षर होने के कारण 'पति-पत्नी' के जीवन में बड़ा अंतर रहता है और पति को पत्नी का शिक्षक बनना पड़ता है। मुझे अपनी धर्म-पत्नी के तथा बालकों के लिबासपर, खान-पानपर, तथा बोल-चालपर ध्यान रखने की आवश्यकता थी। मुझे उन्हें रहन-सहन और रीति-नीति सिखानी थी। उस समय की कितनी ही बातें याद करके मुझे अब हंसी आ जाती है। हिंदू-पत्नी पति-परायणता को अपने धर्म की पराकाष्ठा समझती है। हिंदू-पति अपने को पत्नी का ईश्वर मानता है। इस कारण पत्नी को जैसा वह नचावे नाचना पड़ता है।

मैं जिस समय की बात लिख रहा हूं उस समय मैं मानता था कि नई रोशनी का समझा जाने के लिए हमारा बह्याचार जहां तक हो यूरोपियनों से मिलता-जुलता होना चाहिए। ऐसा करने से ही रौब पड़ता है और रौब पड़े बिना देश-सेवा नहीं हो सकती।

इस कारण पत्नी तथा बालकों का पहनावा मैंने ही पसंद किया। बालकों इत्यादि को लोग कहें कि काठियाबाड़ के बनिये हैं, तो यह कैसे सुहा सकता था ? पारसी अधिक-से-अधिक सुधरे हुए माने जाते हैं। इस कारण जहां यूरोपियन पोशाक का अनुसरण करना ठीक न मालूम हुआ वहां पारसी का किया। पत्नी के लिए पारसी ढंग की साढियां लीं। बच्चों के लिए पारसी कोट-पतलून लिये। सबके लिए बूट-मोजे तो अवश्य चाहिए। पत्नी को तथा बच्चों को दोनों चीजें कई महीनों तक पसंद न हुई। बूट काटते, मोजे बदबू करते, पैर तंग रहते। इन
अड़चनों का उत्तर मेरे पास तैयार था। और उत्तर के औचित्य की अपेक्षा हुक्म का बल तो अधिक था ही। इसलिए लाचार होकर पत्नी तथा बच्चों ने पोशाक-परिवर्तन को स्वीकार किया। उतनी ही बेबसी और उससे भी अधिक अनमने होकर भोजन के समय छुरी-कांटे का इस्तेमाल करने लगे। जब मेरा मोह उतरा तब फिर उन्हें बूट-मोजे, छुरी-कांटे इत्यादि छोड़ने पड़े। यह परिवर्तन जिस प्रकार दुःखदायी था उस प्रकार एक बार आदत पड़ जाने के बाद फिर उसको छोड़ना भी दुःखकर था; पर अब मैं देखता हूं कि हम सब सुधारों की केंचुल को छोड़कर हल्के हो गये हैं।

इसी जहाज में दूसरे सगे-संबंधी तथा परिचित लोग भी थे। उनके तथा डेक के दूसरे यात्रियों के परिचय में मैं खूब आता। एक तो मवक्किल और फिर मित्र का जहाज, घर के जैसा मालूम होता और मैं हर जगह जहां जी चाहता जा सकता था।

जहाज दूसरे बंदरों पर ठहरे बिना ही नेटाल पहुंचने वाला था। इसलिए सिर्फ १८ दिन की यात्रा थी। मानो हमारे पहुंचते ही भारी तूफान की चेतावनी देने के लिए, हमारे पहुंचने के तीन-चार दिन पहले समुद्र में भारी तूफान उठा। इस दक्षिण प्रदेश में दिसंबर मास गरमी और बरसात का समय होता है। इस कारण दक्षिण समुद्र में इन दिनों छोटे-बड़े तूफान अक्सर उठा करते हैं। तूफान इतने जोर का था और इतने दिनों तक रहा कि मुसाफिर घबरा गये।

यह दृश्य भव्य था। दुःख में सब एक हो गये। भेद-भाव भूल गये। ईश्वरको सच्चे हृदयसे स्मरण करने लगे। हिंदू-मुसलमान सब साथ मिलकर ईश्वर को याद करने लगे। कितनोंने मानतायें मानीं।* कप्तान भी यात्रियों में आकर आश्वासन देने लगा कि यध्यपि तूफान जोर का है, फिर भी इससे बड़े-बड़े तूफानों का अनुभव मुझे है। जहाज यदि मजबूत हो तो एका एक डूबता नहीं। इस तरह उसने मुसाफिरों को बहुत समझाया; पर उन्हें किसी तरह तसल्ली न होती थी। जहाज में से ऐसी-ऐसी आवाजें निकलतीं, मानो जहाज अभी कहीं-न-कहीं से टूट पड़ता है- अभी कहीं छेद होता है। डोलता इतना था कि, मानो अभी उलट जायगा। डेक पर तो खड़ा रहना ही मुश्किल था। 'ईश्वर जो करे सो सही' इसके सिवा दूसरी बात किसी के मुंह से न निकलती। मुझे जहांतक याद है, ऐसी चिंता में चौबीस घंटे बीते होंगे। अंतको बादल बिखरे, सूर्यनारायण ने दर्शन दिये। कप्तान ने कहा-- 'अब तूफान जाता रहा।'

लोगों के चेहरों से चिंता दूर हुई, और उसके साथ ही ईश्वर भी न जाने कहां चला गया। मौत का डर दूर हुआ और उसके साथ ही फिर गान-तान, खान-पान शुरू हो गया; फिर वही माया का आवरण चढ़ गया। अब भी नमाज पढ़ी जाती, भजन होते; परंतु तूफान के अवसर पर उसमें जो गंभीरता दिखाई देती थी, वह न रही।

परंतु इस तूफान की बदौलत मैं यात्रियों में हिल-मिल गया था। यह कह सकते हैं कि मुझे तूफान का भय न था। अथवा कम-से-कम था। प्रायः इसी तरह के तूफान मैं पहले देख चुका था। जहाज में मेरा जी नहीं मिचलाता, चक्कर नहीं आते, इसलिए मुसाफिरों में मैं निर्भय होकर घूम-फिर सकता था। उन्हें आश्वासन दे सकता था और कप्तान के संदेश उन तक पहुंचाता था। यह स्नेह-गांठ मुझे बहुत उपयोगी साबित हुई।

हमने १८ या १९ दिसंबर को डरबन के बंदरपर लंगर डाला और ‘नादरी' भी उसी दिन पहुंचा। पर सच्चे तूफान का अनुभव तो अभी होना बाकी ही था।

तूफान

अठारह दिसंबर के आस-पास दोनों जहाजों ने लंगर डाला। दक्षिण अफ्रीका के बंदरों में यात्रियों की पूरी-पूरी डाक्टरी जांच होती है। यदि रास्ते में किसी को कोई छूत का रोग हो गया हो तो जहाज सूतक में--क्वारंटीन में--रखवा जाता है। हमने जब बंबई छोड़ा तब वहां प्लेग फैल रहा था। इसलिए हमें सूतक-वाधा होने का कुछ तो भय था ही। बंदर में लंगर डालने के बाद सबसे पहले जहाज पीला झंडा फहराता है। डाक्टरी जांच के बाद जब डाक्टर छुट्टी देता है तब पीला झंडा उतारता है; फिर मुसाफिरों के नाते-रिश्तेदारों को जहाज पर आने की छुट्टी मिलती है।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।