सत्य के प्रयोग/ अंग्रेजोंसे गाढ़ परिचय

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय ११ : अंग्रेजीसे गाड़ परिचय २६१ प्रेरणा ही फल हैं ।। अंतरात्मा न तो मैंने देखा है, न जाना है । संसारकी ईश्वरपर जो श्रद्धा हैं उसे मैंने अपनी बनाली है । यह श्रद्धा ऐसी नहीं है जो किसी प्रकार मिटाई जइ सके । इसलिए अब वह मेरे नजदीक श्रद्धा नहीं, बल्कि अनुभब हो गया है। फिर भी अनुभबके रूप में उसका परिचय कराना एक प्रकारले सत्यार प्रहार करते हैं। इसलिए नहीं कहना यद अधिक उचित होगा कि उनके शुद्ध रूपक रिचय देनेवाला शब्द मेरे यार नहीं है । भेरी यह धारणा है कि इमी अदृष्ट अंतर!त्माके दशवर्ती होकर मैं यह कथा लि रहा हैं । पिछला अध्याय जब मैंने शुरू किया तब उसका नाम रखा था-- ‘अंग्रेजोले परिचय'; परंतु उस अव्ययको लिखते हुए मैंने देखा कि उस परिचयका बर्थन करने के पहले मुझे ‘पुण्यस्मरण' लिखने की आवश्यकता है। तब ‘पुण्यस्मरण लिखा और बदको उसका यह पहला नाम बदलना पड़ा ।। अव इस प्रकरणको लिखते हुए फिर एक नया धर्म-संकट पैदा हो गया है । अंग्रेजोंके परिचय का वर्णन करते समय क्या-क्या लिखु र आइ-क्या न लिखू, यह महत्त्वका प्रश्न उपस्थित हो गया है। यदि आवश्यक बात न लिखी जाये तो सत्यको दाग लग जानेका अंदेशा है; परंतु संभव है कि इस कथाको लिखना भी आवश्यक न हो--- ऐसी दशामें आवश्यक और अनावश्यकके झगड़ेका न्याय . सह्स कर देना कठिन हो जाता है । । कृथाएं इतिहास में कितनं? अपुर्ण होती हैं और उनके लिखने तिर्न कठिनाइयां आती हैं--- इसके नियम पहले मैंने कहीं पढ़ा था; पर उसका । अर्थ मैं आज अधिक अच्छी तरह समझ रहा हूँ । सत्य के प्रयोग की इस आत्मकथामें में वे सभी बातें नहीं लिख रहा हूं जिन्हें मैं जानता हूं । कौन कह सकता है। कि सत्यको दर्शानेके लिए मुझे कितनी बातें लिखनी चाहिएं। या यों कहें कि एकतर्फा अधूरे सबूतकी न्याय-मंदिरमें क्या कीमत हो सकती है ? इन पिछले प्रकरणोंपर यदि कोई फुरसनवाला आदमी मुझसे जिरह करने लगे तो न जाने कितनी रोशनी इन प्रकरणांपर पड़ सकती है ? और यदि फिर एक अलोचक दृष्टिसे कोई उसकी छानबीन करे तो वह कितनी ही ‘पोल' खोलकर दुनियाको हंसा सकता है और खुद फूलकर कुप्पा बन सकता है। [ ३०२ ]________________

| इन बातोंपर जत्र विचार उठने लगते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि इन अध्यायोंको लिखनेका विचार स्थगित कर दिया जाय तो क्या ठीक न होगा ? परंतु जबतक यह साफ तौरपर न मालूम हो कि स्वीकृत अथवा आरंभित कार्य अनीतिमय है तब्त उसे न छोड़ना चाहिए । इस न्यायके अधारपर जबतक अंतरात्मा सुझे न रोके तबतक इन अध्यायोंको लिखते जानेका निश्चय कायम रखता हूँ । | यह कथा टीकाकाको संतुष्ट करनेके लिए नहीं लिखी जाती है । सत्यके प्रयोगोंमें इसे भी एक प्रयोग ही समझ लेना चाहिए । फिर इसमें यह दृष्टि तो है ही कि मेरे सात्रियोंको इसके द्वारा कुछ-न-कुछ आश्वासन मिलेगा । इसका प्रारंभ ही उनके संतोष के लिए किया है। स्वामी आनंद और जयरामदास मेरे पीछे न पड़ते तो इसकी शुरुआत भी शायद ही हो पाती ! इस कारण यदि इस कथा लिखने में कुछ बुराई होती हो तो इसके दोष-भागी वे भी हैं ।। अब इस अध्यायके मूल विषयपर आता हूं। जिस तरह मैंने हिंदुस्तानी कारकुनों तथा दूसरे लोगों को अपने घरमें बतौर कुटुंबीके रक्खा था, उसी तरह अंग्रेजों को भी रखने लगा । मेरा यह व्यवहार मेरे साथ रहने वाले दूसरे लोगोंके लिए अनुकूल न था; परंतु मैंने उसकी परवा न करके उन्हें रक्खा । यह नहीं कहा जा सकता कि सबको इस तरह रखकर मैंने हमेशा बुद्धिमानीका ही काम किया है। कितने ही लोगोंसे ऐसा संबंध बांधनेका कटु अनुभव भी हुआ है; परंतु ऐसे अनुभव तो क्या देशी या क्या विदेशी सबके संबंधमें हुए हैं। उन कटु अनुभवोंपर मुझे पश्चात्ताप नहीं हुआ है। कटु अनुभवोंके होते रहते भी और यह जानते हुए भी कि दूसरे मित्रोंको असुविधा होता है, उन्हें कष्ट सुहाना पड़ता है, मैंने अपने इस रवैयेको नहीं बदला, और मित्रोंने मेरी इस ज्यादतीको उदारतापूर्वक सहन किया है । नये-नये लोगोंसे बांधे गये ऐसे संबंध जब-जब मित्रों लिए कष्टदायी साबित हुए हैं तब-तब उन्हींको मैंने बेखटके कोसा है; क्योंकि मैं यह मानता हूं कि आस्तिक मनुष्य तो अपने अंतरस्थ ईश्वरको सबमें देखना चाहता है और इसलिए उसके अंदर सबके साथ अलिप्ततासे रहनेकी क्षमता अवश्य आनी चाहिए और उस शक्तिको प्राप्त करने का उपाय ही यह है कि जब-जब ऐसे अनचाहे अबसर आवें तब-तब उनसे दूर न्द्र भागते हुए नये-नये संबंधोंमें पड़े और फिर भी [ ३०३ ]________________

अध्याय १२ : अंग्रेजोंले परिचय ( चालू ) प्रश्नको ग-द्वेष ऊपर उठाए रखें ।। इस कारण जय बोअर-ब्रिटिशा-युद्ध शुरू हुआ तब यद्यपि म मा घर भरा हुआ था, तथापि मैंने जोहान्सुवर्गसे या दो अंग्रेजों को अपने यहां रखा । दोन थिग्रॉसफिट थे । उनमें से एकका नाम था किचन, जिनके बारे में हमें और अयं जानना होगा । इन मित्रोके सहवासने भी धर्मपत्नीको शलाकर छोड़ा था । मेरे निमित्त होने के अवसर उसकी तकदीर बहुने आये हैं। बिना किसी परद यु पन्हूजके इतने निकट-संबंमें अंग्रेजोंको घरमें रहनेका यह पहला अवसर था। हां, इंग्लंडमें अलबत्ता में उनके घरोंमें रहा था; पर वहां तो मैंने अपनेक उनकी रहन-सहनके अनुकूल बना लिया था और वहांका रहता लभ वैसा ही था जैसा कि होटलमें रहना; पर यहांकी हालत बहस उलटी थी । ये भित्र मेरे कुटुंबी बनकर रहे थे । बहुतांश में उन्होंने भारतीय रहन-सहनको अपना लिया था । मेरे घरका बाहरी साज-सामान यद्यपि अन्नजी ढंगका था फिर भी भीतरी रहन-सहन और खान-पान अादि प्रधानतः हिंदुस्तानी था । यद्यपि मुझे याद पड़ता है कि उनके रखनेमे हमें बहुतेरी कठिनाइयां पैदा हुई थी; फिर भी मैं यह कह सकता हूं कि वे दोनों सज्जन हमारे घरके दूसरे लोगोंके साथ मिल-जुल गये थे। डरबनकी अपेक्षा जोहान्सबर्गके ये संबंध बहुत आगेतक गये थे । अंग्रेजों से परिचय (चालू ) जोहान्सबर्गमें मेरे पास एक बार बार हिलानी भुशी हो गये थे । उन्हें मुंशी कहूं या बेटा कहूं, यह कहना कठिन हैं; परंतु इतनेसे मेरा काम न चला । टाइपिंगके बिना काम चल ही नहीं सकता था । हममेंसे सिर्फ मुझको ही टाइपिंगका थोड़ा ज्ञान था । सो इन चार युवकोंसे दोको टाइपिर सिखाया; परंतु वे अंग्रेजी कम जानते थे । इससे उनका टाइपिंग कभी शुद्ध और अच्छा न हो सका । फिर इन्हींमॅसे मुझे हिसाब लेखक तैयार करना था। इबर नेटालसे मैं अपने मन-माफिक किसीको बुला नहीं सकता था; क्योंकि परवाने के बगैर

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