सत्य के प्रयोग/ एक पुण्य स्मरण और प्रायश्चित्त

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अस्मि -कथा : *ग ४ यम-नियमोंके अभ्यासका तथा उनके लिए अब भी प्रयत्न करते रहनेका पूर्ण ज्ञान मुझे है उसी प्रकार इस अ-भेद-भावको बढ़ानेके लिए मैंने कोई खास प्रयत्न किया है, ऐसा याद नहीं पड़ता है । जिस समय डरबन में वकालत करता था उस समय बहुत बार मेरे कारकुन मेरे साथ ही रहते थे। वे हिंदू और ईसाई होते थे, अथवा प्रांतों हिसाब से कहें तो गुजरात और मद्रासी । मुझे याद नहीं आता कि कभी उनके विषयों मेरे मनमें भेद-भाव पैदा हुआ हो । मैं उन्हें बिलकुल धरके ही जैसा. समझता और उसमें मेरी धर्मपत्नी की ग्रोरसे यदि कोई विघ्न उपस्थित होता तो मैं उससे लड़ता था । मेरा एक कारकुन ईसाई थी। उसके मां-बाप पंचम जातिके थे। हमारे घरकी वृन्दावों पश्चिमी दंगकी थी । इस कारण कमरेमें मोरी नहीं होती थी---- और न होनी चाहिए थी, ऐसा मेरा मत है। इस कारण कमरोंमें मौरियोंकी जगह पेशाबके लिए एक अलग बर्तन होता था। उसे उठाकर रखनेका काम हम दोनों-- दंपतीका था, नौकरोंक नहीं। हां, जो कारकुन लोग अपने को हमारा कुटुंबी-सा मानने लगते थे वे तो खुद ही उसे साफ कर भी डालते थे; लेकिन पंचम जातिमें जन्मा यह कारकुन नया था। उसका बर्तन में ही उठाकर साफ करना चाहिए था । और बर्तन तो कस्तुरबाई उठाकर साफ कर देती'; लेकिन इन भाईका बर्तन उठाना उसे असह्य मालूम हुआ । इससे हम दोनोंमें झगड़ा मचा । यदि मैं उठाता है तो उसे अच्छा नहीं मालूम होता था । और खुद उसके लिए उठाना कठिन था। फिर भी आंखोसे मोतीकी बूंदें टपक रहीं हैं, एक हाथ में बर्तन लिये अपनी लाल-लाल आंखोंसे उलाहना देती हुईं कस्तूरबाई सीढ़ियोंसे उतर रहीं हैं ! वह चित्र में आज भी ज्यों-का-त्यों खींच सकता हूं। परंतु मैं जैसा सहृदय और प्रेमी पति था वैसा ही निष्ठुर और कठोर भी था । मैं अपने को उसका शिक्षक मानता था। इससे, अपने अंधप्रेमके अधीन हो, मैं उसे खुब सताता था। इस कारण मुहज उसके बरतन उठा ले जाने-भरस मुझे संतोष न हुआ । मैनें अह भी चाहा कि वह हंसते अौर हरखले हुए उसे ले जाय । इसलिए मैंने उसे डांदा-डपट भी। मैंने उतेजित होकर कहा--- "देखो, यह बखेडा मेरे घर त चल सकेगा । मेरी यह बोल कस्तूरवाईको तरकी तरह लगा। उसने धधकते दिलसे [ २९९ ]________________

अध्याय १० : एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित । ३७६ केह-" तो लो, रखों यह अपना घर ! में बली ! उस समय में ईश्वरको भूल गया था। दयाका लेशमात्र मेरे हृदय न रह गया था। मैंने उपका हाथ पकड़ा । दीढ़ी के सामने ही बाहर जाने दरा था। मैं उस दी अबला इथे पकड़कर दरवाजेतक खींचकर ले गया । दरवाजा खोला होगा कि वो गा-जमुना बहाती हुई कन्नूर राई बोली । “तुम्हें तो कुछ शरय हैं नहीं; पर मुझे हैं। जरा तो नजामैं बहर निकलकर अाखिर जाऊँ कहाँ ? -दाय भी यहां नहीं कि उनके पार बन जाऊं। मैं ठहरी स्त्र-जूति । इसलिए मुझे तुम्हारी बस सहन ही पड़ेगी ! अब जरा शरम करो और दरवाजा बंद कर लो----कोई देख ले तो दोनों की फजीहत होगी ।' मैंने अपना चेहरा तो सुर्ख बनाये रखा; पर मनमें शरमा जरूर आयो । दरवाजा बंद कर दिया। जवकि पत्नी भुझे छोड़ नहीं सकती थी तब मैं भी उसे छोड़कर कहां जा सकता था ? इस तरह हमारे अपने लड़ाई-झगड़े कई बार हुए हैं। परंतु उनका परिणाम सदा अच्छा ही निकला है। उनमें पत्नी ने अपनी अद्भुत सहनशीलता के द्वारा मुझपर विजय प्राप्त की है। ये घटनाएं हमारे पूर्व-युगकी हैं, इसलिए उनका वर्णन मैं आज अलिप्तभावसे करता हूँ। आज मैं तत्रकी तरह मोहांध पति नहीं हूं, न उसका शिक्षक ही हूं । यदि चाहें तो कस्तुरबाई आज मुझे धमका सकती हैं । हम आज एकदुसरेके भुक्तभोगी मित्र हैं, एक-दूसरेके प्रति निर्विकार रहकर जीवन बिता रहे हैं। कस्तुरवाई आज ऐसी सेविका बन गई हैं, जो मेरी बीमारियां बिना प्रतिफलकी इच्छा किये सेवा-शुश्रूषा करती हैं । यह घटना १८९८की है । उस समय मुझे ब्रह्मचर्य-पालनके विषयों कुछ ज्ञान न था । वह समय ऐसा था जबकि मुझे इस बात का स्पष्ट ज्ञान न था कि पत्नी को कैथल सहर्धामणी, सहचारिणी और सुख-दुःखको थिन हैं । मैं यह समझकर बरताव करता था कि पत्नी विषय-भोगकी भाजद हैं, उसका जन्म पतिकी हर तरहकी आज्ञाका पालन करनेके लिए हुआ है ।। किंतु १९०० ई०से मेरे इन विचारोंमें गहरा परिवर्तन हुअा । १९०६मैं उसका परिणाम प्रकट हुन्न । परंतु इसका वर्णन असे प्रसंग मानेपर होगा । [ ३०० ]________________

यहां तो सिर्फ इतना बताना काफी है कि ज्यों-ज्यों में निर्विकार होता गया त्यों-त्यों में घर-संसार शांत, निर्मल और सुखी होता गया और अब भी होता जाता है । इस पुण्य-मरण से कोई यह न समझ लें कि इस आदर्श दंपती हैं, अथवा मेरी धर्म-पत्नमें किसी किस्मका दो नहीं है, अथवा हमारे आदर्श अब एक हो गये हैं। कस्तूरबाई अमला स्वतंत्र अादर्श रखती हैं या नहीं, यह तो वह बेचारी खुद भी शायद न जानती होगी । बहुत संभव है कि मेरे चरणकी बहुते बातें उसे अड़ की पसंद न आती हों; परंतु अब हम उनके बारे में एक-दूसरेसे च नहीं करते, करने में कुछ सर भी नहीं है। उसे न तो उसके मां-बापने शिक्षा दी है, न मैंने ही ! अब समय था, शिक्षा दे सका; परंतु उसमें एक गुण बहुत बड़े परिमाणमें है, जो दुसरी कितनी ही हिदू-स्त्रियों थोड़ी-बहुत में पाया जाता है । मन ही या बैन, मानमें हो या अनजान में मेरे पीछे-पीछे चलने उसने अपने जीबनकी सार्थकता' भनी है और स्वच्छ जीवन बितानेके मेरे प्रयत्न उसने कभी बाधा नहीं डाली। इस कारण यद्यपि हम दोनोंकी बुद्धि-शक्तिमें बहुत अंतर हैं, फिर भी मेरा खभाल है कि हमारा जीवन संतोषी, सुखी और ऊर्ध्वगामी हैं। अंग्रेजोंसे गाढ़ परिचय इस अध्यायतक पहुंचने पर, अब ऐसा समय आ गया है जब मुझे पाठकों की बताना चाहिए कि सत्यके प्रयोगोंकी यह कथा किस तरह लिखी जा रही हैं । जब कथा लिखनेकी शुरुआत की थी तब मेरे पास उसका कोई ढांचा तैयार न था । ने अपने साथ पुस्तके, डायरी अथवा दुसरे कागज-पत्र रखकर ही इन अध्यायोंको लिख रहा है । जिस दिन लिखने बैठता हूं उस दिन अंतरात्मा जैसी प्रेरणा करती है, वैसा लिखता जान हूं । यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि जो क्रिया मेरे अंदर चलती रहती हैं बह अंतरात्माकी ही प्रेरणा है ; परंतु बरसोंसे में जो अपने छोटे-छोट और बड़े-बड़े कहे जाने वाले कार्य करता आया हूं उनकी जब छान. बीन करता हूं तो मुझे यह कहना अनुचित नहीं मालूम होता कि वे अंतरात्माकी

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