सत्य के प्रयोग/ अक्षर-शिक्षा

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अश्व-कथा : भाग ४ मुझ सहज ही हरा सकते हैं और जब कोई ताभिलाषी मुझसे मिलने आते तो वे मेरे दुभाषियमा काम देते थे । परंतु मेरा काम चल निकला; क्योंकि विद्यार्थियोंसे मैंने कभी अपने प्रशनको छिनेक प्रयत्न नहीं किया । वे मुझे सब बातोंमें वैसा ही जान गये थे, जैसा कि वास्तव था । इससे पुक-ज्ञानकी भारी कमी . रहते हुए भी मैंने उनके प्रेम और अदरको कभी न हटने दिया था । परंतु मुसलमान बालकको उडू पा इससे साल था; क्योंकि ३ लिपि जानते थे। उनके साश्र' तो मेरा इतना ही कम था कि उन्हें पढ़ने का शौक बढ़ा दू’ र उन खत अच्छा करवा ६ ।। मुख्यतः ये सब बालक निरक्षर थे और किसी पाठशाला में पढ़े न थे । पढ़ते-पढ़ाते मैंने देखा कि उन्हें पढ़ाने का काम तो कर ही होता था । उनका आलस्य छुड़वाना, उनसे अपने-आप पवनः, उनके सबक याद करने चौकीदारी करना, यही काम ज्यादा था; पर इतने में संतोष पाता था, और यही कारण है जो में भिन्न-भिन्न अवस्था और भिन्न-भिन्न बिषयबाले विद्यार्थियों को एक ही कमरेमें बैठाकर पढ़ा सकता था । पाठ्य-पुस्तकों की पुकार चारों ओरसे सुनाई पड़ा करती है; किंतु मुझे उनकी भी जरूरत न पड़ी । जो पुस्तक श्रीं भी, मुझे नहीं याद पड़ता कि उनसे भी बहुत काम लिया गया हो । प्रत्येक बालकको बहुतेरी' पुस्तकें देने की जरूरत मुझे नहीं दिखाई दी ।। मेरा यह खयाल रहा कि शिक्षक ही विद्यार्थियों की पाठ्य-पुस्तक है । शिक्षकों ने पुस्तकों द्वारा मुझे जो-कुछ या उसका बहुत थोड़ा अंश मुझे आज याद है; परंतु जबानी शिक्षा जिन लोगों ने दी है वह झाज भी याद रह गई हैं । बालक अखिके द्वारा जितना अहण करते हैं उससे अधिक की सुना हुआ, और हो भी थोड़े परिश्रमले ग्रहण कर सकते हैं। मुझे याद नहीं कि बालकको में एक भी पुस्तक शुरूने आखीर पढ़ाई हो । मैंने तो खुद जो-कुछ बहुतेरी पुस्तकों को पढ़कर हजम किया था वही उन्हें अपनी भाषामें बताया और में मानता हूं कि वह उन्हें आज भी याद होगा । मैंने देखा कि पुस्तकर पाया हुआ याद रखने उन्हें दिक्कत होती श्री; परंतु मे जवानों की हु। याद रखकर वे मुझे फिर सुना देते थे । पुस्तक

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