सत्य के प्रयोग/ असत्य-रूपी जहर

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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वहां विवाहितके लिए विद्यार्थी-जीवन नहीं होता। हमारे यहां तो प्राचीन समयमें विद्यार्थीका नाम ही ब्रह्मचारी था। बाल-विवाहकी चाल तो इसी जमानेमें पड़ी है। बाल-विवाहका नामनिशान विलायतमें नहीं। इस कारण वहांके भारतीय नवयुवकको बताते यह शरम मालूम होती है कि हमारा विवाह हो गया है। विवाहकी बात छिपानेका दूसरा मतलब यह है कि यदि यह बात मालूम हो जाय तो जिन कुटुंबोंमें वे रहते हैं उनकी युवती लड़कियोंके साथ घूमने-फिरने और आमोद-प्रमोद करनेकी स्वतंत्रता न मिल पावेगी। यह आमोद-प्रमोद बहुतांशमें निर्दोष होता है और खुद मां-बाप ऐसे मेलजोलको पसंद करते हैं। युवक और युवतियोंमें ऐसे सहवासकी आवश्यकता भी समझी जाती है; क्योंकि वहां तो हरेक नवयुवकको अपनी सह-धर्मचारिणी खोज लेनी पड़ती है। इस कारण जो संबंध विलायतमें स्वाभाविक समझा जा सकता है वही यदि हिंदुस्तानके नवयुवक वहां जाकर बांधने लगें तो परिणाम भयंकर हुए बिना नहीं रह सकता। ऐसे कितने ही भीषण परिणाम सुने भी गये हैं। फिर भी इस मोहिनी-मायामें हमारे नवयुवक फंसे हुए थे। जो संबंध अंग्रेजोंके लिए चाहे कितना निर्दोष हो, पर जो हमारे नजदीक सर्वथा त्याज्य है, उनके लिए वे असत्याचरण पसंद करते थे। मैं भी इस जालमें फंस गया। पांच-छः वर्षसे विवाहित होते हुए और एक लड़केका बाप होते हुए भी मैं अपनेको अविवाहित कहते न हिचका। पर इस 'कुंवारेपन' का स्वाद मैं बहुत न चख पाया। मेरे झेंपूपनने और मौनने मुझे बहुत बचाया। भला जब मैं बात ही नहीं कर सकता था, तो कौन लड़की ऐसी फाजिल होती, जो मुझसे बातचीत करने आती? शायद ही कोई लड़की मेरे साथ घूमने निकलती।

मैं जैसा झेंपू था, वैसे ही डरपोक भी था। वेंटनरमें जैसे घरमें रहता था वहां यह रिवाज था कि घरकी लड़की मुझ जैसे अतिथिको साथ घूमने ले जाय। तदनुसार मुझे मकान-मालकिनकी लड़की वेंटनरके आसपास की सुंदर पहाड़ियोंपर घूमने ले गई। मेरी चाल यों धीमी न थी, परंतु उसकी चाल मुझसे भी तेज थी। मैं तो एक तरह उसके पीछे खिंचता-घसिटता जाता था। वह तो रास्तेमें बातोंके फव्वारे उड़ाती चलती और मेरे मुंहसे सिर्फ कभी 'हां' और कभी 'ना' की ध्वनि निकल पड़ती। मैं बहुत-से-बहुत बोलता तो इतना ही कि– 'वाह कैसा [ ८६ ]
सुंदर!' वह तो हवाकी तरह उड़ती चली जाती और मैं यह सोचता कि कब घर पहुंचेंगे। फिर भी यह कहनेकी हिम्मत न पड़ती कि चलो वापस लौट चलें। इतनेमें ही हम एक पहाड़ीकी चोटीपर आ खड़े हुए। अब उतरें कैसे? मगर ऊंची एडीके बूट होते हुए भी यह २०-२५ वर्षकी रमणी बिजलीकी तरह नीचे उतर गई और मैं शर्मिन्दा होकर यह सोच ही रहा हूं कि कैसे उतरें। वह नीचे उतरकर कहकहा लगाती है और मुझे हिम्मत दिलाती है। कहती है- 'ऊपर आकर हाथ पकड़कर नीचे खींच ले चलूं?' मैं अपनेको ऐसा बोदा कैसे साबित करता? अंतको सम्हल-सम्हलकर पैर रखता और कहीं-कहीं बैठता हुआ नीचे उतरा। इधर वह मजाकमें 'शा...बाश' कहकर मुझ शरमाये हुएको और भी शर्मिन्दा करने लगी। मैं मानता हूं कि इस तरह मजाकमें शर्मिन्दा करनेका उसे हक था।

परंतु हर जगह मैं इस तरह कैसे बच सकता था? ईश्वरको मंजूर था कि असत्यका जहर मेरे अंदरसे निकल जाये। वेंटनरकी तरह ब्रायटन भी समुद्रतटपर हवाखोरीका मुकाम है। वहां मैं एक बार गया। जिस होटलमें ठहरा था, वहां एक मामूली दरजेकी अच्छी हैसियतवाली विधवा बुढिया घूमने आई थी। यह मेरे पहले सालकी बात है- वेंटनरके पहले की घटना है। यहां भोज्य पदार्थोके नाम फ्रेंच भाषामें लिखे हुए थे। मैं उन्हें नहीं समझ पाया बुढ़िया और मैं एक ही मेजपर बैठे हुए थे। बुढ़ियाने देखा कि मैं अजनबी हूं और कुछ दुविधामें हूं। उसने बात छेड़ी, तुम अजनबी मालूम होते हो? किस फिक्रमें पड़े हो? तुमने खानेके लिए अबतक कुछ नहीं मंगाया? मैं खानेके पदार्थोंकी नामावली पढ़ रहा था और परोसनेवालोंसे पूछनेका विचार ही कर रहा था। मैंने इस भली देवीको धन्यवाद दिया और कहा- "ये नाम मेरी समझ में नहीं आते। मैं अन्नाहारी हूँ और मैं जानना चाहता हूं कि इनमें कौन-सी चीजें मेरे कामकी हैं?"

यह देवी बोली- "तो लो, मैं तुम्हारी मदद करती हूं और तुम्हें बताये देती हूं कि इनमेंसे कौन-कौन सी चीजें ले सकते हो।"

मैंने उसकी सहायता सधन्यवाद स्वीकार की। यहांसे जो परिचय उसके साथ हुआ, सो मेरे विलायत छोड़नेके बाद भी बरसों कायम रहा। उसने [ ८७ ]
लंदनका अपना पता मुझे दिया और हर रविवारको अपने यहां भोजनके लिए निमंत्रित किया था। इसके सिवा भी जब-जब अवसर आता मुझे बुलाती। चाहकर मेरी शरम तुड़वाती। युवती स्त्रियोंसे पहचान करवाती और उनके साथ बातें करनेके लिए ललचाती। एक बाई उसीके यहां रहती थी। उसके साथ बहुत बातें करवाती। कभी-कभी हमें अकेले भी छोड़ देती।

पहले-पहल तो मुझे यह बहुत अटपटा मालूम हुआ। सूझ ही न पड़ता कि बातें क्या करूं। हंसी-दिल्लगी भी भला क्या करता, पर वह बाई मेरा हौसला बढ़ाती। मै इसमें ढलने लगा। हर रविवारकी राह देखता। अब तो उसकी बातोंमें भी मन रमने लगा।

इधर बुढ़िया भी मुझे लुभाये जाती। वह हमारे इस मेल-जोलको बड़ी दिलचस्पीसे देखती। मै समझता हूं उसने तो हम दोनोंका भला ही सोचा होगा।

अब क्या करूं? अच्छा होता यदि पहलेसे ही इस बाईसे अपने विवाह की बात कह दी होती। क्योंकि फिर भला वह क्यों मुझ-जैसेके साथ विवाह करना चाहती? अब भी कुछ बिगड़ा नहीं। समय है, सच कह देनेसे अधिक संकटमें न पडूंगा।' यह सोचकर मैंने उसे चिट्ठी लिखी। अपनी स्मृतिके अनुसार उसका सार नीचे देता हूं—

'जबसे ब्रायटनमें आपसे भेंट हुई, तबसे आप मुझे स्नेहकी दृष्टिसे देखती आ रही हैं। मां जिस प्रकार अपने बेटेकी सम्हाल रखती है उसी प्रकार आप मेरी सम्हाल रखती हैं। आपका खयाल है कि मुझे विवाह कर लेना चाहिए और इसलिए आप युवतियोंके साथ मेरा परिचय कराती हैं। इसके पहले कि ऐसे संबंधकी सीमा और आगे बढ़े, मुझे आपको यह कह देना चाहिए कि मैं आपके प्रेमके योग्य नहीं। मैं विवाहित हूं और यह बात मुझे उसी दिन कह देना चाहिए थी, जिस दिनसे मैं आपके घर आने-जाने लगा। हिंदुस्तानके विवाहित विद्यार्थी यहां अपने विवाहकी बात जाहिर नहीं करते, और इसीलिए मैं भी उसी ढर्रेपर चल पड़ा; पर अब मैं महसूस करता हूं कि मुझे अपने विवाहकी बात बिलकुल ही न छिपानी चाहिए थी। मुझे तो आगे बढ़कर यह भी कह देना चाहिए कि मेरी शादी बचपनमें ही हो गई थी और मेरे एक लड़का भी है। यह बात तो मैंने आपसे अबतक छिपा रक्खी थी, इसपर मुझे बड़ा पश्चात्ताप हो रहा है। परंतु अब भी ईश्वरने मुझे [ ८८ ]
सत्य कह देनेकी हिम्मत दे दी, इसके लिए साथ ही मुझे आनंद भी हो रहा है। आप मुझे माफ तो कर देंगी न? जिस बहनसे आपने मेरा परिचय कराया है, उनके साथ मैने कोई अनुचित व्यवहार नहीं किया है, इसका मै आपको विश्वास दिलाता हूं। मैं अपनी स्थितिको अच्छी तरह जानता था, अतएव मैं तो कोई अनुचित बात कर ही नहीं सकता था; पर आप चूंकि उससे नावाकिफ थीं इसलिए आपकी यह इच्छा होना स्वाभाविक ही है कि मेरा विवाह-संबंध किसीके साथ हो जाय। अतः आपके मनमें यह विचार और आगे न बढ़े, इसलिए भी मुझे सच बात आपपर अवश्य प्रकट कर देनी चाहिए।

"यह पत्र मिलनेके बाद यदि आप अपने यहां आनेके योग्य मुझे न समझें तो मुझे बिलकुल बुरा न मालूम होगा। आपकी इस ममताके लिए तो मैं सदाके लिए आपका ऋणी हो चुका हूं। इतना होने पर भी यदि आप मुझे अपनेसे दूर न हटावें, तो बड़ी प्रसन्नता होगी। यदि अब भी आप मुझे अपने यहां आने योग्य समझेंगी, तो इसे मैं आपके प्रेमका एक नया चिह्न समझूंगा और उसके योग्य बननेके लिए प्रयत्न करता रहूंगा।"

यह पत्र मैंने चट-पट नहीं लिख डाला। न जाने कितने मसविदे बनाये होंगे। पर हां, यह बात जरूर है कि यह पत्र भेज देनेपर मेरे दिलसे बड़ा बोझ उतर गया। लगभग लौटती डाकसे उस विधवा मित्रका जवाब आया। उसमें लिखा था—

"तुमने दिल खोलकर जो पत्र लिखा, वह मिल गया। हम दोनों पढ़कर खुश हुए और खिलखिलाकर हंसे। ऐसा असत्याचरण तो क्षंतव्य ही हो सकता है। हां, यह अच्छा किया जो तुमने अपनी सच्ची कथा लिख दी। मेरे निमंत्रणको ज्यों-का-त्यों कायम समझना। इस रविवारको हम दोनों तुम्हारी राह अवश्य देखेंगी। तुम्हारे बाल-विवाहकी बातें सुनेंगी और तुमसे हंसी-दिल्लगी करनेका आनन्द प्राप्त करेंगी। विश्वास रक्खो, अपनी मित्रतामें फर्क न आने पावेगा।"

इस तरह अपने अंदर छिपा यह असत्यका जहर मैने निकाला; और फिर तो कहीं भी आपने विवाह इत्यादिकी बातें करते हुए मुझे पशोपेश न होता।

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