सत्य के प्रयोग/ झेंप-मेरी ढाल

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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परंतु नर-मक्खी कुछ काम नहीं करता- हां, खाता-पीता अलबत्ता रहता है। समितिमें और लोग तो अपने-अपने मत प्रदर्शित करते; पर मैं मुंह सीकर चुपचाप बैठा रहूं- यह भद्दा मालूम होता था। यह बात नहीं कि बोलने के लिए मेरा दिल न होता, पर समझ ही नहीं पड़ता कि बोलूं कैसे? सभी सदस्य मुझे अपनेसे अधिक जानकार दिखाई देते। फिर ऐसा भी होता कि कोई विषय मुझे बोलने योग्य मालूम हुआ और मैं बोलनेकी हिम्मत करने लगता कि इतनेमें ही दूसरा विषय चल निकलता।

बहुत दिनोंतक ऐसा चलता रहा। एक बार समितिमें एक गंभीर विषय निकला। उसमें योग न देना मुझे अनुचित या अन्याय जैसा लगा। चुपचाप मत देकर खामोश हो रहना दब्बूपन मालूम हुआ। मंडलके अध्यक्ष 'टेम्स आयर्न वर्क्स' के मालिक मिस्टर हिल्स थे। वह कट्टर नीतिवादी थे। प्रायः उन्हीं के द्रव्यपर मंडल चल रहा था। समितिके बहुतेरे लोग उन्हींकी छत्रछायामें निभ रहे थे। इस समितिमें डाक्टर एलिन्सन भी थे। इन दिनों संतति-निग्रहके लिए कृत्रिम उपाय काममें लानेकी हलचल चल रही थी। डा॰ एलिन्सन कृत्रिम उपायोंके हामी थे और मजदूरोंमें उनका प्रचार करते थे। मि॰ हिल्सको ये उपाय नीति-नाशक मालूम होते थे। उनके नजदीक अन्नाहारी-मंडल केवल भोजन सुधारके ही लिए नहीं था, बल्कि एक नीति-वर्धक मंडल भी था, और इस कारण उनकी यह राय थी कि डॉ॰ एलिन्सन जैसे समाज-घातक विचार रखनेवाले लोग इस मंडलमें न होने चाहिए। इसलिए डॉ॰ एलिन्सनको समितिसे हटानेका प्रस्ताव पेश हुआ। मैं इस चर्चामें दिलचस्पी लेता था। डा॰ एलिन्सनके कृत्रिम उपायोंवाले विचार मुझे भयंकर मालूम हुए। उनके मुकाबलेमें मि॰ हिल्सके विरोधको मैं शुद्ध नीति मानता था। मि॰ हिल्सको मैं बहुत मानता था। उनकी उदारताको मैं आदरकी दृष्टि से देखता था। परंतु एक अन्नाहार-वर्धक-मंडलमेंसे एक ऐसे पुरुष का निकाला जाना जो कि शुद्ध नीतिका कायल न हो, मुझे बिलकुल अन्याय दिखाई पड़ा। मेरा मत हुआ कि स्त्री-पुरुष-संंबंध-विषयक हिल्स साहबके विचारोंसे अन्नाहारी-मंडलके सिद्धांतका कोई संबंध न था, वे उनके अपने विचार थे। मंडलका उद्देश्य तो था केवल अन्नाहारका प्रचार करना, किसी नीति-नियमका प्रचार नहीं। इसलिए मेरा यह मत था कि दूसरे कितने ही नीति-नियमोंका [ ८२ ]
अनादर करनेवाले मनुष्यके लिए भी मंडलमें स्थान हो सकता है।

यद्यपि समितिमें और लोग भी मुझ जैसे विचार रखते थे, परंतु इस बार मुझे अपने विचार प्रदर्शित करने की भीतर-ही-भीतर तीव्र प्रेरणा हो रही थी। मगर सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि यह हो कैसे? बोलनेकी मेरी हिम्मत नहीं थी। इसलिए मैंने अपने विचार लिखकर अध्यक्षको दे देनेका निश्चय किया। मैं अपना वक्तव्य लिखकर ले गया। जहांतक मुझे याद है, उस समय लेखको पढ़ सुनानेका भी साहस मुझे न हुआ। अध्यक्षने दूसरे सदस्यसे उसे पढ़वाया। अंतको डा॰ एलिन्सनका पक्ष हारा। अर्थात् इस तरहके इस पहले युद्धमें मैं हारनेवालोंकी तरफ था। परंतु मुझे इस बातसे अपने दिलमें पूरा संतोष था कि उनका पक्ष था सच्चा। मुझे कुछ ऐसा याद पड़ता है कि उसके बाद मैंने समितिसे इस्तीफा दे दिया था।

मेरी यह झेंप विलायतमें अंततक कायम रही। किसीसे यदि मिलने जाता और वहां पांच-सात आदमी इकट्ठे हो जाते, तो वहां मेरी जबान न खुलती।

एक बार मैं वेंटनर गया। मजूमदार भी साथ थे। वहां एक अन्नाहारी घर था, उसमें हम दोनों रहते। 'एथिक्स आव डायट' के लेखक इसी बंदरमें रहते थे। हम उनसे मिले। यहां अन्नाहारको उत्तेजन देनेके लिए एक सभा हुई। उसमें हम दोनोंको बोलनेके लिए कहा गया। दोनोंने 'हां' कर लिया। मैंने यह जान लिया था कि लिखा हुआ भाषण पढ़नेमें वहां कोई आपत्ति न थी। मैं देखता था कि अपने विचारोंको सिलसिलेवार और थोडे़में प्रकट करनेके लिए कितने ही लोग लिखित भाषण पढ़ते थे। मैंने अपना व्याख्यान लिख लिया। बोलनेकी हिम्मत नहीं थी, पर जब पढ़ने खड़ा हुआ तो बिलकुल न पढ़ सका। आंखोंके सामने अंधेरा छा गया और हाथ-पैर कांपने लगे। भाषण मुश्किलसे फुलस्केपका एक पन्ना रहा होगा। उसे मजूमदारने पढ़ सुनाया। मजूमदारका भाषण तो बढ़िया हुआ, श्रोतागण करतल-ध्वनिसे उनके वचनोंका स्वागत करते जाते थे। इससे मुझे बड़ी शर्म मालूम हुई और अपने बोलनेकी अक्षमतापर बड़ा दुःख हुआ।

विलायतमें सार्वजनिक रूपमें बोलनेका अंतिम प्रयत्न मुझे तब करना पड़ा, जबकि विलायत छोड़नेका अवसर आया, परंतु उनमें मेरी बुरी तरह फजीहत [ ८३ ]
हुई। विलायतसे विदा होनेके पहले अन्नाहारी मित्रोंको हॉबर्न भोजनालयमें मैंने भोजनके लिए निमंत्रित किया था। मैंने विचार किया कि अन्नाहारी भोजनालयोंमें तो अन्नाहार दिया ही जाता है; परंतु मांसाहारवाले भोजनालयोंमें अन्नाहारका प्रवेश हो तो अच्छा। यह सोचकर मैंने इस भोजनालयके व्यवस्थापकसे खास तौरपर प्रबंध करके अन्नाहारको तजवीज की। यह नया प्रयोग अन्नाहारियोंको बड़ा अच्छा मालूम हुआ। यों तो सभी भोज भोगके ही लिए होते हैं; परंतु पश्चिममें उसे एक कलाका रूप प्राप्त हो गया है। भोजनके समय खास सजावट और धूम-धाम होती है। बाजे बजते हैं और भाषण होते हैं सो अलग। इस छोटे-से भोजमें भी यह सारा आडंबर हुआ। अब मेरे भाषणका समय आया। मैं खूब सोच-सोचकर बोलनेकी तैयारी करके गया था। थोड़े ही वाक्य तैयार किये थे, परंतु पहले ही वाक्यसे आगे न बढ़ सका। एडिसनवाली गत हुई। उनके झेंपूपनका हाल मैं पहले कहीं पढ़ चुका था। हाउस आव कामंसमें वह व्याख्यान देने खड़ा हुआ। 'मेरी धारणा है', 'मेरी धारणा है', 'मेरी धारणा है'- यह तीन बार कहा; परंतु उसके आगे न बढ़ सका। अंग्रेजी शब्द जिसका अर्थ धारण करना है, 'गर्भधारण' के अर्थमें भी प्रयुक्त होता है। इसलिए जब एडिसन आगे न बोल सका तब एक मसखरा सभ्य बोल उठा- 'इन साहबने तीन बार गर्भ धारण किया, पर पैदा कुछ न हुआ ' इस घटनाको मैंने ध्यानमें रख छोड़ा था, और एक छोटी-सी विनोदयुक्त वक्तृता देनेका विचार किया था। मैंने अपने भाषणका श्रीगणेश इसी कहानीसे किया, पर वहीं अटक गया। जो सोचा था सब भूल गया। और विनोद तथा हास्य-युक्त भाषण करने जाते हुए मैं खुद ही विनोदका पात्र बन गया। 'सज्जनों, आपने जो मेरा निमंत्रण स्वीकार किया इसके लिए मैं आपका उपकार मानता हूं।' कहकर मुझे बैठ जाना पड़ा।

यह झेंपूपन जाकर ठेठ दक्षिण अफ्रीका में टूटा। बिलकुल टूट गया हो सो तो अब भी नहीं कह सकते। अब भी बोलते हुए विचारना तो पड़ता ही है। नये समाजमें बोलते हुए सकुचाता हूं। बोलनेसे पीछा छूट सके तो जरूर छुड़ा लूं। और यह हालत तो आज भी नहीं है कि यदि किसी संस्था या समाजमें बैठा होऊं तो खास बात कर ही सकूं या बात करनेकी इच्छा ही हो।

परंतु इस झेंपू स्वभावके कारण मेरी फजीहत होनेके अलावा और कुछ [ ८४ ]
नुकसान न हुआ- कुछ फायदा ही हुआ है। बोलनेके संकोचसे पहले तो मुझे दुःख होता था; परंतु अब सुख होता है। बड़ा लाभ तो यह हुआ कि मैंने शब्दोंकी किफायत-शारी सीखी। अपने विचारोंको काबूमें रखनेकी आदत सहज ही हो गई। अपनेको मैं यह प्रमाण-पत्र आसानीसे दे सकता हूं कि मेरी जबान अथवा कलमसे बिना विचारे अथवा बिना तौले शायद ही कोई शब्द निकलता हो। मुझे याद नहीं पड़ता कि अपने भााषण या लेखके किसी अंशके लिए शरमिंदा होने या पछतानेकी आवश्यकता मुझे कभी हुई हो। इसके बदौलत अनेक खतरोंसे मैं बच गया और बहुतेरा समय भी बच गया, यह लाभ अलग है।

अनुभवने यह भी बताया है कि सत्यके पुजारीको मौनका अवलंबन करना उचित है। जान-अनजानमें मनुष्य बहुत-बार अत्युक्ति करता है, अथवा कहने योग्य बातको छिपाता है, या दूसरी तरहसे कहता हैं। ऐसे संकटोंसे बचने के लिए भी अल्पभाषी होना आवश्यक हैं। थोड़ा बोलनेवाला बिना विचारे नहीं बोलता; वह अपने हरेक शब्दको तौलेगा। बहुत बार मनुष्य बोलने लिए अधीर हो जाता है। 'मैं भी बोलना चाहता हूं' ऐसी चिट किस सभापतिको न मिली होगी? फिर दिया हुआ समय भी उन्हें काफी नहीं होता, और बोलनेकी इजाजत चाहते हैं, एवं फिर भी बिना इजाजतके बोलते रहते हैं। इन सबके इतने बोलने से संसारको लाभ होता हुआ तो शायद ही दिखाई देता है। हां, यह अलबत्ता हम स्पष्ट देख सकते हैं कि इतना समय व्यर्थ जा रहा है। इसीलिए यद्यपि आरंभमें मेरा झेंपूपन मुझे अखरता था; पर आज उसका स्मरण मुझे आनंद देता है यह झेंपूपन मेरी ढाल था। उससे मेरे विचारोंको परिपक्व होनेका अवसर मिला है। सत्यकी आराधनामें उससे मुझे सहायता मिली।

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असत्य-रूपी जहर

चालीस साल पहले विलायत जानेवालोंकी संख्या अबसे कम थी। उनमें ऐसा रिवाज पड़ गया था कि खुद विवाहित होते हुए भी अपनेको अविवाहित बताते। वहां हाईस्कूल अथवा कालेजमें पढ़नेवाले सब अविवाहित होते हैं।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।